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पिंडनियुक्ति • जहां नियुक्तिकार ने किसी द्वार की संक्षेप में व्याख्या कर दी है, वहां उसी द्वार की यदि विस्तृत व्याख्या करने वाली गाथाएं आई हैं तो वे स्पष्टतया भाष्य-गाथाएं होनी चाहिए, जैसे-४१/१, २, ४४/१-४, ५२/१४, ६४/१-३, ८३/१-५, ८९/१-९, ११६/१-४ आदि। • संवादी अथवा पुनरुक्त गाथाएं एक ही ग्रंथकार की रचना नहीं हो सकतीं। उस ग्रंथ के व्याख्याकार अवश्य अपनी व्याख्या में मूल गाथा के चरण या पाद को अपनी गाथा का अंग बना लेते हैं। जहां कहीं चरण पुनरुक्त हुआ है अथवा संक्षिप्त कथन के बाद उसी विषय का पुनः विस्तार हुआ है तो उन गाथाओं को नियुक्ति के मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है, वे भाष्य-गाथाएं होनी चाहिए। उदाहरणार्थ ८२/१-३ गाथाएं, इनमें ८२ वी गाथा का चतुर्थ चरण तथा ८२/३ का प्रथम चरण शब्दों की दृष्टि से लगभग समान है तथा विषय की दृष्टि से ८२ वी गाथा सीधी ८३ वीं गाथा से जुड़ती है। इसी क्रम में ३१३/१-६, ३१४/१-३, ३१८/१, २, ३२०/१, २ आदि गाथाएं भी भाष्य की होनी चाहिए। • नियुक्ति से भाष्य को पृथक् करने में भाषा-शैली की एकरूपता भी सहायक बनी है। भिक्षाचर्या से सम्बन्धित प्राय: सभी दोषों की व्याख्या नियुक्तिकार ने उसके स्वरूप वर्णन या भेद-प्रभेद के द्वारा की है लेकिन लिप्त दोष में प्रारम्भ में १० गाथाओं में गुरु और शिष्य का संवाद है, ये दसों गाथाएं २९५/१-१० व्याख्यात्मक लगती हैं। • विषय की क्रमबद्धता और पौर्वापर्य भी प्रक्षिप्त अंशों को अलग करने में सहायक बना है। अनेक स्थलों पर विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि इतना अंश अनधिकृत रूप से भाष्यकार या अन्य आचार्य द्वारा बाद में प्रक्षिप्त हुआ है, इसका मूल विषय या गाथा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उन गाथाओं को मूल क्रमांक में न जोड़ने पर भी चालू विषय-वस्तु के क्रम में कोई अंतर नहीं आता। जैसे १६६ वी गाथा के अंतिम चरण में नियुक्तिकार उल्लेख करते हैं कि मालापहृत के ये दोष हैं। बीच में १६६/१, २-इन दो गाथाओं में कथानक का विस्तार है। १६७ में मालापहृत के दोषों का उल्लेख है अतः विषय की दृष्टि से १६६ वीं गाथा १६७ वीं गाथा से जुड़ती है। बीच की दोनों गाथाएं स्पष्टतया भाष्य की प्रतीत होती हैं। इसी प्रकार विषय की दृष्टि से ६८ वी गाथा ६९ वी गाथा से जुड़ती है। बीच की ११ गाथाओं में भाष्यकार ने कूटपाश की उपमा द्वारा आत्मकर्म को समझाया है। ७० वीं गाथा विषय की दृष्टि से ७१ वीं गाथा से सम्बद्ध है। बीच में ७०/१-६-इन छह गाथाओं में व्यञ्जन और अर्थ की चतुर्भंगी तथा आधाकर्म के साथ उसकी तुलना प्रक्षिप्त अथवा भाष्य की व्याख्या होनी चाहिए। • जहां कहीं समान गाथा पुनरुक्त हुई है, वहां गाथा का विषय की दृष्टि से जो क्रम उचित लगा, वहां उस गाथा को मूल नियुक्तिगाथा के क्रमांक में जोड़ा है। दूसरे स्थान पर उस समान गाथा को क्रम में तो रखा है पर मूल नियुक्ति गाथा के क्रमांक में नहीं जोड़ा है।
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