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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
• द्वारगाथा और संग्रहगाथा के बारे में स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि ये निर्युक्ति की हैं अथवा की? क्योंकि भाष्यकार भी विषय को स्पष्ट करने के लिए संग्रह गाथा या द्वारगाथा लिखते हैं। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने द्वारगाथा को निर्युक्तिगाथा माना है ।
नियुक्तिकार का यह भाषागत वैशिष्ट्य है कि वे किसी भी विषय को स्पष्ट करने के लिए संक्षेप में कथा या दृष्टान्त का उल्लेख करते हैं। जहां भी संक्षेप में कथा का संकेत आया है और बाद में उसी कथा का विस्तार हुआ है तो वहां संक्षेप में कथा का संकेत देने वाली गाथा को निर्युक्तिगत माना है तथा विस्तार करने वाली गाथाओं को भाष्यगत । ऐसी गाथाओं को नियुक्तिगत मानने का एक मुख्य कारण यह है कि अनेक स्थलों पर संक्षिप्त कथा का संकेत करने वाली गाथा के बाद टीकाकार 'अथ एनामेव गाथां भाष्यकार: विवृणोति' का उल्लेख करते हैं, स्वयं पिण्डनिर्युक्ति में भी गाथा १९९ में आचार्य संगम एवं दत्त शिष्य की कथा का संकेत है, बाद में दो गाथाओं के लिए टीकाकार ने 'गाथाद्वयेन भाष्यकृद् विवृणोति' का उल्लेख किया हैं। इससे स्पष्ट है कि संक्षिप्त कथा का संकेत करने वाली निर्युक्ति गाथा का भाष्यकार विस्तार करते हैं। ऐसे प्रसंग आवश्यक नियुक्ति आदि नियुक्तियों में भी अनेक स्थलों पर मिलते हैं। इसी प्रकार ७६ वीं गाथा में नियुक्तिकार ने संक्षेप में कथा का संकेत कर दिया है, ७६/१-५ - इन पांच गाथाओं में पुन: इसी कथा का विस्तार हुआ है। इसके अतिरिक्त ९०/१-४, १४४/१-४, १४८/१, २, १६६/१, २, १७९/१, २ आदि गाथाएं भी द्रष्टव्य हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ आदि की चारों कथाओं का संकेत नियुक्तिकार ने २१६ वीं गाथा में कर दिया है अतः २१८/१, २१९/१-१५, २२०/१, २ ये सभी गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए ।
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कहीं-कहीं नियुक्तिकार ने कथा का संक्षेप में उल्लेख नहीं किया है फिर भी कथा से सम्बन्धित गाथाएं भाष्य की संभव लगती हैं । प्रादुष्करण द्वार के प्रारम्भ में कथा का संकेत करने वाली छहों गाथाएं (१३६/१-६) स्पष्टतया भाष्यकार की प्रतीत होती हैं क्योंकि निर्युक्तिकार प्रायः संक्षेप में किसी भी कथा का संकेत करते हैं। इसका दूसरा हेतु यह है कि नियुक्तिकार प्रायः भिक्षाचर्या के दोषों के भेदों का वर्णन करने के बाद उससे सम्बन्धित कथा का संकेत करते हैं।
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एक ही गाथा में संकेतित अनेक कथाओं के बारे में जब टीकाकार एक कथा का विस्तार वाली गाथाओं को निर्युक्ति के रूप में निर्दिष्ट करते हैं तो दूसरी कथा के विस्तार वाली गाथाएं भी भाष्य की होनी चाहिए, उदाहरणार्थ चूर्ण और अन्तर्धान से सम्बन्धित कथा की व्याख्या करने वाली गाथाओं के लिए टीकाकार ने भाष्य गाथा' का उल्लेख किया है तो फिर पादप्रलेपन, योग और मूलकर्म की कथा से सम्बन्धित ७ गाथाएं ( २३१ / २- ४, ६, ७, १०, ११) भी भाष्यकार की होनी चाहिए।
३. पिभा ३५-३७, मवृप. १४२; भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति ।
१. निपीभू पृ. ४१, ४२ ।
२. पिभा ३१, ३२ ।
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