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पिंडनियुक्ति
कहीं-कहीं नियुक्तिकार ने कार्य या कर्ता के वैशिष्ट्य को प्रकट करने हेतु अनेक क्रियाओं का एक साथ प्रयोग कर दिया है; जैसे
भज्जंति व दलेंती, कंडंती चेव तह य पीसंती।
पिंजंती रुंचंती, कत्तंति पमद्दमाणी य॥ उपर्युक्त एक ही गाथा में नियुक्तिकार ने भिन्न-भिन्न क्रियाओं को प्रकट करने वाली आठ धातुओं का प्रयोग कर दिया है।
प्राकृत में नाम धातु का प्रयोग कम होता है लेकिन नियुक्तिकार ने प्रसंगवश नाम धातु का भी प्रयोग किया है; जैसे-वटुंति, वट्ट का अर्थ होता है गोल अत: यहां वटुंति का अर्थ है गोलाकार मोदक की आकृति देना। इसी प्रकार ममायए आदि नाम धातुओं का प्रयोग भी द्रष्टव्य है।
__ नियुक्तिकार ने अनेक स्थलों पर प्रसंगवश व्याकरण सम्बन्धी विमर्श भी प्रस्तुत किया है; जैसेवणि जायण त्ति वणिओ।
अनेक स्थलों पर शब्दों का संक्षिप्त अर्थ या दो शब्दों में भेदरेखा भी स्पष्ट हुई है; जैसे-गा. ७९ में निष्ठित और कृत की भेदरेखा।
नियुक्तिकार ने व्यास और समास-दोनों शैलियों को अपनाया है। अनेक स्थलों पर एक ही विषय या शब्द की विस्तृत व्याख्या की है तो कहीं-कहीं अत्यन्त संक्षेप में विषय का प्रतिपादन हुआ है। संक्षिप्त शैली का निम्न उदाहरण द्रष्टव्य है-कत्तोच्चउ त्ति साली वणि जाणति पुच्छ तं गंतुं। (पिनि ८८/१) इस एक वाक्य में तीन बातों का उल्लेख हो गया है।
नियुक्तिकार का यह शैलीगत वैशिष्ट्य है कि ईप्सित विषय का सर्वांगीण विवेचन करने के लिए पहले गाथा में उन सब विषयों की संक्षिप्त जानकारी देते हैं, जिसे द्वारगाथा कहते हैं, उसके बाद एक-एक द्वार की व्याख्या करते हैं। गा. ६० में आधाकर्म से.सम्बन्धित ९ द्वारों का उल्लेख है फिर १२४ गाथाओं में प्रत्येक द्वार का विस्तार है।
नियुक्तिकार ने अनेक स्थलों पर कार्य-कारण परम्परा को प्रस्तुत किया है, जैसे-दर्शन और ज्ञान से चारित्र का उद्गम होता है, इन दोनों की शुद्धि से चारित्र शुद्ध होता है, चारित्र से कर्म-शुद्धि होती है तथा उद्गम-शुद्धि से चारित्र-शुद्धि होती है।
छंद की दृष्टि से नियुक्तिकार ने कहीं कहीं शब्दों का संक्षेपीकरण और मात्रा का हस्वीकरण भी किया है-जीवं - जियं, वेयणा - वियणा आदि।
३. पिनि ५७/५।
१. पिनि २६७। २. पिनि २०८।
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