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सिरि भय भूदयाल मा
विदियो दिदिधात्विात जितीय दिलिप्राधिकारी
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मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : प्राकृत ग्रन्थांक-५
सिरि भगवंत भूदबलि भडारय पणीदो
महाबंधो [ महाधवल सिद्धान्त-शास्त्र]
विदियो ट्ठिदिबंधाहियारो [ द्वितीय स्थितिबन्धाधिकार ]
हिन्दी अनुवाद सहित
पुस्तक ३
सम्पादन-अनुवाद
पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री
भारतीय ज्ञानपीठ द्वितीय संस्करण : १६६६ D मूल्य : १४०.०० रुपये
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भारतीय ज्ञानपीठ
(स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि. सं. २४७०, विक्रम सं. २०००, १८ फरवरी, १६४४)
स्व० पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित
एवं उनकी धर्मपत्नी स्व० श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनका मूल और यथासम्भव अनवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी
इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं।
ग्रन्थमाला सम्पादक (प्रथम संस्करण)
डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ. ने. उपाध्ये
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११०००३
मुद्रक : आर.के. ऑफसेट, दिल्ली-११० ०३२
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित
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Moortidevi Jain Granthamala : Prākrita Grantha No. 5
MAHABANDHO [ Second Part : Sthiti-bandhādhikāra ]
of
Bhagvān Bhutabali
Vol. III
Edited and Translated by Pt. Phoolchandra Siddhantashastri
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BHARATIYA JNANPITH
Second Edition : 1999 Price : Rs. 140.00
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BHARATIYA JNANPITH
Founded on Phalguna Krishna 9, Vira N. Sam. 2470⚫ Vikrama Sam. 2000. 18th Feb. 1944
MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA
Founded by
Late Sahu Shanti Prasad Jain
In memory of his late Mother Smt. Moortidevi
and
promoted by his benevolent wife
late Smt. Rama Jain
In this Granthamala Critically edited Jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts available in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc., are being published in the respective languages with their translations in modern languages. Also
being published are
catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies, art and architecture by competent scholars, and also popular Jain literature.
General Editors (First Edition)
Dr. Hiralal Jain & Dr. A.N. Upadhye
Published by Bharatiya Jnanpith
18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003
Printed at R.K. Offset, Naveen Shahdara, Delhi 110 032
All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith
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Editorial Note
In the great realm of knowledge that has come down from Tīrthankara Mahāvīra and preached by Gautama Ganadhara, Bhagawant Bhūtabali explained the philosohical subject-matter of Karma-bandha in Sauraseni Prākrit language in seven volumes. It is an established fact that Mahābandho known as Mahādhavala is the sixth khanda of Satkhandāgama, and that is the integral part of Āgamas. This is the third volume of luminous Siddhanta text.
It is a great pleasure to put forth this classic, well edited and translated in Hindi by Pt. Phoolchandra Siddhantashastri. It is my duty and pious work to point out that a few changes have been made in this volume.
In this edition there is a word ched (Kādavvam) that occurs in several places. The translation is given as 'would say' or 'will be said'. In the text we find some usages, such as OGCI, IGCast, Ca, forcat etc. These convey the simple meaning 'would say'. Here we quote one sentence as follows:
curaft Healui faftaraf ui TG cai" (Vol. III, P. 141). The word ongedi (Kādavvarn) in the text should be chiect, after that it will convey the proper meaning. Therefore, in many places the reading should be shown by giving it in square brackets as the counterpart of the proper reading (heged] for clear understanding. The translation in several places is correct and conveys the meaning 'would say', but the discrepancy is in the text reading.
The other change is related to Prakrit phonology. It has been observed that the Vocalic ě and o in the pronunciation are reduced and softened respectively. It was pointed out by some to Patañjali that the followers of the Satyamugri and Ranayaniya schools among Sāmavedins uttered ě and ů, and hence they deserved to be accepted as the short counterparts of ě and respectively; they were again more homorganic (Sansthāntara) than i and u which were enjoyed by Patañjali (1.1.48). Although Patanjali answered by saying that it was merely a stylistic peculiarity on the part of the reciters and that an e or ano was not to be expected either in the Vedic or in the secular speech. Yet it appears that there was this tendency in the pronunciation of a section of speakers at the time. This was a peculiarity of the Prakrit Phonology, (Prākrit Prakāśa of Vararuci 1.5, Siddhhem. 8.1.78), of. proceedings of the seminar on Prakrit studies 1973, p. 93)
As pointed out by Bhämaha in the commentary of Prākrit Prakāśa that the pronunciation of Deva long is daiva', but when it becomes double, then the pronunciation will also change, and it will be pronounced 'e' (cel.., děvva) for instance, as Vararuci also describes in Prākrit Prakāśa (3.52)
According to Ramsharman in Prākrit Kalpataru (1.1.12) the u of the words of Puskara group i.e. puskara, pustaka, lubdhaka, mukuta, kuthima, tunda and munda becomes o; others add kunda and munda to this group.
In this edition, for the first time, the punctuation mark to show the reduced is used (as khětta, ěkka, põggala etc.) for the correct pronunciation. It is hoped that this will be followed in the publication of Prakrit texts in future also. 26.2.99
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सम्पादकीय
(प्रथम संस्करण 1954 से)
आज से लगभग सवा वर्ष पूर्व स्थितिबन्ध का पूर्व भाग सम्पादित होकर प्रकाश में आया था। यह उसक शेष भाग है। भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से सब तरह की सुविधाएँ प्राप्त होने पर भी इसके सम्पादन में अपने वैयक्तिक कारणों से हमें पर्याप्त समय लगा है इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
श्रीयुत बन्धु रतनचन्द्र जी मुख्तार व बन्धुवर नेमिचन्द्र जी वकील सहारनपुर ' षट्खण्डागम' और 'कषाय- प्राभृत' के विशेष अभ्यासी हैं। श्री रतनचन्द्र जी ने तो एक तरह से गार्हस्थिक झंझटों से अपने को मुक्त ही कर लिया है और आजीविका को तिलांजलि दे दी है। थोड़े बहुत साधन जो उनके पास बच रहे हैं उन्हीं से वे अपनी आजीविका चलाते हैं। जीवन में सादगी और निष्कपट सरल व्यवहार उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है। इस वर्ष दस लक्षण पर्व के दिनों में हम सहारनपुर आमन्त्रित किये गये थे, इसलिए निकट से हमें उनके जीवन का अध्ययन करने का अवसर मिला है। इस आधार से हम कह सकते हैं कि वे घर में रहते हुए भी साधु जीवन बिता रहे हैं। योगायोग की बात है कि इन्हें पत्नी भी ऐसी मिली हुई है जो इनके धार्मिक कार्यों में पूरी साधक है। यों तो दोनों बन्धु मिलकर इन महान् ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं परन्तु श्री रतनचन्द्र जी का अभ्यास तगड़ा है और इन ग्रन्थों के सम्पादन में उनके परामर्श की आवश्यकता अनुभव में आती है वे यह इच्छा तो रखते हैं कि इन ग्रन्थों के प्रकाशन के पहले हमें उनके स्वाध्याय का अवसर मिल जाय तो उत्तम हो और ऐसा करने में लाभ भी है, पर कई कारणों से इस व्यवस्था के जमाने में कठिनाई जाती है। स्थितिबन्ध का अन्तिम कुछ भाग अवश्य ही उन्होंने देखा है और उनके सुझावों से लाभ भी उठाया गया है। आशा है भविष्य में इस सुविधा के प्राप्त करने में सुधार होगा और उनका आवश्यक सहयोग मिलता रहेगा ।
1
श्री रतनचन्द्र जी ने प्रकृतिबन्ध और स्थितिबन्ध के पूर्वभाग का शुद्धि पत्रक तैयार करके हमारे पास भेजा है। उसमें आवश्यक संशोधन करके मुद्रित कर देने में लाभ भी है। किन्तु इधर हमारे मित्र श्रीयुत लाला राजकृष्ण जी देहली के निरन्तर प्रयत्न करने के फलस्वरूप मूडबिद्री से कनडी मूल ताडपत्रीय प्रतियों के फोटो देहली वीरसेवा मन्दिर में आ गये हैं। श्री लाला राजकृष्ण जी ने दौड़-धूप करके यह काम तो बनाया ही है और इसमें उन्हें श्रीयुत बाबू छोटेलाल जी कलकत्ता वालों का भी पूरा सहयोग मिला है। किन्तु सबसे अधिक उल्लेखनीय बात यह है कि लाला राजकृष्ण जी की पत्नी का इन ग्रन्थों के उद्धार कार्य में विशेष हाथ रहा है। वे स्वयं इन महानुभावों के साथ मूडबिद्री गयीं और हर तरह की कमी की पूर्ति में साधक बनीं तभी यह काम हो सका है। अतएव इस भाग के साथ हमने पूर्व भागों का शुद्धिपत्रक नहीं जोड़ा है, क्योंकि इन ग्रन्थों के उत्तर भारत में सुलभ हो जाने से हमारा विचार है कि एक बार प्रकाशित और अप्रकाशित भाग का शान्ति से इन मूल ग्रन्थों के साथ मिलान कर लिया जाय और तब जाकर प्रकाशित भागों में जो कमी रह गयी हो उसे प्रकाश में लाया जाय। हमें विश्वास है कि हमारे साथी हमारे इन विचारों का समर्थन करेंगे।
हमें भारतीय ज्ञानपीठ के सुयोग्य मन्त्री श्रीयुत अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय ने जितनी तत्परता से यह कार्य करने के लिए सौंपा था उतनी तत्परता हम इस काम में दिखा नहीं सके। आशा है वे हमारी इस कमजोरी की ओर विशेष ध्यान नहीं देंगे और जिस तरह अभी तक सहयोग देते आये हैं देते रहेंगे । अन्त में हमें समाज से इतना ही निवेदन करना है कि दिगम्बर परम्परा में इन महान् ग्रन्थों का बड़ा
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महत्त्व है। द्वादशांग वाणी से इनका सीधा सम्बन्ध है। एक समय था जब हमारे पूर्वज ऐसे महान् ग्रन्थों की लिपि कराकर उनकी रक्षा करते थे किन्तु वर्तमान काल में हम उन्हें स्वल्प निछावर देकर भी अपने यहाँ स्थापित करने में सकुचाते हैं। यह शंका की जाती है कि हम उन्हें समझते नहीं तो बुलाकर भी क्या करेंगे। किन्तु उनकी ऐसी शंका करना निर्मूल है। ऐसा कौन नगर या गाँव है जहाँ के जैन गृहस्थ तात्कालिक उत्सव में कुछ-न-कुछ खर्च न करते हों। जहाँ उनकी यह प्रवृत्ति है वहाँ जैनधर्म के मूल साहित्य की रक्षा करना भी उनका परम कर्तव्य है। कहते हैं कि एक बार धार रियासत के दीवान को वहाँ के जैन बन्धुओं ने जैन मन्दिर के दर्शन करने के लिए बुलाया था। जिस दिन वे आने वाले थे उस दिन मन्दिरजी में विविध उपकरणों से खूब सजावट की गयी थी। जिन उपकरणों की धार में कमी थी वे इन्दौर से बुलाये गये थे। दीवान साहब आये और उन्होंने श्री मन्दिरजी को देखकर यह अभिप्राय व्यक्त किया कि जैनियों के पास पैसा बहुत है। अन्त में उन्हें वहाँ का शास्त्रभण्डार भी दिखलाया गया। शास्त्रभण्डार को देखकर दीवान साहब ने पूछा कि ये सब ग्रन्थ किस धर्म के हैं। जैनियों की ओर से यह उत्तर मिलने पर कि ये सब जैनधर्म के ग्रन्थ हैं दीवान साहब ने कहा कि यह जैनधर्म है।
इससे स्पष्ट है कि साहित्य ही धर्म की अमूल्य निधि है। महान् से महान् कीमत देकर भी यदि इसकी रक्षा करनी पड़े तो करनी चाहिए। गृहस्थों का यह परम कर्तव्य है। हम यह शिकायत तो करते हैं कि मुसलिम बादशाहों ने हमारे ग्रन्थों को ईंधन बनाकर उनसे पानी गरम किया किन्तु जब हम उनकी रक्षा करने में तत्पर नहीं होते और उन्हें भण्डार में सड़ने देते हैं या उनके प्रकाशित होने पर उन्हें लाकर अपने यहाँ स्थापित नहीं करते तब हमें क्या कहा जाय? क्या हमारी यह प्रवृत्ति उनकी रक्षा करने की कही जा सकती है? स्पष्ट है कि यदि हमारी यही प्रवृत्ति चालू रही तो हम भी अपने को उस दोष से नहीं बचा सकते जिसका आरोप हम मुसलिम बादशाहों पर करते हैं। शास्त्रकारों ने देव और शास्त्र में कुछ भी अन्तर नहीं माना है। अतएव हम गृहस्थों का कर्तव्य है कि जिस तरह हम देव की प्रतिष्ठा में धन व्यय करते हैं उसी प्रकार साहित्य की रक्षा में भी हमें अपने धन का व्यय करने में कोई न्यूनता नहीं करनी चाहिए। आशा है समाज अपने इस कर्तव्य की ओर सावधान होकर पूरा ध्यान देगी।
हमने इस भाग में सम्पादन आदि में पूरी सावधानी बरती है फिर भी गार्हस्थिक झंझटों के कारण त्रुटि रह जाना स्वाभाविक है। आशा है स्वाध्यायप्रेमी जहाँ जो कमी दिखाई दे उसकी सूचना हमें देने की कृपा करेंगे ताकि भविष्य में उन दोषों को दूर करने में हमें प्रेरणा मिलती रहे।
-फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री
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प्रशस्ति स्थितिबन्धके अन्तमें एक प्रशस्ति पाती है जो इस प्रकार हैयो दुर्जयस्मरमदोत्कटकुंभिकुंभ
संचोदनोत्सुकतरोग्रमृगाधिराजः । शल्यन्त्रयादपगतस्त्रयगारवारिः
संजातवान्स भुवने गुणभद्रसूरिः ॥ १॥ दुर्वारमारमदसिन्धुरसिन्धुरारिः
शल्यत्रयाधिकरिपुस्खयगुप्तियुक्तः । सिद्धान्तवाधिपरिवर्धनशीतरश्मिः
श्रीमाधनंदिमुनिपोऽजनि भूतलेऽस्मिन् ॥ २ ॥ वरसम्यक्त्वद देशसंयमद सम्यग्बोधदत्यन्तभा
सुरहारत्रिकसौख्यहेतुवेनिसिदादानदौदार्यदे- । लुतरदिंगीतने जन्मभूमियेनुतं सानंदविं कर्तुभू
भरमेलुं पोगलुत्तमिर्पदभिमानावीननं सेननं ॥३॥ सुजनते सत्यमोलपु गुणोचति पेंपु जैनमा
गंजगुणमेव सद्गुणविन्यधिक तनगोप्पनूलधमजनिवनेंदु कित्ते सुमदीधरे मेदिनिगोप्पितोब्बे चि
राजसमरूपनं नेगल्द सेनननुगुणप्रधाननं ॥४॥ अनुपमगुणगणदतिब
मन शीलनिदानमेसेक जिनपदसस्को । कनदशिलीमुखि येने मां
तनदिदं मल्लिकब्बे ललनारत्नं ॥ ५॥ जो दुर्जय स्मररूपी मदोन्मत हाथोके गण्डस्थलके विदारण करनेमें उत्सुक सिंहके समान हैं, जिन्होंने तीन शल्योको दूर कर दिया है और जो तीन गारवोंके शत्रु हैं वे गुणभद्रसूरि इस लोकमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुए ॥१॥
जो दुर्वार माररूपी मदविह्वल हाथीके समान हैं तथा जो तीन शल्योंके लिए शत्रुके समान हैं, जो तीन गुप्तियोंके धारक हैं और जो सिद्धान्तरूपी समुद्रको वृद्धिके लिए चन्द्रमाके समान हैं वे श्रीमावनन्दि आचार्य इस भूतलपर हुए ॥ २॥
सच्चरित्र, संयमी, सम्यग्ज्ञानवान्, सबको सुख देनेवाले, दानी, उदार और अभिमानी सेनकी बहुत ही अानन्दसे सभी लोग प्रशंसा करते थे ॥ ३ ॥
सौजन्य, सत्य सद्गुणोंकी उन्नति और जैनमार्गमें रहना इन सद्गुणों से युक्त, स्मरके समान सुन्दर गुण प्रधान सेन नवीन धर्मात्मज कहलाता था ॥ ४ ॥
अनुपम गुणगणयुक्त, सुशील, जिनपदभक्त, स्त्रीरत्न मल्लिकव्वा उसकी पत्नी थीं ॥ ५ ॥
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आ वनितारनद पें
श्रीपंचमियं नोतु
महाबन्ध
पावंगं पोगललरिदु जिनपूजेयना- ।
ना विवद दानदमलिन
भावदोला मल्लिकब्बे पोल्ववरार ॥ ६ ॥
द्यापनमं माडि बरसिं राजान्तमना ।
रूपवती सेनवधू जित
sti श्रीमाधनंदि-यतिपतिगित्तल् ॥ ७ ॥
उस वनितारत्नको जिनपूजाके बारेमें प्रशंसा कौन कर सकता है, उस मल्लिका के समान भक्त कोई थी ही नहीं ॥ ६ ॥
जिन सिद्धान्तको माननेवाली रूपवती उस सेनपत्नीने श्रीपञ्चमीका उद्यापनकर जितक्रोध माघनन्दि यतीश्वरको लिखवाकर यह ( सिद्धान्त ग्रन्थकी प्रति ) दी है ॥ ७ ॥
इस प्रशस्ति में चार व्यक्तियोंका नामोल्लेख सहित गुणकीर्तन किया गया है— गुणभद्रसूरि, श्राचार्य माघनन्दि, सेन और उसकी पत्नी मल्लिकब्बा ।
मल्लिका सेनकी पदी थी। पं० सुमेरुचन्द्रजी दिवाकरने भी प्रथम भागको भूमिकामें यह प्रशस्ति उद्धत की है। उन्होंने सत्कर्मपत्रिका के श्राधारसे 'सेन' का पूरा नाम शान्तिषेण निर्दिष्ट किया है । यह तो स्पष्ट है कि मल्लिकत्रा सेनकी पत्नी थीं । परन्तु गुणधर मुनि और माघनन्दि आचार्यका परस्पर और इनके साथ क्या सम्बन्ध था यह इससे कुछ भी ज्ञात नहीं होता है। मात्र प्रशस्तिके अन्तिम श्लोकसे यह ज्ञात होता है। कि मल्लिकाने श्रीपञ्चमीव्रतके उद्यापनके फलस्वरूप सिद्धान्तग्रन्थको प्रतिलिपि कराकर वह श्री माघनन्दि आचार्यको भेंट की ।
ऐतिहासिक दृष्टि से इस प्रशस्तिका बहुत महत्त्व है अतएव इसकी छानबीन की विशेष आवश्यकता है ।
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विषय
१५ बन्धसन्निकर्ष
कर्षके मेद
उत्कृष्ट सन्निकर्ष
स्वस्थान
परस्थान
जघन्य सन्निकर्ष
अर्थपद
स्वस्थान
उत्कृष्ट भंगविचय
जघन्य भंगविचय
१७ भागाभागप्ररूपणा भागाभाग के दो भेद उत्कृष्ट भागाभाग
जघन्य भागाभाग
५७-११५
११५-२०२
११५-११
११८-१६४
परस्थान
१६४-२०२
१६ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय २०२-२०४
भंगविचयके दो भेद
२०२
१८ परिमाणप्ररूपणा
परिमाण के दो मेद उत्कृष्ट परिमाण
जयम्य परिमाण १६ क्षेत्ररूपणा
क्षेत्रके दो मेद उत्कृष्ट क्षेत्र
जपन्य क्षेत्र
२० स्पर्शनप्ररूपणा
स्पर्शनके दो मेद उत्कृष्ट स्पर्शन
जघन्य स्पर्शन
२१ कालप्ररूणा
काल के दो भेद
उत्कृष्ट काल
जघन्य काल
२२ अन्तरप्ररूपणा
विषय-सूची
पृष्ठ
१-२०२
१
१-११५
१-५७
२०२-२०३
२०३ - २०४
२०४-२०६
२०४
२०४ - २०५
२०५-२०६
२०६-२१३
२०६
२०६ २०६
२०६-२१३
२१३-२१७
२१३
२१३-२१५
२१५-२१७
२१७-२४३
२१७
२१७-२३३
२३३-२४३
२४३-२५६
२४३
२४३-२४६
२४६-२५६
२५६-२६०
विषय
अन्तर के दो भेद
उत्कृष्ट अन्तर
जघन्य अन्तर
२३ भावप्ररूपणा
भावके दो भेद
उत्कृष्ट भाव
जघन्य भाव
२४ अल्पबहुत्य
अल्पत्वके दो मेद
जीव अल्पबहुत्व
जीव अल्पबहुत्व के तीन मेद
उत्कृष्ट जीव अल्पबहुत्व जघन्य जीव अल्पबहुत्व जमन्योत्कृष्ट जीव अल्पबहुत्व स्थिति अल्पबहुत्य
स्थिति अल्पबहुत्व के तीन मेद उत्कृष्ट स्थिति अल्पबहुव जवन्य स्थिति श्रल्पबहुत्व जघम्पोत्कृष्ट स्थिति अल्पबहुत्व भूयः स्थिति अल्पबहुत्व भूयः स्थिति अल्पबहुत्वके दो भेद
स्वस्थान अल्पबहुत्व
उत्कृष्ट
जघन्य
परस्थान अल्पबहुत्व परस्थान अल्पबहुत्वके दो भेद
उत्कृष्ट परस्थान अल्पबहुत्व जघन्य परस्थान अल्पबहुत्व भुजगारबन्ध
भुजगारबन्धके १३ श्रनुयोगद्वार
समुत्कीर्तनानुगम
स्वामित्वानुगम
कालानुगम
अन्तरानुगम
पृष्ठ
"દ
२५६-२५८
२५६-२६०
२६१
२६१
२६१
२६१
२६१
२६१
२६१
२६१
२६१-२६२
२६२-२६३
२६३-२७०
२७० २७०-२७२
२७०
२७०
२७०-२७२
२७२
२७२
२०२-२६२
२७२-२८२
२८३-२६२
२६३-३२३
२६३ २६३-३०२
३०२-३२३ ३२४
३२४-३६३
३२४-३२८
३२८-३३३
३३३-३३६
३३६-१६१
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महाबन्ध
विषय
पृष्ठ
विषय
पृष्ठ
३६१-३६३ ३६०-३६४ ३६४-३६५ ३६५-३६७
३६७
३८०
क्षेत्र
नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम भागाभागानुगम परिमाणानुगम क्षेत्रानुगम स्पर्शनानुगम कालानुगम अन्तगर्नुगम भावानुगम अल्पबहुत्वानुगम पदनिक्षेप पदनिक्षेपके तीन अनुयोगद्वार समुत्कीर्तना स्वामित्व स्वामित्वके दो भेद उत्कृष्ट स्वामित्व जघन्य स्वामित्व जघन्योत्कृष्ट स्वामित्व अल्पबहुत्व अल्पबहुत्वके दो भेद उत्कृष्ट अल्पबहुत्व जघन्य अल्पबहुत्व वृद्धिबन्ध वृद्धिबन्धके १३ अनुयोगदार समुत्कीर्तना
३८०-३८५
३८५ ३८५.३६३
३६४ १६४
३६४ ३६५-४०३
३६५ ३६५-३६८ ३६८-४०२ ४०२-४०३ ४०३-४०४
४०३ ४.३-४०४
४०४
स्वामित्व
४०६-४१६ काल
४१७-४१८ अन्तर
४१८-४४४ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय ४४५-४४६ भागाभाग
४४६-४४० परिमाण
४४८-४५२
४५३.४५५ स्पशन
४५१-४७३ काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व
४७३.४८५ श्रध्यवसान समुदाहार
४८५ अध्यवसान समुदाहारके तीन भेद ४८५ प्रकृति समुदाहार
४८६ प्रकृति समुदाहारके दो भेद
४६ प्रमाणानुगम
४८६ अल्पबहुत्व
४८६-४६४ जीवोंके दो भेद
४८६ अल्पबहुत्वके दो भेद स्वस्थान अल्पबहुत्व
४८६-४६२ परस्थान अल्पबहुत
४६२-४६४
४०४
४०५-४०६
जीवसमुदाहार
४६४.४६५
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सिरिभगवंतभूदबलिभडारयपणीदो
महाबंधो विदियो विदिबंधाहियारो
बंधसरिणयासपरूवणा १. सएिणयासं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सं दुविध-सत्थाणं परस्थाणं च । सत्थाणे पगर्द । दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० आभिणिबोधिगणाणावरणीयस्स उक्कस्सहिदिबंधंतो चदुएणं णाणावरणीयाणं णियमा बंधगो। तं तु० 'उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि कादण याव पलिदोवमस्स असंखेन्जदिभागहीणं बंधदि । एवं चदुरणं णाणावरणीयाणं पवरणं दंसणावरणीयाणमएएमएणं । तं तु० ।
___ बन्धसन्निकर्षप्ररूपणा १. सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट सन्निकर्ष दो प्रकारका हैखस्थान और परस्थान । स्वस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है। वह दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार झातावरणीय कौका नियमसे बन्ध करनेवाला होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट भी करता है और अनुत्कृष्ट भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट करता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग हीन तक करता है। इसी प्रकार चार शानावरणीय और नौ दर्शनावरणीय कर्मोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह उत्कृष्ट भी करता है और अनुत्कृष्ट भी करता है। यदि अनुस्कृष्ट करता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है।
1. मूलप्रतौ उक्कस्स वा अणुक्कस्स वा इति पाठः ।
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महा बंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
२. सादस्स उक्कसहिदिबंधंतो असादस्स श्रधगो । असाद० तो सादस्स
गो ।
•
३. मिच्छत्त० उक्कस्सहिदिबंधंतो सोलसक० बुं स ० - अरदि-सोग-भय-दुगु यिमा बंधो । तं तु० । एवमण्णमण्णस्स । तं तु० । इत्थिवे० उकस्सट्ठिदिबंधंतो मिच्छत्त-सोलसकसाय-अरदि- सोग-भय-- दुगु ० शियमा बंधगो । गियमा अणु० चदुभागूणं बंधदि । पुरिस० उक्क० हिदिबंधंतो मिच्छत्त - सोलसक० -भय- दुगु ० णि० बं० । यि० अणु दुभागूणं बंधदि । हस्स-रदि० सिया बंधदि सिया अबंधदि । यदि बंधदि तं तु० समयूणमादिं कादूण याव पलिदो ० असं० । अरदि-सोग० सिया बंध- सिया अबंध० । यदि बंध० णियमा अणु० दुभागणं बंधदि । 'हस्स० उक्तस्स ० बंध० मिच्छत्त - सोलसक० -भय-दुगु० लिय० बं० । गिय० अणु० दुभागूणं बंदि । इत्थवे ० सिया बं० सिया अबं० । यदि बंध० गिय० अणु० तिभागूर्ण
२
• हिदि
उक०
०
२. सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव असातावेदनीयका प्रबन्धक होता है । असातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सातावेद - नीयका बन्धक होता है ।
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३. मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करनेवाला होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट भी करता है और अनुत्कृष्ट भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट करता है, तो उसे एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है । इसी प्रकार सोलह कषाय आदि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका श्राश्रय करके परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह उत्कृष्ट भी करता है और अनुत्कृष्ट भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट करता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। स्त्रवेदी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मिध्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करनेवाला होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून बाँधता है । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करनेवाला होता है । जो नियम से अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून बाँधता है। हास्य और रतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् नहीं बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्ध करता है। और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, तो उसे एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् नहीं बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्ध करता है । हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करनेवाला होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्ध करता है । स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियम से अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक १. मूलप्रतौ हस्स रदि उक्कस्स ० इति पाठः ।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयास परूवणा
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सिया अबं० । यदि बं० तं तु० । एस० सिया लिय० अणु० दुभागूणं बंधदि । रदि यि० । तं
अबंधगो ।
बंदि । पुरिस० सिया बं० बं० सिया अ० । यदि बं० तु । एवं रदीए वि ।
४. रियायु० उक्क० हिदिबंधतो तिरिण आयू मणस्स बंधगो ।
एवम एण
५. गिरयग० उक्क० हिदिबं० पंचिंदि० वेउव्वि ० -तेजा० ०क० -हु'डसंठा ० - वेउव्त्रि ०अंगो००-वरण ०४ - णिरयाणु० - अगुरु ०४ - अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछक्क - रिणमि० रिय० बं० । तं तु० । एवं वेडव्वि ० - वेउव्वि ० गो० - रियापु० ।
०
६. तिरिक्खग० उक्क० द्विदिबंध • ओरालि० - तेजा ० - क० -- हुडसं ०-वरण ०४तिरिक्खाणु० गु०४ - बादर- पज्जत्त- पत्तेय० अथिरादिपंच० - णिमि० गिय० । तं तु० । एइंदि० - पंचिंदि० ओरालि० अंगो० - असंपत्त० - आदाउज्जो०० अप्पसत्थ-तसहोता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो वह नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। नपुंसक वेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । रतिका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि श्रनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार रतिके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
४. नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तीन आयुका अबन्धक होता है । इसी प्रकार परस्परमें अबन्धक होता है ।
५. नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है, वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टस्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो वह उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
६. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है । एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तापादिका संहनन, श्रातप, उद्योत, १. मूलप्रतौ अथिरादिपंच णिमि० इति पाठः ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे थावर-दुस्सर० सिया बंध० सिया अबंधः । यदि बंध० । तं तु० । एवं ओरालि०-तिरिक्खाणु०-उज्जो।
७. मणुसगदि० उकस्सहिदिबं० पंचिंदि--ओरालि -तेजा-क० ओरा०अंगो०वएण०४-अगु०-उप०-तस-बादर-पत्तेय-अथिरादिपंच०-णिमि० णिय० बं० । णिय. अणु० चदुभागणं बंधदि । दोसंठा०-दोसंघ-अपज. सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० संखेजदिभागूणं बंधदि। हुडसं०-असंपत्त०-पर०-उस्सा०-अप्पसत्थ०-पज्ज०-दुस्स० सिया बं० सिया अबं०। यदि बं० णिय० अणु० चदुभागूणं बंधदि । मणुसाणुपु० णिय० बं० । तं तु० । एवं मणुसाणुः ।
८. देवगदि उक्क हिदिबंध० पंचिंदि०-वेउन्वि०-तेजा.-क०-वेउवि०अंगो०वएण०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णिय. बं० । णिय० अणु० दुभागृणं बंधदि । समचदु०-देवाणु०-पसत्थ -सुभग-सुस्सर-आदें णि० बं० ! तं तु० । थिर-सुभ-जस० अप्रशस्त विहायोगति, प्रस, स्थावर और दुस्वरका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो वह उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। इसी प्रकार औदारिक शरीर, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इन प्रकृतियोंके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
७. मनुष्यगतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, प्रस, बादर, प्रत्येकशरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है , वह नियमसे अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून बाँधता है। दो संस्थान, दो संहनन और अपर्याप्त इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है,तो नियमसे संख्यातवाँ भाग न्यून वाँधता है । हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, परघात, उच्छास, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त और दुस्वर इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट चार भाग न्यूनका बन्धक होता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो वह उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक बाँधता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
८. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रसचतुष्क और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । वह नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यनका बन्धक होता है। समचतरस्र संस्थान, देवगत्यानपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेय इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका
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उक्कस्ससत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा
सिया बं० सिया अवं० । यदि वं० तं तु० । अथिर असुभ अजस० सिया बं० सिया अ० । यदि बं० यि० अणु दुभागूणं बंधदि । एवं देवाणुपु० ।
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६. एइंदियस्स उक्क० द्विदिबंध • तिरिक्खग० ओरालि ० तेजा ० क ० - हुडसं ० वरण०४ - तिरिक्खाणु० गु० ४ थावर - बादर - पज्जत्त - पत्ते ० -अथिरादिपंच० - णिमि० पिय० बं० । तं तु० । आदाउज्जो ० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० । तं तु० । एवं आदाव थावर० 1
१०. बीइंदि०. उक० हिदिवं ० तिरिक्खग० ओरालि० - तेजा ० क ०- - हुड ०ओरालि० अंगो०- संपत्त० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगु० - उप०-तस०- बादर-पत्ते ०अथिरादिपंच० - मि० पिय० बं० । अणु संखेज्जदिभागूणं बंधदि । पर०उस्सा ०-उज्जो ० - अप्पसत्थ० - पज्ज' ० - अपज्ज० - दुस्सर सिया बं० 1 तं तु० । असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक बाँधता है । स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एकसमय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक बाँधता है । अस्थिर, अशुभ और यशःकीर्तन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यूनको बन्धक होता है । इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
९. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो वह नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। श्रातप और उद्योत इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो वह नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक बाँधता है । इसी प्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियोंके आश्रय से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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१०. द्वीन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । वह अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। परघति, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वर, इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । किन्तु यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका १. मूलप्रतौ पज० दुस्सर अपज्ज० साधार० सिया इति पाठः । २. मूलप्रतौ तं तु णा० दं० सिया
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे एवं तीइं०-चदुरि ।
११. पंचिंदि० उक्क० हिदिवं. तेजा-क-हुडसं०-वएण-४-अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि० णिय० । तं तु । णिरय-तिरिक्खगदिओरालि०-उचि०-ओरालि०-वेउव्वि०अंगो०-असंपत्त०-दो-प्राणु०-उजो सिया बं० सिया अब । यदि बं० तं तु० । एवं तस० ।
१२. आहार० उक्क हिदिवं० देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा०-क०-समचदु०वेउवि अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ-तस०४-थिरादिछ०-णि बं । णि० अणु० संखेजगुणहीणं बंधदि । आहार अंगो० णिय० । तं तु० । तित्थय० सिया बं० सिया अवं० । यदि बं० णि अणु० संखेन्जगुणहीणं बंधदि । एवं आहारअंगोवं० ।
बन्धक होता है,तो वह उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यूनतक बाँधता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
११. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर,हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर अादि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है।वह उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है,तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। नरकगति, तिर्यश्चगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है,तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है; यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है,तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। इसी प्रकार त्रस काय प्रकृतिके सन्बन्धसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१२. आहारक शरीरको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरु लघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । आहारक प्राङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है।वह उत्कृष्ट भो बाँधता है और उनुत्कृष्ट भी वाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका संख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुण हीन बाँधता है। इसी प्रकार पाहारक आङ्गोपाङ्गके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। बं० सिया अबं. यदि बं० णिय० अणु० संखेनदिभागू० । अपज. सिया बं० सिया अवं. यदि बतं तु । एवं तीइंदि० इति पाठः ।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
उक० डिदि ०
१३. तेजा ० कम्मइ० - इंडसं ० - वरण ०४ - अगु०४- बादरपज्जत्त - पत्ते ० अथिरादिपंच० - णिमि० णिय० । तं तु० । णिरयगदि-तिरिक्खग०एइंदि० - पंचिंदि० - दोसरीर दोअंगो० - असंपत्त० - दोआणु० - आदाउज्जो तस थावर - दुस्सर० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० । तं तु० । तेजइगभंगो कम्मइ० - हुडसं ०-वरण ०४ - अगु०४ - बादर- पज्जत्त- पत्ते ० अथिरादिपंच० - णिमि०त्ति ।
०-अप्पसत्थ०-
१४. समचदु० उक्क० द्विदिवं० पंचिदि० -तेजा० क० वरण ०४ - अगु०४-तस०४णि० गिय० । अणु० दुभागूगं० । तिरिक्खग ० - दोसरी० - दो अंगो० असंप० - तिरिक्खाणु ० - उज्जो०० - अप्पसत्थ० अथिरादिछ० सिया बं० सिया अव० । यदि वं० यिमा ० ० दुभागणं० । मणुसगदिदुगं सिया बं० सिया अ० । यदि बं० शि० अणु० तिभागूर्ण बं० । देवादि वज्ज० देवाणु ०-पसत्थ० - थिरादिछक्क
१३. तैजसशरीर की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। वह उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो नियम से उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक बाँधता है। नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पञ्चेन्द्रियजाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, दो श्रानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, और दुःखर प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है, यदि बन्धक होता है तो उत्कृट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो नियमसे उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक बाँधता है । इसी प्रकार तैजसशरीर के समान कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण प्रकृतियोंके आश्रय से सन्नि कर्ष जानना चाहिए ।
१४. समचतुरस्र प्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्धकरनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। वह अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्ध करता है । तिर्यञ्चगति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि छह प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् वन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यूनका वन्ध होता है । मनुष्यगति द्विकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका वन्ध करता है । देवगतिको छोड़कर देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि छहका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है, तो नियमसे एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। चार संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक १. मूलप्रतौ तेजाक० उक्क० इति पाठः । २. मूलप्रतौ शिमि० णत्थि इति पाठः ।
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० तं तु० । चदुसंघ० सिया बं० सिया अव० । यदि बं० णि. अणु० संखेजदिभागणं बं० । एवं पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदेंज।
१५. णग्गोद० उक्क हिदिवं पंचिंदि-ओरालि-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-वएण०४-अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि० णिय० बं० । णि० अणु० संखेजदिभागूणं । तिरिक्ख-मणुसग०-चदुसंघ-दोआणु०-उज्जो० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० णिय. अणु० संखेजदिमागणं बं० । वजणारा सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० तं तु० । एवं वज्जणारायण । णवरि दो गदि-चदुसंठा०-दोआणु०-उज्जो सिया बं. सिया अबं० । यदि बं० णिय० अणु० संखेजदिभागू० । सादि० एवं चेव । णवरि पारायणं सिया० । तं तु । एवं पारायणं ।
१६. खुज्जसंठाणं उक्क०हिदिवं० तिरिक्खग०-पंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क०ओरालि०अंगो०-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ०होता है। इसी प्रकार प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और प्रादेय प्रकृतियोंके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१५. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है, वह नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार संहनन, दो आनुपूर्वी, और उद्योत प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यन स्थितिका बन्धक होता है। वज्रनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है,तो नियमसे एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वज्रनाराचसंहननके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि दो गति, चार संस्थान, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है,तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार स्वाति संस्थानके आश्रयसे सन्निकर्प जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि वह नाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट बन्धक भी होता है और अनुत्कृष्ट बन्धक भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है,तो एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नाराचसंहननके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१६. कुब्जक संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग
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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
लिमि० यि० संखें० भागू० । दोसंघ० उज्जो ० सिया वं० सिया अ० । [ यदि बं० ०] संर्खेज्ज०भागू० । श्रद्धणारा० सिया । तं तु० । एवं श्रद्धणारा० । एवं वामरण० । वरि असंपत्त० सिया० संखेज्ज० भागू० । खीलिय० सिया बं० । तं तु० । एवं० खीलिय० ।
१७. ओरालि० अंगो० उ० द्वि०बं० तिरिक्खग०-पंचिंदि०-ओरालि० - तेजा०क०-हुंंडसं०-असंप०-वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४ - पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ०लिमि० लिय० वं । तं तु० । उज्जो० सिया० । तं तु० | एवं असंप० ।
१८. वज्जरि० उक० द्विदिवं पंचिदि० ओरालि० -तेजा० क० - ओरालि० अंगो०-वरण ०४ - अगु०४-तस०४ णिमि० लिय० वं० । णि० अणु० दुभागू० । तिरिक्खगदि हुड० - तिरिक्खाणु० उज्जो० - अप्पसत्थ० अथिरादिछ० सिया बं० सिया न्यून स्थितिका बन्धक होता है । दो संहनन और उद्योत प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट बन्धक भी होता है और अनुत्कृष्ट बन्धक भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट बन्धक होता है, तो नियमसे एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार वामन संस्थान के आश्रय से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक है, तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यून से लेकर एल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार कीलक संहननके श्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१७. औदारिक आङ्गोपाङ्गकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, श्रसम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। वह उत्कृष्ट भी बाँधता है और त्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यून से लेकर पल्या असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योत प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार सप्राप्तासृपाटिका संहननके आश्रयसे सन्निकर्षं जानना चाहिए ।
१८. वज्रर्षभनाराचकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, चतुष्क और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति और अस्थिर आदि छह प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
बं० । यदि बं० पिय० अ० दुभागू० । मणुसग ०- मणुसाणु० सिया बं० सिया बं० | यदि बं० गिय० अ० तिभागू० । समचदु०-पसत्थ० - थिरादिछ० सिया बं० सिया बं० । यदि बं० । तं तु० । चदुसंठा० सिया वं० सिया अव० | यदि वं० रियमाणु संखेज्जदिभागू० ।
१६. उज्जो० उक्क० हि० बं० तिरिक्खग० ओरालि ०-तेजा० क० - हुंड०aur०४ - तिरिक्खाणु० गु०४-वादर-पज्जत- पत्ते ० -- अथिरादिपंच० - णिमि० णि० बं० । तं तु० । एइंदि० - पंचिंदि० ओरालि० अंगो० - असंप ० - अप्पसत्थ० -तस०-थावर-दुस्सर० सिया बं० सिया अवं० । यदि बं० तं तु० ।
I
२०. अप्पसत्थ० उक्क० हिदि० बं० अगु०४-तस०४- अथिरादिछ० - णिमि० लिय०
पंचिदि०-तेजा० क० - हुंड० -वरण ०४बं० । तं तु० । गिरयगदि - तिरिक्ख
कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियम से अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और स्थिर श्रादि छह प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । चार संस्थानोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है ।
१९. उद्योत प्रकृतिक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । एकेन्द्रियजाति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त - विहायोगति, त्रस, स्थावर और दुःस्वर प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित्
बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है ।
२०. प्रशस्त विहायोगतिकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगति, तिर्यञ्चगति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त विहायोगति, दो आनुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट भी बाँधता
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उक्कस्ससत्थाणबंधसणिया सुपरूवणा
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गदि- दोसरी० - दोअंगो० -अप्पसत्थ० - दोश्राणु० -उज्जो० सिया बं० सिया अवं० । यदि ० । तं तु० । एवं दुस्स० । २१. सुहुम उक्क० हिदि ००
अ०
तिरिक्खग० - एइंदि० - ओरालि० - तेजा ० क ०हुडसं० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु ० गु० - उप० -थावर ० अथिरादिपंच० - णिमि० गिय० चं० । अणु संखेज्जदिभागू० । पर० - उस्सास -पज्जत्त - पत्ते ० सिया बं० सिया ० । यदि वं० ०ि अणु संखेज्जदिभागू० । एवं साधारण० । २२. पज्ज० उक्क० हिदिबं० तिरिक्खगदि - ओरालि०- तेजा० क० - हुडसं० वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु० - उप० अथिरादिपंच० - णिमि० यि ० । अणु० संखेज्जदिभागूणं बंधदि एइंदि० - पंचिंदि० ओरालि० अंगो०-तस - थावर - बादरपत्ते० सिया बैं० सिया अवं० । यदि बं० गिय० अणु संखेज्जदिभागूणं बंधदि । बीइंदि० तीइंदि० चदुरिं०-मुहुम-साधार० सिया बं० सिया बं० । यदि बं० । णि० तं तु० ।
O
२३. थिरणाम उक० द्विदिवं ०
तेजा० क० - वरण०४ - अगु० - उप० परघादऔर अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार दुखर प्रकृतिके श्राश्रयसे सन्निकर्ष आनना चाहिए ।
२१. सूक्ष्म प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है, वह अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । परघात, उच्छास, पर्याप्त और प्रत्येक प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमले अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार साधारण प्रकृतिके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए |
२२. अपर्याप्त प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, गुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है, वह अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन बाँधता है । एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, त्रस, स्थावर, बादर और प्रत्येक इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग ही बाँधता है । द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म और साधारण प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधा है।
२३. स्थिर प्रकृतिक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त और निर्माण इन प्रकृ-.
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे उस्सास-पज्ज-णिमि० णिय० बं० अणु० दुभागूणं बंधदि । तिरिक्खगदि-एइंदि० पंचिंदि०-ओरालि०-वेउन्वि०--हुडसं०-दोअंगो--असंप०--तिरिक्वाणु०-आदा-- उज्जो०-अप्पसत्थ० -तस-थावर-बादर-पत्ते०-असुभादिपंच० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० णि० अणु० दुभागूणं० । मणुसगदि-मणुसाणु० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० णिय. अणु० तिभाग० । देवगदि-समचदु०-वजरि० देवाणुपु०-पसत्थ०-सुभादिपंच० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० तं तु० । बेइंदि० तेइं०-चदुरिं०-चदुसंठा-चदुसंघ-सुहुम-साधार० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० णिय० अणु० संखेजदिभागू० । एवं सुभ० ।
२४. जसगि० उक्क०हिब० तेजा-क-वएण०४-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्तेणिमि० णि• बं० । णि० अणु० दुभागू० । तिरिक्वगदि-एइंदि०-पंचिंदि०पोरालि०-वेउवि०-हुडसं०-दोअंगो०--असंपत्त--तिरिक्वाणु०--अदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-तस-थावर-अथिरादिपंच० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० णिय. अणु० दुभागू० । मणुसगदिदुगं सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० णिय० अणु० तियोंका नियमसे बन्धक होता है, जो अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून बाँधता है। तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, हुण्डसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, प्रत्येक और अशुभादिक पाँच इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यन स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । देवगति, समचतुरस्त्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति और शुभादि पाँच इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो नियमसे वह उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, चार संस्थान, चार संहनन, सूक्ष्म और साधारण इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् होता है । यदि बन्धक होता है,तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यूनका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ प्रकृतिके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४. यश-कीर्ति प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, हुण्डसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, प्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर और अस्थिर आदि पाँच इन प्रकृतियों का कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यूनका बन्धक होता है। मनुष्यगतिद्विकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित्
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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तिभागू० । देवगदि- समचदु० - वज्ज रिसभ ०- देवाणु० - पसत्थ० - थिरादिपंच सिया वं० सिया बं० । यदि बं० तं तु ० | वीइं० तीइं ० - चदुरिं ० चदुसंठा ० चदुसंघ० सिया बं० सिया [अ०] । यदि बं० रिय० अणु संखेज्ज दिभागू० ।
२५. तित्थय० उक्क० द्विदिबंधं ० देवगदि-पंचिंदि ० वेउब्वि ० तेजा ० क ० समचदु०वेउव्वि० अंगो० - वरण०४ - देवाणु० - अगु० -४ - पलत्थ० --तस०४ - अथिर-- असुभ -सुभगआदें:- ० - अजस० - णिमि० लिय० । अणु संखेज्जदिगुणहीणं बं० ।
•
२६. उच्चा० उक्क० हिदिबंधं० णीचा० अबंधगो | णीचागो० उक्क० हिदिबं० उच्चा० अधगो |
२७. दाणंतरा० उक्क० द्विदिवं० चदुराणं अंतरा० लिय० । तं तु उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उकस्सादो अणुकस्सा समयुगमादि काढूण पलिदोवमस्स असंखेज्ज • भागू बंधदि । एवं अणोरणस्स । तं तु ।
२८. दसैंण रइएस पंचरणा० - रणवदंसणा ०-सादासा० - मोहरणीय० - छब्बीसअबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यूनका बन्धक होता है । देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि पाँच इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित्
बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका वन्धक होता है । द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, चार संस्थान और चार संहनन इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे मुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है ।
२५. तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, शुभ, सुभग, श्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है ।
२६. उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव नीचगोत्रका प्रबन्धक होता है । नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव उच्चगोत्रका प्रबन्धक होता है । २७. दानान्तरायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार अन्तराय प्रकृतियों का नियम से बन्धक होता है । वह उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पाँचों अन्तरायोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । वह उत्कृष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है यदि अनुत्कृष्ट होता है तो उत्कृष्ट अनुत्कृट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक होता है ।
२८. आदेश से नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, सातावेदनीय, छब्बीस मोहनीय, दो आयु, दो गोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका भङ्ग
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महाबधे ट्ठिदिवंधाहियारे दोआयु०-दोगोद०-पंचंत० अोघं । तिरिक्वग० उक्क हिदि-बं० पंचिंदि०
ओरालि०-तेजा०-क-हुडसं०-ओरालि०अंगो-असंपत्त-वएण०४-तिरिक्खाणु०अगु०४-अप्पसत्थ-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि० णि० बं० । तं तु०। उज्जो. सिया बं० । तं तु० । एवमेदारी सव्वाश्रो एक्कक्केण सह । तं तु । सेसं अोघेण साधेदव्वं । एवं छसु पुढवीसु । सत्तणाए सो चेव भंगो। णवरि मणुसगदि-मणुसाणु०-उच्चा• तित्थयरभंगो । सेसानो तिरिक्खगदिसंजुत्तं कादव्वं ।
२६. तिरिक्वेसु पंचणा-गवदंसणा०-सादासा-मोहणीय छव्वीस०चदुअआयु:-दोगोद-पंचंत. अोघं । णिरयगदि उक्क हिदिवं० पंचिंदि०'. वेउव्विय-तेजा०-क-हुडसं०-वेउव्वि०अंगो०--वएण०४-णिरयाणु-अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि० णि. बं० । तं तु । एवमेदाओ ऍक्कओघके समान है। तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्रातासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चानुयूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करनेवाला होता है जो उत्कृष्ट भी बांधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समयन्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है । उद्योतको कदाचित् बाँधता है और कदाचित् नहीं बाँधता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यन तक बाँधता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर एक-एक प्रकृतिके साथ सन्निकर्ष होता है । ऐसी अवस्थामें इन प्रकृतियोंको उत्कृष्ट भी बांधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। शेष सन्निकर्ष ओघके समान साध लेना चाहिए । इसी प्रकार छह पृथिवियोंमें जानना चाहिए। सातवीं पृथिवीमें यही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग तीर्थंकर प्रकृतिके समान है। यहाँ शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष कहते समय तिर्यश्चगतिके साथ कहना चाहिए ।
२९. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, छब्बीस मोहनीय, चार आयु, दो गोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग अोधके समान है। नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, नरकगत्यानपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे वन्धक होता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। इसी प्रकार परस्पर इन प्रकृतियोंका सन्निकर्ष होता है। जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक बाँधता है। तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव
१. मूलप्रतौ पंचिदिपंचिंदि वेउ-इति पाठः ।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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मेक्कस्स । तं तु० ।
तिरिक्खग० उक० हिदिबं० तेजा ० क० हु डसं ० - वरण ०४
गु० - उप० अथिरादिपंच० रिणमि० णि० बं० । अणु संखेंज्जभागू० । चदुजादि - वामणसंठा०-ओरालि ० अंगो० खीलियसंघ० - असंपत्त० -- प्रादाउज्जो ० थावरसुहुम पज्ज० - साधार० शियमा बं० । तं तु० । पंचिंदि० - हुडसं०-पर०उस्सा० - अप्पसत्थ०-तस०४ - दुस्सर सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० यि० अणु० संखँज्जदिभागूणं० । ओरालि० - तिरिक्खाणु० पियमा ० । तं तु । एवं ओरालि० - तिरिक्खाणु० । सेसं मूलोघं । वरि किंचि विसेसो अट्ठारसियाओ यादव्वा । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त - जोगिणी |
३०..पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज० पंचरणा० णवदंसणा - सादासादा० दीयायु०दोगोद० - पंचंत० श्रघं । मिच्छत्त उक्क० द्विदिबं० सोलसक० एवं स ० - अरदि-सोगभय-दुगुं ० यि० । तं तु० । एवमेदा रणमरणस्स । तं तु० । इत्थि० उक्क० द्विदिबं० मिच्छ० - सोलसक० - भयं दुगु ० लिय० बं० । लिय० तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून बाँधता है । चार जाति, वामन संस्थान, श्रदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, कीलक संहनन, सम्प्राप्तासृप टिका संहनन, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन प्रकृतियों को नियमसे बाँधता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है । पञ्चेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, परघात, उच्लास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क और दुःस्वर इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून बाँधता है । औदारिकशरीर और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका
संख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। इसी प्रकार श्रदारिक शरीर और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय करके सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष सन्निकर्ष मूलोघके समान है । किन्तु कुछ विशेषता है कि अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्धवाली प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंके जानना चाहिए ।
३०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु, दो गोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोध के समान है । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति शोक, भय और जुगुप्सा इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका संख्यातवां भाग न्यून तक बाँधता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । जो उत्कृष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है । किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक होता है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अणु० संखेजदिभागणं० । हस्स-रदि-अरदि-सोग सिया बं० सिया अब । यदि बं० णिय० अणु० संखेजदिभागू० । एवं पुरिस० । हस्स० उक्क. हिदिबं० मिच्छ०-सोलसक०-णवुस-भय-दुगु णिय बं० । णि अणु० संखेज्जदिभागू०। रदि० णियः बं० । तं तु० । एवं रदीए ।।
३१. तिरिक्वगदि. उक्क हि बं० एइंदि०-ओरालि -तेजा-क०-हडसं०. वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच०-णिमि० णि बं० । णि तं तु । एवमेदाओ अण्णमएणस्स । तं तु ।।
३२. मणुसग० उक्क हिदिवं० पंचिंदि--ओरालि०-तेजा-क---हडसं०-- ओरालिअंगो०-असंपत्त-वएण०४-अगु०-उप० -तस-बादर-अपज्ज०-पत्ते-अथिरा-- दिपंच -णिमि० णिय० णिय. बं० । अणु संखेज्जदिभाग० । मणुसाणु० णिय० । तं तु० । एवं मणुसाणुः ।। बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्ध करता है। हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पुरुषवेदके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । हास्य प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट बन्धक भी होता है और अनुत्कृष्ट बन्धक भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिबन्धका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३१. तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अघुरुलघु, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो नियमसे एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है।
३२. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यानुपूर्वीके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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उकस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा ३३. बीइंदि० उक्क हिदिवं तिरिक्खग-ओरालि-तेजा.-क०--हुड०वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-बादर--अपज--पत्तेग०-अथिरादिपंच०-णिमि० णिय० बं० । अणु० संखेज्जदिभागू० । ओरालि अंगो०-असंपत्त०-तस० णिय० । तं तु० । एवं ओरालि अंगो०-असंप०-तस० ।
३४. तीइंदि० उक्क डिदिवं० तिरिक्वग०-ओरालि०--तेजा--क-हुडसं०-- ओरालि०अंगो०-असंप०-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०--उप-तस-बादर-अपज्जपत्तेग०-अथिरादिपंच -णिमि० णिय० वं० । णिय. अणु० संखेज्जदिभागू । एवं चदुरिं०-पंचिंदि।
३५. समचदु० उक्क हिदि-बं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि.अंगो०-वएण०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णिय० बं० । णिय. अणु० संखेज्जदिभागू० । तिरिक्ख-मणुसगदि०-पंचसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-अप्पसत्थ०--थिराथिर-- मुभासुभ-द्भग-दुस्सर-अणादे०-जस-अजस० सिया बं० सिया अबं०। यदि बं० णिय० अणु० संखेज्जदिभागू० । वज्जरिसभ०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदे० सिया
३३. द्वीन्द्रिय जातिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलधु, उपघात, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । औदा रिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन और अस इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन और त्रसकाय इन प्रकृतियोंके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३४. त्रीन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहननन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जाति और पञ्चेन्द्रिय जातिके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३५. समचतुरस्त्रसंस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्खर, अनादेय, यशाकीर्ति और अयशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुखर, और श्रादेय इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है।
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महाबँधे द्विदिबंधाहियारे
·
० सिया अवं । यदि वं० तं तु । एवं वज्जरिसभ ० - पसत्थ० - [ सुभग ]सुसर दे० ।
क ०
३६. गोद० उक० हिदिवं० पंचिंदिय० -ओरालि०-तेजा० अंगो० ०-वरण ०४ - असंपत्त० -तस० ४- दूभग- दुस्सर - अणादे० - रिणमि० रिणय ० वं० । णि० अणु० संखैज्जदिभागू० । तिरिक्खगदि - मणुसगदि चदुसंघ० - दोश्राणु ० उज्जोव०थिराथिर - सुभासुभ-जस० अजस० सिया बं० सिया अवं० । यदि वं० शि० अणु० संखेज्जदिभागू० । वज्जणारा० सिया बं० । तं तु० । एवं वज्जणारायणं । सादीए वि एसेव भंगो । वरि पारायण० तं तु० । एवं पारायणं वि ।
० - ओरालि०
३७. खुज्ज० उक्क० द्विदिवं० तिरिक्खगदि--पंचिंदि० - ओरालिय-तेजा ०--क०ओरालि० अंगो०-वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४ - अप्पसत्थ० -तस०४--दूभग - दुस्सरअणादै० - णिमि० णि० वं० । पि० अणु संखेज्जदिभागू० । दोगदि-दोसंघ० - दो
यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुकृट बाँधता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और श्रदेय प्रकृतियोंके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३६. न्यूग्रोधपरिमण्डल संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, सम्प्राप्ता पाटिका संहनन, त्रस चतुष्क. दुर्भग, दुखर, श्रनादेय और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार संहनन, दो श्रानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है । वज्रनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तककी स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वज्रनाराचसंहननके आश्रय से सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा स्वाति संस्थानका भी यही भङ्ग होता है | इतनी विशेषता है कि इसके नाराचसंहननका उत्कृष्ट बन्ध भी होता है और अनुत्कृट बन्ध भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट बन्ध होता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इन प्रकार नाराचसंहननके आश्रय से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३७. कुब्जक संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, दुर्भग, दुखर, अनादेय और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । दो गति, दो संहनन, दो श्रानुपूर्वी, उद्योत,
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उक्स्स
सत्थाणबंधसण्णियासपरूवरगा
आणु०-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस० सिया बं० सिया अवं० । यदि वं० णिय. अणु० संखेजदिभागू० । अद्धणारा• सिया बं० । तं तु । एवं अद्धणारा० । एवं वामणसंठाणं वि । णवरि खीलियसंघ० सिया बं० । तं तु० । एवं खीलिय० ।
३८. पर० उक्क हिदिवं. तिरिकखग०-एइंदि०-ओरालि -तेजा.-क-हुडसं. वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-थावर-मुहुम-साधारण-दूभग-अणादे०-अजस०-- णिमि णिय. अणु० संखेंज्जदिभाग० । उस्सास-पज्जत्त० णियमा० । तं तु । अथिर-असुभ० सिया बं० संखेज्जदिभागू० । एवं उस्सास-पज्जत्त-थिर-सुभणामाणं ।
३६. आदाव० उक्क हिदिवं० तिरिक्खगदि-एइंदि०-ओरालि०-तेजा--क०-- हुड०-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-थावर-वादर-पज्जत्त--पत्ते--भग--अणादें--
स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है
और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है
और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अर्धनाराचसंहननके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार वामन संस्थानके श्राश्रयसे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार कीलक संहननके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३८. परघातकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । उच्छास और पर्याम इन प्रकृतियों का नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट का भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । अस्थिर अशुभका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार उल्लास, पर्याप्त, स्थिर, और शुभ प्रकृतियोंके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३९. आतपकी उत्कृष्ट स्थितिकी बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय और निर्माण
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
णिमि० णिय० बं० । लिय० अणु० संखेंज्जदिभागू० । थिराथिर - सुभामुभअजस० सिया बं० सिया अनं० । यदि बं० पिय० अ० संखेज्जदिभागू० । जसगि० सिया० । तं तु । एवं उज्जोवं जसमित्तीए वि ।
४०. अप्पसत्थ० उक्क० द्विदिवं० तिरिक्खगदि - बीइंदि०-ओरालिय- तेजा०क० - हुडसं ० - ओरालि० अंगो० - संप ० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४-तस० ४-दूभगअणादे० - रिणमि० णि० बं० । शिय० अणु० संखेज्जदिभागू० । उज्जो ० - थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया बं० । यदि बं० संखेज्जदिभागू० | दुस्सर० पिय० । तं तु । एवं दुस्सर० ।
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४१. बादर० उक्क० हिदिबं० तिरिक्खगदि एइंदि० -ओरालि० -तेजा०-क०० - हुड० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु० - उप० थावर - सुहुम- अपज्जत ०- अथिरादिपंच ० - णिमि० णिय० बं० । णि० अणु संखेज्जदिभागू० ।
४२. मणुस ० - मणुसपज्जत - मणुसिणीसु मणुस पज्जत्त० तिरिक्खगदिभंगो ।
प्रकृतियों का नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातावाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और यशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। यशः कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित्प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार उद्योत और यशः कीर्तिके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
४०. प्रशस्त विहायोगति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, द्वीन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, दुभंग, श्रनादेय और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । दुःस्वर प्रकृतिका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार दुःस्वर प्रकृतिके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
४१. बादर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्मं, अपर्याप्त, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियों का नियम से बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है।
४२. सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें तिर्य
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उक्कस्ससस्थाणबंधसण्णियासपरूवणा णवरि आहारदुगं तित्थयरं प्रोघं ।
४३. देवगदीए देवेसु पाणावर०-दसणावर-वेदणी-मोहणी०-आयुग०गोद०-अंतराइ० ओघं । तिरिक्खग. उक्क०हिदिबं० ओरालि -तेजा-क०-हुड०वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-अथिरादिपंच-णिमि० णि. बं० । णि तं तु० । एइंदि०-पंचिंदि-ओरालि अंगो०-असंपत्तसेव०-आदाउज्जो - अप्पसत्थ०-तस-थावर-दुस्सर० सिया बं० । यदि बं० तं तु । एवमेदाणि ऍक्कमक्कस्स । तं तु० । सेसाणं णेरइयभंगो।
४४. भवण०-वाणवें०-जोदिसि०-सोधम्मीसाण त्ति तिरिक्खगदि० उक्क हिदिबं० एइंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-हुड०-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-यावर-बादरपज्जत्त-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि० णि बं०। णि तं तु । आदाउज्जोव० ञ्चगतिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि आहारक दिक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है।
४३. देवगतिमें देवों में शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय इनके अवान्तर भेदोंका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरु लघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त प्रत्येक, अस्थिर आदि पांच और निर्माण इन प्रकृतियों का नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट का भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है, तो नियमसे उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। एकेन्द्रिय जाति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक प्रांगोपांग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस, स्थावर और दुःस्वर इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है। जो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है।
४४. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँभाग म्यूनतक स्थितिका बन्धकहोता है। आतप और उद्योत प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सिया० । तं तु० । एवमेदाणि ऍक्कमेक्कस्स । तं तु०। पंचिंदिय० उक्क.हिदिवं. तिरिक्खग०-ओरालि०-तेजा-क०-वरण ४-तिरिक्खाणु०--अगु०४-बादर--पज्जत्त-- पत्तेय-अथिरादिपंच-णिमि० णि बं० । णि• अणु० संखेज्जदिभाग० । हुंडउज्जो० सिया० संखेज्जदिभाग ० । वामणसंठा०-खीलियसंघ०-असंपत्त० सिया० । तं तु० । ओरालि०अंगो-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर० णिय० बं० । तं तु० । एवमेदाणि एक्कमेकस्स । तं तु० । सेसाणं देवोघं ।
४५. सणकुमार याव सहस्सार त्ति णिरयोघं । आणद याव णवगेवज्जा त्ति पाणाव०-दसणाव-वेदणी०-गोद०-अंतरा० अोघं । मिच्छ, उक्क हिदिवं० सोल
होता है तो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है और ऐसी अवस्थामें वह जीव उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धुक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। पश्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँभागन्यून स्थितिका बन्धक होता है। हुण्ड संस्थान और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। वामन संस्थान, कीलक संहनन और असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस और दुःस्वरका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्या. तवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इस प्रकार इनका परस्पर एक दूसरेका सन्निकर्ष होता है और तब उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है।
४५. सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवों में सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देवों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, गोत्र और अन्तरायके अवान्तर भेदोंका भङ्ग ओघके समान है। मिथ्यात्वकी
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा सक०-णस०-अरदि-सोग-भय-दुगु० णिय० । तं तु. । एवमेदाओ एकमेक्कस्स । तं तु० । इत्थि० उक्त हिदिबं० मिच्छ०-सोलसक०-अरदि-सोग-भय-दुगु णिय. बं० । णि० अणु० संखेज्जदिभागू० । पुरिस० उक्क हिदिवं० मिच्छ०-सोलसक०भय-दुगु णिय० बं० । णिय० संखेज्जदिभाग० । हस्स०-रदि० सिया। तं तु० । अरदि-सोग० सिया० संखेज्जदिभागू० । हस्स' उक्क हिदिवं० मिच्छ०-सोलसक०भय-दुगुणिय बं० संखेज्जदिभाग। पुरिस० सिया० । तं तु० । इथि०-णवूस० सिया० संखेज्जदिभागू० । रदि० णिय० बं० । तं तु० । एवं रदीए वि० । उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग,न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष होता है और तब इनकी उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय,न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। हास्य
और रतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अरति और शोकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। हास्य की उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट.एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टस्थितिका भीबन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१. मूलप्रती हस्स-रदि उक्क० इति पाठः
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ४६. मणुसगदि० उक्त हिदिवं० पंचिंदि०-ओरालि-तेजा०-कम्मइय०-हुड०ओरालि०अंगो०-असंपत्तसेव०-वएण०४-मणुसाणु०-अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-- अथिरादिछ०-णि० णिय० बं० । णि तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० ।
४७. समचदु० उक्क हिदिवं० मणुसगळ-पंचिंदिय-अोरालिय-तेजा०-क०ओरालि०अंगो०-वएण०४-मणुसाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि० णिय० संखेज्जदिभाग० । वज्जरिसभ०-पसत्थ०-थिरादिछ० सिया० । तं तु० । पंचसंघ-अथिरादिछ० सिया० संखेंज्जदिभागूणं । यात्रो तं तु समचदुरसंठाणेण ताओ समचदुर० सेसभंगाओ । सेसपगदीणं मणुसगदिसहगदाओ णिय० संखेज्जदिभाग०। यात्रो सियाओ बं० ताओ तं तु वा संखेज्जदिभागूणं वा बंधदि । तित्थयरं देवभंगो।
४६. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन. वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, गुरुलघचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति. असचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माणइन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होताहै। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता हैतो नियमसे उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए और तब उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है।
४७. समचतुरस्र संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रस चतुष्क और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। वज्रर्षम नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, और स्थिर आदि छहका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। पांच संहनन और अस्थिर आदिछहका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। यहां पर जिन प्रकृतियोंका समचतुरस्र संस्थानके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है या एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उनका समचतुरस्र संस्थानके समान भङ्ग जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका मनुष्यगतिके साथ नियमसे संख्यातवां भाग न्यून अनु त्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। उसमें भी जिनका कदाचित् बन्ध होता है उनका या तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिबन्ध होता है यासंख्यातवांभाग न्यून स्थितिबन्ध होताहै। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग देवोंके समान है। 1. मूलप्रतौ-हिदिबं० पंचणा० श्रोरा इति पाठः ।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
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४८. अदिस याव सव्वा ति पंचरणा० छदंसणा ० - सादासा०- बारसक ०सत्तणोक० - पंचंत० ओघं । मणुसगदि० उक्क० हिदिबं० पंचिंदि० ओरालि०-तेजा० क०समचदु० --ओरालि० अंगो० -- वज्जरिसभ० --वरण ०४ - मणुसाणु० - अगु०४-पसत्थ०तस०-४-अथिर-असुभ सुभग सुस्सर आदें - अजस० णिमि० णिय० । तं तु ० । तित्थय० सिया० । तं तु । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु । थिर० उक्क० डिदिबं० मणुसगदि ० यिमा संखेज्जदिभागू० । एवं धुविया सव्वा । सुभ-जस० सिया ० तं तु० । असुभ-अजस०-तित्थय० सिया० संखेज्जदिभागू० बं० । एवं सुभ-जसगित्ति० । ४६. सव्व एइंदि० - सव्वविगलिंदि० तिरिक्ख अपज्जत्तभंगो । वरि वीचारट्ठाखाणि पादव्वाणि भवंति । पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्ता० सव्वपगदीरणं श्रघं ।
४८. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय और पाँच अन्तरायका भङ्ग श्रधके समान है | मनुष्यगतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, श्रदेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातव भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है । जो उत्कृष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट होता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका होता है । स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगतिका नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार सब ध्रुव प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । शुभ और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवां भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ, यशःकीर्ति और तीर्थङ्कर इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी अपेक्षा सन्निकर्ष कहना चाहिए । ४६. सब एकेन्द्रिय और सब विकलेन्द्रिय जीवोंका भङ्ग तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके वीचार स्थान ज्ञातव्य हैं । पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त १. मूलप्रतौ पंचिंदिय-तस अपज्जन्त्ता इति पाठः ।
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महाबंधे दिदिबंधाहियारे पंचिंदियअपज्जत्ता तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचकायाणं 'पज्जत्तापज्जत्ताणं तिरिक्वअपज्जत्तभंगो । णवरि एइंदिय-पंचकायाणं यम्हि संखेज्जदिभागहीणं तम्हि असंखेज्जदिभागहीणं बंधदि । तस-तसपज्जत्ता० अोघं । तसअपज्जत्ता० 'तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि० अोघं । ओरालिकायजोगि० मणुसभंगो।
५०. ओरालियमिस्से देवगदि० उक्क०टिदिबं० पंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०वएण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें -अजस०-णिमि० णिय० । अणु० णि० संखेज्जगुणहीणं०। वेउव्बि०-वेचि अंगो०-देवाणु०णियमा । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु० । एदारो पगदीओ तित्थयरेण सह ऍक्कमेक्कस्स तं तु० कादव्वा । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो।
५१. वेउव्वियका० देवोघं । एवं चेव वेउव्वियमिस्स० । णवरि याओ तं तु. जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है। तथा पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है । पाँच स्थावर काय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में सन्निकर्षका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि सब एकेन्द्रिय और पाँचों स्थावर कायिक जीवोंके, जिनका संख्यातवां भाग हीन बन्ध कहा है,उनका असंख्यातवां भाग हीन बन्ध होता है। त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है । तथा त्रस अपर्याप्तकोंके तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। पाँचों मनोयोगी, पाँचों ववनयोगी और काययोगी जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। तथा औदारिक काययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यों के समान है।
५०. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंथान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयश:कीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होताहै तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अब. न्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इन प्रकृतियोंको तीर्थंकर प्रकृतिके साथ परस्पर उत्कृष्ट स्थितिके बन्धरूपसे और एक समय कम पल्यके असंख्यातवें भाग न्यून तक अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धरूपसे कहना चाहिए। शेष प्रकृतियों का भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है।
५१. वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जो पर
१. मलप्रतौ पजत्ता अपज्जत्ताणं इति पाठः। २. मूलप्रतौ तिरिक्खपज्जत्त इति पाठः ।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा पगदीओ ताओ ऍक्कमेक्कस्स तं तु० । सेसाो संखेज्जदिभागूणा बंधदि ।
५२. आहार-आहारमि० पंचणा-छदसणा०-दोवेदणी-पंचंत० ओघं । कोधसंज० उक्क हिदिवं० तिएिणसंज-पुरिस-अरदि-सोग-भय-दुगु णिय० बं० । तं तु० । एवमेदाओ एक्कमेक्कस्स । तं तु । हस्स० उक्क हिदिवं० चदुसंज--पुरिस०भय-दुगुणिय० संखेज्जदिभागृणं बं० । रदी० णिय । तं तु. । एवं रदीए ।
५३. देवगदि० उक्क हिदिवं. पंचिंदियादिपगदीओ णिय० बं० । तं तु० । तित्थय. सिया० । तं तु० । एवं देवगदिसहगदाओ ऍक्कमेक्कस्स । तं तु० । थिर० स्पर उत्कृष्ट स्थितिबन्धवाली या एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं, उनका यह जीव परस्पर या तो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है या उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनवक अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है और शेषका संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिबन्ध करता है।
५२. श्राहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, दो वेदनीय और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । क्रोध संज्वलनकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष होता है। और तब इनकी उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुत्साका नियमसे बन्धक होता है। जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भागहीनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिके आश्रयसे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
५३. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतकस्थितिका बन्धक होता है । तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगतिके साथ बँधनेवाली प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है। तब यह जीव उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
उक्क० हिदिबं० देवगदिअट्ठावीसं शिय० बं० । संखेज्जदिभा० । सुभ-जस० सिया० । 1 तं तु० । असुभ अजस० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं सुभ-जस० । तित्थ० उक्क०हिदिबं० देवगदि-पंचिंदि ० आदिहावीसं पगदीओ यि० संखेज्जदिभागूणं बं० ।
५४. कम्मइ० पंचणा०-णवदंसणा०-सादासा० - गोद० - पंचंत० श्रघं । मिच्छ● उक्क० द्विदिबं० सोलसक०स० अरदि-सोग-भय-दुगु ० । लिय० । तं तु । एवमेदा एकमेकस्स । तं तु० । इत्थिवे उक्क० • द्विदिबं० मिच्छ० - सोलसक० -अरदिसोग-भय-दुगु ० य० संखेज्जदिभागूणं बं० । पुरिस० उक० द्विदिवं० इत्थिभंगो । हस्स-रदि० सिया० । तं तु ० | अरदि-सोग सिया० संखेज्जदिभागूणं० । हस्स बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागar स्थितिका बन्धक होता है । शुभ और यशःकीर्ति प्रकृतियों का कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ और श्रयशःकीर्ति प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीर्थकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति और पञ्चेन्द्रिय जाति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है ।
५४. कार्मण काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता श्रसाता वेदनीय, दो गोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इनमेंसे किसी एककी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक शेषकी उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, रति, शोक, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । यह हास्य और रतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अरति
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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
उक्क हिदिवं० मिच्छ०-सोलसक-भयदुगु० णिय. संखेज्जदिभागू० । इत्थि०णवुस० सिया बं० संखेज्जदिभाग० । पुरिसवे० सिया० । तं तु । रदि० णिय। तं तु. । एवं रदीए ।
५५. तिरिक्खग० उक.हिदिवं० एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि अंगो०-असंपत्त०पर-उस्सा--आदाउज्जो --अप्पसत्थ---तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्त-पत्तेय-- साधार०-दुस्सर० सिया० । तं तु । ओरालि०-तेजा०-का-हुंड-बएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-अथिरादिपंच०-णिमि० णियमा० । तं तु० । एवं तिरिक्वगदिभंगो ओरालि०-तेजा-क०-हुंड-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप-अथिरादिपंचणिमिण ति।
और शोकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँभागहीन स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिके आश्रयसे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
५५. तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, प्रत्येक, साधारण और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वो, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर
आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्षका भङ्ग तिर्यश्च गतिके समान जानना चाहिए ।
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महावंध ट्ठिदिबंधाहियारे ५६. मणुसगदि. उक्क हिदिवं० पंचिंदि०-ओरालि -तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-वएण०४-अगु०-उप०-तस-बादर-पत्ते-अथिरादिपंच-णिमि० णिय० वं० । णि अणु० संखेज्जदिभाग० । तिषिणसंठा-तिएिणसंघ०-अप्पसत्थ० पर०-उस्सापज्जत्तापज्जत्त०-दुस्सरं सिया संखेज्जदिभागू० । मणुसाणु० णिय० । तं तु० । एवं मणुसाणु० ।
५७. देवगदि० उक्क हिदिबं० पंचिंदि-तेजा०-क-समचदु०--वएण०४अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-अथिर- असुभ-सुभग-सुस्सर-आदे-अजस-णि णिय० संखेंज्जगुणहीणं बं० । वेउवि०-वेउवि अंगो०-देवाणु० णि बं०। णि० तं तु० । तित्थयरं सिया० । तं तु० । एवं देवगदि०४ ।
५८. एइंदि० उक्क हिदिबं० तिरिक्वग०-ओरालि०-तेजा-क-हुड०
५६. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। तीन संस्थान, तीन संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
५७. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है और अनत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थिति का बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है । तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगति चतुष्कके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
५८. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलधु,
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उक्कस्ससत्थाणबंध सष्णियासपरूवणा
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arr०४ - तिरिक्खाणु० गु० - उप० अथिरादिपंच- णिमि० णि० बं० तं तु० । पर० - उस्सा० आदाउज्जो ० -वादर- मुहुम-पज्जत्तापज्जत्त--पत्तेय०-- साधार० सिया० । तं तु० । एवं थावर० । बीई ० - तीइंदि० चदुरिं० चदुसंठा० चदुसंघ ० - अपज्ज० श्रघं । ५६. समचदु० उक्क • हिदिबं० पंचिंदि० ओरालि० - तेजा ० क ० - प्रोरालि ० अंगो ०. वण्ण०४-तस०४-णिमि० णिय० संखेज्जदिभागुणं । दोगदि-पंच संघ० दोचाणुपु० - उज्जो ० - अप्पसत्थ० -अथिरादिछ- सिया० संर्खेज्जदिभागू० । वज्जरि०-पसत्थ०थिरादिछ० सिया० । तं तु० । एवं वज्जरिस० - पसत्थ० - सुभंग-सुस्सर-आदें:०-जस० ।
६०. पंचिंदि० उक्क० द्विदिवं ० तिरिक्खग० - ओरालि० -- तेजा०--क० -- हुंड०ओरालि० अंगो० - असंपत्त० - वरण०४ - तिरिक्खाणु० -- गु०४ - अप्पसत्थ० --तस०४-
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उपघात, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । परघात, उल्लास, आतप, उद्योत, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार स्थावर प्रकतिकी उत्कृष्ट स्थितिका आलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रिय जाति, चार संस्थान, चार संहनन और अपर्याप्त इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका श्रालम्बन लेकर सन्निकर्ष श्रोधके समान जानना चाहिए ।
५९. समचतुरस्र संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, दारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । दो गति, पांच संहनन, दो श्रानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छह इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । वज्र
भ नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि छह इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातव भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वज्रर्षभ नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगेति, सुभग, सुखर, आदेय, और यशःकीर्ति इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
६०. पञ्चेन्द्रियजातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति,
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अथिरादिछ०-णि णिय० । तं तु० । उज्जो० सिया० । तं तु० । एवं पंचिंदियभंगो ओरालि अंगो०-असंपत्त०-पर-उस्सा०-अप्पसत्य-तस०४-दुस्सरा त्ति । एवरि पर०-उस्सा-बादर-पज्जत्त-पत्ते उक्त हिदिवं० एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि अंगो०अप्पसत्थ०-तस-थावर-दुस्सर सिया० । तं तु० ।
६१. आदाव० उक्क हिदिवं० तिरिक्खगदि-एइंदि०-ओरालि-तेजा-क-हुड०वएण०४-तिरिक्वाणु०--अगु०४--थावर--बादर-पज्जत्त-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि० णिय. बं० । तं तु.। उज्जो० तिरिक्खगदिभंगो। णवरि सुहुम-अपज्जत्तसाधारणं वज्ज।
६२. सुहुम० उक्क हिदिबं० तिरिक्खगदि-एइंदि०-ओरालि-तेजा-क-हुंड०वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-थावर-अपज्जत्त-साधारण-अथिरादिपंच-णिमि. त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट को अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योत प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, परघात, उच्वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क और दुःस्वर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनो विशेषता है कि परघात, उच्छास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त विहायोगति, स, स्थावर और दुःखर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है।
६१. आतपकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योत प्रकृतिका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंको छोड़कर इसका सन्निकर्ष कहना चाहिए।
६२. सूक्ष्म प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर आदि पाँच और
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा णिय बं० । तं तु । एवं अपज्जत्त-साधारण ।
६३. थिर० उक्क०हिदिवं० दोगदि-एइंदि०-पंचिंदि०-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०पंचसंघ०-दोआणु०--आदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-तस-थावर-बादर-मुहुम-पत्तेयसाधार-असुभादिपंच० सिया० संखेज्ज भागणं बं०। ओरालि०-तेजा-कवएण०४-अगु०४-पज्जत्त-णिमि० णि. बं० संखेज्जभागू० । समचदु०-वज्जरिसभा-पसत्थ -सुभगादिपंच सिया० । तं तु० । एवं थिरभंगो सुभ-जसगि० । एवरि जसगित्तीए मुहुम-साधारणं वज्ज ।
६४. तित्थय० उक्क हिदिबं. मणुसगदिपंचग सिया० संखेज्जदिभागहीणं बं० । देवगदि०४ सिया० । तं तु० । पंचिंदियाओ धुविगाओ अथिर-असुभ-सुभग
निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है, जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
६३. स्थिर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, प्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, प्रत्येक, साधारण और अशुभादि पाँच इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, पर्याप्त और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवा भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, और सुभग आदि पाँचका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार स्थिर प्रकृतिके समान शुभ और यश कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिकी अपेक्षा सन्निकर्ष कहते समय सूक्ष्म और साधारण इन दो प्रकृतियों को छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
६४. तीर्थङ्कर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति पञ्चकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। देवगतिचतुष्कका कदा. चित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है । पञ्चेन्द्रिय जाति आदि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों तथा अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और अवशकीर्ति
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
सुस्सर-आदेο
० अ० णि० बं० अणु० संखेज्जदिभागहीरणं ० ।
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६५. इत्थवे ० पंचणा०-णवदंसणा ० - दोवेद-मोहणी० छव्वीस आयु० ४ - दोगोद ०पंचत० ओघं । णिरयगदि० उक्क० डिदि ० बं० पंचिंदि० - वेडव्वि ० तेजा० क० - हुड०वेव्व ० गो००-वरण ०४ - गिरयाणु० - गु०४ - अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ०-णिमि० रिणय० बं० । तं तु । एवं गिरयगदिभंगो पंचिंदि० - वेडव्त्रि ० - वेडव्वि ० अंगो०-गिरयाणु० - अप्पसत्थ तस - दुस्सर ति ।
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६६. तिरिक्खग० उक० हिदिबं० एइंदिय-ओरालि० - तेजा ० ० क० - हुंडर्स ० - वरण ०४तिरिक्खाणु० गु०४ - थावर - बादर - पज्जत- पत्ते ० -अथिरादिपंच - रिणमि० पिय० बं० । तं तु । आदाउज्जो सिया० । तं तु । एवं तिरिक्खगदिभंगो एइंदि० - ओरालि०तिरिक्खाणु० - दाउज्जो' ० थावर ति ।
इनका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवां भागहीन स्थितिका बन्धक होता है ।
६५. स्त्रीवेदवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेद, मोहनीय छब्बीस, आयु चार, दो गोत्र और पाँच अन्तराय इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष श्रधके समान है। नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक श्रङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नरकगतिके समान पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर वैक्रियिक श्रङ्गोपाङ्ग, नरकगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
६६. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, श्रौदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । श्रातप और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातव भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिके समान एकेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, तप, उद्योत और स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा ६७. मणुसगदि० उक्तहिदिवं० ओघ । रणवरि ओरालिअंगो० णिय० बं० संखेंजदिभाग० । दोसंठा-तिएिणसंघ०-अपज्ज० सिया० संखेज्जदिभाग० ।
६८. देवगदि० उक्क हिदिबं० ओघं । बीइंदि०-तीइंदि०-चदुरिं० उक्क.हिदि० श्रोघं । णवरि विसेसो, ओरालि अंगो-असंपत्तसे० णिय० । तं तु० । आहारआहार अंगो० अोघं ।
६६. तेजइग० उक्क हिदिवं० कम्मइ-हुडसं०-वएण४-अगु०[४]-बादर-पज्जत्तपत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि०-णिय० बं० । तं तु० । णिरयगदि-एइंदि०-पंचिंदि०. ओरालि-वेउव्वि०-वउव्वि०अंगो०-दोआणु-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ-तस--थावर-- दुस्सर० सिया० । तं तु० । एवं तेजा भंगो कम्पइग-हुड०-वएण०४-अगु०४बादर-पज्जत्त-पत्तेय अथिरादिपंच-णिमिण ति।
६७. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करनेपर वह ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि औदारिक आङ्गोपाङ्गका यह नियमसे बन्धक है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक है। दो संस्थान, तीन संहनन
और पर्याप्त इनका कदाचित बन्धक है और कदाचित अबन्धक है। यदि बन्धक है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्याता भाग हीन स्थितिका बन्धक है।
६८. देवगतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करनेपर वह ओघके समान है। द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करनेपर वह ओघके समान है। इतना विशेष है कि औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तामृपाटिका संहननका नियमसे बन्धक होताहै जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । आहारक शरीर और प्राङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष का विचार करनेपर वह अोधके समान है।
६६. तेजस शरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान,वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसेलेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, दो आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, आप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तैजस शरोरके समान कार्मण शरीर, हण्ड संस्थान. वर्णचतष्क, अगरलघचतष्क, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ७०. समचदु० उक्क हिदि० अोघं । णवरि ओरालि०अंगो-असंपत्तः सिया'. संखेजदिभागू० । एवं पसत्थवि० सुभग-सुस्सर-आदें । णग्गोद-सादि०-खुज्जसंठा० ओघं।
७१. वामणसंठा० उक्क हिदिबं० ओरालि अंगो० णिय०। तं तु । खीलियसंघ०-असंप० सिया० । तं तु० । सेसं ओघं ।।
७२. ओरालि०अंगो० उक्क टिदिवं. तिरिक्खगदि-ओरालिय-तेजा-कवएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-तस-बादर-पज्जत्त-अथिरादिपंच-णिमि० णि बं० संखेज्जदिभागू० । बीइंदि०-तीइंदि०-चदुरिं०-वामण-खीलिय०-असंप०-अपज्ज० सिया० । तं तु० । पंचिंदि०-हुड०-पर-उस्सा०-उज्जो०-अप्पसत्थ-पज्जत्त०-दुस्सर
७०. समचतुरस्र संस्थानके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करने पर वह ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि औदारिक आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और प्रादय इन प्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष कहना चाहिए। न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वाति संस्थान और कुब्जक संस्थानके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलन्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करने पर वह श्रोधके समान है।
७१. वामन संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव औदारिक प्राङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवॉभागन्यनतक स्थितिका बन्धक होता है। कीलक संहनन और असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अब. न्धक होता है । यदि बन्धक होता है। तोउत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। शेष सन्निकर्ष ओघके समान है।
७२. औदारिक प्राङ्गोपाङ्गकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, वामन संस्थान, कीलक संहनन, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन और अपर्याप्त इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है। पञ्चेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, परघात, उदास, उद्योत, अप्रशस्त
१. मूलप्रतौ सिया० तं तु० संखे-इति पाठः।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं असंपत्त० । वज्जरि० श्रघं । वरि विसेसो ओरालि० अंगो० यि० संखेज्जदिभागू० ।
७३. सुहुम-अपज्जत - साधारणं ओघं । वरि विसेसो । पज्जत्त० उक्क० हिदिबं० ओरालि० अंगो० - असंपत्तसे० आदेसेण सिया० । तु० । थिर० श्रघं । रावरि विसेसो, ओरालि॰अंगो० - असंपत्त० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं सुभ ०जसगि० । तित्थय० श्रघं ।
७४. पुरिसवेदे सव्वाणं श्रघं । बुंसग० सत्तणं श्रघं । गिरयगदि० ओघं । तिरिक्खगदि० उक्क० द्विदिबं० पंचिदि० - ओरालि ०- तेजा-० -०क०. - हुंड०-ओरालि०अंगो०-संपत्त ०-वरण०४- तिरिक्खाणु० गु०४ अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ०
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विहायोगति, पर्याप्त और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार असम्प्राप्तासृपाटिका संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । वज्रर्षभनाराच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष के समान है । इतना विशेष है किं श्रदारिक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है ।
७३. सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष के समान है । किन्तु यहाँ विशेष जानकर कहना चाहिए। पर्याप्तकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव दारिक आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तास्पाटिका संहननका आदेश से कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष श्रधके समान है । इतनी विशेषता है कि श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तापाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियम अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष श्रोघके समान है।
७४. पुरुषवेदवाले जीवोंके सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवम्लबन लेकर सन्निकर्ष के समान है । नपुंसक वेदवाले जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिका व लम्बन लेकर सन्निकर्षं श्रोध के समान है । नरकगतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष ओघ के समान है। तिर्यञ्चगतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता
१. मूलप्रतौ हुंड० उज्जो० सिया तं तु० धोरा - इति पाठः ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे णिमि.णिय० बं० । तं तु०। [उज्जो० सिया० । तं तु० । ] एवं ओरालि०ओरालि अंगो-असंपत्त०-तिरिक्वाणु०-उज्जोव त्ति । मणुसगदि-देवगदि० ओघं ।
७५. एइंदि० उक्क डिदिबं० तिरिक्खगदि-ओरालि-तेजा-क-हुड०वरण ४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-अथिरादिपंच-णिमि० [णिय. बं० । णिय. अणु०] संखेंजदिभागू०। पर-उस्सा०-उज्जो०-वादर-पज्जत्त-पत्तेय० सिया० संखेज्जदिभाग० । आदाव-सुहुम-अपज्जत्त-साधारणं सिया० । तं तु० । थावर० णिय बं० । तं तु० । एवं थावर० । बीइंदि०-तीइंदि०-चदुरिं० अोघं ।
७६. पंचिदि. उक्क हिदिवं. तेजा-क-हुंड०-वएण०४-अगु०४-अप्प
है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्याताभाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होताहै और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो कदाचित् उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और कदाचित् अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। मनुष्य गति और देवगतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष ओघके समान है।
__ ७५. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमले बन्धक होता है । जो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यन स्थितिका बन्धक होता है। परघात, उल्लास, उद्योत, वादर, पर्याप्त और प्रत्येक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है,नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवों भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है,तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका वन्धक होता है । स्थावर प्रकृतिका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यन तक स्थितिका वन्धक होता है । इसी प्रकार स्थावर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष अोघके समान है।
७६. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क,
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उक्कस्ससत्थाणबंधसणुियासपरूवणा सत्य-तस०४-अथिरादिछ -णिमि० णिय० ० । तं तु०। णिरयगदि-तिरिक्वगदि-ओरालिय वेउव्विय०-दोअंगो०-असंपसत्त०-दोआणु०-उज्जो सिया० । तं तुः । एवं पंचिंदियजादिभंगो तेजा-क-हुंड-वरण ४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४अथिरादिछ०-णिमिण त्ति । पंचसंठा-पंचसंघ० ओघं।
७७. आदाव. उक्क हिदिवं० तिरिक्खगदि-ओरालिय-तेजा-क-हुंड. वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-अथिरादिपंच-णिमि. णि बं० संखेजदिमागू० । एइंदिय-थावर. णिय० । तं तु०। पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर
आदेज. ओघ । सुहुम-अपज्जत्त-साधार० ओघं । गवरि अपज्जत्तस्स एइंदि०थावर० सिया० । तं तु० । अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगति, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, दो आनुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। पाँच संस्थान और पांच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अव लेकर सन्निकर्ष ओघके समान है।
७७. आतपकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पांच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यन स्थितिका वन्धक होता है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनका नियमसे वन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। किन्तु यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवोंभाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेय इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष ओघके समान है। तथा सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्तके साथ एकेन्द्रिय जाति और स्थावर प्रकृतियोंका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातयाँ भाग न्यूनतक स्थिति का बन्धक होता है।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ७८. थिर० उक्क हिदिवं० ओघं । णवरि विसेसो, एइंदि०-आदाव-थावर० सिया० संखेन्जदिभाग० । एवं सुभ-जस । तित्थय ओघं ।।
७६. अवगदवे० आभिणिबो० उक्क हिदिवं. चदुणाणा० णि । णि. उक्कस्सा । एवं चदुणाणा०-चदुदंसणा० चदुसंजल-पंचंत०।
८०. कोधादि०४-मदि०-सुद-विभंग० ओघ । आभि०-सुद-अोधि० छएणं कम्माणं अोघं। अपञ्चक्रवाणा०'कोध० उक्क हिदिवं. ऍकारसक-पुरिस०अरदि-सोग-भय-दुगुणि बं० । तं तु० । एवमेदारो ऍक्कमेक्कस्स० । तं तु० । हस्स० उक्क०हिदि० बारसक०-पुरिस०-भय-दुगु णि बं० संखेंजगुणहीणं बं० ।
७८. स्थिर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष ओघके समान है । इतना विशेष है कि एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है
और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक.होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष ओघके समान है।,
७६. अपगतवेदवाले जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार झानावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय प्रकतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए।
८०. क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभङ्गशानी जीवों में अपनी अपनी सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष ओघके समान है। अमिनिबोधिकज्ञानी, ताज्ञान और अवधिज्ञानी जीवोंमें छह कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष श्रोधके समान है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव ग्यारह कपाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुत्सा इनका नियमसे वन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुण हीन स्थितिका बन्धक होता है । रतिका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुस्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका
१. मूलप्रतौ पच्चक्खाणा०४ कोध० इति पाठः ।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
४१ रदि० णिय बं० । तं तु० । एवं रदीए ।
८१. मणुसग उक्क०हिदिबं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०ओरालि०अंगो०-वजरि०-वएण०४-मणुसाणु-अगु०४--पसत्थवि०-तस०४--अथिरअसुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अज-णिमि. णि. बं० । तं तु० । एवं मणुसगदिभंगो ओरालि०-ओरालि०अंगो-वज्जरिसभा-मणुसाणु० ।
८२. देवगदि० उक्क हिदिवं० पंचिंदि०-वेव्वि-तेजा०-क-समचदु०वेउवि अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४--पसत्थ०--तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-- सुस्सर-आदें-अजस-णिमि० णिय० । तं तु० । तित्थय० सिया बं० । तं तु० । एवं देवगदिभंगो वेउवि०-वेउव्वि०-अंगो०-देवाणु०-तित्थय० ।
८३. पंचिंदि० उक.हिदिवं.' तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसअसंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार रतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___८१. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वणेचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्याता भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्यगतिके समान औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्नि'कर्ष जानना चाहिए।
८२. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेबाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातयाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्टएकसमय न्यून स्थितिसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगतिके समान वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थकर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ____८३ पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण
१. मूलप्रती बं० पंचिंदि० तेजा-इति पाठः ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे त्थवि०-तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-अजस०-णिमि० बं० । तं तु० । मणुसग -देवग-ओरालि-वेउव्वि०-दोअंगोवं०---वज्जरि०--दोआणु०--तित्थय० सिया० । तं तु०। एवं पंचिंदिय-भंगो तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४पसत्थवि०-तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर--आदेज-अजस--णिमिण त्ति । आहार-आहार०अंगो ओघं ।
८४. थिर० उक्क हिदिवं. पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४. पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि• णि० बं० संखेंजगुणहीणं बं० । मणुसगदि-देवगदि-ओरालि-उव्वि०-दोअंगो०-चजरिस-दोघाणु० सिया० संखेंजगुणहीणं बं० । सुभ-जसगित्ति० सिया० । तं तु. । असुभ-अजस-तित्थ० सिया.
शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयश कीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो प्रानुपूर्वी और तीर्थकर इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है
और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष ओघके समान है।
८४. स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुखर, आदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका वन्धक होता है। मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और दो अानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। शुभ और यश-कीर्तिका कदाचित्
होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भीबन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,५क सपय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भागन्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । अशुभ. अयशकीर्ति और तीर्थकर इनका
१. मूलप्रतौ पंचिंदिय तेजादि भंगो इति पाठः । २.मूलप्रत्तों के सुभग-जसगित्ति इति पाठः ।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूषणा संखेजगुणहीणं बं० । एवं सुभ-जसगित्तिः ।
८५. मणपज्जव० छण्णं कम्माणं ओघं । कोधसंज० उक्क ट्ठि० तिएिणसंज० पुरिस-अरदि-सोग-भय-दुगु० णि. वं० । तं तु० । एवमेदाओ एकमेक्कस्स । तं तु० । हस्स० उक्क टिदिवं० चदुसंन०-पुरिस०-भय-दुगु० णि० बं संखेजगुणहीणं० । रदि० णिय० बं० । तं तु० । एवं रदीए ।
८६. देवगदि० उक्क० हिदिवं. पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा-क०-समचदु० वेउवि अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४--पसत्थ०-तस०४--अथिर--अमुभ-सुभग-- सुस्सर-आदेंज-अजस-णिमि० णि. बं० । एवमेदाओ ऍक्कमेक्कस्स । तं तु । कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए।
८५. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें छह कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्नि: कर्ष अोके समान है। क्रोध संज्वलनकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्व लन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुस्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु तब वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमले बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए।
८६. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। इसी प्रकार इनमें से प्रत्येकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु तब वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका
१. मूलप्रतौ-संज. बं. पुरिस० इति पाठः ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे तित्थय० सिया । तं तु० । आहार-आहार अंगो० ओघं ।
८७. थिर० उक्क हिदिबं. देवगदिअट्ठावीसं तिएिणयुगलं वज० णिय. बं० संखेजदिगुणहीणं बं० । सुभ०-जस० सिया० । तं तु० । असुभ-अजस०-तित्थय सिया० संखेज्जगुणहीणं० । एवं सुभ-जस० ।
८८. तित्थय० उक्क हिदिबं. देवगदिअट्ठावीसं णिय० बं०। तं तु० । सामाइ०-छेदो०-परिहार० [ मणपज्जवभंगो ] ।
८६. सुहुमसं० आभिणिवो० उक हिदिबं० चदुरणा० णिय० बं० उक्कस्सा। एवमएणमएणस्स । एवं चदुदं०-पंचंत० । संजदासंजद० परिहारभंगो । असंजदचक्खुदं०-अचक्खुदं० ओघं । प्रोधिदं० अोधिणाणिभंगो। किराणाए णqसगभंगो । कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है। आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष ओघके समान है।
८७. स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तीन युगलोंको छोड़कर देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । शुभ और यश कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ, अयश-कीर्ति और तीर्थकर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्ति इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
८८. तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके जानना चाहिए ।
८६. सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें आमिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरणका नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका आश्रय. लेकर परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । संयतासंयतोंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके समान है। असंयत, चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। अवधिदर्शनी जोवोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जोवोंके समान है। कृष्ण लेश्यामें नपुंसकवेदी जीवोंके समान भङ्ग है।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
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६०. पील- काऊ सत्तणं कम्माणं ओघं । रियगदि० उक्क० हिदि० बं० पंचिदिय - तेजा ० -- क० - हुड ० - वरण ०४ - अगु० ४- अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ० णिमि० णिय० बं० । णि० अणु संखेज्जगुणहीणं० । वेउब्वि० - वेडव्वि ० अंगो०-रिया ० रिय० बं० । तं तु० । एवं वेउच्चि ० - वेडव्वि ० अंगो० - णिरयाणु० । ६१. तिरिक्खगदि ० उक्क० हिदि० बं० पंचिंदि० ओरालि० - तेजा ०क०• हुंड०ओरालि० अंगो० - संपत्त० वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४ अप्पस०--तस०४ - अथि-रादिछ० - णिमि० णि० बं० । तं तु० । उज्जो सिया० । तं तु० । एवमेदा एकमेक्कस्स । तं तु० । मणुसगदिदुग-पंचसंठा-पंच संघ०-पसत्थ० - थिरादिव० णिरयभंगो ।
०
९०. नील और कापोत लेश्या में सात कर्मोंका भङ्ग श्रधके समान है । नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्थानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
९१. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क,
स्थिर आदि छह और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका
संख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके श्राश्रयसे परस्पर सन्निकर्ष होता है । ऐसी अवस्था में वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगतिद्विक पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि छह इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके समान है ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे १२. देवगदि० उक्क हिदिबं० पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४-अगु४-पसत्यवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि० णि• बं० । णिय. अणु० संखेंज्जगुणहीणं० । वेउवि०-वेउवि अंगो० णि बं० अणु संखेजदिगुणहीणं । देवाणु० णिय० बं० । तं तु० । थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया० णि बं० । णि अणु० संखेजगुणहीणं ० । एवं देवाणु० ।
६३. एइंदि० उक्क हिदिबं० तिरिक्खगदि-ओरालि०-तेजा०-क-हुंड-वरुण. ४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-दूभग-अणादे-णिमि० णि० बं० । णि अणु० संखेज्जगुणहीणं० । पर-उस्सा-उज्जो०-बादर-पज्जत्त-पत्ते-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस सिया बं० । यदि बं० णिय. अणु० संखेज्जगुणहीणं । आदाव-मुहुमादितिएिण० सिया० । तं तु० । थावर णिय० । तं तु० । एवं थावर० ।
९२. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, आगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुखर, प्रादेय और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए।
९३. एकेन्द्रिय जाति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, दुर्भग, अनादेय और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कुष्ट संख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है। परघात, उच्छ्वास, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। आतप और सूक्ष्म आदि तीनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । स्थावर प्रकृतिका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार स्थावर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष
जानना चाहिए।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
६४. बीइंदि० उक ६० हिदि०बं० तिरिक्खगदि-ओरालि० - तेजा ० क०- -ओरालि०अंगो०-असंपत्त०-वण्ण०४ - तिरिक्खा ० गु० - उप० - तस - बादर- पत्ते ० - दूभग-- अरणादे०गिमि० शि० बं० संखेज्जगुणहीणं ० । पर०-उस्सा ० -उज्जो ० अप्पसत्थ० - पज्ज०थिराथिर-सुभासुभ- दुस्सर जस० - अजस० सिया० संखेज्जगुणहीणं । अपज्ज० सिया । तं तु । एवं तीइं दि ० चदुरिं० ।
C
६५. आदाव उक्क हिदिबं० तिरिक्खगदि ० -ओरालि०-तेजा० क० • - हुड ०वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४- बादर- पज्जत्त पत्ते ० दूर्भाग-प्रणादे० - णिमि० रिण० अणु संखेज्जगुणहीणं० । एइंदि० थावर० पिय० । तं तु । थिराथिर-सुभासुभजस-जस० सिया बं० । यदि बं० संखेज्जगुणही ० ।
६६. पर० - अपज्ज० उक्क० द्विदिबं० तिरिक्खग० ओरालि० -तेजा० - क ०. ० - वरण०४- तिरिक्खाणु० गु० - उप० अथिरादिपंच - णिमि० लिय० संखेज्जगुण
- हुड
सं०.
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९४. द्वीन्द्रिय जाति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, दुभंग, अनादेय और और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यात गुण हीन स्थितिका बन्धक होता है । परघात, उच्लास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, शुभ, दुःखर, यशःकीर्ति और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है । पर्याप्तका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
६५' श्रातपकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरु लघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है ।
९६. परघात और अपर्याप्त प्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ही। चदुजादि-थावर-मुहुम-साधारण• सिया० । तं तु० । पंचिंदि०-ओरालि०अंगोअसंपत्त०-तस-बादर-पत्ते० सिया० संखेज्जगुणहीणं० । मणुसगदि-मणुसाणु० सिया० संखेज्जगुणहीणं० ।
६७. तित्थय० णिरयगदिभंगो । णवरिणीलाए तित्थय० देवगदिसंजुत्तं भाणिदव्वं । एवरि थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया० संखेज्जगुणहीणं । एवं धुविगाणं पि णिय० संखेज्जगुणहीणं० ।।
१८. तेऊए सत्तएणं कम्माणं ओघ । देवगदि० उक्क हिदिवं० पंचिदि-तेजा० क०-समचदु०-वरण ४-अगु०४-पसत्थ-तस०४-सुथग-सुससर-अादें-णिमि० बं० संखेज्जगुणहीणं० । वेउवि अंगो०-देवाणु० णि० बं० । तं तु० । थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस० सिया० संखेज्जगुणहीणं० । एवं देवगदिभंगो वेउवि०-वेउवि० अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। चार जाति, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातों भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, त्रस, बादर और प्रत्येक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है।
___९७. तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नरकगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि नील लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष कहते समय देवगतिके साथ कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भी नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है।
९८. पीत लेश्यामें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है । देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहोन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक सयय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशाकीत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्टसंख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगतिके समान वैक्रियिक
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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा अंगो०-देवाणु० । आहार-आहार०अंगो० अोघं । सेसं सोधम्मभंगो। एवं पम्माए वि । णवरि एइंदि०-आदाव-थावरं वज्ज।
६६. मुक्काए छण्णं कम्माणं अोघं । मोहणी० आणदभंगो । देवगदि० उक्क० हिदिवं० पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थ-तस०४-सुभगसुस्सर-प्रादें-णिमि० णि बं० । णि० अणु० संखेज्जगुणहीणं० । वेउव्वि०वेउवि अंगो०-देवाणुपु० णि• बं० । तं तु० । थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया० संखेज्जगुणहीणं० । एवं वेउवि-वेउवि अंगो०-देवाणुपु० । सेसाणं आणदभंगो। भवसिद्धिया० ओघं । अभवसिद्धिया० मदिभंगो। सम्मादिट्टी० प्रोधिभंगो।
१००. खइगस० सत्तएणं कम्माणं अोधिभंगो। मणुसगदि० उक्क ट्ठिदिवं. पंचिंदि--ओरालि०-तेजा--क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०--वएण०४--
शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्षोधके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्टस्थितिबन्धके आश्रयसेसन्निकर्ष सौधर्म कल्पके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोंको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
९९. शुक्ल लेश्यामे छह कमीका भङ्ग ओघके समान है। मोहनीय कमेका भङ्ग आनत कल्पके समान है। देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मणशरीर,समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर आदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है । वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यन स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर,वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष आनत कल्पके समान है । भव्य जीवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष अोधके समान है। अभव्य जीवों में मत्यज्ञानियों के समान है तथा सम्यग्दृष्टियों में अवधिशानियोंके समान है।
१००. क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में सात कमौका भङ्ग अवधिज्ञानियों के समान है। मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गीपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क,
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-अथिर--असुभ--सुभग-सुस्सर-आदेज-अजस०णिमि० णिय० बं० । तं तु० । तित्थय सिया० । तं तु० । एवं ओरालि-ओरालि. अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० ।
१०१. देवगदि० उक्क०हिदिवं. पंचिंदि-तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४अगु०४-पसत्थ०-तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदे-अजस-णिमि० णि० बं० । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु० । वेउव्वि०-वेउवि०अंगो०-देवाणुपु० णि. बं० । तं तु । एवं वेउवियदुग-देवाणुपु० ।
१०२. पंचिंदि० उक्क हिदिबं० तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थ०तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-अजस-णिमि० णि० बं० । तं तु० ।
अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकोर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका वन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार प्रौदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१०१. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायो
त्रस चतष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धकहोता है तोनियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँभाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमले बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक द्विक और देवगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्षजानना चाहिए।
१०२. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुएक, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका नियमसे वन्धक
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा मणुसगदि-देवगदि-ओरालि०-वेउव्वि०-[ दो ]अंगो०-वजरि०-दोआणु-तित्थय. सिया० । तं तु । एवमेदे पंचिंदियभंगो।।
१०३. थिर० उक्क हिदिवं. पंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०-वएण०४-अगु०४पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि० णिय० संखेज्जदिभागू० । दोगदिदोसरीर-दोअंगो०-वज्जरि०-दोआणु०-अमुभ-अजस-तित्थय० सिया० संखेज्जदिभागू० । सुभग-जसगि० सिया० । तं तु० । एवं थिरभंगो सुभ-जस० ।
१०४. वेदग०-उवसमस. ओधिभंगो। वरि उवसम० तित्थय. उक्काहिदिवं० देवगदि-पंचिंदि०-वेविय-तेजा.-क-समचदु०-वेउवि अंगो०-वएण०४देवाणु०-अगु०४-पसत्था--तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-अजस०--
होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका पसंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी तथा तीर्थंकर प्रकृतिका स्यात् बन्धक होता है और स्यात् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान इन सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१०३. स्थिर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवा भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो अानुपूर्वी, अशुभ, अयश-कीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। सुभग और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धकहोता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार स्थिर प्रकृतिके समान शुभ और यश कीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१०४. वेदक सम्यक्त्व और उपशम सम्यक्त्वमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि उपशम सम्यक्त्वमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, बस चतुष्क अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका नियमसे वन्धक
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे णिमि० णि• बं० । णि अणु० संखेजगुणही ।
१०५. सासणे छण्णं कम्माणं अोघं । अणंताणुबंधिकोध० उक्क हिदिवं. पएणारसक०-इत्थि-अरदि-सोग-भय-दुगु णि० वं० । णि तं तु० । एवमेदाओ एकमेक्कस्स । तं तु० । पुरिस० उक्क हिदिवं. सोलसक-भय-दुगु णि. बं. संखेजदिभागू० । हस्स-रदि० सिया० । तं तु । अरदि-सोग सिया० संखेजदिभागू० । हस्स० उक्क हिदिवं. सोलसक-भय-दुगुणिय० बं० संखेजदिभागू० । इत्थि० सिया० संखेजदिभागू० । पुरिस० सिया० । तं तु० । रदि० णियमा० । तं तु० । एवं रदीए वि।। होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है।
१०५. सासादन सम्यक्त्वमें छह कौका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी क्रोधको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पन्द्रह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक. भय
और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ऐसी अवस्थामें वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थिति का बन्धक होता है। पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। हास्य और रतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तोउत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भागहीनतक स्थितिका बन्धक होता है। अरति और शोकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे वन्धक होता है। जो नियमसे संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है ओर कदाचित् अबन्धक होता । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग हीनतक स्थितिका बन्धक होता है । रतिका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग हीनतक स्थितिका बन्धक होता
है। इसी प्रकार रतिके उत्कृष्ट स्थितिवन्धको अपेक्षा भी सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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उकस्ससत्थाणबंधसपिणयासपरूवणा। १०६. तिरिक्खगदि० उक्क हिदिवं. पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-वामणसंठा-ओरालिअंगो-खीलियसंघ०-वएण०४-तिरिक्वाणु०--अगु०४-अप्पसत्थतस०४-अथिरादिछ०-णिमि० णि । तं तु० । उज्जो सिया । तं तु० । एवमेदाओ एक्कमेकस्स । तं तु० ।
१०७. मणुसगदि० उक्क हिदिवं० पंचिंदि-पोरालि-तेजा०-क--ओरालि०अंगो०-चएण.४ अगुल-अप्पसत्थवि०-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि णि० संखेजदिभागू० ।। खुज्जसं०-वामणसं० अद्ध०-वीलिय० सिया० संखेज्जदिभागू । मणुसाणु० णि । तं तु । एवं मणुसाणु० ।
१०८. देवगदि० उक्क हिदिवं. पंचिंदि०-तेजा०-क-बएण०४-अगु०४-तस०४
१०६. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वामन संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, कीलक संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थिति का बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष होता है और तब वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है।
१०७. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, अप्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, अर्द्धनाराच संहनन और कीलक संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१०८. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माण इनका नियमसे
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
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णिमि० णि बं० संखैज्जदिभागू० । वेउब्वि० समचदु० - वेउब्वि० अंगो० देवाणु०पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर - आदे० यि० । तं तु थिर- सुभ-जसगि० सिया० । तं तु० । अथिर असुभ अजस० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं वेडव्वि० - वेडव्त्रि ० गो०- देवाणु० ।
१०६. समचदु० उक्क० हिदिबं० पंचिंदि०-तेजा० १० क० वरण०४ अगु० ४-तस०४ििम० णि० संखेज्जदिभागृ० । तिरिक्खगदि मणुसगदि-ओरालि ०-ओरालिश्रंगो०चदुसंघ०-दोआणु०-अप्पसत्थवि० अथिरादिछ- सिया० संखेजदिभागू० | देवगादिउव्व ० - वेडवि० गो० - वज्जरिस० देवाणु० - पसत्थवि०-थिरादिछ० सिया० | तंतु० । एवं समचदु० भंगो पसत्थवि० - थिरादिछ० ।
I
बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और श्रादेय इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पत्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर, शुभ और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका वन्धक होता है । अस्थिर, अशुभ और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका वन्धक होता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१०६. समचतुरस्र संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, चार संहनन, दो श्रानुपूर्वी, अप्रशस्त जिहायोगति और अस्थिर आदि छह इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमस्त्रे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि छह इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार समचतुरस्र संस्थानके समान प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि छहके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
-ओरालि०
११०. गोद० उक० द्विदिबं० पंचिदि० -ओरालि ० तेजा ० क ०गो०- वरण०४ - अगु०४- अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ० - गिमि० पिय० बं० संखेंज्जदिभागू० । तिरिक्खगदि - मणुसगदि- तिरिणसंघ० - दोश्रणु० --उज्जो० सिया० संखेज्जदिभागू० । वज्जणारा० सिया० । तं तु । एवं वज्जणारायणं । एवं सादियं पि । वरि पारायणं सिया० । तं तु० । [ एवं ] पारायणं ।
१११. खुज्ज० उक्क० हिदिवं० तिरिक्खगदि-पंचिंदि० ओरालि ० -तेजा०-क०ओरालि० अंगो० ० ४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४- अप्पसत्थ० --तस०४ - अथिरादिछ० णिमि० णि० बं० संखेज्जदिभागू० । खीलिय० उज्जो० सिया० संखेज्जदिभागू० । अद्धणारा० सिया० । तं तु । एवं श्रद्धणारा० ।
११०. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, श्रदारिक श्रङ्गोपाङ्ग वर्णचतुष्क, गुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवाँ भागहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, तीन संहनन, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवीं भागहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। वज्रनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग हीनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वज्रनाराचसंहननके उत्कृष्ट स्थिति बन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष कहना चाहिए । तथा इसी प्रकार स्वातिसंस्थानके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह नाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थिति का बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नाराच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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१११. कुब्जक संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, "कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियम से बन्धक होता है जो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । कीलक संहनन और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका वन्धक होता है । अर्धनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका संख्यातवाँ भाग हीन तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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महाबंधे ट्ठदिबंधाहियारे
११२. सम्मामि० श्रधिभंगो । मिच्छे मदिभंगो । सरिण ० मूलोघं । असvir पंचा० - वदंसरणा० - मोहणी ० छव्वीस - चदुत्रायु० - दोगोद० - पंचंत ० पंचिंदियतिरिक्ख पज्जत्तभंगो । गिरयगदिसंजुत्ताणं गामपगदीणं तिरिक्खोघं । तिरिक्खगदि० उक्क० हिदिबं० तेजा० क ० हुड० - वरण ०४ - अगु० -उप०-३ ० अथिरादिपंच- णिमि० पि संखेज्जदिभागू० । एइंदि० ओरालि० - तिरिक्खाणु० - थावर - सुहुम-अपज्ज०साधार० णि० । तं तु० । एवमेदासि तंतु ० पदिदारणं सरिसो भंगो ।
मणुसाणु० शि० । तं तु० । सेसाणं
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११३. मणुसग० उक्क० द्विदिबं० संखेज्जदिभागू० ।
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११४. देवगदि उक्क० हिदिबं० पंचिंदि ० - वेउवि तेजा० क० - वेउब्वि० अंगो०वण्ण०४-अगु०४-तस०४-रि० ० संखेज्जदिभागू० । समचदु० - देवाणु ०-पसत्थ० - सुभग-सुसर आदें० णिय० । तं तु० । थिराथिर - सुभासुभ - जस ० - अजस० सिया० ११२. सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में अवधिज्ञानियोंके समान भङ्ग है । मिध्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानियों के समान भङ्ग है। संज्ञी जीवोंमें मूलोधके समान भङ्ग है । असंशी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, छब्बीस मोहनीय, चार आयु, दो गोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । नरकगति सहित नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमले उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार 'तं तु' रूपसे कही गई इन प्रकृतियोंका सदृश भंग होता है ।
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११३. मनुष्यगति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । तथा शेष प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । ११४. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, स चतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवीं भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। समचतुरस्र संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और श्रादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा संखेजदिभागू० ! एवं देवाणु० । चदुजादि० पंचिंदिय०तिरिक्वअपज्जत्तभंगो।।
११५. समचदु० उक्क हिदिबं० पंचिंदि०-तेजा-क-वएण०४-अगु०४तस०४-णि णिय संखेज्जदिभागृ० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो-पंचसंघ०-दोआणु०उज्जोव-अप्पसत्थ०-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दुस्सर-अणादे०-जस०-अजस० सिया० संखेजदिभागृ० । देवगदि-वज्जरि०-पसत्थ -सुभग-सुस्सर-आदें सिया० । तं तु ।
११६. चदुसंठा-ओरालि०अंगो-चदुसंघ--आदाउज्जो०-थिर--सुभ--जसगि० अपज्जत्तभंगो । आहार० ओघ । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं उक्कस्स-सत्थाणसएिणयासं समत्तं ।
११७. उक्कस्सपरत्थाणसएिणयासे पगदं । एत्तो उक्कस्सपरत्थाणसएिणयाससाधणटुं अहपदभूदसमासलक्खणं वत्तइस्सामो। तं जहा--पंचिंदियसएगीणं
असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश-कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थिति बन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। चार जाति के उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है।
११५. समचतुरन संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रस चतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति,स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ,दुर्भग, दुःस्वर,अनादेय,यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । देवगति, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेश इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है।
११६. चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, चार संहनन, आतप, उद्योत, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति इनका भक अपर्याप्तकके समान है । आहारक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है । तथा अनाहारक जीवोंका भंग कार्मणकाययोगी जीपोंके समान है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ।
११७. अब उत्कृष्ट परस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है। अतएव आगे उत्कृष्ट परस्थान सन्निकर्षकी सिद्धिके लिए अर्थपदभूत समास लक्षणको बतलाते हैं । यथा-पञ्चेन्द्रिय
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अपज्जत्ताणं मिच्छादिहीणं अन्भवसिद्धियपाओग्गं अंतोकोडाकोडिपुधत्तं बंधमाणस्स हिदिउस्सरणं । तदो सागरोवमसदपुधत्तं उस्सरिदृण मणुसायु. वंधओच्छेदो । तदो सागरोवमसदपुधत्तं उस्सरिदूण तिरिक्वायु० वंधवोच्छेदो। तदो सागरोवम० उस्सरिदूण उच्चागोदं बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण पुरिस०-समचदु०वज्जरिसभ०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदें एदाओ सत्त पगदीनो ऍकदो बंधवौच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण णग्गोद०-वजणारा. एदासिं दोपगदीणं एकदो बंधोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण सादिय०-णारायण. एदाओ दोपगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवम० उस्सरिदूण इत्थिवे० • बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम उस्सरिदूण खुजसंठा-अद्धणारा. एदाश्रो दोपगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण वामणसंठा-खीलियसंघ० एदारो दोपगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण मणुसग०मणुसाणु० पज्जत्तसंजुत्तानो दोपगदीओ बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम उस्सरिदूण पंचिंदिय० पज्जत्तसंजुत्त० बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदण चदुरिंदिय० पज्जत्तसंजुत्त० बंधवोच्छेदो । तदो सागदोवम० उस्सरिदृण तेइंदिय० पज्जत्तसंजुत्त० बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण बेइंदिय०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० संक्षी पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंमें अभव्योंके योग्य अन्तःकोडाकोड़ी पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके स्थितिका उत्सरण होता है । इससे आगे सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थिति का उत्सरण करके मनुष्यायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका उत्सरण होनेपर तिर्यञ्चायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका उत्सरण होनेपर उच्चगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका उत्सरण होनेपर पुरुषवेद, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और प्रादेय इन सात प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होनेपर न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान और वज्रनाराच संहनन इन दो प्रकृतियोंको एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होनेपर स्वाति संस्थान और नाराचसंहनन इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्ध व्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका उत्सरण होनेपर स्त्री वेदकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका उत्सरण होनेपर कुब्जक संस्थान और अर्धनाराचसंहननकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका उत्सरण होनेपर वामन संस्थान और कीलक संहनन इन दो प्रकृतियोंको एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका उत्सरण होनेपर पर्याप्त प्रकृतिसे संयुक्त मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन दो प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका उत्सरण होनेपर पर्याप्त प्रकृतिसे संयुक्त पञ्चेन्द्रिय जातिको बन्धन्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर पर्याप्त संयुक्त चतु. रिन्द्रिय जातिकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर पर्याप्त संयुक्त त्रीन्द्रियजातिकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्स
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसएिणयासपरूवणा पज्जत्त० एदाओ तिषिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदृण बादरएइंदियपज्जत्त०-पत्तेग०-आदाउज्जो०-जसगि० एदाओ पंच पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण बादरएइंदियपज्जत्त-साधारण एदाओ दोपगदीओ ऍक्कदो बंधवाच्छेदो। तदो सागरो. उस्सरिदूण - सुहमेइंदियपज्जत्त-पत्तेय० एदाओ दोपगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो. उस्सरिदूण सुहुमेइंदियपज्जत्त-साधार०-पर-उस्सा०-थिर-सुभ० एदाओ छ-पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० उस्सरिदूण मणुसग०-मणुसाणु० अपज्जत्तसंजुत्ताओ दुवे पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवम० उस्सरिदूण पंचिंदियअपज्जत्त. बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण चदुरिदियअपज्जत्त० बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम [उस्सरि०] तेइंदियअपज्जत्त० बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० उस्सरिदूण बेइंदियअपज्जत्त-ओरालि अंगो०-असंपत्त-तस० एदाओ चत्तारि पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० उस्सरिदूण बादरेइंदियअपज्जत्त० पत्तेयसंजुत्ताओ दो पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० उस्सरिदण बादरेइंदिय-अपज्जत्त० साधारणसंजुत्ताओ एदाओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० उस्सरिदूण सुहुमेइंदियअपज्जत्त० पत्तेग संजुत्ताओ एदाओ दोषिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । रण हो कर पर्याप्त संयुक्त द्वीन्द्रिय जाति, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वर इन तीन प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर पर्याप्त संयुक्त बादर एकेन्द्रिय जाति, प्रत्येक, आतप, उद्योत और यशःकीर्ति इन पाँच प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और साधारण इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और प्रत्येक इन दो प्रकृतियोंकीएक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौसागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त,साधारण, परघात, उच्छ्वास, स्थिर और शुभ इन छह प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन दो प्रकृतियों की एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त पञ्चेन्द्रिय जातिकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौसागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त चतुरिन्द्रिय जातिकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त श्रीन्द्रिय जातिकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन और अस इन चार प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त और साधारण संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण
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महाबँधे ट्ठिदिबंधाहियारे
दो सागरो० उस्सरिदूण सादोवे० - हस्स-रदि० एदाओ तिरिए पगदीओ अपज्जतसंता ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । एत्तो से साणं पयडी ऍक्कदो बंधवोच्छेदो होहिदि त्ति उकस्सए द्विदिवं । एवमपज्जत्तबंधर्वोच्छेदा भवंति । एवं सव्वापज्जत्ताणं ।
सक०
११८. उक्कस्सपरत्थाणसरिया से पगदं । दुवि० - ओघे० दे० | ओघेण आभिणिबोधि० उक्कस्सद्विदिबंधंतो चदुणा० णवदंसणा ० - असादा०-मिच्छत्त-सोल० - स ० -अरदि-सोग-भय-दुगु ० तेजा० क० - हुडेसं ० - वरण०४- अगु०४ - बादर-पज्जत्त - पत्तेय० अथिरादिपंच- णिमि० णीचा० -पंचंत० रिण० बं० । तं तु० उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूरणमादि काढूण याव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागूणं बंधदि । गिरयायु० सिया बंधदि सिया अबंधदि । यदि बंधदि oियमा उक्कस्सा | आबाधा पुरण भयणिज्जा । णिरय - तिरिक्खगदि - एइंदिय-पंचिंदि ओरालि०-वेजव्वि० - दोअंगो० - संपत्त० - दोआणु ० - आदाउज्जो०१०- अप्पसत्थ० --तसथावर दुस्सर सिया । तं तु । एवमेदाओ ऍक्कमेक्कस्स । तं तु० कादव्वा ।
होकर पर्याप्त संयुक्त सातावेदनीय, हांस्य और रति इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे आगे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर शेष प्रकृतियोंकी एक साथ वन्धव्युच्छित्ति होगी । इस प्रकार अपर्याप्त संयुक्त प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । इसी प्रकार सब अपर्याप्तकों के जानना चाहिए ।
११८. उत्कृष्ट परस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— श्रध और आदेश । श्रघसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । उसमें भी उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । नरकायुका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । परन्तु बाधा भजनीय है । नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो श्रीङ्गोपाङ्ग,
सम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, दो आनुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर और दु:स्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। जो उत्कष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है । उसमें भी उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूषणा ११६. सादावे. उक्क हि०० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-तेजाक०-वएण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० णियमा बं०। णि. अणु । उक्क० अणु• दुभागणं बंधदि । इत्थिवे-मणुसगदि०-मणुसाणु० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० णिय० अणु । उक्क० अणु० तिभागणं० । पुरिस०हस्स-रदि-देवगदि-समचदु०-वज्जरिस०-देवाणु०-पसत्थ -थिरादिछ०-उच्चा. सिया वं०। तं तु० । णवुस-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि.. वेउव्वि-हुडसं०-दोअंगो--असंपत्त--तिरिक्वाणु०--पर--उस्सा०--आदाउज्जो०-- अप्पसत्थ० तस-थावर-बादर-पज्जत्त-पत्ते-अथिरादिछ०-णीचा. सिया. दुभागू० । तिबिणजादि०-चदुसंठा०-चदुसंघ-सुहुम-अपज्ज-साधार० सिया० संखेज्जदि भागू० । एवं हस्स-रदीणं ।
१२०. इत्थिा उक्क हिदि बं० पंचणा-रणवदंसणा०-असादा-मिच्छ०-सोलसक० अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०--
११९. सातावेदनोयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। जो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक
तो नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है जो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । उसमें भी उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । नपुंसक वेद, अरति, शोक, तिर्यअचगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, हुण्डसंस्थान, दो प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो माग क्यून स्थितिका बन्धक होता है। तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार हास्य और रतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१२०. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रौदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क,
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वएण०४-अगु०४-अप्पसत्थ० तस०४-अथिरादिछ०-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णिय. बं । णि अणु । उक्क. अणुचदुभागू० । तिरिक्खग हुडसं०-असंपत्त०तिरिक्वाणुल-उज्जो० सिया० । यदि० चदुभागू० । मणुसग-मणुसाणु० सिया० । तं तु० । खुज्ज० वामणसंठा-अद्धणारा०-खीलियसं० सिया० संखेंज्जदिभाग० ।
१२१. पुरिस० उक्त हिदि बं० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छत्त-सोलसकभय-दुगु-पंचिंदि-तेजा-क० वएण०४-अगु०४-तस०४-णिमि-पंचंत० णि बं० । णि अणु० दुभाग० । सादावे-हस्स-रदि--देवगदि--समचदु०--वज्जरि०-देवाणुः-- पसत्थ-थिरादिछ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । असादा-अरदि-सोग-तिरिक्खगःओरालि०-वेउवि-हुड०-दोअंगो०--असंपत्त-तिरिक्खाणु --उज्जो०--अप्पसत्थः-- अथिरादिछ०-णीचा० सिया० दुभागू० । मणुसग० मणुसाणु० सिया० तिभागणं
अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । जो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुप्रीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी. बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, अर्धनाराच संहनन और कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुस्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है।
१२१. पुरुष वेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरोर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, हास्य, रति, देवगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है
और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । असातावेदनीय, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, हुण्ड संस्थान, दो प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्या
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
बं० । चदुसंठा ० चदुसंघ० सिया संखेज्जदिभागू० । एवं पुरिसवेदभंगो समचदु०पसत्थ० - सुभग०-सुस्सर प्रादेज्जति ।
१२२. रियायु० उक्क० हिदि०वं० पंचरणा० एवदंसणा असादावे० - मिच्छत्तसोलसक० एस० -अरदि-सोग-भय-दुगु० - णिरयग० पंचिंदि - ० वेउब्वि ० - तेजा० क०हुडसं०-वेडव्वि० अंगो० वण्ण०४- पिरयाणु० अगु०४- अप्पसत्थवि ० --तस०४--अथि-रादि६० - णिमि० णीचागो० - पंचंत० ०ि । तं तु० उक्क० अणु० तिहारणपदिदं बंदि । असंखेज्जभागहीणं वा संखेज्जदिभागहीणं वा संखेज्जदिगुणहीणं वा ।
१२३. तिरिक्खायु० उक्क० द्विदिवं० पंचरणा० एवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक०भय-दुगु' ०-तिरिक्खग०- पंचिंदि० ओरालि ० तेजा० क ० - समचदु० --ओरालि० अंगो०वज्जरिसभ०--वरण०४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४--पसत्थवि०--तस०४ - सुभग- सुस्सरआदे- णिमि० णीचा० - पंचंत० णि० वं० । णि० अणु संखेज्जदिगुणहीणं बं० । सादासा०-इत्थवे०-पुरिस० - हस्स-रदि- अरदि- सोग-उज्जो - थिराथिर - सुभासुभ-- जस ० --
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नुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । चार संस्थान और चार संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और देय इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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१२२. नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण. नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर श्रादि छह, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो तीन स्थान पतित स्थितिका बन्धक होता है, या तो असंख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है, या संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है या संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । १२३ तिर्यञ्चायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व. सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात
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महाबंधे दिदिबंधाहियारे अजस० सिया० संखेज्जदिगुणहीणं० । मणुसायु० तिरिक्वायुभंगो। णवरि णीचागो० वज्ज० । उच्चा'णि बं० संखेंज्जदिगुणहीणं ।।
१२४. देवायु० उक्क०हिदिवं० पंचणा०-छदसणा-सादा-चदुसंज०-पुरिसवेहस्स-रदि-भय-दुगु० -देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि तेजा-क०-समचदु०-वेउवि०अंगो०वएण०४-देवानु०-अगु०४ पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा० -पंचंत०णि बं० संखेज्जगुणहीणं० । तित्थय० सिया बं० संखेज्जगुणही।
१२५. णिरयगदि० उक०हिदि०बं० पंचणा० णवदंसणा-असादा०-मिच्छत्तसोलसक०-णवुस० अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा०-क-हुडसंठा०वेउवि अंगो०-वएण०४-णिरयाणु-अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४ अथिरादिछ - णिमि०-णीचा०-पंचंत० णिय० । तं तु०। णिरयायु० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० णि• उक्क० । आवाधा पुण भयणिज्जा । एवं णिरयगदिभंगो वेउवि०वेउन्वि अंगो०-णिरयाणु० । गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यायुका भङ्ग तिर्यञ्चायुके समान है। इतनी विशेषता है कि नीचगोत्रको छोड़कर जानना चाहिए। उच्च गोत्रका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है।
१२४. देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है।
२५. नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नोचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता नरकायुका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। परन्तु आबाधा भजनीय है । इसी प्रकार नरकगतिके समान वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीकी प्रमुखता से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१. मूलप्रतौ णीचा णि० इति पाठः ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १२६. तिरिक्खगदि० उक्क हिदिबं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-ओरालि०-तेजा-क०-हुड-चएण०४तिरिक्खाणु०-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचागो००-पंचंत० णिय० ० । तं तु० । एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-असंपत्त०-आदाउज्जो०अप्पसत्थ-तस-थावर-दुस्सर० सिया० । तं तु । एवं ओरालि०-[ोरालि अंगो०-] तिरिक्खाणु० उज्जो ।
१२७. मणुसगदि० उक्क छिदिबं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक-अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०[ओरालि-तेजा-क०-ओरालि०अंगो०वएण०४-अगु०-उप०-तस-बादर-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०-पंचतराणिय. वं० चदुभागू० । इत्थिवे० सिया० । तं तु । णवुस०-हुंडसं०-असंपत्त०-पर०-उस्सा०
___ १२६. तिर्यभ्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस, स्थावर और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसीप्रकार औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंकी प्रमुखतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१२७. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, आसातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, वादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट चारभाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है। स्त्रीवेदका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। नपुं. सक वेद, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त और दुःखर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है।
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महापंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अप्पसत्य -पज्जत्त०-दुस्सर० सिया० चदुभाग० । दोसंठा०-दोसंघ०-अपज्जत्त० सिया० संखेंज्जगु० । मणुसाणु० णिय बं० । णि तं तु० । एवं मणुसाणु० ।
१२८. देवगदि० उक्क हिदिवं० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-पंचिंदि०-घेउव्वि०--तेजा०-क०-वेउवि०अंगो०-वएण०४--अगु०४--तस०४णिमि-पंचंत० णि. बं. दुभाग० । सादावे-पुरिस०-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस०सिया० । तं तु । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० सिया० दुभागणं बं० । इत्थिवे० सिया० तिभागु० । समचदु०-देवाणु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदेउच्चा०णिय० बं० । तं तु० । एवं देवाणु ।
१२६. एइंदि० उक्क.हिदि०बं० पंचणा-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु०--तिरिक्खगदि-ओरालिय०--तेजा०-क०-- दो संस्थान, दो संहनन और अपर्यात इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणा हीन स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१२८. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्री वेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। समचतुरस्त्र संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, नियमसे एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१२६. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति,शोक,भय, जुगु
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उकस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
हुंड०--बएण०४-तिरिकावाणु०-अगु०४-थावर-वादर-पज्जत्त--पत्तेय--अथिरादिपंच-- णिमि०-णीचा-पंचंत० णि बं० । तं तु० । आदाउज्जो० सिया० । तं तु० । एवमादाव-थावर० ।
१३०. बीइंदि० उक्क०हिदिवं० पंचणा०-णवदंसणा-असादा-मिच्छ ०-सोलसक०-णबुंस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्वगदि-ओरालिय-तेजा-का-हुंड - ओरालि अंगो-असंपत्त०-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-तस--वादर-पत्तेयः -- अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा-पंचंत० णि संखेजदिभाग० । पर०-उस्सा०-उज्जो०अप्पसत्थ-वज्ज०-दुस्सर० सिया० संखेज्जदिभागू० । अपज्जत्त० सिया० । तं तु० । एवं बीइंदि० तीइंदि०-चदुरिंदि० ।
प्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच. निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट , एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। आतप और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट को अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१३०. द्वीन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानाबरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय. नपंसक वेद. अरति. शो जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, वर्ण चतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँभाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। परघात, उच्छास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, वज्रर्षभ नाराच संहनन और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनकट संख्यातवा भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। अपय प्रकृतिका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जातिके समान त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे १३१. पंचिंदियस्स उक्क हिदिवं० पंचणा०-णवदंसणा-असादा-मिच्छत्तसोलसक०-णवुस० अरदि-सोग-भय-दुगु-तेजा-क-हुड०-वएण०४-अगु०४-- अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि० बं० । तं तु० । णिरयाणु० णाणावरणभंगो । णिरयगदि-तिरिक्खगदि-ओरालि०-वेउवि०-दोअंगो०असंपत्त०-दोआणु०-उज्जो० सिया० । तं तु । एवं पंचिंदियभंगो अप्पसत्थ०तस-दुस्सर ।
१३२. आहारसरी० उक्क हिदिवं० पंचणा०-छदसणा-सादावे०-चदुसंज०पुरिस०-हस्स-रदि--भय--दुगु-देवगदि--पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा-क०-समचदु०वेउवि०अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०उच्चा-पंचंत० णि० बं० संखेज्जगुणही । आहार०अंगो० णि वं० । तं तु० । तित्थय० सिया० संखेज्जगुणहीणं । एवं आहार अंगो०।।
१३१. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। नरक गत्यानुपूर्वोका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। नरकगति, तिर्यश्चगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दोश्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिकासहनन, दोआनुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर प्रकृतियोंकी प्रमुखतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१३२. आहारक शरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुष वेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुण हीन स्थितिका बन्धक होता है । आहारक शरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहोन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार आहारक श्राङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १३३. णग्गोद० उक्क हिदिवं० पंचणा-णवदंसणा०-असादा० मिच्छ०सोलसक०-अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालिअंगो०वएण०४-अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ -णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि. बं० संखेंज्जदिभागू० । इत्थि०-णवुस-तिरिक्खग०-मणुसग-चदुसंघ०-दोघाणु०उज्जो सिया० संखेज्जदिभागू० । वज्जणारा० सिया० । तं तु. । एवं वज्जणारायण। सादिय० एवं चेव । णवरि णाराय सिया० । तं तु० । [एवं णारायणं ।]
१३४. खुज्ज० उक्क हिदिवं० पंचणा०-णवदंसणा-असादा०-मिच्छ०-सोलसक-णवूस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खगदि-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क-- ओरालि०अंगो०-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-अप्पसत्थ तस०४-अथिरादि छ०णिमि०-णीचा-पंचंत. णि• बं० णि० संखेज्जदिभागूणं० । दोसंघ०-उज्जोव०
१३३. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुस्कृष्ट संख्यातवा भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। स्त्री वेद, नपुंसक वेद, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, चार संहनन, दो आनुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है । वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वज्रनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । स्वाति संस्थानको मुख्यतासे भी सन्निकर्ष इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह नाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चहिए ।
१३४. कुब्जक संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, बस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो निययसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। दो संहनन और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
सिया संखेज्जदिभागू० । श्रद्धणारा० सिया० । तं तु० । एवं अद्धणारा० । वामणसंठा० तं चैव । वरि खीलिय० सिया० । तं तु । असंपत्त० उज्जो ० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं खीलिय० ।
उक्क० द्विदिवं ०
१३५. ओरालि० अंगो० पंचरणा० णवदंसणा ० असादा०मिच्छ० - सोलसक० - कुंस० - अरदि- सोग--भय- दुगु० - तिरिक्खगदि - पंचिदियजादिओरालिय० - तेजा० क ० हुड ० - संपत्त० वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४ - अप्पसत्थ०तस०४- अथिरादिछ०-रिणमि० णीचागो ० - पंचंत० पिय० बं० । तं तु० । उज्जो ० सिया० । तं तु० । एवं असंपत्त० ।
१३६. वज्जरि० उक्क० द्विदिवं०
७०
पंचरणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०- - सोलसक०
अर्धनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । वामन संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि यह कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् ग्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका
संख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार कीलक संहनन की अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१३५. श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्गकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुक, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योत प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है | यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार असम्प्राप्तासृपाटिका संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१३६. वज्रर्षभ नाराच संहननकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञाना
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा भय-दुगु -पंचिंदि०-ओरालि].-तेजा०-क०-ओरालि अंगो०-वएण०४-अगु०४-तस० ४-णिमि०-पंचंत. पि. बं. दुभाग० । सादा-पुरिस -हस्स-रदि-समचदु०-पसत्थ०थिरादिछ०-उच्चा• सिया । तं तु० । असादा-दुस-अरदि-सोग-तिरिक्वग०हुंडसं०-तिरिक्वाणु०-उज्जो०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०-णीचागो सिया दुभागूछ । इत्थि०-मणुसग०-मणुसाणु सिया०तिभागू०। चदुसंठा० सिया संखेनदिभागू०बंधदि।
१३७. सुहुम० उक्क डिदिबं० पंचणा-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छे-सोलसक०-गवुसग०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदिय०--ओरालि०-तेजा०-- क-ओरालि-हुडसं०-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-उप-थावर-अथिरादिपंचणिमि०-णीचा-पंचंत णि• बं० संखेज्जदिभागू० । पर०-उस्सा०-पज्जत्त-पत्तेग सिया० संखेज्जदिभागू० । अपज्जत्त-साधारण• सिया० । तं तु० । एवं साधारण । वरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, हुण्ड संस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होताहै। स्त्रीवेद, मनुष्य गति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भागन्यून स्थितिका बन्धक होता है। चार संस्थानका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबाधक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है।
१३७. सूक्ष्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। परघात, उच्छास, पर्याप्त और प्रत्येक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचिद, प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है.तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। अपर्याप्त और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार साधारण प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे १३८. अपज्जत्त० उक्क द्विदिबं० पंचणा-णवदंसणा-असादा-मिच्छत्तसोलसक०-णवुस-अरदि-सोग--भय-दुगु-तिरिक्खग-ओरालि०-तेजा०-क--- हुडसं०-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०--अथिरादिपंच-णिमि०--णीचा०--पंचंत० णिय० बं० संखेज्जदिभागू० । एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-असंपत्त-तसथावर-बादर-पत्तेय० सिया० संखेज्जदिभागू। तिएिणजादि-सुहुम-साधारणं सिया० । तं तु.।
१३६. थिर० उक्क हिदिवं पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक-भयदुगु-तेजा-क०-वएण०४-अगु०४-पज्जत्त-णिमि०-पंचंत० णि. बं. दुभागू० । सादा०-पुरिस०-हस्स-रदि-देवगदि-समचदु०-वज्जरिस०-देवाणु०-पसत्थ०-सुभादिपंच०-उच्चा० : सिया० । तं तु० । असाद०-णवुस-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-एइंदि०पंचिंदि०-ओरालिय-वेउव्विय०--हुडसं०-दोअंगो-असंपत्त -तिरिक्वाणु-प्रादा
__ १३८. अपर्याप्त प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्च गति, औदारिकशरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरोर, हुण्ड संस्थान,वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीच गोत्र और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थिति का बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासपाटिका संहनन, त्रस, स्थावर, बादर और प्रत्येक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। तीन जाति, सूक्ष्म और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है, यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है।
१३६. स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतु एक, अगुरुलघु चतुष्क, पर्याप्त, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, शुभ आदि पाँच और उच्चगोत्र इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक्त होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुस्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, हुण्ड संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, पातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायो
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसविण्यासपरूवणा
१०.
उज्जो ० -- अप्पसत्थ० --तस -- थावर - बादर-र-- पत्तेय० -- सुभादिपंच--पीचा० दुभाग्० । इत्थि० - मणुसगदि- मणुसाणु० सिया० तिभागू० । तिणिजादि-चदुसंठा०चदुसंघ० - सुहुम- साधार० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं सुभ-जस० । वरि अजस०- मुहुम- साधारणं वज्ज । १४०. तित्थय० क० द्विदिवं ० पंचरणा० छदंसणा ० - असादा ०- बारसक०पुरिस० - अरदि-सोग-भय-दुगु ० - देवर्गादि-पंचिंदि० - वेडव्वि ० - तेजा० क० --- समचदु० वेडव्वि० अंगो०-वरण ०४- देवाणु० गु०४-पसत्थ० -तस०४ - अथिर -- असुभ - सुभगसुस्सर-आदे० - जस० - णिमि० उच्चा० - पंचंत० णि० बं० णि० संखेज्जगुणही ० । उच्चा० पुरिसवेदभंगो । वरि तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० - उज्जोवं वज्ज ।
७३
सिया०
१४१. देसेण रइएस आभिणिबोधियणाणा० उक्क० द्विदिवं० चदुणा एवदंसणा ० - असादा०-मिच्छ० - सोलसक०स० - अरदि -- सोग-भय-दुगु० - तिरिक्खगदि - पंचिंदि०--ओरालि० -- तेजा० - क० - हुंड० - - ओरालि० अंगो० - असंपत्त०
0
-10
१. मूलप्रतौ वरि जस० इति पाठः ।
१०
गति, स स्थावर, बादर, पर्याप्त, अशुभ श्रादि पाँच और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्य गत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, सूक्ष्म और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि श्रयशःकीर्ति, सूक्ष्म और साधारण इन प्रकृतियोंको छोड़ कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
0
१४०. तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुष वेद, ऋरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैककिङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवेदके समान है । इतनी विशेषता है कि इसके तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इन तीन प्रकृतियोंको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए |
१४१. आदेश से नारकियोंमें श्रभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संह
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७४
महाबंधे दिदिबंधाहियारे वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-अप्पसत्थ-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि०--णीचा०-- पंचंत णि वं । तं तु । उज्जो० । सिया० । तं तु० । एवमेदारो ऍक्कमेकस्स । तं तु० ।
१४२. सादा० उक्क हिदिवं० पंचणा०-गवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-पंचिंदि०-ओरालि.-तेजा०-क-ओरालि अंगो-बएण-४--अगु०४-तस०४णिमि०-पंचंत णि. वं. णि. दुभागू । इत्थि-मणुसगदि०-मणुसाणु सिया० बं. तिभागू० । णबुंस०-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-हुड०-असंपत्त०--तिरिक्वाणु०--- उज्जो०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा० सिया० दुभागू० । पुरिस०-हस्स-रदिसमचदु०-वज्जरि-पसत्थ-थिरादिछ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । चदुसंठा०-चदुनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। और ऐसी अवस्थामें यह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है।
१४२. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियम से अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है। नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तास्पाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभ नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है
और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । चार संस्थान और चार संहननका कदाचित् बन्धक
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उक्कस्सपरत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा
संघ० सिया संखेज्जदिभागू० । एवं सादभंगो पुरिस० वज्जरि०-पसत्थ० - थिरादिछ० ।
१४३. इत्थि० उक्क० • हिदिबं० पंचरणा० - वदंसणा ० - असादावे ० - मिच्छ्र०सोलसक० अरदि-सोग-भय- दुगु ० पंचिंदि ०-ओरालि० तेजा ० क ०- ओरालि० अंगो०वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु० ४- अप्पसत्थ० -तस०४ अथिरादिछ० - णिमि० - णीचा०-पंचत० शि० बं० चदुभागू० । तिरिक्खगदि हुड० - असंपत्त० - तिरिक्खाणु० -- उज्जो ० सिया० चदुभागू० । मणुसग ०- मणुसाणु० सिया० । तं तु० | दोसंठा० - दोसंघ०सिया० संखेज्जदिभागू० ।
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०-हस्स-र
-रदि-समचदु०
१४४. तिरिक्खायु० उक्क० हिदिबं० पंचणा०-गवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक०भय- दुगु० -- तिरिक्खगदि - पंचिंदियजादि --ओरालि० --तेजा०- ० क० - ओरालि० अंगो० -- aru०४ - तिरिक्खाणु० गु०४-तस०४ - णिमि० णीचा० - पंचंत० ०ि बं० संखेज्जगुणही ० | सादावे० - असादावे०-सत्तणोक ० छस्संठा - ० - इस्संघ ० उज्जो ० दोविहा०
होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है । इसी प्रकार साता प्रकृतिके समान पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि छहकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१४३. स्त्री वेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, गुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नोचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । दो संस्थान और दो संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है ।
१४४. तिर्यञ्च युकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैज़स शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियम अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, छह संस्थान, छह संहनन, उद्योत, दो विहायोगति और स्थिर
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे थिरादिछ० सिया० संखेज्जगुणही।
१४५. मणुसायु० उक्क हिदिवं. पंचणा०-छदंसणा-बारसक०-भय-दुगुमणुसगदि-पंचिंदि०-ओरालि-तेजा०-का--ओरालि अंगो०--वएण०४--मणुसाणुअगु०४-तस०४-णिमि०-पंचंत णि• बं० संखेज्जगुणही । थीणगिद्धितिग-सादासाद-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-सत्तणोक०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०--थिरादिछयुग-तित्थया-पीचुच्चा० सिया० संखेज्जगुणही ।
१४६. मणुसगदि• उक्क हिदिबं० ओघं । णवरि अपज्जत्तं वज्ज । चदुसंठा०चदुसंघ-तित्थय० ओघं। वरि तित्थयरं मणुसगदिसंजुत्तं संचज्जगुणहीणं कादव्वं ।
१४७. एवं सत्तसु पुढवीसु। णवरि सत्तमाए मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० तित्थयरभंगो। सादादिपसत्थाओ इत्थिवे -पुरिस०-हस्स-रदि-दोएिणसंठा-दोएिणसंघडण णिय तिरिक्खगदिसंजुत्तानो सएिणयासे साधेदव्वाश्रो भवंति ।
१४८. तिरिक्वेसु आभिणिबोधि० उक्क०हिदि बं० चदुणाणा-गवदंसअसाद०-मिच्छ०-सोलसक-एस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-णिरयगदि-पंचिंदि०-- आदि छह इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है।
१४५. मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, मनुष्यगन्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, सात नोकषाय, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगल, तीर्थङ्कर, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है।
१४६. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष प्रोघके समान है। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्त प्रकृतिको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। चार संस्थान, चार संहनन और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यताले सन्निकर्षे ओघके समान है। इतमी विशेषता है कि मनुष्यगति संयुक्त तीर्थङ्कर प्रकृतिको संख्यातगुणा हीन कहना चाहिए।
१४७. इसी प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान है। तथा साता आदि प्रशस्त प्रकृतियाँ, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, दो संस्थान और दो संहनन इन प्रकृतियोंको सन्निकर्षमें निमयसे तिर्यञ्चगति संयुक्त ही साधना चाहिए।
१४८. तिर्यञ्चोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार शानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर,
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
वेउव्विय- तेजा ० क ० हुड० - वेडव्वि० अंगो०--वरण ० ४गिरयाणु० - अगु० - अप्पसत्य ०तस०४ - अथिरादिछ० - णिमि० णीचा० - पंचंत० लिय० वं० । तं तु० । गिरयायु० सिया० । यदि० णि० उकस्सा | आवाधा पुण भयपिज्जा । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० ।
१४६. सादावे० उक्क० द्विदिवं ० श्रघं । एवरि तिरिक्खर्गादि चदुजादिओरालि० चदुसंठा - ओरालि० अंगो०- पंच संघ ०-तिरिक्खाणु० - आदाउज्जो ० -- थावरसुहुम-अपज्जत्त-साधार० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं हस्स - रदीगं ।
१५०. इत्थवे० उक्क० द्विदिबं० श्रघं । रावरि तिरिक्खगदि-दोसंठा०-तिरिणसंघ० - तिरिक्खाणु० -उज्जो० सिया० संखेज्जदिभागू० । ओरालि० ओरालि ० अंगो० णि० वं० संखेज्जदिभागू० ।
१५१. पुरिस० उक्क ० द्विदिवं० ओघं ।
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एवरि तिरिक्खग० ओरालि० चदुकार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, नरक गत्यानुपूर्वी, गुरुलघु, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। नरकायुका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । परन्तु वाधा भजनीय है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | किन्तु तब वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है ।
१४९. सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जोवका भङ्ग श्रोधके समान है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, चार जाति, श्रदारिक शरीर, चार संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग होन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार हास्य और रतिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१५०. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवकी अपेक्षा सन्निकर्ष श्रोघके समान है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, दो संस्थान, तीन संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । दारिक शरीर और श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है ।
१५१. पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवकी अपेक्षा सन्निकर्ष श्रधके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च गति, श्रदारिक शरीर, चार संस्थान, औदारिक
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
संठा०-ओरालि॰ अंगो०-पंचसंघ० - तिरिक्खाणु ० उज्जो० सिया० संखेज्जदिभागू० । समचदु० -- वज्जरि० १०--पसत्थ०-- - सुभग-- सुस्सर - आदेज्ज० ।
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एवं पुरिसभंगो आयु० श्रघं ।
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१५२. तिरिक्खग० उक्क० हिदिबं० पंचरणा० एवदंसणा ० - असादा०- -मिच्छ०सोलसक० - एस० - अरदि-सोग-भय-दुगु० -ओरालिय० तेजा० क० - हु'ड० - वरण ०४अगु०४- उप०-अथिरादिपंच - णिमि० णीचा० - पंचत० णि० बं० संखेज्जदिभागू० । चदुजादि - -वामणसंठा - ओरालि० अंगो० -- खीलियसंघ० -- असंपत्त० - आदाउज्जो०-थावरादि०४ सिया० । तं तु० पंचिंदिय- पर० - उस्सा० - अप्पसत्थ० -तस०४ - दुस्सर० सिया० संखेज्जदिभागू० । तिरिक्खाणु० रिंग० बं० । तं तु० । तिरिक्खगदीए सह तं तु पदिदाणं णामाणं हेहा उवरि तिरिकखगदिभंगो । ग्रामाणं सत्थाणभंगो ।
श्रङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुखर और आदेय इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आयुकी अपेक्षा सन्निकर्ष श्रोघके समान 1
१५२. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । चार जाति, वामन संस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, कीलक संहनन, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, श्रातप, उद्योत और स्थावर आदि चार इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्लास, अप्रशस्त विहायोगति, स चतुष्क और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । यहाँ तिर्यञ्चगतिके साथ 'तं तु० ' रूपसे नाम कर्मकी प्रकृतियों के आगे पीछेकी जितनी प्रकृतियाँ गिनाई गई हैं, उनके सन्निकर्षका भङ्ग तिर्यञ्चगति प्रकृतिके सन्निकर्ष के समान है । तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष स्वस्थानके समान है ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १५३. मणुसगदिदुग० उक्क हिदिवं० अोघं । णवरि ओरालिय०-पोरालियअंगो० णिय० बं० संखेज्जदिभागू । खुज्जसं०-वामणसंठा-तिएिणसंघ०-अपज्जत्त० सिया० संखेज्जदिभाग।
१५४. देवगदिदुग० उक्त हिदिबं० ओघं । णग्गोद सादि० खुज्जसं0वज्जणा०-णाराय०-अद्धणारा० अोघं ।
१५५. थिर० उक्क हिदिवं० अोघं । णवरि तिरिक्खगदि-चदुजादि-अोरालि.. चदुसंठा०-ओरालि अंगो०-चदुसंघ०-तिरिक्वाणु०-आदउज्जो०-थावर-सुहुम-साधारण० सिया० संखेज्जदिभाग० । एवं सुभ-जस० । वरि जसगित्तीए सुहुम-साधारणं वज्ज । एवमेसभंगो पंचिंदियतिरिक्व-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-जोणिणीसु ।
१५६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेमु आभिणिबोधि० उक्क हिदिवं० चदुणाणवदंसणा० -असादा०-मिच्छ०-सोलसक०.णदुस० अरदि-सोग--भय--दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदि०-ओरालि-तेजा-क०-हुंड०-वएण०४--तिरिक्वाणु-अगु०--उप--
१५३. मनुष्यगतिद्विककी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवकी अपेक्षा सन्निकर्ष अोधके समान है। इतनी विशेषता है कि यह औदारिक शरीर और औदारिक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, तीन संहनन और अपर्याप्त इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है।
१५४. देवगतिद्विकको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष ओघके समान है। न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वज्रनाराच संहनन, नाराच संहनन और अर्धनाराच संहननकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष ओघके समान है।
१५५. स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष अोधके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, चार जाति, औदारिक शरीर, चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, चार संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग होन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ और यश कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय सूक्ष्म और साधारणको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। इसी प्रकार यह सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंके जानना चाहिए।
१५६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार शानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीच
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महाबंधे द्विदिवंधाहियारे थावरादि०४-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णिय बं० । तं तु० । एवमेदाश्रो ऍक्कमेक्कस्स । तं तु० ।
१५७. सादा० उक०हिदिबं० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०णवूस-भय-दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदि०--ओरालि --तेजा०-क०--हुड०--वएण०४तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णिय. बं० संखेज्जदिभागू० । हस्स-रदि० सिया० । तं तु० । अरदि-सोग० सिया० संखेजदिभागू० । एवं हस्स-रदीणं ।
१५८. इत्थिवे. उक्क हिदिबं० पंचणा-णवदंसणा० मिच्छ०-सोलसक-भयदुगु०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि अंगो०--वएण--४अगु०४--अप्पसत्थ०-तस०४-भग-दुस्सर-अणादे-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णि संखेज्जदिभागुणं । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-तिरिक्वगदि-मणुसगदि-तिएिणसंठा०गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है।
१५७. साता प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। हास्य और रतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होत है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। अरति और शोकका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार हास्य और रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१५८. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पोच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, मनुष्य
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिण्यासपरूवरणा
तिरिणसंघ० - दोचाणु० - थिराथिर - सुभासुभ-जस० - अजस० सिया० संखेंज्जदिभागू० । उज्जो सिया० संखेंज्जदिभागू० ।
१५६. पुरिस० उक० द्विदिवं० पंचणा० एवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक०-भयदुगु० - पंचिंदि० -ओरालि ० तेजा० क० ओरालि० अंगो०- वरण ०४ - अगु०४--तस०४णिमि० - पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद० - हस्स - रदि- अरदि-सोगतिरिक्खगदि- मणुसगदि-पंचसंठा०-पंच संघ० - दोश्राणु ० --उज्जो ० -- थिराथिर - सुभासुभ-दूर्भाग- दुस्सर-अरणादेज्ज-जस० - अजस० - णीचा० सिया० संखेज्जदिभागू- । समचदुर० वज्जरि ० - पसत्थवि ० - सुभग-सुस्सर यादे ० ० उच्चा० सिया० । तं तु० | एवं पुरिसवेदभंगो समचदु० - वज्जरिस०--पसत्थ० - सुभग-- सुस्सर - आदेο-- उच्चा० । वरि उच्चागो०-तिरिक्खग० - तिरिक्खाणु०-उज्जो० वज्ज ।
१६०. तिरिक्ख- मणुसायु ० गिरयभंगो । गवरि संखेज्जदिभागूणं बं० ।
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गति, तीन संस्थान, तीन संहनन, दो श्रानुपूर्वी, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है ।
१५६. पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, रति, शोक, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, श्रनादेय, यशःकीर्ति, श्रयशःकीर्ति और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्च गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवां भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और उच्चगोत्र की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रकी अपेक्षा सन्निकर्ष कहते समय तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
१६०. तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष नरकके समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है ।
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महाबंधे द्विदिबंघाहियारे १६१. मणुसगदि० उक०हिदिवं. पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०णवूस-भय-दुगु-पंचिंदि-ओरालि०-तेजा--क-हुंड०--ओरालि०अंगो०--असंपत्त०-वएण०४-अगु०-उप-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेय०-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०पंचंत. णिय० बं० संखेज्जदिभाग । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया. संखेज्जदिभाग० । मणुसाणु० णि वं० । तं तु० । एवं मणुसाणु ।
१६२. बीइंदि० उक्क हिदिवं० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०णवुस०--भय--दुगु-तिरिक्खग०-ओरालि०-तेजा०-क-हुंड --वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-बादर-अपज्जत्त-पत्ते-अथिरादिपंच--णिमि०--णीचा०-पंचंतरा० णि बं० संखेजदिभाग० । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० संखेजदिभाग । ओरालि०अंगो०-असंपत्त-तस० णि० बं० । तं तु० । एवं ओरालि.. अंगो -असंपत्त०-तस. त्ति ।
१६१. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग होन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१६२. द्वीन्द्रिय जातिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट,संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन और त्रस इनको नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्रातासृपाटिका संहनन और त्रस इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १६३. तीइंदि०-चदुरिं०-पंचिंदि० उक्क हिदिबं० तं चेव । णवरि ओरालि - अंगो-असंपत्त०-तस० णि बं० संखेजदिभाग० ।
१६४. णग्गोद० उक्क हिदिबं० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०भय-दुगु-पंचिंदि०-ओरालि०--तेजा --क०-ओरालि अंगो०--वएण०४--अगु०४-- अप्पसत्थ-तस०४-भग-दुस्सर-अणादेंज-णिमि०-णीचा०-पंचतरा० णि. बं. संखेज्जदिभागू० । सादासादा०-इत्थि-णवंस-हस्स-रदि-अरदि-सोग-तिरिक्खगदिमणुसगदि-चदुसंघ-दोआणु-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया० संखेज्जदिभागू० । वज्जणारा० सिया० । तं तु० । एवं वज्जणारा । सादिय० एवं चेव । णवरि पारायणं सिया० । तं तु० । एवं पारायणं ।
१६५. खुज्ज. उक्क हिदिवं० पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०णवुस०-भय--दुगु-पंचिंदि०-ओरालि-तेजा०-क०--ओरालि अंगो०-वएण०४
१६३. त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन और त्रस इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनत्कृष्ट संख्यातवां भाग होन स्थितिका बन्धक होता है।
१६४. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदा- . रिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्या तवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए । स्वाति संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि यह नाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्य का असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए।
१६५. कुब्जक संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मरण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुप्क, अगुरुलघु.
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-दूभग-दुस्सर-अण्णादें-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णि बं० संखेज्जदिभागणं । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि--सोग-तिरिक्खगदि--मणुसगदि-- दोसंघ०-दोआणु०-उज्जो -थिराथिर-सुभासुभ-जस--अजस० सिया० संखेंज्जदिभागू० । अद्धणारायणं सिया० । तं तु० । एवं अद्धणारायणं । वामणसंठाणं पि एवं चेव । णवरि खीलिय• सिया० । तं तु । .वं खीलिय० ।
१६६. पर० उक्क०हिदिवं० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०-णवुसभय-दुगु-तिरिक्वगदि-एइंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-हुड०-वएण०४-तिरिक्वाणु०अगु०-उप०-थावर-मुहुम-साधारण-दूभग-अणादें-अज-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णि बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-अथिर-असुभ. सिया० संखेजदिभागू० । पज्जत्त-उस्सा० णि बं० । तं तु० । थिर०-सुह सिया० ।
चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, दो संहनन, दो अानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । वामन संस्थानको मुख्यतासे सन्निकर्ष इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह कीलक संहननका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भीबन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार कीलक संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१६६. परघात प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, अस्थिर और अशुभ इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थिति का वन्धक होता है। पर्याप्त और उच्वास प्रकृतियोंका नियमसे वन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट
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उक्कस्सपरत्थाराबंधसण्णियासपरूवणा तं तु० । एवं उस्सास-पज्जत्त-थिर-मुभ ।
१६७. आदावउक्क हि बं० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसकणबुस०-भय-दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदिल-ओरालि०-तेजा.--क-हुंड०-वएण०४-तिरिक्रवाणु०-अगु०४-तस०४-दृभग-अणादे -णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि. बं० संखेंजदिभागूछ । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-मुभासुभ-अजस० सिया० संखेज्जदिभागृ० । जस० सिया० । तं तु । एवं उज्जोव-जस ।
१६८. अप्पसत्थ० उ.हि०० पंचणा-गवदंसणा०मिच्छ०-सोलसकलणदुस०-भय-दुगु-तिरिक्वग०-बेइंदि०-ओरालि --तेजा-क-हुंड०--ओरालि अंगो०-असंपत्त०-वरण०४-तिरिक्वाणु-अगु०४-तस०४-दूभ०-अणादें--णिमि०-णी
स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर और शुभ प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट.एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार उच्छास, पर्याप्त, स्थिर और शुभ प्रकृतियों को मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१६७. आतप प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नो दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय,नपुंसक वेद,भय, जुगुप्सा,तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति,
औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रस चतुष्क, दुर्भग, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर शुभ, अशुभ, और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातयाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार उद्योत और यश-कीर्तिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१६८. अप्रशस्त विहायोगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, त्रसचतुष्क, दुर्भग, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे चा-पंचंत० संखेज्जदिभाग० । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-उज्जो०-थिराथिरसुभासुभ-जस०-अजस० सिया० संखेज्जदिभागः । दुस्सर- णिय. बं० । तं तु०। एवं दुस्सर० ।
१६६. बादर० उ०हि०० पंचणा-पावदसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-णबुंस.. भय-दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदि०-ओरालि०-तेजा०-क-हुंड०-ओरालि०अंगोवरण ४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप.-थावर-अपज्जत्त-साधार-अथिरादिपंच--णिमि.-- णीचा०-पंचंत० णि• बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० संखेजदिभाग।
१७०. पत्तेय० उ०हि०व० पंचणा-णवदसणा-मिच्छ०-सोलसक०-णस०. भय-दु०-तिरिक्खग-एइंदि०-पोरालि०--तेजा--क-हुड०-ओरलिअंगो०--तिरि-- क्वाणु०--वएण०४-अगु०-उप०-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-अथिरादिपंच-णियि०-णीचा०पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभागूछ । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया. संखेजदिभागू० । वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशः कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है। दुःस्वर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार दुःस्वर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१६९, वादर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक साङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरु लघु, उपघात, स्थावर, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसेअनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवा भाग न्यन स्थितिका बन्धक होता है।
१७०. प्रत्येक प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व,सोलह कपाय, नपुंसक वेद,भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानु पूर्वी, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, अस्थिरादि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । साताबेदनीय,असाता वेदनीय, हास्य, रति, परति और शोक इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१७१. उच्चा० उ०हि०० धुवपगदीणं णियमा संखेज्जदिभागू० । सेसाम्रो परियत्तमाणियारो तिरिक्रवगदिसंजुत्तानो वज्ज सिया संखेज्जदिभागणं० ।
१७२. मणुस०३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। रणवरि आहारदुगं तित्थयरं ओघं । मणुसअपज्जत्त. पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो ।
१७३. देवेसु आभिणिबोधि० उक्क ट्ठिदिवं० चदुणा०-णवदंसणा० असादा०मिच्छ०-सोलसक०-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खग०-ओरालि०--तेजा०क०-हुड०-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि०णीचा०-पंचंत० णि बं० । तं तु० । एइंदि०-पंचिंदि--ओरालि अंगो०-असंपत्ताआदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-तस-थावर-दुस्सर• सिया । तं तु । एवमेदाओ ऍकमेंकस्स । तं तु० ।
१७१. उच्च गोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव ध्रुव प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। शेष जितनी परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं उनमेंसे तिर्यञ्चगति संयुक्त प्रकृतियोंको छोड़कर बाकी की प्रकृतियोंका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है।
१७२. मनुष्यत्रिकका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि आहारक द्विक और तीर्थकर इन तीन प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। तथा मनुष्य अपर्याप्तकोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है।
१७३. देवोंमें प्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमले उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है। एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति. त्रस, स्थावर और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह उत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
१७४. सादावे० उ० द्वि०बं० पंचरणा०-रणवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु० - ओरालि० - तेजा०--क० - वरण ०४- अगु०४ - बादर- पज्जत- पत्ते० - णिमि० पंचत० णि० बं० दुभागू० । इत्थि० - मणुसग० मसाणु० सिया० तिभागू० । पुरिस० - हस्स रदि-समचदु०- वज्जरि०-पसत्थ० - थिरादि६० उच्चा० सिया० । तं तु० । स०अरदि-सोग-तिरिक्खगदि- एइंदि०-पंचिंदि ० हुड० - ओरालि० अंगो० - असंपत्त० उज्जो०अप्पसत्थ०-तस थावर- आथिरादिछ०-रणीचा० सिया० दुभागू० । चदुसंठा० चदुसंघ० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं हस्स- रदि-थिर-सुभ-जसगित्ति० ।
१७५. इत्थि० उ०वि० बं० ओघं । पुरिस० उक० द्विदि० वं० श्रघं । एवरि देवगदिसंजुत्तं वज्ज । एवं पुरिसवेदभंगो समचदु० - वज्जरिस०-पसत्थ००-सुभग-सुस्सरआज्ज ० उच्चा० । गवरि उच्चा० तिरिक्खगदितिगं वज्ज ।
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१७४. सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह, कषाय, भय, जुगुप्सा, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, गुरुलघु चतुष्क, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट, दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है | स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है | यदि स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, चौदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है | यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । चार संस्थान और चार संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग न्यून स्थिति का बन्धक होता है । इसी प्रकार हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१७५. स्त्रीवेदको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवकी अपेक्षा सन्निकर्ष श्रोघके समान है । तथा पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवकी श्रपेक्षा सन्निकर्ष
के समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ देवगति संयुक्त को छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन. प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी मुख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय तिर्यञ्चगतित्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १७६. दो आयु. णिरयभंगो। मणुसग०-मणुसाणु०-चदुसंठा-चदुसंघ. णिरयभंगो । एइंदियस्स उ०वि० हेहा उवरि णाणावरणभंगो। णामाणं सत्थाणभंगो । एवं आदाव-थावर० । पंचिंदि० उ०हि०० हेहा उवरि णाणावरणभंगो । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं ओरालिअंगो०-असंपत्त०-अप्पसत्थवि०-तस-दुस्सर० । तित्थय० उक्क हिदिबं० णि भंगो।
१७७. भवण-वाणवेत०-जोदिसिय०-सोधम्मीसाणदेवेसु आभिरिणबोधि० उक्क हिदिवं० चदुणा०-गवदंसणा-असादा-मिच्छ ०-सोलसक०-एस--अरदि-- सोग-भय-दुगु--तिरिक्वग-एइंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-हुंड०--वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-थावर-बादर-पज्जत्त--पत्ते--अथिरादिपंच--णिमि०--णीचा०--पंचंत० णि बं० । तं तु । आदाउज्जो० सिया० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेकॅस्स । तं तु०।
- १७६. दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है । मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, चार संस्थान और चार संहननका भङ्ग नारकियोंके समान है। एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके आगे-पीछेकी प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है तथा नाम कर्मकी प्रकृतियों का भङ्ग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पञ्चन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके आगे-पीछेकी प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जोवका भङ्ग नारकियोंके समान है।
१७७. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पवासी देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानाधरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्टस्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। आतप और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवी भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्नि. कर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनु
र अनुत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका वन्धक होता है।
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महाबंधे ट्टिदिबंधाहियारे
१७८. सादावे ० उक० द्विदिवं देवोघं । वरि पंचिंदि० चदुसंठा० ओरालि०अंगो०- पंच संघ ० - अप्पसत्थ तस दुस्सर० सिया ० संखेज्जदिभागू० । एवं हस्स-रदिथिर- सुभ-जसगि० ।
९०
१७६. इत्थि० उक्क० हिदिबं० देवोघं । वरि पंचिदि० ओरालि० अंगो०- अप्पसत्थ०-तस दुस्सर० प्रिय० बं० संखेज्जदिभागू० । दोसंठा० तिरिणसंघ० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं मणुसग०- मणुसासु० ।
०
つ
१८०. पुरिस० उक्क० हिदि०बं० देवोघं । वरि पंचिदि० ओरालि ० अंगो० तस० णि० बं० संर्खेज्जदिभागू० । चदुसंठा० पंचसंघ० - अप्पसत्थ० दुस्सर० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं पुरिसवेदभंगो समचदु० - वज्जरिसभ० पसत्थवि० - सुभगसुसर दे - उच्चा० । वरि उच्चागोदे तिरिक्खगदितिगं वज्ज । १८१. पंचिदि० उक्क० द्विदिबं० पंचरणा० - रणवदंसरणा० - असादा०-मिच्छ०सोलसक० एस० - अरदि-सोग-भय-दुगु० -ओरालि ० -- तेजा ० क ० - वरण०४--तिरि१७८. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, चार संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति त्रस और दुःखर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१७९. स्त्री वेदी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःखर इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । दो संस्थान और तीन संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग म्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१८०. पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रस इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । चार संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति और दुःखर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, बज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय तिर्यञ्चगतित्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चहिए ।
१८१. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूयणा क्वाणु०-अगु०४-वादर-पज्जत्त-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि० --णीचा०--पंचंत० णि० वं० संखेजदिभाग० । वामणसंठा०-खीलिय०-असंपत्त० सिया० । तं तु० ! हुंडउज्जोव० सिया० संखेज्जदिभागू० । ओरालि अंगो०-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर० णियमा० । तं तु० । एवं पंचिदियभंगो वामणसंठा०-ओरालिअंगो०-खीलिय.. असंपत्त-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर त्ति । एवं चेव तिएिणसंठा-तिएिणसंघ० । णवरि अहारसीगारो सिया० संखेज्जदिभागू० । सोधम्मी० तित्थय० देवोघं ।।
१८२. सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति णिरयभंगो । आणद याव गवगेवज्जा त्ति आभिणिबोधि० उक्क हिदि०० चदुणा०-णवदंसणा-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-अरदि-सोग-भय-दुगु-मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०--हुड०-- ओरालि०अंगो०-असंपत्त०-वएण०४-मणुसाणु०-अगु०४-अप्पसत्य--तस०४--अथि--
चतुष्क, यादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और अन्तराय पाँच इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। वामन संस्थान, कीलक संहनन और असम्प्रोप्तासपाटिका संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिको भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षाअनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । हुण्ड संस्थान और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है। औदारिक अाङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान वामन संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, कीलक संहनन, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए तथा इसीप्रकार तीन संस्थान और तीन संहननकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनो विशेषता है कि जिन प्रकृतियोंका अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उनका यहाँ कदाचित् बन्ध होता है और कदाचित् बन्ध नहीं होता। यदि बन्ध होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है । सौधर्म और ऐशान कल्पमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है।
१८२. सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । प्रानत कल्पसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवों में प्राभिनिवोधक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार झानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय, जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति प्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
रादिछ० - णिमि० णीचा० पंचंत० णि० बं० । तं तु० । एवमेदा ऍकमेकस्स |
तं तु० ।
O
१८३. सादा० उक्क० हिदिबं० पंचरणा० - रणवदंसरणा०-मिच्छ० - सोलसक० -भयदुगु ० मणुस० पंचिंदि० ओरालि ० तेजा ० - ० - ओरालि० अंगो० - वरण ० ४ - मणुसाणु० - अगु०४-तस०४- णिमि० पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभागू० । इत्थि० - 'स०-रदि-सोग- पंचसंठा० पंचसंघ० अप्पसत्थ० अथिरादिछ० - णीचा० सिया० बं० संखेज्जदिभागू० । पुरिस०- हस्स- रदि- समचदु० - वज्जरि० पसत्थ०० - थिरादिव ० उच्चा० सिया० । तं तु० । एदाओ तं तु० । पडिदल्लिगाओ सादभंगो ।
१८४. आयु० देवोघं । चदुसंठा० चदुसंघ० देवोघं । वरि मणुसगदि० रिण ० बं० संखेज्जदिभागू० । तित्थय० देवोघं ।
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बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए और ऐसी अवस्था यह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है ।
१८३. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग होन स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग होन स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षमनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है | यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । यहां ये 'तं तु' पाठमें पठित जितनी प्रकृतियों हैं उनकी मुख्यतासे सन्निकर्षका विचार करने पर सोता प्रकृतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्ष के समान जानना चाहिए ।
१८४. आयु कर्मको मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है । चार संस्थान और चार संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष भी सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यह मनुष्यगतिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातर्वी भाग हीन स्थितिका वन्धक होता है । तीर्थङ्कर प्रकृति की मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १८५. अणुदिसादि याव सव्वहा त्ति आभिणिबोधि० उक्क हिदिवं० चदुणा०-छदंसणा-असादा० बारसक-पुरिस-अरदि-सोग-भय-दुगु-मणुसगदिपंचिंदि०-ओरालि-तेजा०-क-समचदु०-ओरालि अंगो-वज्जरिस०-वएण०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४--अथिर--असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अजस०णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णिय० बं० । तं तु । तित्थय सिया० । तं तु०। एवमेदाओ ऍकमेकसस । तं तु० ।
१८६. सादा० उक्त हिदिवं० हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० सिया। तं तु । अरदि-सोग-अजस-तित्थय० सिया० संखेजदिभागू० । सेसाणि णिय. बं. संखेजदिभाग० ।
१८५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में श्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, बस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, अयश कीर्ति, निर्माण उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है
और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें यह जीव उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है।
१८६. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव हास्य, रति, स्थिर, शुभ, और यशःकोर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समयन्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अयश-कीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवा भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है।
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
१८७. एइंदिय - बादर- मुहुम-पज्जत्तापज्जत्त० विगलिंदिय-पज्जत्तापज्जत्त० पंचिंदिय-तस अपज्जत्ता० पंचकायाणं बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त० पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । वरि थावराणं सव्वाश्र असंखेज्जदिभागूणं बंधदि । पंचिदियतस०२ मूलोघं । पंचमण० पंचवचि०- कायजोगि० मूलोघं । ओरालियकायजोगि०
सभंग | ओरालियमस्से मणुस पज्जत्तभंगो । वरि देवगदि० उक० हिदिबं० पंचणा० - दंसणा० - असादा० - बारसक० - पुरिस० अरदि- सोग-भय-दुगु० - पंचिंदि०तेजा० क० - समचदु० - वरण ० ४ - अगु०४ - पसत्थवि० -तस०४ - अथिर-- असुभ - सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-अस० - णिमि० उच्चा० - पंचंत ० णिय ० बं संखेज्जदिगुणहीणं बंधदि । वेउव्व० - उव्वि० अंगो० -देवाणु० रिण० बं० । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवं वेउव्वि० - वेडव्वि ० अंगो० देवाणु - तित्थयरं च । वेडव्वियकायजोगि० देवोघं । एवं वेउव्वियमिस्स० । वरि किंचि विसेसो जाणिदव्वो ।
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१८७. एकेन्द्रिय, इनके बादर और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और पर्याप्त, विकलेन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त त्रस अपर्याप्त, पाँच स्थावर काय, तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्षं पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि स्थावरोंमें सब प्रकृतियोंको संख्यातवें भाग न्यून बाँधते हैं । पञ्चेन्द्रियद्विक और सद्विक जीवों में सन्निकर्ष मूलोघके समान है । पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचन, योगी और काययोगी जीवों में भी सन्निकर्ष मूलोघके समान है । श्रदारिककाययोगी जीवों में सन्निकर्ष मनुष्योंके समान है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सन्निकर्ष मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगतिको उत्कृष्ट स्थितिका वन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, श्ररति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर श्रादेय, यशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच श्रन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियम अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियय से उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातव भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैकियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है । इसी प्रकार वैक्रियिक मिश्र काययोगी जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु यहाँ कुछ विशेष जानना चाहिए । १. मूलप्रतौ - तसपज्जत्ता० इति पाठः । २. मूलप्रतौ- पज्जत्ता पज्जत इति पाठः ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १८८.आहार-आहारमि० आभिणिबोधि० उक्क हिदिवं० चदुणा०-छदंसणा०. असादा०-चदुसंजल०-पुरिस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-देवगदि-पंचिंदि०-वेउचि०तेजा-क०-समचदु०-वेउव्वि०अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-अजस०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णिय० बं० । तं तु । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवमेदारो ऍक्कमेक्कस्स । तं तु०।
१८६. सादावे० उक्क हिदिवं० हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० सिया० । तं तु० । अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस-तित्थय सिया० संखेज्जदिभागू० । सेसा. धुविगाओ णि० बं० संखेजदिभागू० ।
१६०. देवायु० ओघं । एवं तं तु० सादभंगो ।
१८८. आहारक काययोगी और आहारक मिश्र काययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिक शानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुष वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इस प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें यह उत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका वन्धक होता है।
१८६. सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशाकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है।
१६०. देवायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। इस प्रकार यहाँ जितनी 'तं तु' पदवाली प्रकृतियाँ हैं उनका भङ्ग साता चेदनीयके समान है।
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महाबंधे दिदिबंधाहियारे १६१. कम्मइगेसु आभिणिबोधिय० उक्क डिदिबं० चदुणा०-णवदंसणाअसादा०-मिच्छ०-सोलसक०--णस०--अरदि--सोग--भय---दुगु-तिरिक्खगदिओरालि०--तेजा-क-हुडसंठा-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप-अथिरादिपंचणिमि०-णीचा-पंचंत० णि बं० । तं तु । दोजादी० ओरालियभंगो। असंपत्त०पर०-उस्सा०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थः-तस-थावर-बादर--सुहुम--पज्जत्तापज्जत्तपत्तेय -साधार०-दुस्सर• सिया० । तं तु. । एवमेदाओ ऍक्कमेक्कस्स । तं तु ।
११२. सादावे. उक्क हिदिबं. पंचणा--गवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०भय-दुगु-ओरालि०-तेजा-क०-वएण०४-अगु०-उप०-णिमि-पंचंत० णि. बं. संखेज्जदिभाग० । इत्थि०-णवुस-दोगदि-पंचनादि-पंचसंठा-ओरालि अंगो०-पंचसंघ ०-दोश्राणु-पर-उस्सा०--आदाउज्जो०-अप्पसत्थ० -तस--थावरादिचदुयुगलं
१९१. कोर्मण काययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार शानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पांच, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। दो जातियों का भङ्ग औदारिक शरीरके समान है। असम्प्राप्तारसपाटिका संहनन, परघात, उल्लास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, बस, स्थावर, वादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु तब यह उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है या अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातौं भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है।
१९२. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, दो गति, पाँच जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो श्रानुपूर्वी, परघात, उवास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर आदि चार युगल, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग म्यून स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेद, हास्य,
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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अथिरादिक० रणीचा ० सिया० संखेज्जदिभागू० । पुरिस०-हस्स - रदि-समचदु० वज्जरिस०-सत्थवि० - थिरादिछ० उच्चागो० सिया । तं तु० । एवं हस्स - रदीगं ।
0-
१६३. इत्थि० उक० हिदिबं० पंचणा० एवदंसणा ० - असादा०-मिच्छ०-सोलसक० -अरदि-सोग-भय-दुगु० - पंचिंदि० - ओरालि० - तेजा ० १०-क०० - ओरालि० अंगो०वरण ०४ - अगु० ४ - अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ० णिमि० णीचा० - पंचंत० शि० नं० संखेज्जदिभागू० । तिरिक्खगदिदुग - तिरिएणसंठा०-तिरिणसंघ ० उज्जो० सिया० संखेज्जदिभागू॰ । मणुसग० - मसाणु० सिया० । तं तु० ।
१६४. पुरिस० उक्क० द्विदिबं० पंचरणा० णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु० - पंचिंदि० - ओरालि ० तेजा० क० ओरालि० अंगो०-वरण ०४ - अगु०४--तस०४-णिमि०-पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभागू० । सादा० - हस्स - रदि- समचदु० - वज्जरि ० पसत्थवि० - थिरादिछ० - उच्चा० सिया० । तं तु० । प्रसादा०- -अरदि-सोग-दोगदि-पंच
रति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभ नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार हास्य और रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१९३. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, ऋरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगतिद्विक, तीन संस्थान, तीन संहनन और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है | यदि अनु स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है ।
१९४. पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, हास्य, रति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभ नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्च गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
संठा० - पंच संघ० - दोश्राणु ० उज्जो ० - अप्पसत्थ० अथिरादि० णीचा० सिया० संखेज्जभागू० । एवं पुरिसभंगो समचदु० - वज्जरिस ० - पसत्थ० - सुभग- सुस्सर यादेंοवरि उच्चागोदे तिरिक्खगदितिगं वज्ज |
० उच्चा० ।
१६५. मणुसगदि० उक्क० द्विदिबं० पंचा० एवदंसणा० - असादा०-मिच्छ०सोलसक० -भय-दुगु० - पंचिंदि० एवं याव णिमि० णीचा ० - पंचत० णि० बं० संखेज्ज - दिभागू० । इत्थवे० सिया० । तं तु० । पत्रुस ० - तिरिण संठा ० - तिरिणसंघ० - पर०उस्सा०- अप्पसत्थ०- पज्जत्तापज्जत- दुस्सर० सिया० संखेज्जदिभागू० । मणुसाणु ० णि० बं० । तं तु । एवं मसाणु० ।
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भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । श्रसाता वेदनीय, अरति, शोक, दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो श्रनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर • श्रादि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर आदेय और उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रको अपेक्षा सन्निकर्ष कहते समय तिर्यञ्चगति त्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
१९५. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जातिसे लेकर निर्माण तक तथा नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृटकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। नपुंसकवेद, तीन संस्थान, तीन संहनन, परघात, उल्लास, प्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःखर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १६६. एइंदियजा० उक्क छिदिबंध० पंचणा-णवदंसणा-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-णस०-अरदि-सोग-भय--दुगु--तिरिक्खग-ओरालि०--तेजा-कहुडसं०-वण्ण०४-तिरिक्वाणु -अगुरु-उप-थावर-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचागो०पंचंता णि बं० । तं तु० । पर-उस्सा०-यादाउज्जो०-बादर-मुहम-पज्जत्तापज्जत्तपत्तेय-साधारण० सिया० । तं तु । एवं पादाव-थावर० । णवरि आदावे सुहुमअपज्जत्त-साधारण बज्ज ।
१६७. तिरिणजादि० मणुसअपज्जत्तभंगो। चत्तारिसंठा०-चत्तारिसंह. देवोघं ।
१६८. पंचिंदियजादि० उक्क ठिदिवं० पंचणाणा०-णवदंसणा-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०-णाम. सत्थाणभंगो णीचागो-पंचंत. णिय. बं० । तं तु० । एवं ओरालि अंगो-असंप०-अप्पसत्थ०-तस०-दुस्सर० ।
१६६. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्च गति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है
और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । परधात, उवास, पातप, उद्योत, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार प्रातप और स्थावर इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि आतप प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
१९७. तीन जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। तथा चार संस्थान और चार संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है।
१९८. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और स्वस्थान भंगके समान नामकर्मको प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक है। इसी प्रकार औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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महाबंधे विदिबंधाहियारे १६४. परघाद० उक्क छिदिवं० पंचणा०-गवदंस०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-णबुस--अरदि-सोग-भय-दुगु०--तिरिक्खग०-ओरालि -तेजाक०हुंडसं०-वएण०४-तिरिक्वाणु --अगु० --उप--उस्सा०-बादर-पज्जत्त-पत्तेय०-अथिरादिपंच-णिमिणीचा०-पंचंत णिय० बं० । तं तु० । एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि. अंगो०-असंप०-आदाउज्जो०-अप्पस०-तस-थावर-दुस्सर० सिया० । तं तु । एवं उस्सा०-बादर-पज्जत्त-पत्तेय । उज्जोतिरिक्वगदिभंगो। वरि मुहुम-अपज्जत्तसाधारण. वज्ज।
२००. सुहुम० उ.ट्ठि०० पंचणा-णवदंसणा-असादा०--मिच्छ ०-सोल-- सक०-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खगल-एइंदि०-ओरालि०--तेजा-क०हुंड०-वएण०४-तिरिक्खाणु-अगु०-उप०-थावर-अपज्जत्त-साधारण--अथिरादिपंचणिमि०-णीचा-पंचंत० णि बं० । तं तु । एवं अपज्जत्त-साधारणं ।
१९९. परघातकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, उच्छवास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, प्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार उच्छवास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्षका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
२००. सूक्ष्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्च गति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारणको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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उकास्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा २०१. थिर० उ.हिवं. पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक-भयदुगु-ओरालि०-तेजा-क-वएण०४-अगु०४--पज्जत्त-णिमि०-पंचंत० णि० वं० संखेजदिभाग० । असादा-इत्थि०-णवुस-दोगदि-पंचनादि-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-पंचसंघ०-दोआणु०-आदाउज्जो-अप्पसत्थ०-तस--थावर-बादर-मुहुम--पत्ते.. साधारण-असुभादिपंच-णीचा० सिया० संखेज्जदिभागू० । सादा०-पुरिस -हस्स-रदिसमचदु०-वज्जरिस-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जस०-उच्चा० सिया । तं तु० । एवं सुभ-जस । गवरि जस० सुहुम-अपज्जत्त-साधारणं वज्ज ।
२०२. तित्थय० उ०हि०० पंचणा०-छदसणा०-असादा-बारसक०-पुरिस.. अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिदि०-तेजा.-क-समचदु०--वएण ०४--अगु०४-पसत्थवि०तस०४-अथिर-अमुभ-सुभग-सुस्सर-पादे०-अजस०-णिमि०-उच्चा-पंचंत०णि बं० संग्वेज्जदिगुणही । मणुसगदिपंचगं सिया० संखेजदिगुणहीणं। देवगदि०४
___२०१. स्थिरकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, पर्याप्त, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पाँच जाति, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, यातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, प्रत्येक, साधारण, अशुभ आदि पाँच और नीच गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवों भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, यश-कीर्ति और उच्चगोत्र इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ और यश-कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यश-कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
२०२. तीर्थङ्कर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु
तुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसवतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति. निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका वन्धक होता है। मनुष्यगति पञ्चकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है। देवगति चतुष्कका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित
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महाबंधे डिदिबंधाहियारे
सिया० । तं तु० । एवं देवगदि ० ४ । णवरि मणुसगदिपंचगं वज्ज । २०३. इत्थवेदे भिरिवोधि० उ० हि० बं० पदमदंड ओरालि० अंगो० - संपत्तसेवट्टसंघडणं वज्ज ।
२०४. सादा० उ० द्वि० बं० श्रघं । णवरि ओरालि० अंगो० - संपत्त० सिया० संखेंज्जदिभागू। सेसाणं पि सव्वाणं मूलोघं । वरि ओरालि० अंगो० - असंपत्त० अारसिगाहि सह सरिणयासो साधेदव्वो । पुरिसवे० ओघं ।
२०५. स० आभिणिबो० उ०हि०बं० चदुणा० - एवदंसणा असादा०मिच्छ०-सोलसक०-णवुंस ० -अरदि - सोग-भय- दुगु० -- पंचिदि० - तेजा० क० --वरण ०४हुंड० गु०४ - अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ० - णिमि० णीचा ० - पंचंत० रिण० वं । तं० तु० । णिरयगदि --तिरिक्खगदि-ओरालि ० - वेउच्वि ० - दो अंगो० - अप्पसत्थ० - दो
ओघं । एवरि
बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार देवगति चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि देवगति चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय मनुष्यगति पञ्चकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
२०३. स्त्रीवेदवाले जीवों में ग्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवकी अपेक्षा प्रथम दण्डक ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तासृपाटिका संहननको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
२०४. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवकी अपेक्षा सन्निकर्ष ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि यह औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातव भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। तथा शेष सब प्रकृतियों का सन्निकर्ष भी मूलोघके समान है । इतनी विशेषता है कि श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और सम्प्राप्तासृपाटिका संहनन इनका अठारह कोड़ा कोड़ी सागरकी स्थितिका बन्ध करनेवाली प्रकृतियोंके साथ सन्निकर्ष साधना चाहिए । पुरुषवेदवाले जोवों में अपनी सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष के समान है ।
२०५. नपुंसक वेदवाले जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, हुण्ड संस्थान, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थिति भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । नरकगति, तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त विहायोगति, दो आनुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है। यदि बन्धक होता
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा आणु०-उज्जो० सिया । तंतु० । एवमेदाओ ऍक्कमेक्स्स । तं तु० ।
२०६. सादा० उ०हि०व० अोघं । एवरि एइंदि०-आदाव-थावरं अटारसिगाहि सह सएिणयासे साधेदव्वं । सेसाणं मूलोघं । __ २०७. अवगदवे० आभिणिबोधि० उ०हि बं० चदुणा०-णवदंसणा०-सादा०चदुसंज०-जस०-उच्चा०-पंचत० णि० बं० । णि० उक्क० । एवं एदाओ ऍक्कमेक्केहि उकस्सा ।
२०८. कोधादि०४-मदि०-सुद०-विभंगे मूलोघं । आभिणि-सुद-बोधि०आभिणि. उ०ट्टि बं० चदुणा०-छदंसणा०-असादा०--बारसक०-पुरिस-अरदिसोग-भय--दुगु०--पंचिंदि०--तेजा--क०--समचदु०-वएण०४--अगु०४-पसत्थवि०तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अजस-णिमि-उच्चा०-पंचत० णि. बं० । तं तु० । मणुसगदि-देवगदि-ओरालि०-वेउव्वि०-दोअंगो-वज्जरि०-दोआणु०है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए और ऐसी अवस्थामें यह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है।
२०६. साता वेदनीयको उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष श्रोधके समान है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर इनको अठारह कोड़ा-कोड़ी सागरकी स्थितिवाली प्रकृतियोंके सन्निकर्ष में साध लेना चाहिए। तथा शेष प्रकृतियोंका सन्निकर्ष मूलीघके समान है।
२०७. अपगतवेदवाले जीवों में श्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन. यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार ये सब प्रकृतियों परस्पर एक दूसरेके साथ उत्कृष्ट स्थितिकी बन्धक होती हैं।
२०८. क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभङ्गज्ञानी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका सन्निकर्षमूलोकेसमान है। श्राभिनिबोधिक ज्ञानी,श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीवचार ज्ञानावरण, छः दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुस्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थकर इनका कदाचित्
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे तित्थय० सिया० । —तु० । एवमेदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० । ___ २०६. सादावे० उ.हिबं० हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसगि० सिया० । तं तु० । अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस०--देवगदि-दोसरी-दोअंगो०-वजरि०-दोआणु० तित्थय सिया० संखेजगुणहीणं० । सेसाओ णिय० बं० संखेज्जगुणही । एवं हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसगि ।
२१०. मणुसायु० उ०हि०बं० पंचणा०-छदंसणा-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि--- वएण०४-मणुसाणु०--अगु०४--पसत्थ---तस०४--सुभग-सुस्सर--आदें---णिमि०उच्चा०-पंचंत० णि० बं० संखेंजगुणही० । सादासा-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस०-तित्थय सिया० संखेजदिगुणहीणं० । देवायु० अोघं । बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थिति का बन्धक होता है तो नियम से उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए और तब ऐसी स्थितिमें यह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है।
२०९. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति, देवगति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशःकोर्तिकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२१०. मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छः दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर,समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णच. तुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकोर्ति, अयशःकीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृप संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। देवायुको अपेक्षा सन्निकर्ष अोधके
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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आहार-आहार०अंगो० ओघं । ___ २११. मणपज्जव०--संजद०-सामाइ०-छेदो०-परिहार० आहारकायजोगिभंगो। णवरि सादावे० उ.हि बं० अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस-तित्थय. सिया० संखेजदिगुणहीणं । धुविगाो णि• बं० संखेजगुणहीणं । एवं सादभंगो हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसगित्ति-देवायु० । णवरि देवायु० असादावे०-अथिर-असुभअजस० वज्ज । सेसाणं णाणावरणादीणं तित्थयरं गाइस्सदि त्ति णादव्वं ।
२१२. सुहुमसंपराइ० आभिणिबो० उ.हि०बं० चदुणाचदुदंसणा-सादा०जस०-उच्चा०-पंचंत० णि बं० णि उक्कस्सा । एवमेदाओ ऍक्कमेक्केण उक्कस्सा। ___२१३. संजदासंजदा० परिहार० भंगो। असंजद०-चक्खुदं०-अचक्खुदं० ओघं ।
ओघिदं. ओधिणाणिभंगो । किरणले. णवंसगभंगो । णवरि देवायु० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा०-सादा-मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दुगुं०-देवगदि-पसत्थट्ठावीस-उच्चा-पंचंत० णि• बं० संखेज्जगुणहीणं । समान है। आहारकशरीर और आहारक श्राङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है।
२११. मनःपर्ययज्ञानवाले, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धि संयत जीपों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष आहारक काययोगी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशाकीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहोन स्थितिका बन्धक होता है। ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार साता प्रकृतिके समान हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यश-कीर्ति और देवायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि देवायुको मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय असाता वेदनीय, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। शेष ज्ञानावरणादिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिको नहीं बाँधेगा,ऐसा जानना चाहिए।
२१२. सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार ये प्रकृतियों एक दूसरंकी अपेक्षा परस्पर उत्कृष्ट स्थितिबन्धको लिये हुए सन्निकर्पको प्राप्त होती हैं।
२१३. संयतासंयतोंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके समान है। असंयत, चक्षुदर्शनवाजे और अवक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। अवधिदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है। कृष्णलेश्यावाले जीवोंका भङ्ग नपुंसक वेदवाले जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियों, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमले अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २१४. णील-काऊणं आभिणिबो उहिबं० चदुणा०--णवदंसणाअसादा-मिच्छ०-सोलसक०-णस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०--तिरिक्खगदि-पंचिंदि०ओरालि०-तेजा-का-हुंडसं०--ओरालि अंगो०-संपत्त०--वएण०४-तिरिक्रवाणु०अगु०४-अप्पसत्थ -तस०४-अथिरादिछ-णिमि०--णीचा०-पंचंत० णि बं० । तंतुः । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० । सादा०-इत्थि०-पुरिस०-हस्स-रदि-मणुसग०पंचसंठा०-पंचसंघ-मणुसाणु०-पसत्थ -थिरादिछ०-उच्चा० तित्थयरं च णिरयभंगो।
२१५. णिरयायु० उ०हि०बं० पंचणा०-णवदंसणा-असादा-मिच्छ०-सोलसक०-णवूस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०-पंचिंदि०--तेजा--क-हुड०-वएण०४-अगु०४अप्पसत्थ---तस०४-अथिरादिछ०-णिमि०-णीचा०--पंचंत० णि. बं. संखेज्जगुणही० । णिरयग-वेउव्वि०-वेउवि अंगो०-णिरयाणु णिय. बं०। तंतु० उक्क० अणु० विट्ठाणपदिदं बंधदि, असंखेंजभागहीणं वा संखेज्जदिभागहीणं वा बंधदि । तिरिण-आयुगाणं अोघं ।
२१४. नील और कापोत लेश्यावाले जीवों में प्राभिनियोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तास्पाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका एक दूसरेको अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए और तब यह जीव उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहा. योगति, स्थिर आदि छह, उच्चगोत्र और तीर्थङ्कर इनका भङ्ग नारकियोंके समान है।
२१५. नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र
और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। नरकगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,दी स्थान पतित स्थितिका बन्धक होता है। या तो असंख्यात भागहीन स्थितिका बन्धक होता है या संख्यात भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। तीन आयुओंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा २१६. णिरयग० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा० असादा-मिच्छ०-सोलसक०-णस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०-तेजा-क०-हुड०-वएण० ४-अगु०४पसत्थ-तस० ४-अथिरादिछ०-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णिय बं० संखेज्जगुणही। णिरयायु० सिया । यदि० णियमा उक्कस्सा। आबाधा पुण भयणिज्जा । वेउव्वि०वेउवि अंगो०-णिरयाणु० णि० बं० । तं तु० । एवं वेउव्वि-वेउवि अंगो०णिरयाणु० । ___ २१७. देवगदि० उ०ट्टि बं० पंचणा-णवदसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-पंचिंदि०-तेजा-का-समचदु०-वएण०४--अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभगसुस्सर-आदें -णिमि०-उच्चा-पंचंत णि बंणि अणु संखेज्जगुणही । सादासाद०--हस्स--रदि-अरदि-सोग--इत्थि-पुरिस-थिराथिर-सुभासुभ--जस-अजस० सिया संखेज्जगुणही । वेउवि०-वेवि० अंगो णि० ब० णि संखेज्जगुणही। देवाणु० णि• बं । तं तु० । एवं देवाणु ।
२१६. नरकगतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच छानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पश्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। नरकायुका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। परन्तु आबाधा भजनीय है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिकाभी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२२७. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
२१८. एइंदि० उक्क० द्वि०चं० पंचरणा० एवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक० स०भय० - दु०--तिरिक्खगदि-ओरालिय० - तेजा ० ०-क०- -- हुंड०-वरण०४- तिरिक्खाणु०अगु० -उप० - दूभग अरणादे० - रिणमि० णीचा० -पंचंत० रिग० बं० संखेज्जगुणही ० । सादासा०-हस्स-रदि- अरदि- सोग - पर० - उस्सा० उज्जो ० - बादर - पज्जत्त-- पत्तेय०-थिराथिर- सुभाशुभ-जस० - अजस० सिया संखेज्जगुणहीणं । आदाव- सुहुम-अपज्जतसाधार० सिया० । तं तु । थावर० णि० बं० । तं तु० । एवं आदाव - थावर० ।
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२१६. बीइंदि० उ० द्वि०० हेद्वा उवरिं एइंदियभंगो | णामारणं सत्थाणभंगो । एवं तीइंदि - चदुरिंदि ० | सुहुम-साधारणं एइंदियभंगो । वरि आदाउज्जोत्रं वज्ज । अपज्जत्त० उ० हि०० हेडा उवरि एइंदियभंगो । गामाणं सत्थाणभंगो ।
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उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२१८. एकेन्द्रिय जातिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, दुर्भग, श्रनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, परघात, उच्लास, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, स्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकोर्ति और अयशःकोर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातच भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । स्थावर प्रकृतिका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका वन्धक होता है । इसी प्रकार आतप और स्थावरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२१९. द्वीन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवके नीचे और ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रिय जातिके समान है । तथा नाम कर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार श्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा सूक्ष्म और साधारण प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष एकेन्द्रिय जातिके समान है । इतनी विशेषता है कि श्रातप और उद्योतको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। अपर्याप्त प्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवके नीचे और ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रिय जातिके समान है । तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१०९ २२०. तेऊए देवगदि० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०भय-दुगु-पंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०-वएण०४-अगु०४--पसत्थ०-तस०४-सुभगसुस्सर-आदे-णिमि०-उच्चा०-पंचंत णि बं० संखेज्जगुणही। सादासाद०-इत्थिपुरिस०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ--जस०-अजस० सिया० संखेज्जगुपही। वेउवि०-बेउबि० अंगो०-देवाणु०णि बं० । तं तु । एवं वेउधि-वेउन्धि अंगो०-देवाणु० । तिरिक्व-मणुसायुगं देवोघं ।
२२१. देवायु० उ०हि०० पंचणा-छदंसणा०-सादा०-चदुसंज०-पुरिस-हस्सरदि-भय-दुगु-देवगदि-पसत्थहावीस-उच्चा-पंचंत० णिय० बं० संखेज्जगुणहीणं० । थीणगिद्धितिय-मिच्छ०-बारसक०-तित्थय सिया० संखेंज्जगुणही । सेसाओ पगदीओ सोधम्मभंगो । 'णवरि आहारदुगं अोघं । एवं पम्माए वि । पवरि सहस्सारभंगो कादव्यो।
२२०. पीत लेश्यावाले जीवोंमें देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलधु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, निर्माण, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशाकीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है।
२२१. देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो मियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय. और तीर्थङ्कर इनका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पद्म लेश्याम भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसमें सहस्रार कल्पके समान कथन करना चाहिए।
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महाबंधे विदिबंधाहियारे २२२. सुकाए आणदभंगो । णवरि देवायु० ओघ । देवगदि० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुमुं०-पंचिंदिय०-तेजा.-क०-समचदु०वरण०४-अगु०४-पसत्थ -तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत णिय० बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद०-इथि०-पुरिस०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिरादितिरिणयुगलं सिया० संखेज्जदिभाग० । वेउब्बि०-वउवि० अंगो०-देवाणु० णियमा बंधगो । तं तु० । एवं वेउन्वि०-वेउवि अंगो०-देवाणु । आहारदुगं ओघं । _____२२३. भवसिद्धिया० अब्भवसिद्धिया० ओघं । सम्मादिहि-वइगसम्मादि० वेदगस०-उवसमसम्मा० ओधिभंगो। एवरि उवसमे तित्थयरस्स संजदभंगो । सेसाणं सम्मादिहीणं तित्थय० उ०हि०० देवगदि-वेउव्वि०-वेउवि०अंगो०-देवाणु० णि बं०। तंतु०।णवरि खइगे मणुसगदि-देवगदिसंजुत्ताओ सत्थाणे कादम्बाश्रो ।
२२२. शुक्ल लेश्यामें आनत कल्पके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि देवायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष श्रोधके समान है। तथा देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे यन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवा भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक और स्थिर आदि तीन युगल इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा आहारक द्विककी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है।
२२३. भव्य और अभव्य जीवों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष ओघके समान है। सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि उपशम सम्यक्त्वमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग संयत जीवोंके समान है। शेष सम्यग्दृष्टि जीवों में तीर्यङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग
और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इतनो विशेषता है कि क्षायिक सम्यक्त्वमें मनुष्यगति और देवगति संयुक्त प्रकृतियोंको स्वस्थानमें कहना चाहिए ।
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उक्कस्सपरत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा
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२२४. सासणे' आभिणिवोधि० उक्क० द्वि० बं० चदुष्णा ० रावदंसणा ० - असादा०सोलसक०--इत्थि०--अरदि-सोग-भय- दुगु० - तिरिक्खगदि-पंचिंदि० -ओरालि०-तेजा०क० - वामणसंठा०-ओरालि० अंगो०- खीलियसंघ०--वरण० ४- तिरिक्खाणु०--अगु०४अप्पसत्थ०-तस०४- अथिरादिछ० - णिमि० णीचा० - पंचंत० णि० बं० । तं तु० । उज्जो ० सिया । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेक्स्स । तं तु० |
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२२५. सादा० उ० हि०चं० पंचरणा०- एणवदंसणा ० - सोलसक० - भय--दुगु ० पंचिदि० - तेजा ० क ० -वरण ०४ गु०४-तस०४ - णिमि० - पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभागूणं बं० । इत्थि०-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-मणुसगदि रालि० चदुसंठा० - ओरालि० गो० - चदुसंघ० - दोआणु ० उज्जो ० - अप्पसत्थ० अथिरादिछ०-- णीचा ० सिया० संखेज्जदिभागू० । पुरिस० - देवर्गादि- वेउव्वि० - समचदु० - वेडव्वि ० अंगो० वज्जरि०- देवाणु०
२२४. सासादन सम्यक्त्व में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वामन संस्थान, श्रीदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, कीलक संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, गुरुलघु चतुष्कं श्रप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि श्रनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए और तब यह उत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है ।
२२५. सातावेदनीयको उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, चार संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, चार संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह ओर नोच गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ १ मूलप्रतौ सासणे उक्क० हि० बं० आभिणिबोधि० चदुणा० इति पाठः ।
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महाबंधे हिदिबंधाहियार
पसत्थ०-थिरादिछ०-उच्चा० सिया० बं० । तं तु० । एवं सादभंगो पुरिस-हस्स-रदिसमचदु०-वजरिस-पसत्थ-थिरादिछ ०-उच्चा० । तिण्णिायुगाणं अोघं ।
२२६. मणुसग० उ०हिबं० पंचणा-णवदंसणा-असादा-मिच्छ०- सोलसक०-इत्थिवे -अरदि-सोग-भय-दुगु०--णाम सत्थाणभंगो णीचा०-पंचंत० णि. बं. संखेजदिभाग० । इत्थि.णि ५० संखेजदिभागू। मणुसाणु० णि• बं । तं तु०। एवं मणुसाणु। ___ २२७. देवगदि० उ हि०० पंचणा--णवदंसणा०--सोलसक०--भय-दुगु०उच्चा-पंचंत-णि बं० संखेज्जदिभागणं० । सादा०-पुरिस०-हस्स-रदि सिया० । तं तु० । असादा०-इथिवे०-अरदि-सोग० सिया संखेज्जदिभाग० । णामाणं सत्थाण
नाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार सातावेदनीय प्रकृतिके समान पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्च गोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीन अायों की मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है।
२२६. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्वस्थान भङ्गके समान नाम कर्मको प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि • अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२२७. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुकृष्ठ संख्यातवाँ भाग होन स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य और रति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, अरति और शोक इनका कदाचित् यन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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भंगो। एवं वेडव्वि ० -वेउव्वि ० अंगो ० -देवाणु० । तिणिसंठा०-- तिरिणसंघ० ओघं ।
२२८. सम्मामि० वेदग०भंगो | मिच्छा दिहि त्ति मदि० भंगो । सरिण० श्रघं । eerut भिबोधि० उ०ट्ठि०बं० यथा तिरिक्खोघं पढमदंडो तथा दव्वा । सादावे० - इत्थवे ०-हस्स -रदि- अरदि० पंचिदियतिरिक्त पज्जत्तभंगो |
२२६. पुरिस० उ० द्वि०बं० पंचरणा०- रणवदंसणा ० - मिच्छ० - सोलसक०-भयदुगु० -- पंचिंदि० --तेजा० - क० - वरण ०४ - गु०४-- तस४ - णिमि० -- पंचंत० शि० बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद० - हस्स-रदि-अरदि-सोग दोगदि - ओरालि० - पंचसंठा०ओरालि० अंगो०-पंच संघ० - दोआणु ० उज्जो ० - अप्पसत्थ० - थिराथिर - सुभासुभ-जस०अजस०-णीचा० सिया० संखेज्जदिभागू० । देवगदि-समचदु० वज्जरिस०-देवाणु ०पसत्थ० - सुभग-सुस्सर-आदे० उच्चा० सिया० । तं तु० । वेउव्वि० [ वेडव्वि ० ]अंगो ० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं पुरिसभंगो समचदु० - वज्जरिसभ ०-पसत्थ० सुभग-सुस्सरहोता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार वैकियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीन संस्थान और तीन संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष के समान है ।
२२८. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग वेदक सम्यग्दृष्टियोंके समान है । मिथ्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानियोंके समान है। संक्षी जीवों में ओघके समान है । संत्री जीवों में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवके जिस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चों के प्रथम दण्डक कहा है, उस प्रकार जानना चाहिए | साता वेदनीय, स्त्रीवेद, हास्य, रति और अरतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिए ।
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२२६. पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, घचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमले बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, साता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, दो गति, श्रदारिक शरीर, पाँच संस्थान, दारिक आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति, श्रयशः कीर्ति और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातव भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । देवगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्वमनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है | यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातव भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । वैकयिक शरीर और वैकियिक आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभ
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महाबंधेटिदिबंधाहियारे आदे-उच्चा० । वरि उच्चागोदे तिरिक्खगदितिगं वज्ज ।
२३०. दोएहं आयुगाणं तिरिक्खगदीए । णवरि संखेज्जदिभाग० । णिरयायुग० उ०छि बं० याओ पगदीओ बंधदि तारो पगदीनो तं तु विहाणपदिदं बंधदि, असंखेज्जदिभागहीणं वा संखेज्जदिभागहीणं वा। देवायु० उ०हिबं० यथा तिरिक्खगदीए। वरि पंचणा०-गवदंसणा०-सादावे०-मिच्छ०-सोलसक०-पुरिसहस्स-रदि-भय-दु०-देवगदि-पसत्थवावीस-उच्चा०-पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभाग० ।
२३१. तिरिक्खगदि० उ०हि०बं० पंचणा०-गवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-गवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तेजा--क०-हुंडसं-वएण०४-अगु०-- उप०-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभाग० । एइंदि०
ओरालि-तिरिक्खाणु०-थावर-मुहुम-अपज्जत्त-साधार०णि बं० । तं तु । एदासिं तं तु० पदिदाणं सरिसो भंगो कादव्यो । मणुसगदिदुगं यथा अपज्जत्तभंगो।
बाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी मुख्यतासे समझना चाहिए। इतनो विशेषता है कि उच्चगोत्रमें तिर्यश्चगतित्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
२३०. दो आयुओंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष तिर्यश्चगतिके साथ कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातवाँ भाग न्यून कहना चाहिए । नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव जिन प्रकृतियोंको बाँधता है उन प्रकृतियोंको वह दो स्थान पतित बाँधता है। या तो असंख्यातवाँ भाग हीन बाँधता है या संख्यातवाँ भाग हीन बांधता है। देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव तिर्यश्चगतिमें कहे गये सन्निकर्षके समान सन्निकर्षको प्राप्त होता है। इतनी विशेषता है कि पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति प्रभृति अट्ठाईस प्रशस्त प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है।
२३१. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। यहाँ इन 'तं तु' पतित प्रकृतियोंका एक समान भङ्ग करना चाहिए । तथा मनुष्यगति द्विककी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तके समान है।
१-मूलप्रतौ तिगं च दोएह इति पाठः ।
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा २३२. देवगदि० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-पंचिंदि. याव णिमिण त्ति पंचंत० णि० ब० संखेज्जदिभागू० । सादासाद०इत्थिवे०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस० सिया संखेज्जदिभागू० । पुरिस. सिया० । तं तु । समचदु०-देवाणु०-पसत्थवि -सुभग-सुस्सरआदेज्ज-उच्चा० णि० बं० । तं० तु०। विउवि.] वेउव्विअंगो० णि० बं० संखेज्जदिभागः । एवं देवाणु०। ओरालि०-ओरालि अंगो०-असंपत्त० अपज्जत्तभंगो । आदाउज्जो०-थिर-सुभ-जस० अपज्जत्तभंगो। २३३. आहार० मूलोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो ।
एवं उक्कस्सपरत्थाणसएिणयासो समत्तो । २३४. जहएणए पगदं। एत्तो जहएणपदसएिणयाससाधणहूँ अपदभूद-- समासलक्षणं वत्तइस्सामो । तं जहा-पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छादिहीणं अब्मव
२३२. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जातिसे लेकर निर्माण तक और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवा भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयशाकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यहि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । समचतुरस्र संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तकस्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुकृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तासृपाटिका संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तके समान है। तथा आतप, अद्योत, स्थिर, शुभ और यशःकर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तके समान है।
२३३. आहारक जीवों में अपनी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष मूलोधके समान है और अनाहारक जीवों में कार्मण काययोगी जीवोंके समान है।
इस प्रकार उत्कृष्ट परस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ।
२३४. जघन्य सन्निकर्षका प्रकरण है। इस कारण जघन्य पद सन्निकर्षकी सिद्धि करने के लिये अर्थपदभूत समास लक्षण कहते हैं। यथा-पञ्चेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि जीवों में
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महाबंधे द्विदिवंधाहियारे सिद्धिया० पायोग्गं अंतोकोडाकोडिपुषत्तं बंधमाणस्स णत्थि हिदिबंधवॉच्छेदो । अंतोसागरोवमकोडाकोडीए अद्धटिदिबंधहायं बंधमाणो पि ण बंधदि । तदो सागरोवमसदपुधत्तं अोसरिदूण णिरयायुबंधो औच्छिज्जदि। तदो सागरोवम० प्रोसक्कि० तिरिक्खायुबंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमा अोसकि. मणुसायु० बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवम० ओसकि. देवायु० बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवम०
ओसक्कि० णिरयगदि-णिरयाणुपु० एदारो दुवे पगदीओ ऍक्कदो बंधवॉच्छेदो । तदो सागरोवम० ओसकि० सुहुम-अपज्जत्त-साधारण. संजुत्तानो एदाओ तिषण पगदीओ एकदो बंधवाँच्छेदो । तदो सागरो० अोसक्कि० सुहुम-अपज्जत्त-पत्तेय. संजुत्ताप्रो तिएिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवाँच्छेदो। तदो सागरो० ओसक्कि० बादर-अपज्जत्तसाधारणं संजुत्ताओ एदारो तिएिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवाँच्छेदो। तदो सागरो०
ओसक्कि० बादर-अपज्जत्त-पत्तेय. संजुत्ताओ एदारो तिएिण पगदीओ ऍकदो बंधवोंच्छेदो। तदो सागरो० ओसक्कि० बीइंदि०-अपज्जत्त० एदारो दुवे पगदीओ एक्कदो बंधवाच्छेदो । तदो सागरो० अोसक्कि० तीइंदि०-अपजत्त० एदारो दुवे पगदीनो एक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० चदुरिंदि०-अपज्जत्त० एदाओ दुवे पगदीओ एकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० ओसक्कि० पंचिंदियअसएिणअपज्जत्त० एदाओ दुवे पगदीनो एक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसकि० पंचिंअभब्योंके योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ी पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके स्थितिकी बन्ध व्युच्छित्ति नहीं होती। अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके आधे स्थिति बन्ध स्थानका बन्ध करनेवाला भी नहीं बाँधता । पुनः इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होनेपर नरकायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होने पर तियंञ्चायुको बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होनेपर मनुष्यायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर देवायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धन्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर सूक्ष्म, अपर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर बादर, अपर्याप्त और साधारण संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर बादर अपर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर द्वीन्द्रिय जाति और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर त्रीन्द्रिय जाति और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियों की एक साथ बन्धव्युच्छिंत्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर चतुरिन्द्रिय जाति और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियों की एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
११७ दियसरिण-अपज्जत्त. एदारो दुवे पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो.
ओसकि. 'मुहुम-पज्जत्त-साधाराण. एदारो तिएिण पगदीओ एकदो बंधवोंच्छेदो । तदो सागरो० अोसक्कि० सुहुम पज्जत्त-पत्तेय. संजुत्तानो एदारो तिएिण पगदीनो ऍक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० ओसक्कि० बादर-पज्जत्त-साधारणसंजुत्तानो एदाओ तिगिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० अोसकि० बादरएइंदि०-आदाव-थावर-पज्जत्त-पत्तेय. संजुत्ताओ एदाओं पंच पगदीयो ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० बीइंदिय-पज्जत्त० संजुत्तानो एदाओ दुवे पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० ओसकि० तीइंदिय-पज्जत्त. संजुत्ताओ एदारो दुवे पगदीओ बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० अोसकि चदुर्ति दियपज्जत्त० संजुत्ताओ एदारो दुवे पगदीयो० बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० पंचिंदि०असएिण-पज्जत्त० संजुत्ताओ एदोओ दुवे पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० अोसक्कि तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु०उज्जो० संजुत्तानो एदारो तिषिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० अोसक्कि० णीचा० बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादे० एदाओ चदुपगदीश्रो ऍक्कदो
सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर पञ्चेन्द्रिय संझी और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्ध व्यच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर सूक्ष्म. पर्याप्त और साधारण इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर सूक्ष्म, पर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर बादर, पर्याप्त और साधारण संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर बादर एकेन्द्रिय, आतप, स्थावर, पर्याप्त
और प्रत्येक संयुक्त इन पाँच प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर द्वीन्द्रिय जाति और पर्याप्त संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर त्रीन्द्रिय जाति और पर्याप्त संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर चतुरिन्द्रिय जाति और पर्याप्त संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्यच्छित्ति होती है। इससे सौ सागरपृथक्त्वका अपसरण होकर पञ्चन्द्रिय असंही और पर्याप्त संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागरपृथक्त्वकाअपसरण होकर नीचगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इन चार प्रकृतियों की एक साथ
१. मूलप्रतौ सुहुम अपजत्त इति पाठः । २. मूलप्रतौ बादर अपजत्त इति पाठः । ३. मूलप्रती एदाश्रो दो पगदीनो इति पादः ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे बंधवोच्छेदो। तटो सागरो• अोसक्कि० हुंडसं०-असंवत्त० एदारो दुवे पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० णवुस बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० वामणसं०-खीलियसं० एदाओ दुवे पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसकि० खुज्जसं०-अद्धणारा० एदारो दुवे पगदीनो ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० इत्थिवे. बंधवाच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० सादिय०णाराय. पदाओ दुवे पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो-सागरो० ओसक्कि णग्गोद-वज्जणारा० एदाओ दुवे पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो. ओसक्कि० मणुसगदि-ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वज्जरिस०-मणुसाणु० एदाओ पंच पगदीओ एकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसकि० असादा०-अरदि-सोगअथिर-असुभ-अजस० एदारो छ पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । एत्तो पाए सेसाणि सव्वकम्माणि सव्वविसुद्धो बंधदि । एदेण अट्टपदेण समासभूदलक्खणेण साधणेण ।
२३५. जहणणसरिणयासो दुविधो-सत्थाणसएिणयासो चेव परंत्थाणसरिणयासो चेव । सत्थाणसएिणयासे पगदं। दुविधो णिद्देसो-अोघे० आदे।
ओघे० आभिणिबोधि. जहएणहिदिबंधमाणो चदुरणं णाणावर. णियमा बंधगो । णियमा जहएणा । एवमेकमेकस्स जहएणा ।
बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर हुण्ड संस्थान और असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर नपुंसकवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर वामन संस्थान और कीलक संहनन इन दो प्रक्रतियोंकी एक साथ बन्धव्यच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर कुञ्जक संस्थान और अर्धनाराच संहनन इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर स्त्रीवेदको बन्धव्युच्छित्तिहोती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर स्वाति संस्थान और नाराच संहनन इन दो प्रकृतियों की एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान और वज्रनाराच संहनन इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन पाँच प्रक्रतियोंकी एक साथ बन्धव्यच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इन छह प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे आगे प्रायः शेष सब कर्मीको सर्वविशुद्ध जीव बाँधता है। इस अर्थपद रूप समासभूत लक्षण साधनके अनुसार
२३५. जघन्य सन्निकर्ष दो प्रकारका है-स्वस्थान सन्निकर्ष और परस्थान सन्निकर्ष । स्वस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है----श्रोध और आदेश ।
ओघसे आभिनिबोधिक शानावरणकी जघन्य स्थितिका वन्धक जीव चार ज्ञानावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार परस्पर जघन्य स्थितिके बन्धक होते है।
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
११९ २३६. णिदाणिदाए जहएणहिदिबंधतो पचलापचला थीणगिद्धी णिद्दा पचला य णिय बंध० । तं तु जहण्णा वा अजहरणा वा । जहणणादो अजहण्णा समजुत्तरमादि कादृण याव पलिदोवमस्स असंखेन्जदिभागब्भहियं बंधदि । चदुदंसणा० णि० बं० णि' अजह असंखेज्जगुणब्भहियं बंधदि । एवं णिहणिद्दभंगो चदुदंसणा। चक्खुदं० जह• हि बं० तिरिणदंसणा० णि बं० णि जहएणा । एवमेक्कमेकस्स । तं तु जहण्णा० ।
___ २३७. साद० जहि०० असाद. अबंधगो । असाद० जह• हि०० साद अबंधगो।
२३८. मिच्छत्त० जहहिबं. बारसक०-हस्स-रदि-भय-दुगु जि. बं० । तं तु जह० अजहण्णा वा । जह० अजह समजुत्तरमादि कादूण याव पलिदोवमस्स असंखेंजदिभागभहियं बंधदि । चसंज-पुरिस० णि. बं. णि अज. असंखेंजगुणभहियं बं० । एवं मिच्छत्तभंगो वारसक०-हस्स-रदि-भय-दुगु ।
२३६. कोधसंजल• जह०ठि०० तिएिणसंजलणं णि. बं. संखेज्जगुण
२३६. निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यात गुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार निद्रानिद्राके समान चार दर्शनावरणका सन्निकर्ष जानना चाहिए । चक्षुदर्शनावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष होता है। किन्तु तब वह जघन्य स्थितिका बन्धक होता है।
२३७. साता प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव असाता प्रकृतिका प्रबन्धक होता है । असाता प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव साता प्रकृतिका प्रवन्धक होता है।
२३८. मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव बारह कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यात गुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मिथ्यात्वके समान बारह कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२३९. क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणा अधिक स्थितका बन्धक होता है। मान
१ मूलप्रतौ णि. असंज. असांखे० इति पाठः ।
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महाबंधे दिदिबंधाहियारे ब्भहियं बं० । माणसंज. जहहिदिबं. दोएहं संजल० णि बं। णि• अज० संखेंजगुणब्भहियं बं० । मायासंज० जहछि बं० लोभसंज. णि• बं० संखेंजगुणब्भहियं बं०।
२४०. इत्थिवे० जह०हिबं० मिच्छ-बारसक०-भय-दुगु [णि. बं. ] असंखेजभागब्भहियं बं० । चदुसंज० णि बं० णि० अज० असंखेंजगुणभहियं बं० । हस्स-रदि-अरदि-सोग सिया० असंखेंज भागभहियं बं० । एवं रणवुस ।
२४१. पुरिस जह हि बं० चदुसंज.णि. बं. संखेजगुणब्भहियं बं० ।
२४२. अरदि० जह०हि०० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगु० पि. बं. णि अज० असंखेंजभागब्भहियं बं० । चदुसंज० णि बं० णि अज० असंखेंज्जगुणब्भहियं बं० । सोग णि बं० । तं तु । एवं सोग ।
२४३. णिरयायु० जाहिबं० सेसाणं अबंधगो एवमएणमएणाणं अबंधगो।
संज्वलनको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव दो संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है। माया संज्वलनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव लोभ संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
२४०. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यात गुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४१. पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमले अजघन्य संख्यात गुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
२४२. अरतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, बारह कपाय, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यात गुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शोकका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४३. नरकायु की जघन्य स्थितिका बन्धक जीव शेष आयुनोंका प्रबन्धक होता है। इसी प्रकार परस्पर एक पायुका बन्ध करनेवाला अन्य आयुओका प्रबन्धक होता है।
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जहण सत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा
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२४४. पिरयगदि० ज० द्वि०बं० पंचिदि० - तेजा० क ० हुंड० वरण ०४ - अगु० ४- सत्थवि०-तस० ४ - अथिरादिछ० - णि० णि० बं० संखेज्जगुण भहियं बं० । वेव्वि० - वेडव्त्रि ० गो० णि० बं० संखेज्जभागन्भहियं । पिरयाणु० ०ि बं० । तं तु । एवं णिरयाणु० ।
२४५. तिरिक्खग० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० ओरालिय० - तेजा० - कं० - समचदु०ओरालि० अंगो० - वज्जरि० ए० ४ -तिरिक्खाणु० गु०४-पसत्थवि ०-तस०४-थिरादिपंच णिमि० णि० बं० । तं तु० । उज्जो० सिया० । तं तु० । जसगि० णि० बं० संखैज्जगुणन्भहियं । एवं तिरिक्खाणु० उज्जो० ।
२४६. मणुसग० ज० ठ्ठि० बं० पंचिदि० ओरालि० - तेजा०--क०-० - समचदु०ओरालि० अंगो० वज्जरि ० वरण ०४- मणुसागु० - अगु० ४- पसत्थ० -तस० ४ - थिरादिपंच
२४४. नरकगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, स चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यात गुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वैकियिक शरीर और वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२४५. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका नियम से बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए |
२४६. मनुष्य गतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, स
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे णिमि० णि. बं० । तं तु । जसगि० णि. वं. असंखेजदिगुणभहियं बं० । एवं मणुसाणु ।
२४७. देवगदि० ज०ठिबं० पंचिंदि०-तेजा०- क-समचदु०-वएण०४अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच-णिमि० णि० ० संखेजगुणब्भहियं बं० । वेउव्वि-वेउवि अंगो०-देवाणु० णि• बं० । तं तु० । जसगि० सिया० असंखेंजगुणन्भहियं बं० । एवं वेउव्वि०अंगो०-देवाणु ।
२४८. एइंदि० जटिबं० तिरिक्खग-ओरालि०-तेजा. क-हुड०वण्ण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४--बादर-पज्जत्त--पत्ते-भग-अणादें--णिमि० णि. असंखेज्जदिभागब्भहियं० । आदावं सिया० । तं तु० । उज्जो --थिराथिर-सुभासुभ
चतुष्क, स्थिर आदि पोंच, और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यश-कीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४७. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशाकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४८. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका वन्धक जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । आतपका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवों भाग
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१२३ अजस• सिया० असंखेजदिभागब्भहियं । थावर० णि. बं० । तं तु० । जसगि० सिया० असंखेजदिगुणब्भहियं० । एवं आदाव-थावर० ।
२४६. बीइंदि० जह हि०० तिरिक्वगदि-ओरालिय-तेजा०-क०-हुडओरालि अंगो०-असंपत्त-वएण०४-तिरिक्वाणु-अगु०४-अप्पसत्थ-तस०४--दूभगदुस्सर-अणादे-णिमि०णि ० असंखेंजदिभागब्भहियं । उज्जो सिया। थिराथिर-सुभासुभ-अजस सिया. असंखेंजदिभागब्भहियं । जस. सिया० असंखेंजदिगु० । एवं तीइंदि०-चदुरिंदि०।
२५०. पंचिंदि० जहि०बं० ओरालि०तेजा० --क०--समचदु०--ओरालि. अंगो०-वजरिस०-वएण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच-णिमि० णि बं० । अधिक स्थितिका बन्धक होता है । स्थावरका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका वन्धक होता है। यश-कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४९. द्वीन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यश्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२५०. पञ्चन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है
अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्याता भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, दो आनुपूर्वी और उद्योत इनका
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे तं तु । तिरिक्खगदि-मणुसगदि-दोआणु०-उज्जो० सिया० । तं तु० । जस० णि. वं. असंखेंजगु० । एवं पंचिंदियभंगो ओरालिय-तेजा०-क-समचदु०-ओरालि. अंगो०-वजरिस०-वएण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच-णिमिण त्ति ।
२५१. आहार० जह हि०बं. देवगदि-पंचिंदि०-वेउन्वि०तेजा-क०-समचदु०--वउव्वि अंगो०-वएण०४--देवाणु०-अगु०४--पसत्थ-तस०४-थिरादिपंच-- णिमि० णि• बं. संखेज्जगुणब्भहियं० । आहार०अंगो० मि. बं० । तं तु० । जस० णि० वं० णि असंखेंजगुणब्भहियं० । तित्थय सिया० । तं तु० । एवं आहारअंगो-तित्थयरं ।
२५२. रणग्गोद० जह हि०बं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०--ओरालि०
कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यशः. कीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थिति बन्धक होता है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२५१. आहारक शरीरकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। आहारक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। यशः कोर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमले अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२५२. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण
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जहण्णसत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
१२५ अंगो०-वएण०४-अगु०४--पसत्थ० --तस०४--सुभग-सुस्सर आदें -णिमि०णि बं० असंखेंजभागभहिय० । तिरिक्ख०-मणुसगदि-वजरि०-दोआणु०-उज्जो -थिराथिरसुभासुभ-अजस० सिया० असंखेंजदिभा० । वज्जणारा• सिया० । तं तु० । जस. सिया० असंखेंजगुणः । एवं वज्जणारा० ।
२५३. सादिय० जह हि०० णग्गोदभंगो। णवरि णाराय. सिया० । तं तु० । दोसंघ० सिया० असंखेज दिभा० । एवं पारायणः ।।
२५४. खुज. जहहि बं० पंचिंदि०-ओरालि-तेजा.-क०-ओरालि अंगो०वएण०४-अगु०४--पसत्थ---तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे--णिमि०णि. बं. असंखेज्जदिभा० । तिरिक्ख०-मणुसगदि-तिएिणसंघ०-दोआणु० --उज्जो -थिराथिर-मुभा. इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो पानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यश कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वज्रनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२५३. स्वाति संस्थानकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवकी, अपेक्षा सन्निकर्ष न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है। इतनी विशेषता है कि यह नाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अघिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। दो संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२५४. कुब्जक संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुखर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, तीन संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवा
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
सुभ-अजस० सिया० असंखेज्जदिभा० । जस० सिया असंखेज्जदिगु० । श्रद्धगारा० सिया० । तं तु ० । एवं श्रद्धणारा० । एवं चेत्र वामणसंठा० । वरि खीलिय० सिया० । तं तु । एवं खीलिय० ।
--
२५५. हुंड० जह० हि० बं० पंचिंदि ० - ओरालि ०-तेजा ०. [० क ० - ओरालि ० अंगो०वरण० ४-अगु०४--पसत्थ० -तस०४- सुभग- सुस्सर- दे० - णिमि० णि० बं० । णि० असंखेज्जदिभा० । दोगदि - पंचसंघ० - दोश्राणु० - उज्जो ०--थिराथिर - सुभासुभ-अस० सिया असंखेज्जदिभा० । असंपत्त० सिया० । तं तु० । जस० सिया० असंखेज्जदिगु० | एवं संपत्त० ।
भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि
जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार वामन संस्थान की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार कीलक संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२५५. हुण्ड संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । दो गति, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है | असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य की अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार असम्प्राप्तासृपाटिका संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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जहण्णसत्थाणबंध सरिणयासपरूवण
२५६. अप्पसत्थ० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० - ओरालि० -- तेजा०-- क० --ओरालि०अंगो०--वण्ण०४--अगु०४ -तस०४ - णिमि० णि० ० असंखेज्जदिभा० । दोगदिइस्संठाण - वस्संघ० -- दोश्रणु० - उज्जो ० - थिराथिर - सुभासुभ--सुभग-सुस्सर-आदें०अजस० सिया० असंखेज्जदिभा० । दुर्भाग- दुस्सर - अणादे० सिया० । तं तु० । जसगि० सिया० असंखेज्जदिगु० । एवं दूभग दुस्सर अणादे० ।
१०.क०-
२५७. सुहुमस्स ज० द्वि०बं० तिरिक्खगदि - - एइंदि० ओरालि ०-- तेजा ० हुडसं०--वरण०४--तिरिक्खाणु० - अगु०४ -- थावर---पज्जत्त - पत्ते ० --- दूर्भाग-- अणादे०जस० - णिमि० रिण० बं० असंखैज्जदिभा० । थिराथिर - सुभामुभ० सिया० असंखज्जदिभा० ।
२५८. अपज्ज० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० - ओरालि ० तेजा० क ० हुड० ओरालि०अंगो० - संपत्त० वरण ०४ - गु० - उप० -तस - बादर-पत्ते ०--अथिरादिपंच - णिमि० लि०
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२५६. प्रशस्त विहायोगतिको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । दो गति, छह संस्थान, छह संहनन, दो श्रनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आय और
यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । दुभंग, दुःस्वर और अनादेय इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार दुर्भग, दुःस्वर और अनायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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२५७. सूक्ष्म प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, स्थावर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, श्रनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर, अस्थिर शुभ और अशुभ इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
२५८. अपर्याप्तकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, सम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर श्रादि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातवां भाग अधिक
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महाबंधे दिदिबंधाहियारे बं० असंखेज्जदिभा० । दोगदि-दोआणुपु० सिया० असंखेज्जदिभा० ।
२५६. अथिर० जहिबं० पंचिंदि--ओरालि०-तेजा०---का-समचदु०ओरालि अंगो०--वज्जरिस-वएण०४--अगु०४-पसत्थवि० --तस०४--सुभग-सुस्सरआदें --णिमि० णि० ब० असंखेंज्जदिभा० । दोगदि-दोआणु०--उज्जो०-सुभग० सिया० असंखेज्जदिभा० । असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । जसगि० सिया. असंखेज्जगुण । एवं असुभ-अजस०।।
२६०. गोदे० वेदणीयभंगो अंतराइगं पाणावरणभंगो ।
२६१. आदेसेण णेरइगेसु पंचणा-णवदसणा० उक्कस्सभंगो । णवरि णियमा बं० । तं तु० समजुत्तरमादि कादण याव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागब्भहियं० । वेदणीयस्स उक्कस्सभंगो।
२६२. मिच्छ० ज०हि सोलसक०-पुरिस०-हस्स-रदि--भय-दुगु णि बं० । स्थितिका बन्धक होता है। दो गति और दो आनुपूर्वीका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
२५९. अस्थिरकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो आनुपूर्वी, उद्योत और सुभग इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ और अयश-कीर्ति का कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यश-कीर्ति का कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अशुभ और अयश-कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२६०. गोत्रकर्मका भङ्ग वेदनीयके समान है और अन्तराय फर्मका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है।
२६१. श्रादेशसे नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण और नौ दर्शनावरणका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । वेदनीयको मुख्यतासे सन्निकर्ष उत्कृष्टके समान है।
२६२. मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव सोलह कपाय, पुरुषवेद, हास्य,
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१२९ ते तु० जह० अज० समजुत्तरमादि कादूण पलिदोवमस्स असंखेज्जभागब्भहियं बं० । एवमेदाओ ऍक्कमेक्कस्स । तं तु ।
२६३. इत्थि० जह०हिबंधतो मिच्छ०-सोलसक०--भय-दुगु णिय० बं० तं तु संखेंज्जदिभागब्भहियं० । हस्स-रदि-अरदि-सोग सिया० संखेंजदिभागब्भहियं । एवं पवुस ।
२६४. अरदि० जह-ट्टि बं० मिच्छ०-सोलसक०-पुरिसवे-भय-दुगुणि बं० संखेंज्जदिभागभहियं । सोग० णि० बं० । तं तु । एवं सोग० । आयुगाणं उक्कस्सभंगो।
२६५. तिरिक्खगदि० जहि०० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि०अंगो०-वएण०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णि बं० संखेज्जदिभागब्भहियं० । छस्सं
रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भो बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
२६३. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्याता भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२६४. अरतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुष वेद, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शोकका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आयुओंकी अपेक्षा भङ्ग उत्कृष्टके समान है।
२६५. तिर्यश्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रस चतुष्क, और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवा' भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, और स्थिर आदि छह युगल इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है ।
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे ठाणं छस्संघडणं दोविहा. थिरादिछयुगलं सिया० संखेन्जदिभागब्भ । तिरिक्खाणु० णि बं० । तं तु० । उज्जो सिया । तं तु० । एवं तिरिक्वाणु०--उज्जो०।
२६६. मणुसगदि० ज०हिबंपंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क०-समचदु०ओरालि अंगो०-चजरिस०-वएण०४-मणुसाणु -अगु०४-पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि. बं० । तं तु० । एवमेदारो ऍकमेक्कस्स । तं तु ।
२६७. पंचसंठा-पंचसंघ-अप्पसत्थ अोघं । णवरि णियमा मणुसगदिसंजुत्ताओ कादव्वाअो । तासु सेसाओ संखेजदिभागब्महि ।
२६८. तित्थय० जहिबं० मणुसगदि-पंचिंदि०-ओरालि०--तेजा-क- सम
यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वोका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजधन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
___ २६६. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसवतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक सम अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्ध होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असं. ख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
२६७. पाँच संस्थान, पाँच संहनन और अप्रशस्त विहायोगति इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनको नियमसे मनुष्यगति संयुक्त करना चाहिए । तथा इनमें शेष प्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध होता है जो संख्यातवाँ भाग अधिक होता है।
२६८. तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मनुष्यगति, पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वो, भगुरुलघु चतुष्क,
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जहण्णसत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा
चदु० - ओरालि० अंगो० - वज्जरिस०-वरण ०४ - मणुसा०-- गु०४ - पसत्थ०--तस०४frरादि६० - मि० रिण० वं संखेज्जगुण ० ।
२६६. गोदं वेदणीयभंगो | अंतराइगाणं णाणावरणीयभंगो | एवं पढ़मपुढवीए ।
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२७० विदियाए लाखावरणी० - वेदणी० आयु-गोद ० अंतरागाणं पिरयोघं । गिहारिणाए जοद्वि०० पचलापचला थीए गिद्धि० णि० बं० । तं तु० । छदंस० शि० वं० संखेज्जगु० । एवं पचलापचला थी गिद्धि० ।
२७१. गिद्दा० जह० द्वि०चं० पंचदंस० शि० बं० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेस्स । तं तु ० ।
२७२. मिच्छ० जह० द्वि० बं० श्रताणुबंधि०४ ०ि बं० । तं तु । वारस क०
प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो निर्ममसे अजघन्य संख्यातगुणा अधिक स्थितिका वन्धक होता है ।
२६९. गोत्रकर्मका भङ्ग वेदनीयके समान है और अन्तरायकी प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए ।
२७०. दूसरी पृथिवीमें ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है । निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। छह दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२७१. निद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा
जघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो वह नियमसे जघन्य की अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है ।
२७२. मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातव भाग अधिक तक स्थिति का बन्धक होता है । बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दुगु णिव० संखेज्जगु० । एवं अणंताणुबंधि०४ ।
२७३. अपच्चक्खाणकोध जट्टि०० एकारसकसा-पुरिस -हस्स-रदिभय-दुगु णि बं० । तंतु० । एवमेदाओ० तं तु० पदिदाओ एकमेक्कस्स । तं तु ।
२७४. इत्थिवे. जहिबं० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु० णि बं० संखेज्जगु०। हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० संखेज्जगु० । एवं गर्बुस०।
२७५. अरदि० ज०हिब. बारसक-पुरिस-भय-दुगु जि. बं० संखेजभाग० । सोग णि• बं० । तं तु० । एवं सोग।
२७६. तिरिक्खगदि. जहहिदिबं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क-ओरालि०अंगो०-वएण०४-अगु०४-तस०४-णि[णि.]बं० संखेजगु० । समचदु०-वजरि०नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२७३. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार 'तं तु' रूपसे प्राप्त इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजधन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
२७४. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२७५. अरतिको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवां भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । शोकका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्य का असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२७६. तिर्यश्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर और आदेय इनका कदाचित् बन्धक होता है
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूषणा पसत्थ-थिरादितिषिणयुग-सुभग-मुस्सर-आदे० सिया० संखेज्जगु० । पंचसंठा०पंचसंघ-अप्पसत्थ०-दृभग-दुस्सर-अणादें सिया० संखेज्जदिभा० । तिरिक्वाणु० णि बं० । तं तु० । उज्जो० सिया । तं तु । एवं तिरिक्वाणु०-उज्जो० ।
२७७. मणुसग० जहि०बं. पंचिंदि०-ओरालि.-तेजा.-क०-समचदु०पोरालि०अंगो०-वजरि०--वएण०४-मणुसाणु०-अगु०--पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०णि० [णि०] बं०। तं तु तित्थ० सिया० । तं तु० । एवं एदानो ऍक्कमेकस्स । तं तु०।
२७८, एग्गोद० ज हि०० मणुसगळ-पंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क-अोराऔर कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यात. गुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवी भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजधन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२७७. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुक और स्थिर आदि छह इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु तब वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है।
२७८. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मनुष्यगति, पञ्चेद्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे लि०अंगो०-वएण०४--मणुसाणु-अगु०४-पसत्थ--तस०४-सुभग-सुस्सर--प्रादे०णिमि० णि. बं० संखेज्जदिगुण । वज्जरि-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस० सिया० संखेज्जदिगुण । वज्जणारा० सिया० । तं तु । एवं बज्जणारायणं ।
२७६. चदुसंठा०-चदुसंघ० जहि०बं० धुविगाओ मणुसगदीए सह बग्गोदभंगो । यात्रो सम्मादिहिस्स जहरिणगाओ ताओ सिया० णग्गोदभंगो। यात्रो मिच्छादिहिस्स जह पाओग्गाश्रो तारो सिया० संखेज्जभागब्भहियं । एवं अप्पसत्थ०-दभग-दस्सर-अणादे०।
२८०. अथिर० जहटिबं० मणुसगदि सह गदाओ णियमा बं० संखेंजभागब्भहियं० । सुभ-जसगित्ति-तित्थय० सिया० संखेंजभागब्भहियं० । असुभअजस० सिया० । तं तु० । एवं असुभ-अजसगित्ति । एवं याव छहि त्ति ।
चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणो अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वज्रर्षभनाराच संहनन, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है। किन्तु वह जधन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वज्रनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२७२. चार संस्थान और चार संहननकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिके साथ न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है। जो प्रकृतियों सम्यग्दृष्टिके जघन्य स्थितिबन्धवाली हैं वे कदाचित् बन्धवाली हैं। तथा इनका भङ्ग न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है और जो मिथ्यादृष्टिके जघन्य स्थिति बन्धके योग्य हैं उनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
__ २८०. अस्थिर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मनुष्यगतिके साथ बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शुभ, यश-कीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे
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जहएणसत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा २८१. सत्तमाए छपगदीअो विदियपुढविभंगो।
२८२. तिरिक्वग० जहिवं. पंचिंदि०-ओरालि --तेजा०-का-समचदु०ओरालि अंगो०-वजरिस०-चएण०४--अगु०४--पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि० व० संखेजगु० । तिरिक्रवाणु णि बं। तं तु । उज्जो सिया० । तं तु०। एवं तिरिक्रवाणु-उज्जो । मणुसगदिआदि० ज०हिबं० सम्मादिद्विपाओग्गाओ विदियपुढविभंगो।
२८३. एग्गोद० जहिबं० तिरिक्खगदि-पंचिदि०-ओरालि-तेजा०-कओरालि०अंगो०-वएण०४--तिरिक्खाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४--सुभग-सुस्सरआदे-णिमि० णि० ब० संखेंज्जगु० । वज्जरिस०-उज्जो०-थिराथिर-सुमासुभ-जस० अजस० सिया० संखेज्जदिगु० । पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर
लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अशुभ और अयश-कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार छठी पृथिवी तक जानना चाहिए।
२८१. सातवीं पृथिवीमें छह प्रकृतियोंका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है। .
२८२. तिर्यञ्च गतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर. तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन. वर्ण चतुष्क, अगुरुलघ चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यागुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यगति आदिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके सम्यग्दृष्टि प्रायोग्य प्रकृतियोंका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है।
२८३. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यञ्च गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, गुरुलघ चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वज्रर्षभनाराच संहनन, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक
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महाबंधे ट्ठिदिधंधाहियारे अणादेजाणं एदेणेव विधिणा विदियपुढविभंगो।
२८४. तिरिक्खेसु पंचणा०--णवदंसणा--दोवेदणी०--चदुअआयु०--दोगोद.पंचंत० णिरयोघं । मिच्छत्त० जहिबं. सोलसक-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगु. णि वं० । तं तु । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० ।
२८५. इत्थि० ज०हि०वं मिच्छ०-सोलसक-भय-दुगु णि. बं. असंखेज्जदिभा० । हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० असंखेंज्जदिभा० । एवं णवूस० ।
२८६. अरदि० ज०हि०० मिच्छत्त-सोलसक-पुरिस-भय-दुगु० णि. बं. असंखेजदिभा० । सोग० णि वं० । तं तु० असंखेजदिभागब्भहियं बं० । एवं सोग।
२८७. णिरयगदि० ज०हिवं. पंचिंदि०-तेजा०-क०-हुड०-वएण०४-अगु०४होता है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनका इसी विधिसे दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है।
२८४. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, चार आयु, दो गोत्र और पाँच अन्तराय इनका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे वन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इस प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है।
२८५. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है
और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२८६. अरतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्याता भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । शोकका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह अजघन्य असंख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतः से सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२८७. नरकगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति तैजस, शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा अप्पसत्य-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि० णि बं० संखेज्जग । वेउव्वि०-वेउवि० अंगो० णि बं० संखेजदिभागभहियं० । णिरयाणु णि. बं० । तं तु । एवं णिरयाणु०। ___ २८८. सेसाप्रो पगदीओ मूलोघं । णवरि जासिं पगदीणं असंखेंजगुणन्भहियं तासिं पगदीणं थिरभंगो कादव्यो । देवगदिचदुकं [संखेज्ज] गुणब्भहियं । जस० जहि बं० पंचिंदियभंगो।
२८६. पंचिंदियतिरिक्खेसु३ सत्तएणं कम्माणं णिरयोघं । णिरयगदि० जहि.. बं० पंचिंदियजा०-वेउन्वि-तेजा०-क०--हुड०-वेउवि अंगो०-वएण०४-अगु०४अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि. णि० बं० संखेन्जदिभागब्भहियं० । हिरयाणु० णि बं० । तं तु० । एवं णिरयाणु० ।
चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अजधन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गो. पाङ्गका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है,किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२८८. शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि जिन प्रकतियोंका असंख्यातगुणा अधिक स्थितिबन्ध है, उन प्रकृतियोंका स्थिर प्रकृतिके समान भङ्ग जानना चाहिए । देवगतिचतुष्कका भङ्ग संख्यातगुणा अधिक कहना चाहिए | यशःकोतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय जातिके समान है।
२८९. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। नरकगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक ह और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानपर्वीको मख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए।
मूलप्रतौ पगदीणं जसगित्ति श्रासिं असंखे-इति पाठः।
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे २६०. तिरिक्खग. जाहि०बं० पंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क०-ओरालि. अंगो०-वएण०४-अगु०४-तस-णिमि० णि० ० संखेंजभागभ०। छस्संठा०छस्संघ०-दोविहा०-थिरादिछयु० सिया० संखेज्जभागब्भ० ।तिरिक्वाणु०णि बं० । तं तु० । एवं तिरिक्खाणु । [ उज्जोव० सिया० । तं तु० । एवं ] उज्जो ।
२६१. मणुसग० ज.हि०० ओरालि०-ओरालि अंगो०-वज्जरिस०-मणुसाणु० णि• बं०। तं तु० । सेसाओ पंचिंदियाो पसत्थाओ णियमा बंधदि संखेज्जदिभा० । थिरादितिषिणयुग० सिया० संखेज्जभागब्भः । एवं मणुसगदि०।
२६२. देवगदि० जह हि०० पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा-क०-पसत्थट्ठावीस
२९०. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क त्रसचतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है,किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीको मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२९१. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव औदारिक शरीर, औदारिक पालोपाक, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। शेष पञ्चेन्द्रियजाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंको नियमसे बाँधता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानु पूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२९२. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर और प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजधन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय
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जहण्णसत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा
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णि० वं० । तं तु० । एवं एदा ऍकमेकस्स । तं तु० । चदुजादि० श्रघं । वरि याओ पि० बं० संखे ० • "यि० बं० तं तु । याओ सिया बं० तंतु० ताओ तथा चे० कादव्वा । पंचसंठा० - पंचसंघ० - अप्पसत्थ० दूर्भाग- दुस्सर - अणादें रियोघं । २६३. अथिर० ज० द्वि० बं० देवगदि-पंचिंदि० - वेउव्वि ० तेजा ० क ० - समचदु०वेडव्वि० अंगो० -- वरण०४ - देवाणु० - अगु० ४ - पसत्थ० -तस०४- सुभग-मुस्सर श्रादें ०णिमि० णि० बं० संखेज्जदिभाग० । असुभ अजस० सिया० । तं तु० । सुभगजसगि० सिया० संखेज्जदिभाग० । एवं सुभ-अस० "वरि एइंदि० विगलिंदियसंजुत्ताओ ताम्र पंचिदियतिरिक्खभंगो ।
~
२६४, मणुस०३ सत्तण्णं कम्माणं मूलोघं । वरि मोह - इत्थि० - स अदि-सोगा या असंखेज्जदिभागन्भहियाओ ताओ संखेज्जभागब्भहियाओ । रियगदि-रियाणु० श्रघं । तिरिक्ख ०- मणुसगदि-ओरालिय ० -तेजा० - क० - पंचसंठा०
किसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । चार जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि जिनका नियमसे बन्धक होता है, उनका संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है तथा जिनका कदाचित् 'तं तु' रूपसे बन्धक होता है, उनका उसी प्रकार बन्धक होता है । पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके समान है । २३. अस्थिर प्रकृतिकी अधन्य स्थितिका बन्धक जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैकिविक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातव भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियगसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । सुभग और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका भी बन्धक होता है । इसी प्रकार अशुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय सहित इनका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है ।
।
२९४. मनुष्यत्रिमें सात कर्मोंका भङ्ग मूलोघके समान है । इतनी विशेषता है कि मोहनीय के स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, ऋरति और शोक इनमें से जो प्रकृतियाँ श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक कही हैं उन्हें संख्यातव भाग अधिक जानना चाहिए । नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका भङ्ग श्रधके समान है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे ओरालि अंगो०-छस्संघ-वएण०४-दोआणु-अगु०४-आदाउज्जो०-दोविहा--तस थावरादिणक्युगल-अजस-णिमि० एदाणं णिरयोघं । णवरि जस० ओघभंगो कादव्यो। सव्वासिं देवगदि० ज०द्वि०बं० पंचिंदि० पसत्थाणं णि. बं. संखेज्जगुणब्भहियं० । वरि वेउवि०-वेउवि०अंगो०-देवाणु० पि. बं०। तं तु ।
आहार०-आहार-अंगो०-तित्थय० सिया बं० । तं तु. । एवं वेउवि०-आहारदोअंगो०-देवाणु०-तित्थयरं च । मणुसअपज्जत्त० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो।
२६५ देवेसु एइंदिय-आदाव-थावर० पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो । एवं भवणवासि-वाणवेतर० । जोदिसिय याव गवगेवज्जा त्ति विदियपुढविभंगो । णवरि जोदिसिय याव सोधम्मीसाण त्ति एइंदिय-आदाव-थावर देवोघं । सणकुमार याव सहस्सार ति.तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु० उज्जो । उवरि मणुसगदि० आणद याव गवगेवज्जा त्ति । अनुदिस याव सव्वहा त्ति मणुसग जहि०बं० गवगेवज्ज
लघुचत
तहक.
शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्ण चतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरु
। प्रातप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस-स्थावर आदि नौ युगल, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिका भङ्ग ओघके समान करना चाहिए। उक्त सब मनुष्योंमें देवगतिकी जघन्य स्थिति का बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। श्राहा
क शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है।
२९५. देवोंमें एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर इनका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पहली पृथ्वीके समान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिए । ज्योतिषियोंसे लेकर नौ नौवेयक तकके देवोंका भङ्ग दूसरी पृथ्वीके समान है। इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियोंसे लेकर सौधर्म
और ऐशान कल्पतकके देवोंमें एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । सानकुत्मार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतका सन्निकर्ष जानना चाहिए। आगे आनत कल्पसे लेकर नव वेयक तक मनुष्यगतिकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१४१ पढमदंडो, अथिरादि विदियदंडो य ।
२६६. सव्वएइंदियाणं तिरिक्वोघं । सव्वविगलिंदियाणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त० सत्तएणं कम्माणं मणुसोघं । णामपगदीणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। आहार-आहार अंगो०-जस०-तित्थय० मूलोघं ।
२६७. पुढविल-आउ०-वणप्फदिपत्तेय० पज्जत्तापज्जत्ता णियोदजीवा बादरसुहुम-पज्जत्तापजत्ता मणुसअपज्जत्तभंगो कादव्यो । णवरि असंखेज्जदिभागब्भहियं । तेउ-वाउ०-बादरमुहुम-पज्जत्तापज्जत्त० सो चेव भंगो । एवरि सव्वाणं तिरिक्वधुविगाणं कादव्वं ।
२६८ तस-तसपज्जत्ता सत्तएणं कम्मारणं मणुसोघं । णामस्स वेउब्बियछ०आहारदुग-जसगि०-तित्थय० मूलोघं । सेसाणं वेइंदियपज्जत्तभंगो। ___२६६. पंचमण-तिएिणवचि० पाणावर० वेदणी० आयु० गोद० अंतराइगं च ओघं । णिदाणिदाए ज० ठि०बं० पचलापचला-थीणगिद्धि० णि० बं० । तं तु । सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नौ प्रैवेयकका प्रथम दण्डक और अस्थिर आदिका दूसरा दण्डक जानना चाहिए।
२९६. सब एकेन्द्रिय जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग जानना चाहिए । सब विकलेन्द्रियों में पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य मनुष्योंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। आहारक शरीर, आहारक प्राङ्गोपाङ्ग, यशःकीर्ति और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मूलोघ के समान है।
२९७. पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक प्रत्येक तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त तथा निगोद जीव और इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यातवाँ भाग अधिक जानना चाहिए । अग्निकायिक और वायुकायिक तथा बादर और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके वही भङ्ग कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सबके तिर्यश्च ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका कहना चाहिए ।
२६८. त्रस और त्रस पर्याप्त जीवों में सात कर्मों का भङ्ग सामान्य मनुष्योंके समान है । नामकर्मकी वैक्रियिक छह, आहारकद्विक, यश-कीर्ति और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघ के समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है।
२९९. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अन्तरायकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । निद्रा निद्राकी जघन्य स्थितिका वन्धक जीव प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। निद्रा और प्रचलाका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे णिद्दा-पचला. णिय० बं० संखेज्जगुण । चदुदंस० पि. बं. असंखेज्जगुः । एवं थीणगिद्धि०३।
३००. णिद्दाए जहि०० पचला णिय० बं० । तं तु ० । चदुदंस० णि० बं० असंखेज्जगु० । एवं पचला । चदुदंस० ओघं ।।
३०१. मिच्छ० ज०हि बं० अणंताणुबंधि०४ णि बं० । तं तु० । अहकसा०हस्स-रदि-भय-दुगु० णि. बं० संखेज्जगु० । चदुसंज-पुरिस० णि० ब० असंखेंज्जगु० । एवं अणंताणुवंधि०४।।
३०२, अपच्चक्खाणकोध. जहि०० तिएिणकसा. णि बं० । तं तु० । पच्चक्खाणा०४-हस्स-रदि-भय-दुगु णि. बं० संखेज्जगु० । चदुसंज०-पुरिस णि बं• असंखेज्जगु० । एवं तिएिणक० । बन्धक होता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धि तीनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३००. निद्राकी जघन्य स्थितिकी बन्धक जीव प्रचलाका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि प्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार प्रचला प्रकृतिकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । चार दर्शनावरणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है।
३०१. मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्कका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। आठ कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी-चारको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३०२. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन कषायका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। प्रत्याख्यानावरण चार, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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जहण्णसत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा ३०३. पच्चक्खाणा कोध० ज हि बं० तिएिणकसा०णि बं० । तं तु० । चदुसंज-पुरिस० णि. वं. असंखेज्जगु० । हस्स-रदि-भय-दुगु णि. बं. संखेज्जगुः । एवं तिएिणकसा० । चदुसंजल-पुरिस० ओघं ।।
३०४. इत्थिवे. जहि बं० मिच्छ०-बारसक०-भय-दुगु पि. बं० संखेज्जगु० । हस्स-रदि-अरदि-सोग सिया० संखेज्जगु० । चदुसंज० णिबंअसंखेज्जः । एवं गवुस० ।
३०५. हस्स० ज०हि०बं० चदुसंज०-पुरिस० णि वं. असंखेज्जगु० । रदिभय-दुगु णि• बं० । तं तु० । एवं रदि-भय-दुगुं०।
३०६. अरदि० जहि०० चदुसंज-पुरिस० णिबं. असंखेज्जगुः । भय-दुगुणि बं० संखेज्जगु० । सोग० णि । तं तु० । एवं सोग० ।
३०३. प्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन कषायका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे. अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । चार संज्वलन और पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है।
३०४. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, बारह-कषाय, भय और गुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३०५. हास्यकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
३०६. अरतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शोकका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ३०७. णिरयग० जहि०० पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा-क०-वेउवि अंगो०वएण०४-अगु०४-तस०४-अथिर-असुभ-अजस०--णिमि० णि० बं० संखेज्जगुणभहि । हुंड-असंपत्त०-भग-दुस्सर-अणादे -णिमि० णि० संखेज्जभागब्भ० । णिरयाणु० णि• बं० । तं तु । एवं णिरयाणु० ।
३०८. तिरिक्खगदि० ज०हि०० पंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क०-समचदु०ओरालि०अंगो०-वजरिस०-वएण०४--अगु०४--पसत्थ०--तस०४-थिरादिपंच-णिमि० णि बं० संखेजगु० । तिरिक्खाणु० णि० ब० । तं तु । उज्जो सिया । तं० तु.। जस० णि बं. असंखेज्जगु० । एवं तिरिक्वाणुः । एवं तिरिक्खोघं उज्जो० ।
स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोक को मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३०७. नरकगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पश्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तामृपाटिका संहनन, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३०८. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनारावसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यश्वगत्यानपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है.किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदा. चित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यश-कीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चके समान उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१. मलप्रतौ तिरिक्खाणु० णियमा उज्जो सिया एवं इति पाठः ।
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जहण्णसत्थाणबंध सण्णिवासपरूवणा
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३०६. मणुसग० ज० द्वि०बं० ओरालि० - ओरालि० अंगो० -- वज्जरि०- मणुसाणु० शि० बं० । तं तु ० । सेसा पसत्थाओ णि० बं० संर्खेज्जगु० । जसगि ० रिण० बं० असंखेज्जगु० । तित्थय० सिया० संखेज्जगु० । एवं ओरालि ० - ओरालि ० अंगो० - वज्जरि०-मणुसागु० ।
३१०. देवगदि० ज० द्वि०बं पंचिंदि० पसत्थपगदीओ गि० बं । तं तु० । आहारदुग - तित्थय • सिया० । तं तु० । जसगि० - णि० बं० असंखेज्जगुणभ० । air ऍक्कमेस्स । तं तु० ।
३११. एइंदि० ज० द्वि०बं० तिरिक्खगदि --ओरालि ०-तेजा० क० - वरण०४तिरिक्खाणु०-अगु०४-बादर -- पज्जत्त - पत्ते ० - णिमि० णि० बं० संखेज्जगु० | हुड०
३०६. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । शेष प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३१०. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियम से बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजधन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । आहारकद्विक और तीर्थंकरका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्ष होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से जघन्य की अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है ।
३११. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यञ्चगति श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, श्रगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे द्भग-अणादे णि• बं० संखेज्जभागब्भ० । प्रादाव० सिया । तं तु० । उज्जो०थिराथिर-सुहासुह-अजस० सिया० संखेज्जगु । जस० सिया० असंखेज्जगु० । थावर णि० बं० । तं तु । एवं आदाव-थावरं ।
३१२. बीइंदि० जहिबं० तिरिक्खग-ओरालि०-तेजा०-क-ओरालि. अंगो-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-तस०४--णिमि० णि. बं. संखेज्जगु० । हुंडसं०-असंपत्त०-अप्पसत्थ -भग-दुस्सर-अणादे णि• बं० संखेज्जदिभाग० । उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-अजस० सिया० संखेज्जगु० । जस सिया० असंखेज्जगु०। एवं तीइंदि०-चतुरिं।
प्रत्येक और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अजधन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हुण्ड संस्थान, दुर्भग और अनादेयका नियमले बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। आतपका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। यश-कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्थावरका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसीप्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३१२. द्वीन्द्रियजातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जी नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हुण्ड संस्थान, सम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । यश कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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३१३. एग्गोद०ज० ट्ठि० बं० पंचिंदि० ओरालि० - तेजा ० क ०-ओरालि० अंगो०वरण ०४- अगु०४ - पसत्थ०-तस० ४- सुभग-मुस्सर आदे० - णिमि० णि० बं० संखेज्जगुणन्भहियं । तिरिक्खगदि - मणुसगदि वज्जरिस० - दोश्राणु ० उज्जा ० थिराथिर-सुभासुभ-अस० सिया० संखेज्जगु० । जस० सिया० असंखेज्जगु० । वज्जणारा ० सिया० तं तु ० । एवं वज्जणारायणं । एवं चेव सादिय० । वरि णारायण० सिया ० तं तु० । वज्जणारा० सिया० संखेज्जभाग० । एवं पारा० ।
३१४. खुज्जसं ० ज० द्वि० बं० गोद० भंगो । वरि वज्जणारा० संखेज्जभाग० । अद्धणारा० सिया० । तं तु० । एवं श्रद्धणारा० । एवं चेव
३१३. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वज्रनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार स्वाति संस्थानको मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्द्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३१४. कुब्जक संस्थानकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है । इतनी विशेषता है कि वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार वामन
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महाबंधे दिदिबंधाहियारे वामणसंठा० । णवरि बज्जणारा-पाराय०-अद्धणाराय० सिया० बं. संखेज्जभाग० । खीलिय० सिया० ब०। तं तु०। एवं खीलिय। हुड० ज हि०६० णग्गोदभंगो । णवरि चदुसंघ० सिया०० संखेज्जभाग०। असंपत्त० सिया० । तं तु । जस० सिया० असंखेज्जगु० । एवं असंपत्त०। ___३१५. अप्पसत्थ० जहिबं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा--क०--ओरालि. अंगो०-वरण०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णि• बं० संखेज्जगु० । तिरिक्खगदिमणुसगदि०-समचदु०-बज्जरिस०-दोआणु-उज्जो -थिरादि०४-सुभग-सुस्सर--प्रादे अजस० सिया० संखेज्जगु० । पंचसंठा०-पंचसंघ० सिया० संखेजभा० । भग
संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वज्रनाराच
नन, नाराच संहनन और अर्ध नाराच संहननका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार कीलकसंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । हुण्ड संस्थानकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है। इतनी विशेषता है कि चार संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यश:कीतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक हाता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार असम्प्राप्तासृपाटिका संहननको मुख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३१५. अप्रशस्त विहायोगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर आदि चार, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक
कहोता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पांच संस्थान और पाँच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित्
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जहण सत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा
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दुस्सर णादे० सिया० । तं तु० । जस० सिया० असंखेज्जगु० । एवं दुभगदुस्सरणादें |
३१६. सुहुम० ज० द्वि०बं० तिरिक्खगदि-ओरालि० - तेजा० - क० -- वरण०४तिरिक्खाणु० गु०४ - पज्जत्त- पत्ते ० - अजस ० - णिमि० शि० बं० संखेज्जगु० । एइंदि०हुड० - थावर - दूभग प्रणादे णि० बं० संखेज्जभा० । थिराथिर - सुभासुभ० सिया० संखेज्जगु० । एवं साधारणं ।
३१७. अपज्जत्त० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० - ओरालि० - तेजा० क० --ओरालि० अंगो० - वरण ०४ - गु० - उप०-तस बादर-पने ० अथिर असुभ जस० - रिणमि० पि० बं० संखेज्जगु० । दोगदि-दोत्रा ० सिया० संखेज्जगु० णादे० णि० ० संखेज्जदिभाग० ।
हुंड० - असंपत्त० - दूर्भाग
श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय श्रधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातव भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३१६. सूक्ष्मकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, यशःकीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, स्थावर, दुर्भग और नादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार साधारण प्रकृतिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
।
३१७. अपर्याप्तकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, वादर, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियम से जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दोगति और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हुण्डसंस्थान, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, दुभंग और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
१. मूलप्रतौ पंचिंदि तेजाक० श्रोरालि० इति पाठः ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ३१८. अथिर० जहि बं० देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा०--क-समचदु०वेउवि अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि०--तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०णिमि० णि० बं० संखेज । सुभ-तित्थय० सिया० संखेजगु० । असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । जस० सिया० असंखेजगु० । एसिं जसगित्ती भणिदा तेसिं असंखेज्जगुणं कादव्वं । एवं असुभ-अजसगित्ती।
३१६. वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु तसपज्जत्तभंगो। कायजोगि-अोरालि यकायजोगी. अोघं । ओरालियमिस्से एइंदियभंगो। गवरि देवगदि जट्टि बं० पंचिंदि०-तेजा-क०--समचदु०-वएण०४--अगु०४-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछणिमि. मि. संखेज्जगुण । वेउवि०-वेउवि अंगो०-देवाणु० णिय. बं० । तं तु । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवं वेउवि०-वेउवि अंगो०देवाणु -तिस्थय ।
mar
३१८. अस्थिरकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय
और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शुभ और तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ और अयश-कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यशाकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। जिनके यशःकीर्ति प्रकृति कही है उनके असंख्यातगुणी कहनी चाहिए। इसी प्रकार अशुभ और अयशाकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३१९. वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवोंमें सपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । काययोगी और औदारिक काययोगी जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थिति का बन्धक होता है। तीर्थंकरका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता
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जहण्णसत्थाणपंधसण्णियासपरूवणा
१५१ ३२०. वेउव्वियकायजोगी० सत्तएणं कम्माणं सोधम्मभंगो। तिरिक्वगदि. ज०हि०० पंचिंदि०-अोरालि०--तेजा-क०-समचदु०-ओरालिअंगो०--वज्जरि०वएण०४--अगु०४--पसत्थ०--तस०४--थिरादिछ--णिमि० णि. बं. संखेंजगु० । तिरिक्वाणु० पि. बं० । तं तु० । उज्जो सिया० । तं तु । एवं तिरिक्वाणु०उज्जो० । मणुसगदी सोधम्मभंगो । एइंदिय-आदाव-थावर० सोधम्मभंगी।
३२१. णग्गोद० जहि बं. पंचिंदि०--ओरालि-तेजा-क०-ओरालि. अंगो०-वरण ४-अगु०४-पसथ -तस०४-सुभग-मुस्सर-आदे०-णिमि.णि० बं. संखेज्जगु० । दोगदि-वजरि०-दोग्राणु-उज्जो --थिराथिर-मुभासुभ-जस-अजस०
है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थकर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३२०. वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थिति का बन्धक होता है। तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्य गतिका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर इनकी अपेक्षा सन्निकर्ष सौधर्म कल्पके समान है।
३२१. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वचतक.. चतष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग. सुस्वर, श्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दोगति, वज्रर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति
और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
सिया० संखेज्जगु० । वज्जणारा ० सिया० । तं तु० । [ एवं ] वज्जणा । एवं चेव सादिय० । वरि पारायण ० सिया० । तं तु० । वज्जणारा० सिया० संखेज्जभाग०भ० । एवं पारा० । खुज्ज० ज० द्वि०बं० एग्गोदभंगो । वरि वज्जणारा ० सिया० संखेज्जभाग भ० । अद्धणारा० सिया० । तं तु० । एवं श्रद्धणारा० । वामण० ज० द्वि० बं० णग्गोदभंगो । वरि खीलिय० सिया० । तं तु० । एवं वीलिय० । सेसारणं सोधम्मभंगी । एवं वेउव्वियमिस्से । वरि तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० - उज्जोव० सिया० संखेज्जभाग० ।
होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और श्रजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमको जघन्य की अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वज्रनाराचसंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार स्वाति संस्थानकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्ध होता है । इसीप्रकार नाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। कुब्जकसंस्थानकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवकी मुख्यतासे सन्निकर्ष न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान
। इतनी विशेषता है कि वज्रनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवां भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । अर्धनाराच संहननका काचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय श्रधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार अर्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । वामन संस्थानकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवकी मुख्यतासे सन्निकर्ष न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान है । इतनी विशेषता है कि कीलक संहननका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि
जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार कीलक संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । शेष कर्मोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है । इसी प्रकार वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियम से श्रजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
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जहण्णसत्थाणबंध सपिणयासपरूवणा
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३२२. आहार०-- आहार मिस्स • सव्वद्वभंगो गाम वज्ज । वरि देवगदि ज० डि०बं० पंचिंदि० -- वेउच्वि० - तेजा ० क० समचदु० - वेउव्वि ० अंगो० --वरण ०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ० - णिमि० णि० बं० । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० ।
३२३. अथिर० ज० द्वि०बं० सुभ-- जसगित्ति - तित्थय० सिया० संखेज्जभागव्भ० । असुभ -- अजस० सिया० बं० । तं तु० । सेसं ०ि बं० संखेज्जभागग्भहियं । एवं असुभ श्रजस० ।
३२४. कम्मइगका० ओरालियमस्तभंगो । एवरि तित्थय० ज०वि० बं० मणु
३२२. आहारक काययोगी और ग्राहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका भङ्ग सर्वार्थसिद्धि के समान है । किन्तु नामकर्मकी प्रकृतियोंको छोड़कर यह कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए | किन्तु ऐसी अवस्था में वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है ।
३२३. स्थिर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव शुभ, यशःकीर्ति और तीर्थकर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । अशुभ और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवां भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातव भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अशुभ और अयशःकीर्ति की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए |
३२४ कार्मण काययोगी जीवों में भङ्ग श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि तीर्थंकर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मनुष्य गतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो
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महाबंधे ट्ठदिबंधाहियारे
सगदि० सिया• संखेज्जगु ० | देवगदि ० ४ सिया० । तं तु ।
३२५. इत्थवे ० - पुरिसवेदेसु सत्तणं कम्माणं पंचिदियभंगो । वरि कोधसंज० ज० हि०० तिरिणसंज० णि० बं० गि० जहएगा । एवं तिरिणसंजलपाणं ।
३२६. सगे मोहणी ० इत्थिवेदभंगो । सेसं घं । अवगदवेदे ओघं । कोधादि०४ घं । णवरि विसेसो, कोधे कोधसंज० [ज० द्वि० बं०] तिरिणसंज० शि० बं० शि० जहण्णा । एवं तिरिणसंजलणारणं । माणे माणसंज० ज०ट्टि ०बं० दोरणं संजल० णि० बं० ०ि जहण्णा । एवं दोरणं संजलणाणं । मायाए मायासंज० ज० द्वि० वं लोभसंज० शि० बं० णि० जहरणा० । एवं लोभसंजल • । लोभे
घं चेव ।
३२७. मदि० - मुद० तिरिक्खोघं । विभंगे सत्तरणं कम्माणं रियोघं । गिरयग० ज० द्वि० बं० पंचिदि ० - वेडव्वि० - तेजा ० क ० - वेउव्वि० अंगो० वण्ण ०४ - अगु०४-तस०४नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । देवगति चतुष्कका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है ।
३२५. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन संज्वलनोंका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार तीन संज्वलनों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३२६. नपुंसक वेदी जीवोंमें मोहनीयका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। तथा शेष कर्मोंका भङ्ग श्रोघके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें श्रधके समान है । क्रोधादि चार कषायवाले जीवों में ओघके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि क्रोधकषायवाले जीवोंमें क्रोध संज्वलन की जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन संज्वलनोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार तीन संज्वलनोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। मानकषायवाले जीवोंमें मान संज्वलनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव दो संज्वलनोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार दो संज्वलनोंकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । माया कषायवाले जीवों में माया संज्वलनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव लोभ संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार लोभ संज्वलनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । लोभकषायवाले जीवोंमें सन्निकर्ष श्रधके समान ही है ।
३२७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें सन्निकर्ष सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । विभङ्गज्ञान में सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है । नरकगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पश्ञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर वैक्रियिकश्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माण इनका
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जहण्णसत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा
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णिभि० णि० बं० संखेज्जगु० । हुंड० - अप्पसत्थ० अथिरादिछ० णि० बं० संखेज्जभाग० । गिरयाणु० णि० बं० । तं तु० । एवं गिरयाणु० । तिरिक्खगदि ० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० - तेजा ० क० समचदु० - वरण ०४ - गु०४ - पसत्थवि ० -तस० ४- थिरादिछ० - रिणमि० रि० संखेज्जगु० । ओरालि० अंगो० वज्जरि० - तिरिक्खाणु० णि०० | तं तु० । उज्जो० सिया० । तं तु । एवं तिरिक्खाणु ० -उज्जो० ।
३२८. मणुसग० ज० द्वि० बं० ओरालि० - ओरालि० अंगो० - वज्जरि० - मणुसाणु ० रिण० बं० । तं तु ० | सेसं तिरिक्खगदिभंगो। एवं ओरालि० ओरालि ० चंगो० वज्जरि ०.
O
नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हुण्डसंस्थान, अप्रशस्तविहायोगति और अस्थिर आदि छह इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातवीं भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बंन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३२८. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और श्रजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । इसीप्रकार औदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो गति, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित्
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महाबंधे दिबंधाहियारे
मसाणु ० । वरि ओरालि० ओरालि ० अंगो० - वज्जरिस० - दोगदि- दोश्राणु० - उज्जो ०
सिया० । तं तु० ।
पंचिदि० - सादि-पसत्थद्वावीसं
३२६. देवगदि० ज० द्वि० बं० तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० । सत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें • मणजोगिभंगो।
लिय० । चदुजादि -- पंचसंठा०--पंच संघ० -- अप्पवरि जसगि० ज० संर्खेज्जगुणग्भ० । ३३०. आभिणि० - सुद० अधि० मण० भंगो । रावरि मिच्छत्तपगदि वज्ज । मणुसगदि० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० - तेजा० क० -- समचदु० - वराण ०४ - अगु०४ - पसत्थ०तस०४-थिरादिपंच-णिमि० णि० वं० संखेज्जगुणन्भ० । ओरालि० ओरालि० अंगो०वज्जरि०- मसाणु ० णि० बं० । तं तु० । जस० रिण० बं० श्रसंखेज्जगु० । तित्थय ०
अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है ।
३२६. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, स्वातिसंस्थान प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातव भाग अधिक तक स्थितिका बन्ध होता है । इसीप्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातव भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन,
प्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यशःकोर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
३३०. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंका भङ्ग मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व प्रकृतिको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । औदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे श्रजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक
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जहण सत्थाणबंध सपियासपरूवणा
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सिया० संखेज्जगु० । एवं मणुसगदिपंचगस्स ।
३३१. देवगदि० ज० डि० वं० पंचिंदि०--पसत्थद्वावीसं णि० बं० । तं तु० । वरि जस०लि० बं० असंखेज्जगु० । श्राहार० - आहार० अंगो० - तित्थय ० सिया० । तं तु० । एवमेदा एकमेकस्स । तं तु० ।
३३२. अथिर० ज० द्वि०चं० देवगदि- पंचिंदि० - वेउव्वि ० - तेजा ० ० - क० समचदु वेउव्वि अंगो०-वरण०४ देवाणु० गु०४- पसत्थ० -तस०४- सुभग-सुस्सर - आदे० - लि० ०ि बं० संखेज्जगु० । सुभ० - तित्थय० सिया० संखे० गु० । जस० सिया० असंखेज्जगु० | सुभ-जस० सिया० । तं तु० । एवं असुभ अजस० ।
होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्यगति पञ्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३३१. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका वन्धक होता है । इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिका नियम से बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । श्राहारकं शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है ।
३३२. अस्थिर की जघन्य स्थितिका बन्धक जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैकियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, गुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । शुभ और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित्
बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । अशुभ और अयशः कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। तो नियमसे जघन्य की अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातव
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
३३३, मणपज्जव ० -संजद- सामाइ० - छेदो० श्रधिभंगो । वरि असंजद-संजदासंजदगी वज्ज | परिहार० आहारकायजोगिभंगो । वरि अरदि० ज० द्वि० बं० सोग० गि० बं० । तं तु । सेसं संखेज्जगु० । एवं सोग० ।
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३३४. अथिर० ज० हि०बं० देवगदि-पंचिंदि ० - वेडव्वि० - तेजा० क०- - समचदु०वेडव्वि० अंगो० -- वरण ०४ - देवाणु० गु०४ - पसत्थ० -तस०-४- सुभग--सुस्सर--आदे०ििम० संखेज्जगु० । सुभ-- जस० - - तित्थय० सिया० संखेज्जगु० । असुभ अजस० सिया० । तं तु ० । एवं असुभ अजस० । 1
३३५. सुहुमसंपं० श्रघं । संजदासंजदे परिहारभंगो । वरि मोह० अकसा०पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दुगुं० एदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० । अरदि० ज० • द्वि० बं० अट्ठभाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार अशुभ और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३३३. मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि असंयत और संयतासंयतकी प्रकृतियोंको छोड़कर जानना चाहिए । परिहारविशुद्धि संयतोंका भङ्ग आहारककाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अरतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव शोकका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । शेष प्रकृतियोंका नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३३४. अस्थिरकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शुभ, यशःकीर्ति और तीर्थकर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । अशुभ और यशः कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार अशुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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३३५. सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंका भङ्ग श्रोघसे समान है । संयतासंयत जीवों का भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि मोहनीयकी आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका परस्पर सन्निकर्ष होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । श्ररतिकी
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जहण्णसत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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कसा० - पुरिस०--भय-दुगु ० रिंग० संखेज्जगु० । सोग० पियमा बं० । तं तु० । एवं सोग० ।
३३६. असंजद० तिरिक्खोघं । वरि तित्थय० श्रघं । वरि जस० णि बं० संखेज्जगु० ।
३३७. चक्खुदंस० तसपज्जत्तभंगो | अचक्खुदं० मूलोघं । श्रधिदंस० अधिपाणिभंगो ।
३३८. किरण -- पील -- काऊरणं असंजदभंगो। एवरि किरण - पीलाएं तित्थयरं देव दिसह कादव्वो । काउए पढमपुढविभंगो। तेऊए छणं कम्माणं सोधम्मभंगो । मिच्छ० ज० द्वि० ० अताणु - बंधि०४ ०ि बं० । तं तु० । बारसकसा० - पुरिस०हस्स -रदि-भय-दुगु ० शि० वं० संखेज्जगु० । एवं अताणुबंधि०४ ।
३३६. अपञ्चक्रखाणकोध० ज० द्वि० बं० तिणिकसा० णि बं । तं तु० ।
जघन्य स्थितिका बन्धक जीव आठ कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । शोक का नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजयन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य की अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३३६. असंयत जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोके समान जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग श्रोघके समान है । इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिका नियम से बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । ३३७. चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग त्रसपर्याप्त जीवोंके समान है। अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग मूलोघके समान है । श्रवधिदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है ।
३३८. कृष्ण, नील, और कापोत लेश्यावाले जीवोंका भङ्ग असंयत जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्यावाले जीवोंके तीर्थंकर प्रकृति देवगति सहित कहनी चाहिए । कापोत लेश्या में तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग पहली पृथ्वीके समान है । पीत श्यामें छह कर्मोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है । मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवीं भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३३९. श्रप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन कषायका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमले
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महाबंधे ट्टिदिबंधाहियारे
क० - पुरिस० - हस्स-रदि-भय-दुगु ० णि० बं० संखेज्जगु० । एवं तिरिणकसा० । ३४० पच्चक्खाणकोध० ज०ट्ठि० वं० तिरिएक० रिण० बं० । तं तु० । चदुसंज० - पुरिस० - हस्स - रदि-भय-दुगु० णि० बं० संखेज्जगु० । एवं तिणिकसा० । ३४१. कोधसंज० ज० द्वि० बं० तिरिणसंज० -- पुरिस० -- हस्स--रदि-भय-- दुगुं ० णि० बं० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेक्स्स । तं तु ।
३४२. इत्थि० ज० द्वि०बं० मिच्छ०- सोलसक० -भय-दुर्गा० शि० बं० संखेज्ज - गुणन्भहियं ० । हस्स-रदि- अरदि-सोग० सिया० संखेज्जगु० । एवं एस० ।
३४३, अरदि० ज० द्वि०बं० चदुसंज० - पुरिस०-भय-- दुगु ० णि० बं० संखे
जघन्य की अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पत्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३४० प्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन कषायका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य -स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार सं ज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३४१. क्रोधसंज्वलन की जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका
संख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है. तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है ।
३४२. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३४३. अरतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा जगु० । सोग० णि. वं० । तं तु० । एवं सोग ।
३४४. तिरिक्खगदि-एइंदि०-पंचसंठा-पंचसंघ०-तिरिक्रवाणु०-आदाउज्जो०अप्पसत्थ०-थावर-दूभग-दुस्सर-अणादे० सोधम्ममंगो। मणुसगदि० ज०हिबं० पंचिंदि०--तेजा-क०-समचदु०--वएण०४-अगु०४--पसत्थवि०--तस४-थिरादि छ०णिमि० पिबं० सखेज्जगुणब्भहियं० । ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०मणुसाणु० णि• बं० । तं तु० । तित्थय सिया० संखेज्जगु० । एवं ओरालि. ओरालि अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० ।
३४५. देवगदि० जहि०० परिहार-पढमदंडो कादव्यो । अथिरं पि तस्सेव विदिय-दंडओ । एवं पम्माए ।
३४६. सुक्काए सत्तएणं कम्माणं मणजोगिभंगो । मणुसगदि-ओरालि - ओरालि अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० पम्माए भंगो। णवरि जस० णि. बं.
अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शोकका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३४४. तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसवतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। औदारिक शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानपूर्वी इनका नियमसे होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है।यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३४५. देवगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके परिहारविशुद्धिसंयतका प्रथम दण्डक कहना चाहिए और अस्थिर प्रकृति भी कहना चाहिए । तथा उसीके दूसरा दण्डक कहना चाहिए । इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए ।
३४६. शुक्ललेश्यामें सात कौका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। इतनी विशेषता है कि यश-कीर्तिका नियमसे बन्धक होता है
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे असंखेज्जगु० । पंचसंठा-पंचसंघ-अप्पसत्थ०-दृभग-दुस्सर-अणादे० प्राणदभंगो । वज्जरि०-जस सिया बं० संखेज्जगु० । सेसं पम्माए भंगो। वरि जसगित्ति. असंखेज्जगु० ।
३४७. भवसिद्धिया० अोघं । अब्भवसिद्धिया० मदिभंगो । सम्मादि-खइगसम्मादि० अोधिभंगो । वेदगसम्मादि० पम्मभंगो । णवरि मिच्छ पगदीओ वज्ज । सासणे सत्तएणं कम्माणं णिरयोघं । णवरि मिच्छत्त-णसग० वज्ज । तिरिक्खगदि० जहिबं० पंचिदि--ओरालि --तेजा०--क०-समचदु०--ओरालि अंगो०वज्जरि --वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ--णिमि० वि० बं० । तं तु० । उज्जो सिया० । तं तु० । एवं तिरिक्खाणु०-उज्जो ।
३४८. मणुसगदि० ज०ढि०० तिरिक्खगदिभंगो । णवरि [मिच्छत्त-णवु जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनका भङ्ग आनत कल्पके समान है। वज्रर्षभनाराच संहनन और यश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। इतनी विशेषता है कि यश कीर्तिकी असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
३४७. भव्य जीवोंका भङ्ग अोधके समान है। अभव्य जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंका भङ्ग पद्मलेश्यावाले जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियोंको छोड़कर कहना चाहिए। सासादन सम्यक्त्वमें सात कर्मोका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसक वेदको छोड़कर कहना चाहिए। तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानु पूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, बस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि आजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३४८. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदको छोड़कर कहना चाहिए । देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१६३ स०] वज्ज । देवगदि० ज०हिबं० पसत्थट्ठावीसं णिय० । तं तु० ।
३४६. पंचिंदि० ज०वि०बं० तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थतस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि० बं० । तं तु० । तिएिणगदि-दोसरीर-दोअंगो०वज्जरि०-तिरिणाणु०-उज्जो० सिया० । तं तु । एवं तेजा०-क-समचदु०वरण ४--अगु०४--पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ--णिमिणं । एवं ओरालि०ओरालि०अंगो०-वज्जरि० । णवरि दोगदि-दोआणु०-उज्जो सिया० । तं तु । सेसं पसत्य [प-]गदीश्रो णि बं० । तं तु० । चदुसंठा०--चदुसंघ०--अप्पसत्थ०भग-दुस्सर-अणादे मणजोगिभंगो। वरि थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस०
है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है।
३४९. पञ्चेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीन गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, तीन प्रानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि दो गति, दो आनुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य.एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे वन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि स्थिर-अस्थिर, शुभ अशुभ और यश कीर्ति-अयश-कीर्ति इन तीन युगलोंका कदाचित् बन्धक
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे तिगिण वि सिया० संखेज्जदिभा० ।
३५०. सम्मामिच्छ० वेदगभंगो । मिच्छादिही० मदिभंगो । सएिण. मणुसभंगो । असएिण. तिरिक्वोघं । आहार० ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो।
३५१. जहएणपरत्थाण-सएिणयासो दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० आभिणिबोलणाणावरणीयस्स जहएणयं हिदिं बंधतो चदुणाणा०-चदुदंसणासादा०-जस०-उच्चा-पंचंतरा० णिय बं० । णिय. जहएणा० । एवमेदाओ एकमेकस्स । तं तु० जहएणा ।
३५२. णिद्दाणिदाए ज०हि०७० . पंचणा०-चदुदंसणा-सादा०-चदुसंज०पुरिस०-जस०-पंचंतरा०णि बं० । णि अजह० असंखेज्जगु०। चदुदंस-मिच्छ०बारसक०-हस्स-रदि-भय-दुगु-पंचिंदि--ओरालि०-तेजा-क०-समचदु०-ओरालि. अंगो०-वज्जरि०-वएण०४--अगु०४--पसत्थ०--तस०४--थिरादिपंच-णिमि० णिबं० । तं तु.। दोगदि-दोआणु०-उज्जो०-णीचा. सिया० । तं तु०। उच्चा० सिया.
होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
३५०. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग वेदकसम्यग्दृष्टियोंके समान है और मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग मत्यशानी जीवोंके समान है। संशी जीवोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है और असंही जीवोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। आहारक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। तथा अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है।
इस प्रकार जघन्य स्वस्थानसन्निकर्ष समाप्त हुआ। ३५१. जघन्य परस्थानसन्निकर्ष दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यश कीर्ति, उञ्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह जघन्य स्थितिका ही बन्धक
३५२. निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार सञ्ज्वलन, पुरुषवेद, यश-कीर्ति और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मरण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। कि जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो आनुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और
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जहण परत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा
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असंखेज्जगु० । एवं णिद्दाणिद्दाए भंगो चदुदंस०-मिच्छ० - बारसक ० -हस्स-रदि-भयदुगु ० --तिरिक्खगदि -- मणुसगदि - पंचिंदि० ओरालि० तेजा० क० - समचदु० - ओरालि ० अंगो० - वज्जरि०-वरण ०४ - दोआणु० - अगु०४ -- उज्जो ० - पसत्थवि० -तस०४-थिरादिपंचसिमि० णीचागोद त्ति ।
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३५३. असादा० ज० हि० बंधतो खवगपगदीओ णिहाणिद्दाए भंगो । पंचदंसणा ० - मिच्छ० - बारसक०-भय- दुगु० --पंचिंदि० ओरालि ० - तेजा०--क०-२ [०--क० -- समचदु०ओरालि० अंगो० - वज्जरि० - वरण ०४ - अगु०४- पसत्थ० -तस०४- सुभग-सुस्सर-आदे०णिमि० रिण ० वं ० संखेज्जभाग० । हम्स-रदि-तिरिक्खग दि-मणुसगदि-दोत्राणु० -उज्जो०थिर- सुभ-णीचा० सिया० असंखेज्जभाग० । अरदि- सोग - अथिर- असुभ अजस० सिया० । तं तु ० । जस० - उच्चा० सिया० असंखेज्जगु० । एवं अरदि -- सोग--अथिरअसुभ जस० ।
अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । उच्चगोत्रका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार निद्रानिद्राके समान चार दर्शनावरस, मिध्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि पाँच, निर्माण और नीचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३५३. साता वेदनीयकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग निद्रानिद्रा के समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, दो श्रनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, शुभ और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । श्ररति, शोक, स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्ति और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंघाहियारे ३५४. कोधसंज० ज०हि०० पंचणा-चदुदंसणा-सादावे-तिरिणसंज०जस०-उच्चा०-पंचंत० णिय बं० संखेजगु० । एवं तिएिणसंज-पुरिस० । णवरि माणे दोसंजलणं मायाए लोभसंज० पुरिस० चदुसंजलण त्ति भाणिदव्वं । लोभे पत्थि संजल-पुरिस० ।
३५५. इथि० ज०हि०० खवगपगदीओ पिदाणिदाए भंगो। पंचदंस० मिच्छ०-चारसक० --भय--दुगु--पंचिंदि०-अोरालि-तेजा.--क०--ओरालि अंगो०वरण-४ अगु०-४ पसत्थ०-तस०-४ सुभग-सुस्सर-श्रादें--णिमि० णि• बं. असंखेजभाग० । सादा-जस०-उच्चा० सिया० असंखेंजगु० । असादा-अरदि-सोगतिरिक्व०-मणुसग०-तिरिणसंठा-तिएिणसंघ०-दोबाणु-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभअजस०-णीचा -सिया० असंखेज्जभाग० । एवं एबुंसः । गवरि पंचसंठा-पंचसंघ-णिरयाणु० जाहि०० पंचणा-चदुदंसणाo-चदुसंज--पंचंतपि. बं. असंखेजगु० । पंचदंसणा-असादा-मिच्छ०-बारसक०-गलैस०-अरदि-सोग-भयदुगु-चदुबीसणामपगदीओ--णीचा णि बं० संखेजगु० । णिरयग०-वेउव्वि०
३५४. क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, तीन संज्वलन, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणो अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मानमें दो संज्वलन, मायामें लोभ संज्वलन और पुरुषवेदमें चार संज्वलन कहना चाहिए । लोभमें संज्वलन और पुरुषवेदका सन्निकर्ष नहीं होता।
३५५. स्त्रीवेदको जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियों का भङ्ग निद्रानिद्राके समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय,भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचंतुष्क,सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, यश कीर्ति और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असातावेदनीय, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, तीन संस्थान, तीन संहनन, दो पानपर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ अयशाकीर्ति और नीच गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँच संस्थान, पाँच संहनन और नरकगत्यानुपूर्वीकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच शानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पाँच दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, चौबीस नामकर्मकी प्रकृतियाँ और नीचगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है।
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जहण्णपरत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा
for ० अंगो०-रियाणु णि० बं० शि० अज० । जह० अ० विद्वाणपदिदा बंदि संखेज्जभाग० संखे जगु० ।
३५६. तिरिक्खायु० ज० द्वि० बं० खवगपगदीओ रिण० बं० श्रसंखेज्जगु० । पंचदस० - मिच्छ० - बारसक०- एस०-भय--दुगु० - तिरिक्खगदि० अपजत्तसंजुत्ता पगदीओ खीचा० ०ि बं० । णि० अज० । जह० ज० विद्वाणपदिदं असंखेज्ज - भाग० संखेज्जगु । सादावे ० सिया असंखैज्जगु० । असादा०-हस्स-रदि-अरदिसोग - पंचजादि-ओरालि० अंगो० - संपत्त० --तस थावर - बादर - सुहुम- पत्तेय-साधार० सिया० । यदि० बं० शि० ज० विद्वाणपदिदं संखेज्जभा० संखेज्जगु० । एवं मणुसाय० । वरि एइंदियसंजुत्ताओ वज्ज ।
०
३५७. देवायु० ज० हि० बं० खवगपगदीओ णि० वं० असंखैज्जगु० | पंचदंस० - मिच्छ० - बारसक० -- हस्स- रदि--भय--दुगु ० - पसत्थणामात्र चदुबीसं रिण० वं० संखेज्जगु० । इत्थि० सिया संखेज्जगु० । पुरिस० सिया असंखेज्जगु० । देवगदिनरकगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, नियमसे दो स्थान पतित स्थितियोंका बन्धक होता है । या तो संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
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३५६. तिर्यञ्चायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, अपर्याप्त संयुक्त प्रकृतियाँ और नीचगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य की अपेक्षा अजघन्य, दो स्थान पतित स्थितिका बन्धक होता है, या तो असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीयका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे सं array कि स्थितिका बन्धक होता है । असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, पाँच जाति, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, प्रत्येक और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य, दो स्थानपतित स्थितिका बन्धक होता है या तो असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति संयुक्त प्रकृतियोंको छोड़कर जानना चाहिए ।
३५७. देवायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे श्रजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा और नामकर्मकी चौबीस प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित श्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता १. मूलप्रतौ यदि० शि० बं० शि० इति पाठः ।
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महाबंधे ट्ठिदिवंधाहियारे वेउवि०-वेउवि अंगो०-देवाणु० णि० ब०, णि० अज० विद्वाणपदिदं संखेंजभा० संखेंजगु० ।
३५८. णिरयग० ज हि०० खवगपगदीअो [णिय० बं०] असंखेजगु० । पंचदंस--असादा०---मिच्छ.-बारसक०-गवंस०--अरदि-सो०--भय-दुगु---णाम सत्थाणभंगो णीचा. णि बं०' संखेजगु० । णिरयाणु० णि० बं० । तं तु० । एवं णिरयाणु० ।
३५६. तिरिक्वग० जहि बं० खवगपगदीओ असंखेजगु० । पंचदंसमिच्छ०-बारसक-हस्स-रदि-भय-दुगु-णाम० सत्थाणभंगो णीचा० णि बं० । तं तु.। एवं तिरिक्खाणु०--उज्जो । मणुसगदि० तिरिक्खगदिभंगो। गवरि उच्चा० णि. बं. असंखेजगु०। है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य, दो स्थानपतित स्थितिका बन्धक होता है या तो संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
३५८. नरकगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। प दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगु: प्सा, स्वस्थान भंगके समान नामकर्मकी प्रकृतियाँ और नीचगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३५९. तिर्यश्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपकप्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, स्वस्थान भङ्गके समान नामकर्मकी प्रकृतियाँ और नीच गोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी और उद्योतको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यगतिका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि उच्च गोत्रका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
१. मूलप्रती बं. असंखेज० इति पाठः । २. मूलप्रती असंखेजगु० देवगदि० असंखेजगु० देवगदि० इति पाठः ।
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जहण्णपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
१६६ ३६०. देवगदि० जट्टि०व० खवगफगदीओ [णि बं० ] असंखेजगु० । पंचदंस-मिच्छ०-बारसक०-चदुणोक० णिय० संखेंजगु० । णाम सत्थाणभंगो ।
३६१. एइंदि०-ज हि०० खव०पगदीश्रो णि. बं. असंखेजगु० । पंचदंस०मिच्छ०--बारसक०-गवुस-भय-दुगु---णीचा णि वं. असंखेंजभा० । सादा० सिया० असंखेज गु० । असादा०--हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० असंखेंजभा० । णाम सत्थाणभंगो । एवं आदाव-थावर० । एवं बीइंदि-तीइं०-चदुरिं० ।
३६२. आहार० ज०हि०० खवगपगदीणं णि. बं. असंखेज्जगु० । हस्सरदि-भय--दुगु णि० बं० संखेज्जगु० । णाम. सत्थाणभंगो । एवं आहार०अंगो० तित्थय० ।
३६३. णग्गोद० ज०हि बं० खवगपगदीओ णि• बं. असंखेंजगु०। पंचदंस०-मिच्छ०-बारसक०-भय -दुगुणि० बं. असंखेजभा० । सादा० सिया०
३६०. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय और चार नोकषाय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भंग स्वस्थानके समान है।
३६१. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा और नीच गोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीयका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
___३६२. आहारक शरीरको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भंग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३६३. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्सा
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
असंखेज्जगु० । हरस-रदि-- अरदि-सोग - णीचा० सिया असंखेज्जभा० । गाम० सत्थाणभंगो। एवं चदुदंस० पंचसंघ० - अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर - अणादें० राग्गोदभंगो। वरि खुज्ज० - वामण ० - श्रद्धणारा० खीलिय० - इत्थिवे० सिया० असंखेज्जभा० । पुरिस० सिया संखेज्जगु० ।
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३६४. हुंड० - असंपत्त० ज० द्वि० बं० इत्थि० एस० सिया० असंखेज्जगु० । एवं पत्थ० - दूभग दुस्सर- अणादें ० -- तिरिणवेदाणि भाणिदव्वाणि । मुहुम- साधार० एइंदियभंगो । वरि सगपगदीओ जाणिदव्वा । एवं सव्वेसिं गामाणं । raft out सत्थारणं कादव्वं ।
३६५. देसेण रइएस आभिणिबोधि० ज० द्वि० बं० चदुणा० - रणवदंसणा ०सादा०-- मिच्छ० - सोलसक० - पुरिस ० - हस्स--रदि--भय-दुगु० - मणुसग०--पंचिंदि०ओरालि०-समचदु०-ओरालि० अंगो० - वज्जरि ० - वरुण ० ४ - मणुसाणु ० - अगु० ४
इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीयका कंदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, श्ररति, शोक और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे श्रजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नामकर्मकी प्रकृतियों का भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान के समान चार दर्शनावरण पाँच संहनन, प्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जामना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुब्जकसंस्थान, वामन संस्थान, अर्धनाराच संहनन, कीलक संहनन और स्त्रीवेद इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित्
बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
३६४. हुण्डसंस्थान और श्रसम्प्राप्तास्पाटिका संहननकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इस प्रकार अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुस्वर, श्रनादेय और तीन वेदोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। सूक्ष्म और साधारण प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रिय जातिके समान है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । इसी प्रकार सब नामकर्मकी प्रकृतियोंको जानना चाहिए । इतनो विशेषता है कि अपना अपना स्यान कहना चाहिए ।
३६५. आदेश से नारकियोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रगुरुलघुचतुष्क,
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जहणपरत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा
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पसत्थ०-तस०४ - थिरादिक- णिमि० उच्चा० पंचंत० रिण० बं० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकस्स । तं तु० ।
३६६. असादा० ज० द्वि० बं० पंचणा० णवदंसणा०--मिच्छ०- सोलसक०-भयदु०- मणुसग ०-पंचिंदि०-ओरालिय० तेजा० क० समचदु० ओरालि० अंगो० वज्जरि०वरण ०४ - मणुसा० गु०४ - पसत्थवि ० [०--तस०४- सुभग--सुस्सर - आदें० - णिमि०उच्चा० - पंचंत० णि० बं० संखेज्जभा० । हस्स -रदि- थिर-सुभ-जसगि० सिया ० संखेज्जभा० । अरदि-सोग - अथिर असुभ अजस० सिया० । तं तु० । एवं अथिर-असुभअजस० ।
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३६७. इत्थवे० ज० हि०बं० पंचणा० एवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक०-भयदु०- मणुस ० - पंचिंदि०--ओरालि ० तेजा ० क ० - ओरालि० श्रंगो ० - वरण ०४ - मणुसागु० -
प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु तब वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है ।
३६६. असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, चौदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, देय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अस्थिर, अशुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३६७. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अगु०४- पसत्थवि०--तस०४- सुभग-सुस्सर-आदे०--णिमि उच्चा०-पंचंत० णि० बं० संखेज्जभागब्भहियं० । सादासाद०--हस्स-रदि-अरदि-सोग--तिएिणसंठा-तिषणिसंघ०--थिराथिर-सुभासुभ-जस०--अजस० सिया० संखेंज्जभा० । एवं णवुस । णवरि पंचसंठा-पंचसंघ ।
३६८. तिरिक्वायु० जाहि०० पंचणाणावरणादिधुविगाणं णि वं. संखेज्जगु० । सेसाओ परियत्तमाणियाओ सव्वाअो सिया० संखेज्जगु० । एवं मणुसायु. । णवरि णीचुच्चा० सिया० संखेज्जगु०।
३६६. तिरिक्खग० जहि बं० पंचणा०-णवदंसणा०--मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णि बं० संखेज्जभा०। सादासाद०-तिएिणवे०-हस्सरदि-अरदि-सोग सिया० संखेज्जभाग० । णाम सत्थाणभंगो। पंचसंठा-पंचसंघअप्पसत्थ-भग-दुस्सर-अणादें ओघं । सगपगदीश्रो संखेज्जभाग० । णवरि उच्चा० धुविगाणं कादव्वं । णामस्स अप्पप्पणो सत्थाणभंगो। पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक, होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, तीन संस्थान, तीन संहनन, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयशः कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँच संस्थान और पाँच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है।
३६८. तिर्यञ्चायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण आदि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शेष परावर्तमान सब प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है
और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नीचगोत्र और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
३६९. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तीन वेद, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थानके समान है । पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। किन्तु अपनी प्रकृतियोंकी स्थितिको संख्यातवों भाग अधिक कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रको ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके साथ कहना चाहिए । तथा नामकर्मकी अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है।
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जहण्णपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
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३७० तित्थय० ज० द्वि०बं० पंचणा० - इदंसणा ० -सादावे ० - बारसक० - पुरिस०हस्स-रदि--भय-दुर्गा ं ०-- उच्चागो०- पंचंत० णि० बं० संखेज्जगु० । गाम सत्थाणभंगो । एवं पढमा पुढवीए ।
३७१. बिदिया पुढवीए आभिणिबो० ज० हि०बं० चदुणा० छदंसणा ०सादावे०-वारसक० - पुरिस ० - हस्स-रदि-भय-दु० - मणुसगदियाओ रियोघं पढमदंडओ उच्चा० - पंचंत० णि० बं० । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० ।
३७२ विद्दाणिद्दाए ज० हि०बं० पंचरणा०-पढमदंड रिण० बं० संखेज्जगु० । पचलापचला-थी गिद्धि--मिच्छत्त अताणुबंधि०४ णि० बं० । तं तु० । एवं थी - गिद्धितिय मिच्छ० - अणंताणुबंधि०४ ।
३७०. तीर्थकर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव, पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुष वेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार पहिली पृथ्वी में जानना चाहिए ।
३७१. दूसरी पृथ्वी में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुष वेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा और मनुष्यगति श्रादि प्रकृतियाँ सामान्य नारकियोंके समान प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा
जघन्य एक समय अधिक से लेकर पत्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है ।
३७२. निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण आदि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ३७३. असादा० ज०हि वं. पंचणाणा. मणुसगदिसंजुत्ताओ णिरयोघं । णवरि सम्मादिहिपगदीओ बंधदि । एवं अरदि-सो०-अथिर-असुभ-अजस ।
३७४. इस्थिवे. जहि बं० पंचणा--णवदंसणा--मिच्छ०-सोलसक--भयदु०-णाम मणुसगदिसंजुत्ताओ उच्चा०-पंचंत० णि बं० संखेज्जगु० । सादासाद०चदुणोक-समचदु०-वज्जरिस०-थिरादितिएिणयुगलं सिया० संखेज्जगु० । दोसंठा०दोसंघ• सिया० संखेज्जभा० । एवं गर्बुस । एवरि चदुसंठा०-चदुसंघ० सिया० संखेज्जभा० । आयु. णिरयोघभंगो।
३७५. तिरिक्खग० जहि०० हेहा उवरि एवुसगभंगो। णामसत्थाणभंगो। एवं पंचसंठा--पंचसंघ--अप्पसत्थवि०-द्भग-दुस्सर-अणादे हेहा उवरि । णामं अप्पप्पणो सत्थाणभंगो। एवं चदुसु पुढवीसु । सत्तमाए पुढवीए एसो चेव भंगो। गवरि णिहाणिदाए ज हि०० पचलापचला-थीणगिद्धि-मिच्छ ०-अणंताणुबंधि०४भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।।
३७३. असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके पाँच ज्ञानावरण आदि मनुष्यगति संयुक्त प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यह सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी प्रकृतियोंको बाँधता है। इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३७४. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, नामकर्मकी मनुष्यगति संयुक्त प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र
और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, समचतुरस्नसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, स्थिर आदि तीन युगल इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दो संस्थान और दो संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवां भाग अधिक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि चार संस्थान और चार संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। आयुकर्मकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके समान है।
३७५. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी मख्यतासे नीचे ऊपरकी अपनी-अपनी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा नामकर्मकी अपनी अपनी प्रकृतियोंका भंग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार तीसरी आदि चार पृथिवियोंमें जानना चाहिए। सातवीं पृथ्वीमें यही भंग है। इतनी विशेषता है कि निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व,
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जहण्यपरत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा
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तिरिक्खग० - तिरिक्खाणु० - णीचा० शि० बं० । तं तु० । उज्जी० सिया । तं तु० । एवमेदा ऍकमेकॅस्स । तं तु० | पंचसंठा० - पंच संघ० -- अप्पसत्थ० - --- दूर्भाग- दुस्सरअणादे० तिरिक्खगदिसंजुत्ता कादव्वा ।
सक०
३७६. तिरिक्खे मूलोघं । वरि खवगपगदीगं शिदाणिद्दाए भंगो । पंचिंदियतिरिक्ख ०३ आभिणिबो० ज० हि०बं० चदुरणा० -- एवदंसणा ० - सादा०-मिच्छ०-सोल- पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दु० - देवर्गादि-पंचिंदि० - वेडव्वि० - तेजा ० ०-क० - समचदु०वेडव्वि० अंगो० ०वरण०४- देवाणु० - अगु०४--पसत्थ० -तस०४ - थिरादिछ० - णिमि० - उच्चागो० - पंचंत० णि० बं० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० | असादा० ज०वि०० रियोघं । वरि देवगादिसंजुत्तं ।
अनन्तानुबन्धी चार, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा जघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका वन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है । किन्तु ऐसी अवस्था में वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और श्रनादेय इनको तिर्यञ्चगति सहित कहना चाहिए ।
३७६. तिर्यञ्चों में मूलोघके समान भङ्ग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग निद्रानिद्रा के समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक श्रङ्गोपांग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे वन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्था में वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीयकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति संयुक्त कहना चाहिए ।
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
३७७. मणुसगदि० ज० हि० बं० ओरालि० ओरालि० अंगो० वज्ज० - मणुसारणु० ०ि बं० । तं तु० । पुरिस० उच्चा० णि० बं० संखेज्जभा० । एवं सव्वाणं धुविगाणं | सादासाद० चदुणोक० थिरादितिरिणयुगलं सिया० संखेज्जभाग० । एवं तं तु पदिदारणं । इत्थिवे ० -- वंस० - तिरिक्खग०-- पंचसंठा०--पंच संघ० - अप्पसत्थ०दूर्भाग- दुस्सर अणादे० हेडा उवरिं मणुसगदिभंगो । वरि वेदविसेसा जाणिदव्वा । णाम० सत्याणभंगो । वरि इत्थिवे० मणुसगदि -- देवगदिसंजुत्तं कादव्वं । चदुत्रायु०
धं । वरि धुवियाओ ताओ रिण० वं० विद्वाणपदिदं वंधदि संखेज्जभा० संखेज्जगु० । परियत्तमाणियाओ सिया० विद्वाणपदिदं बंधदि संखेज्जभा० संखेज्जगु० । रियगदि-चदुजादि - गिरयाणु० -- श्रादाव - थावरादि ०४ तिरिक्खोघं । वरि संखेज्जभा० | पंचिंदियतिरिक्खापज्जत्ता ० रियोवं । एवरि दोआयु० जोणिभिंगो ।
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अजघन्य
३७७. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्रगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है यदि जघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद और उच्चगोत्रका नियमसे बन्धक होता है जो नियम से संख्यातवां भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार सब ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों का जानना चाहिए। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगल इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार "तं तु" रूपसे पठित प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्नि कर्ष जानना चाहिए । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और श्रनादेय इनका नीचे ऊपर मनुष्यगतिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि वेद विशेष जानना चाहिए। नामकर्मकी प्रकृतियों का भङ्ग स्वस्थानके समान है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदको मनुष्यगति और देवगति सहित कहना चाहिए । चार आयुओं का भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि जो ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं उनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य दो स्थान पतित स्थितिका बन्धक होता है या तो संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । परावर्तमान प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य दो स्थान पतित स्थितिका बन्धक होता है । या तो संख्यातवां भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगति, चार जाति, नरकगस्यानुपूर्वी, श्रातप और स्थावर आदि चार इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य तिर्यञ्चोके समान जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातवाँ भाग अधिक करना चाहिए । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि दो श्रायुओं का भङ्ग योनिमती तिर्यञ्चोके समान 1
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जहण्णपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा ३७८, मणुस०३ खवगपगदी० ओघं । देवगदि०४ आहार०भंगो० । णिरयगदि-णिरयाणु० अोघं । सेसं पढमपुढविभंगो। मणुसअपज्जत्तेसु पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। __३७६. देवेसु णिरयोघं । णवरि एइंदिय-आदाव-थावरं णादव्वं । एवं भवण०वाणवेत० । जोदिसि०-सोधम्मीसा विदियपुढविभंगो। णवरि एइंदिय-आदाव-थावर भाणिदव्वा । सणकुमार याव सहस्सार त्ति विढियपुढविभंगो। एवं चेव आणद याव गवगेवज्जा त्ति । एवरि तिरिक्खगदिचदुकं वज्ज । अणुदिस याव सव्वहा त्ति पढमदंडओ विदियपुढविभंगो । एवं विदियदंडो वि । असादा०-मणुसायु० णि ।
३८०. सव्वएइंदिएसु तिरिक्खोघं । विगलिंदियपज्जत्तापज्जत्त--पंचिंदिय--तसअपज्जत्त० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पंचिंदिय--पंचिंदियपज्जत्त खवगपगदीणं ओघं । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो ।
३८१. पंचकायाणं तिरिक्खोघं । णवरि तेउ०--वाउ० तिरिक्खगदि०--तिरिक्वाणु-णीचा० पुन्वं कादव्वं । तस-तसपज्जत्ता खवगपगदीणं मूलोघं । सेसाणं मणुसोघं । एवरि वेउवियरकं ओघं ।
३७८. मनुष्यत्रिकमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। देवगतिचतुष्कका भङ्ग आहारक शरीरके समान है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पहली पृथिवीके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है।
३७९. देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिए। ज्योतिष्क, सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतियाँ कहनी चाहिए । सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें दूसरी पृथ्वीके समान भङ्ग है। तथा इसी प्रकार प्रानत कल्पसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति चतुष्कको छोड़कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग दुसरी पृथिवीके समान है। इसी प्रकार दूसरा दण्डक भी जानना चाहिए । तथा असाता वेदनीय और मनुष्यायुका नियमसे बन्धक होता है।
३८०. सब एकेन्द्रियों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भंग है। विकलेन्द्रिय पर्याप्त, विकलेन्द्रिय अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय और पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है।
३८१. पाँच स्थावर कायिक जीवोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इनको पहिले कहना चाहिए। प्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें क्षपक प्रकृतियाँका भङ्ग मूलोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य मनुष्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक छः ओघके समान है।
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
०--पंचंत०
३८२. पंचमण० - तिरिणवचि० श्रभिरिवोधि० आदि ओवं । शिवाद्दिाए ज० द्वि० वं० पंचरणा०--चदुदंस०-सादावे० - चदुसंज०-पुरिस १० जस ० -- उच्चा०-रिण० बं० असंखेज्जगु० । पचलापचला थीए गिद्धि-मिच्छत्त-अरांताणुबंधि ०-४ यि० बं० । ० तु० । णिद्दा- पचला अडकसा०-हस्स-रदि--भय-दुगुं ० -देवरादि- वेडव्विय०तेजा ० क ० - समचदु० - वेडव्वि० अंगो० वरण ०४ - देवाणु० गु०४ - पसत्थवि० थिरादिपंच - णिभि० णि० बं० संखज्जगु० । एवं थीए गिद्धि ० ३ - मिच्छ० - अणताणुबंधि०४ ।
I
०-तस०४
३८ ३. शिद्दाए ज० हि० बं० खवगपगदीणं शिक्षाणिद्दाए भंगो । पचला पि० बं० । तं तु । हस्स-रदि-भय-दु० - देवर्गादि--पसत्थसत्तावीसं णि० बं० संखेज्जगु० । आहारदुगं तित्थयरं सिया० संखेज्जगुरु । एवं पचला० ।
३८४. असादा० ज० हि०० खवगपगदीगं पिद्दाए भंगी । विदा - पचला भय
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३८२. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें ग्राभिनिवोधिक ज्ञानावरण आदिका भङ्ग श्रोधके समान है । निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार सञ्चलन, पुरुषवेद, यशःकोर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । प्रचला, स्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चार इनका नियमसे बन्धक होता है किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और जघन्य स्थितिका होता है। यदि जन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजय एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातव भाग अधिक तक स्थितिका वन्यक होता है। निद्रा, प्रचला, आट कपाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, तिथिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैकियिक आंगोपांग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे श्रजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३८३. निद्राकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके सव प्रकृतियांका भङ्ग निद्रानिद्रा के समान है । प्रचलाको नियमसे वन्धक होता है । जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका संख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, भय, जुगुल्सा, देवगति आदि प्रशस्त सत्ताईस प्रकृतियाँ इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे श्रजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । आहारक द्विक और तीर्थकर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्ध होता है । इसी प्रकार प्रचला प्रकृतिकी मुख्यतासे सनिकर्ष जानना चाहिए ।
३८४. असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिके वन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग निद्रा के समान है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, देवगति पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक
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जहण्णपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१७९ दुगु--देवगदि--पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा०-क०-समचदु०--वेरवि अंगो-वएण०४देवाणु०-अगु०४--पसत्थ --तस०४--सुभग--सुस्सर--प्रादें--णिमि० णि• बं० संखेंज्जगु० । हस्स-रदि-थिर-सुभ० सिया० संखेज्जगु० । जस० सिया० असंखज्जगुः । अरदि--अथिर--असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । एवं अरदि-सोग--अथिर--असुभअजसः ।
३८५. अप्पच्चक्रवाणकोध. जाहि०० खवगपगदीणं णिदाए भंगो । तिषिणक० णि० बं० । तं तु० । सेसाणं णिदाए भंगो । एवं तिषिणकसा० ।।
३८६. पच्चक्खाणकोध० ज०हि यं० खवगपगदीणं णिहाए भंगो। सेसानो हेहा उवरिं संखेज्जगु० । तिषिणक० णि० वं० । तं० तु । एवं तिएिणक ।
शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय
और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, स्थिर और शुभ इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है । यश कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका मो बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकोर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
__३८५. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिके बन्धक जोवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राके समान है। तीन कषायोंका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थिति का भो बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राके समान है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३८६. प्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राके समान है। शेष प्रकृतियोंका नीचे ऊपर नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुरणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीन कपायोंका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीन कपायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ३८७. इत्थिवे. जहि०० पंचणा---चदुदंस०--चदुसंज०-पंचंत० णि. बं. असंखेज्जगु० । पंचदंस-मिच्छ०-वारसक०--भय--दुगु- --पंचिंदि---तेजा०--क०-- वएण०४-अगु०४-पसत्थ-तस०४-सुभग-सुस्सर--प्रादे-णिमि० णि. बं. संखेज्जगु० । सादा-जस०-उच्चा० सिया० संखेज्जगु० । असादा०--चदुणोक०-तिरिणगदि-दोसरीर--समचदु०-दोअंगो०-वज्जरि०-तिरिणाणु०--उज्जो०--थिराथिर--सुभामुभ-अजसणीचा सिया० संखेज्जगु०। णग्गोद०-सादि-वज्जणारा०-णाराय सिया० संखेज्जभा०। एवं णवुस । वरि दोगदि-समचदु०-वज्जरिस०-दोआणु०उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-अजणीचा० सिया० संखेज्जगु० । चदुसंठा०-चदुसंघ० सिया० संखेज्जभा० ।।
३८८. आयुगाणं चदुरणं पि खवगपगदीणं असंखेज्जगु० । सेसाणं मणुसभंगो। ३८६. णिरयगदि० जट्ठिबं० खवगपगदीणं ओघं । पंचदं० --असादा०
३८७. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पांच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेद्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, चार नोकषाय, तीन गति, दो शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीन प्रानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशःकीर्ति और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। न्यग्रोधसंस्थान, स्वातिसंस्थान, वज्रनाराच संहनन और नाराच संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचि प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि दोगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयश-कीर्ति और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संस्थान और चार संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
३८८. चार आयुओकी भी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगणी अधिक स्थितिका होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यों के समान है।
३८९. नरकगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके
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जहरणपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
१८१ मिच्छ०--बारसक---अरदि-सोग-भय-द०--पंचिंदि०-बेउवि०--तेजा-क-वेउच्चि०अंगो०-चरण ४-अगु०-तस०४-अथिर-असुभ-अजस--णिमि०-णीचा० णि. बं. संखेज्जगु० । वुस०--इंडसं०--अप्पसत्थ०--भग--दुस्सर--अणादें णि बं० संखेज्जभा० । णिरयाणु० णि० बं० । तं तु । एवं णिरयाणु० ।
३६०. तिरिक्वगदि० ज०हि०० खवगाणं णिरयगदिभंगो। पंचदंसमिच्छ०-बारसक---हस्स--रदि-भय-दु०-पंचिंदि०-अोरालि०-तेजा--क-समचदु०ओरालि०अंगो०--वज्जरि०-वएण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच णि० बं० संखेज्जगु० । तिरिक्वाणु० --णीचा. पि. बं० । तं तु० । उज्जो० सिया० । तं तु०! एवं तिरिक्वाणु०-उज्जो०-णीचागो०।
३६१. मणुसग० जट्ठि०बं० ओरालि०--ओरालि०अंगो-वज्जरि०--मणुसमान है । पाँच दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारहकषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नपुंसकवेद, हण्डसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, दर्भग, दस्वर और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँभाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है,किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्याताभाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३९०. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग नरकगतिके समान है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारहकषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान,
औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क और स्थिर आदि पाँच इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी
और नीचगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसीप्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३९१. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे साणु० णि• बं० । तं तु० । सेसाणं तिरिक्खगदिभंगो। णवरि तित्थय०सिया० संखेज्जगु । एवं मणुसगदिपंचगस्स । __ ३६२. देवगदि० ज०शि०० पंचणा०--चदुदंस०--सादा --चदुसंज०--पुरिसजस०--उच्चा---पंचंत० णि. बं. असंखेज्जगु०। हस्स--रदि-भय-दु० णि० बं० संखेजगु० । पंचिंदियादिपसत्थसत्तावीसं णि० बं० । तं तु । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवमेदाओ एक्कमकस्स । तं तु०।।
३६३. एइंदि० ज०ट्ठि०वं खविगाणं ओघं । पंचदं०-मिच्छ०--बारसकसा.. भय--दु०-णाम सत्थाणभंगो णीचा० णि बं० संखेज्जगु० । सादा०-जस० सिया०
है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसोप्रकार मनुष्यगतिपञ्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३९२. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे वन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त सत्ताईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी ! सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है।
३९३. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, वारह कषाय, भय, जुगुप्सा, नाम कर्मकी स्वस्थान भगवाली प्रकृतियाँ और नीचगोत्रका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है।
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जहणपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
१८३ असंखेजगु० । असादा०--चदुणोक-थिराथिर--सुभासुभ-अज-उज्जो० सिया० संखेंज्जगु० । एवुस हुंड०--दूभग-अणादें णि बं० संखेजभा० । एवं बीइं०तीइं०-चदुरिं- हेहा उवरिं एइंदियभंगो । णाम सत्थाणभंगो ।
३६४. रणग्गोद० ज०हि०व० खविगाणं ओघं । सेसाणं इत्थिवेदभंगो । णाम० सत्थाणभंगो । सव्वाणं संघड०--अप्पसत्थ० --दूभग-दुस्सर-अणादेजाणं हेढा उवरिं इत्थिवेदभंगो। णवरि किं चि विसेसो जाणिदव्यो। वेदेसु णाम अप्पप्पणो सत्थाणभंगो।
३६५. वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगि० तसपज्जत्तभंगो। कायजोगि-अोरालियकायजोगि० ओघं । ओरालियमिस्से तिरिक्खोघं । णवरि देवगदि० ज०हिबं. पंचणा-छदंसणा--सादावे-बारसक पंचणोक--पंचिंदि-तेजा०-क-समचदु०वएण०४-अगु०४-पसत्थ०--तस०४-धिरादिछ--णिमि०--उच्चा०-पंचंत० णि. बं. संखेज्जगु० । वेउबि-वउव्वि अंगो०--देवाणु० णि बं० । तं तु । तित्थय० यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशाकीर्ति और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, दुर्भग और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँभाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसीप्रकार द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रिय जातिके समान है। तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है।
३९४. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानको जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। सब संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर
अनादेय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि कुछ विशेष जानना चाहिए। तीन वेदों में नामकर्मकी अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है।
३९५. वचनयोगी और असत्यमृपावचनयोगी जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग त्रस पर्याप्तकोंके समान है। काययोगो और औदारिक काययोगी जीवों में ओघके समान है।
औदारिक मिश्र काययोगमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिकी जघन्य स्थितिका वन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कपाय, पाँच नोकपाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अघिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सिया० । तं तु० । एवमेदानो ऍकमेक्कस्स । तं तु.
३६६. वेउव्वियका. आभिणिदंडो जोदिसियपढमदंडओ व्व असाद विदियदंडय० । णिहाणिहाए जहि०० पचलापचलादीणं मिच्छ०--अणंताणुवंधि०४ णियमा बं० । तं तु० । तिरिक्वग०-तिरिक्खाणु०-उज्जो० सिया० । तं तु० । मणुसग० --मणुसाणु०--उच्चा० सिया० संखेज्जगु० । धुविगाणं णि० बं० संखेजगु० । एवं थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुवधि०४ ।
३६७. इत्थिवे. जहि०बं० पंचणा०--णवदंसणा०--मिच्छ ० --सोलसक०-भयदु०-पंचिंदि--ओरालि०-तेजा०-का--ओरालि अंगो०--वएण०४--अगु०४-पसत्थ०
भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है।
३९६. वैक्रियिक काययोगमें आभिनिबोधिक प्रथमदण्डक ज्योतिषी देवोंके प्रथम दण्डकके समान है तथा असाता वेदनीय दूसरा दण्डक भी इसीप्रकार है। निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव प्रचलाप्रचला आदि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्य गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३६७. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका वन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर,
कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलधुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति,
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जहण्णपरत्थाणबंधसणिणयासपरूवणा तस०४-सुभग-सुस्सर--प्राद-णिमि० --पंचंत. णि वं० संखेजगु० । सादासाद०चदुणोक०--दोगदि--समचदु---वज्जरि०--दोबाणु०-उज्जो -थिराथिर--सुभासुभ-जस०अजस०-दोगोदं सिया० संखेज० । दोसंठा--दोसंघ० सिया० संखेज्जभा० । एवं णवुस । णवरि पंचसंठा-पंचसंघ०-दोआयु० देवोघं ।।
३६८. रणग्गोद० ज०हि०० पंचणा--णवदंसणा--मिच्छ०--सोलसक०-- पुरिस०--भय-दु०--पंचिंदि०---ओरालि०-तेजा--क०--ओरालि०अंगो०-वरण ४-- अगु०४--पसत्थ०--तस०४--सुभग--सुस्सर--प्रादें--णिमि---पंचंत. पि. बं० संखेंज्जगु० । सादासाद०-चदुणोक०-दोगदि-वज्जरि०-दोघाणु०-उज्जो -थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस०-णीचुच्चा० सिया० संखेज्जगु० । वज्जणारा [सिया०] । तं तु । एवं वज्जणारा० । चदुसंठा०-चदुसंघ०--अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें रणग्गोद
त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, चार नोकषाय, दोगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वो, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति, अयश कीर्ति और दो गोत्र इनका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दो संस्थान और दो संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँच संस्थान, पाँच संहनन और दो प्रायका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है।
३९८. न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय आति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, गुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, बस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, चार नोकषाय, दो गति, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति, अयश-कीति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वजनाराचसंहननका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका मो बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वज्रनाराचसंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान है। इतनी विशेषता है कि कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, अर्द्धनाराच संहनन और कीलक
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
भंगो। वरि खुज्जसंठा० - वामणसंठा० अद्धणारा खीलिय० इत्थि० सिया० संखेज्जभाग० । पुरिस० सिया० संखेज्जगु० । हुड ० - असंपत्त० - अप्पसत्थ ०- - दुभंग- दुस्सरअणादे पुरिस० सिया० संखेज्जगु० । इत्थिवे ० स ० सिया० संखेज्जभा० ।
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३६६. एइंदि० ज० द्वि०बं० पंचरणा०-गवदंसणा०--मिच्छ०- सोलसक०--भयदु०--तिरिक्खग०--ओरालि० - तेजा ० -- क ० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० -- अगु० ४-- बादर-पज्जत्त - पत्ते ० - णिमि० णीचा०- पंचंत० शि० बं० संखेज्जगु० । सादासादा० चदुलोक ०-उज्जो ०-थिराथिर - सुभासुभ-अस० सिया० संखेज्जगु० । एवं स ० - हुडसं ०दुर्भाग - णादे० ० वं० संखेज्जभाग० । आदाव० सिया । तं तु० । थावरं रिण० बं० । तं तु० । एवं आदाव थावर० । एवं वेउव्वियमिस्स० । वरि मिच्छत्त
संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवीं भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भाग, दुस्वर और श्रनादेय इनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे
जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् ग्रवन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
३९९. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नपुंसक वेद, हुण्डसंस्थान, दुर्भग और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । श्रातपका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका
संख्यातव भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । स्थावरका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा
जघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार आतप और स्थावरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए |
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जहण्णपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
१८७ पगदी यम्हि संखेज्जगुणन्भहियं तम्हि संखेज्जभागभहियं कादव्वं । सम्मत्तपगदीओ संखेज्जगुणब्भहियाओ।
४००. आहार०--आहारमिस्स आभिणिबोधि० जहि बं० चदुणा०-छदं-- सणा०-सादा०-चदुसंज-पंचपोक०-देवगदि-पसत्थहावीस-उच्चा०-पंचंत णि० बं० । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । [तं तु.] ।
४०१. असादा० ज०हिबं० पंचणा०.छदसणा०-चदुसंज०-पुरिस-भय-दु. देवगदि-पसत्थपणवीस-उच्चा-पंचंत णि० संखेज्जभाग । हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस०तित्थय० सिया० संखेज्जभाग० । अरदि-सोग--अथिर-असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । एवं अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० । इसी प्रकार वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें अपनी प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियाँ जहाँपर संख्यातगुणी अधिक कही हैं वहाँ पर संख्यातवां भाग अधिक कहनी चाहिए और सम्यक्त्व सम्बन्धी प्रकृतियाँ संख्यातगुणी अधिक कहनी चाहिए ।
४००. आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोगमें आभिनिबोधिक शानावरण की जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार शानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
४०१. असातावेदनीयको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि पच्चीस प्रशस्त प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यश-कीर्ति और तीर्थकर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्ति इनका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर,
अशुभ और अयश कीर्तिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
४०२. देवायु० ज० द्वि०वं० पंचरणा० चदुदंस० - सादावे ० चदुसंज० - पंचणोक ०देवरादि -- पत्थद्यावीस - उच्चा०--पंचंत० रिण० बं० संखेज्जगु० । तित्थय० सिया० संखेज्ज० ।
१८८
४०३. कम्मइग० ओरालियमसभंगो। वरि तित्थय० ज० हि०वं मणुसगदिपंचगस्स सिया० संखेज्जगुः । देवगदि०४ सिया । तं तु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभा० |
४०४. इत्थि० - पुरिस० अभिणिबोधि० ज० हि० बं० चदुणा० - चदुदंस०सादावे ० - चदुसंज० - पुरिस० - जस० उच्चा० पंचंत० णि० बं० जहण्णा० । एवमरणमरणारणं जहण्णा० । सेसा पगदीओ पंचिदियभंगो ।
C
४०५. एक्सगे खविगाओ इत्थिवेदभंगो । सेसा पगदी मूलोघं ।
४०६ अवगदवे० आभिणिवोधि० ज० द्वि० बं० चदुरणा०-- चदुदंस ० -- सादा०जस०-उच्चा०-पंचंत० णि० वं० जहरणा० । एवगण मरणस्स जहएगा० । चदुसंज० मूलोघं ।
४०२. देवायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, देवगति आदि प्रशस्त श्रट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे श्रजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
४०३. कार्मण काययोगी जीवोंका भङ्ग श्रदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मनुष्यगति पञ्चकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् ग्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । देवगति चतुष्कका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो वह नियमसे अजघन्य पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । ४०४. स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले जीवों में ग्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका वन्धक होता है । इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्था में वह नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है । शेष प्रकृतियों का भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है ।
४०५. नपुंसक वेदवाले जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है ।
४०६. अपगतवेदवाले जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी
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जहरणपरत्थाणबंधसएिणयासपरूवणा
१८९ ४०७. कोध-माण-पाया० अोघं । रणवरि खवगपगदीणं इत्थिवेदभंगो । मोह० विसेसा। कोह] कोधसंज० ज०हि वं०] तिएिणसंज- णि०व०णि जहएणा। पुरिस० अोघं । मारणे माणसंज० ज०हि बं० दोगणं संज.णि बं० णि जहएणा० । मायाए मायसंज० ज०ट्टि बं० लोभसंज० णि० बं० णि० जहएणा । [ लोभे लोभसंज. ] मूलोघं ।
४०८ मदि०-सुद० तिरिक्खोघं । विभंगे आभिणिबोधि० ज०हि बं० चदुणागवदंसणा०--सादा०-मिच्छ०-सोलसक० --पंचरणोक०--देवगदिपसत्थहावीस-उच्चा०पंचंत० णि० वं । तं तु । एवमेदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु. ।
४०६. असादा० ज०हि०५० पंचणा०-णवदंसणा--मिच्छत्त-सोलसक०-भयदु०-पुरिस०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०--वएण ४--अगु०४-पसत्थ-तस०४-सुभग
अवस्थामें वह नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है। चार सज्वलनका भङ्ग मूलोधके समान है।
४०७. क्रोध, मान और माया कषायवाले जीवोंमें अोधके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। मोहनीयकी कुछ विशेषता है । क्रोधकषायमें क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थितिका वन्धक जीव तीन संज्वलनोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका भङ्ग ओघके समान है। मान कषायमें मान संज्वलनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव दो सैज्वलनों का नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका वन्धक होता है। माया कषायमें माया सज्वलनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव लोभ सज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है। लोभ कषायमें लोभ सज्वलनका भङ्ग मूलोघके समान है।
४०८. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। विभङ्ग ज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है,
नयमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्प जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है, तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है।
४०९. असातावेदनीयको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच मानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायो. गति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
सुस्सर-आदे० - णिमि०पंचंतरा० णि० बं० संखेज्जगु० । हस्स - रदि- तिरिणगदिओरालि० - वेउच्चि ० सरीर दोअंगो० - वज्जरि० - तिरिण आणु० - उज्जो ० - थिर- सुभ-जस०दोगोद० सिया संखेज्जगु० । अरदि-सोग - अथिर असुभ अस० सिया० । तं तु० । एवं अरदि-सोग - अथिर असुभ अजस० ।
१९०
४१०. इत्थवे० ज० द्वि० बं० पंचरणा० - णवदंसणा०-मिच्छत्त- सोलसक० -भयदु० - पंचिंदि० - तेजा ० - ० - वरण ०४ -- गु० - पसत्थ० -तस०४ - सुभग- सुस्सर - आदेοसिमि० पंचंत० णि० बं० संखेज्जगु० । सादा०-हस्स-रदि- तिरिणगदि- दोसरीर-समचदु०-दो अंगो० वज्जरि० - तिरिणाणु ० -उज्जो० - थिरादितिणि- दोगोद० - सिया-संखेज्जगु० | असादा० - अरदि-सोग दोसंठा ० - दोसंघ० -- अथिरादितिरिण० सिया० संखेंजभा० । एवं एस० । णवरि चदुसंठा० चदुसंघ० सिया० संखेज्जभा० ।
0-1
बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, तीन गति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीन आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और दो गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । श्ररति, शोक, अस्थिर, अशुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
४१०. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, हास्य, रति, तीन गति, दो शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, तीन श्रानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर आदि तीन और दो गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, अरति, शोक, दो संस्थान, दो संहनन और अस्थिर श्रादि तीन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातव भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नपुंसक वेद की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि चार संस्थान और चार संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
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जहण्णपरत्थाणवंधसणिणयासपरूवणा
१९१ ४११. णिरयायु० ज हिवं. पंचणा०-गवदंसणा--मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा०-का-वेउवि०अंगो०--वएण०४--अगु०४-तस०४णिमि०-णीचा०--पंचंत णि• बं० संखेज्जगु० । असाद०--णवुस --अरदि-सोगणिरयगदि-हुड०-णिरयाणु०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णि० बं० संखेजभाग० ।
४१२. तिरिक्वायु० ज०हिबं० तिरिक्खगदि याव मण भंगो । मणुसायु० जहिबं० तिरिक्वायुभंगो।
४१३. देवायु० ज०हि०७० पंचणा०-णवदंसणा-सादावे-मिच्छ०-सोलसक०-हस्स-रदि-भय--दु०-देवगदि-पसत्थहावीस--उच्चा०--पंचंतणि बं० संखेज्जगु० । इत्थिवे० सिया० संखेजभा० । पुरिस० सिया० संखेजगु० ।
४१४. णिरय० ज०हि बं० हेट्टा उवरिं णिरयायुभंगो। णाम सत्थाणभंगो।
४१५. तिरिक्वग० जहि०० पंचणा०-णवदंसणा० सादा०-मिच्छ०-सोलसक-पंचणोक०-णाम सत्थाणभंगो पंचंत० णि. बं० संखेजगु० । तिरिक्खायु०
४११. नरकायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, हुण्डसंस्थान, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छह इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
४१२. तिर्यञ्चायुकी जघन्य स्थितिके वन्धक जीवके तिर्यञ्चगति आदि प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। मनुष्यायुकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग तिर्यञ्च आयुके समान है।
४१३. देवायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगीत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
४१४. नरकगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे-ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग नरकायुके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है।
४१५. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय स्वस्थानके समान नामकर्मकी प्रकृतियाँ और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र
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महाबंधे ट्ठिदिवंधाहियारे णीचागो णि । तं तु । उज्जो सिया० । तं० तु. । एवं तिरिक्वाणु०-उज्जो - णीचागो०।
४१६. मणुसग० ज०हि०बं० हेट्टा उवरि तिरिक्खगदिभंगो। णाम सत्थाणभंगो।
४१७. णग्गोद० जहि०० पंचणा-गवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०पुरिस०-भय-दु०-णाम सत्थाणभंगो पंचंत• णि• बं० संखेज्जगु० । सादाव०-हस्सरदि-णीचुच्चागो० सिया० संखेंजगु० । असादा०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अज. सिया० संखेजदिभा० । तिरिक्व-मणुसगदि-वजरि०-दोआणु-थिर-सुभ-जसगि० सिया० संखेंजगु० । वज्जणारा० सिया० । तं तु० । एवं वज्जणारायण ।
Annnnn...
इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और भौचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए।
४१६. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । नाम कर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है।
४१७. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, स्वस्थान भङ्ग रूपसे कही गई नामकर्मकी प्रकृतियाँ और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता चेदनीय, हास्य, रति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो अानुपूर्वी, स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अजधन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवॉ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार बज्रनाराचसंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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जहरणपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
१९३ ४१८. चदुसंठा०-चदुसंघ० हेहा उवरिं णग्गोदभंगो। णाम अप्पप्पणो सत्याणभंगो। वरि विसेसो कादयो । अप्पसत्थविहा०-भग-दुस्सर-अणादे गग्गोदभंगो । वरि किंचि विसेसो णादव्यो ।
४१६. आभिणि-सुद-श्रोधि० आभिणिवोधि० ज०हि०० चदुणाणावरणादिखविगाणं ओघं । णिहाए जहि बं० पंचणा० मणजोगिभंगो। एवं पचला। असादा० ज०हि०७० मणजोगिभंगो।।
४२०. मणुसायु० ज०हिबं० पंचणा-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पुरिस०उच्चा--पंचंत० णि. बं. असंखेज्जगु० । णिदा-पचला-अहक०-भय-दु०-मणुसगदिपंच०-पंचिंदि०--तेजा०--क०-समचदु०--वएण-४ अगु०-पसत्थवि०--तस०४सुभग-मुस्सर--प्रादें--णिमि० णि. बं. संखेज्जगु० । सादा०--जस. सिया० असंखेज्जगु० । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० सिया० संखेंजगु० । हस्स-रदि-थिर-सुभ-तित्थय सिया० संखेंजगु० ।
४१८. चार संस्थान और चार संहननकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान है। नामकर्मको अपनीअपनी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। किन्तु यहाँ जो विशेषता हो,उसे जानकर कहनी चाहिए। अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान है। किन्तु यहाँ जो विशेषता है, उसे जानकर कहनी चाहिए।
४१९. श्राभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिमानी जीवोंमें आभिनिबोधिक शानावरणकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके चार ज्ञानावरण आदि क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। निद्राकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके पाँच ज्ञानावरण आदिका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार प्रचलाकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना वाहिए । असाता वेदनीयको जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है।
४२०. मनुष्य आयुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानाधरण, चार दर्शनावरण, चार से ज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। निद्रा, प्रचला, पाठ कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगतिपञ्चक, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय और यशः कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यात गुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, स्थिर, शुभ और तीर्थंकर प्रकृति
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे ४२१. देवायु० जाहि०० पंचणा०--चदुदंस-सादा० चदुसंज०-पुरिसजसगि०-उच्चा०-पंचंत० णि बं० संखेज्जगु० । णिहा-पचला-अहकसा-हस्स-रदिभय-दुगु-देवगदिपसत्थहावीसं णि० बं० संखेज्जगु० । तित्थय० सिया० संखेंजगुः ।
४२२. मणुसग० ज.हि०० पंचणा-चदुदंसणा-सादा०-चदुसंज०-पुरिस०. जस०-उच्चा०-पंचंत० णि. बं. असंखेन्जगुरू । णिदा-पचला-अहक०--हस्स-रदिभय-दुगु णि बं० संखेज्जगु० । णाम० सत्थाणभंगो।
४२३. देवगदि. जहि०व० खविगारो ओघं । णाम० सत्थाणभंगो । हस्सरदि-भय-दु० णि बं० संखेज्जगु० ।
४२४. मणपज्जव-संजद-सामाइय-छेदो०-परिहारओधिभंगो। मुहुमसांपराइ. ओघं । संजदासंजद० आभिणिबो० जटिबं० चदुणा०-छदसणा-सादावे०-अहकसा--पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दु०-देवगदिपसत्थटावीस-उच्चा०-पंचंत० णि० बं० । इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
४२१. देवायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव, पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, परुषवेद, यशाकीति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। निद्रा, प्रचला, आठ कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा और देवगति श्रादि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
४२२. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शना. वरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । निद्रा, प्रचला, आठ कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे आजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है।
४२३. देवगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
__४२४. मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत इनका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। सूक्ष्म साम्पराय संयत जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। संयतासंयत जीवों में अभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उञ्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और
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जहण्णपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० ।
४२५. असादा० ज०हि०० हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० सिया० संखेजगु० । एवं तित्थय । अरदि-सोग-अथिर--असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । धुविगाणं णि० बं० संखेंजगु० । एवं अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजसः ।
४२६. असंजद० तिरिक्खोघं । णवरि तित्थय० ज०हि बं० धुवपगदीओ देवगदिसंजुत्ताओ पसत्थणामपगदीओ यदि वं० संखेजगु० । चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदं ओघं। अोधिदं. ओधिणाणिभंगो। किरण-णील-काऊ तिरिक्खोघमंगो । गवरि तित्थय० असंजदस्स० संजदाभिमुहस्स देवगदिसंजुत्तानो पसस्थाओ पि.
अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य. एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
४२५. असाता वेदनीयकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीर्थकर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजधन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशाकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
४२६. असंयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ध्रुव प्रकृतियोंको देवगतिसंयुक्त बाँधता है। तथा नामकर्मकी प्रशस्त प्रकृतियोंको यदि बाँधता है तो संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। अवचुदर्शनवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अवधिदर्शनवाले जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। कृष्ण, नील और कापोत वेश्यावाले जीवों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अभिमुख हुए असंयत जीवके तीर्थंकर
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे संखेजगु० । किरण-णील० मणुसो सत्थाणे विसुज्झमाणो तित्थयरस्स असंजदसामित्तण असंजदभंगो । काऊए तित्थय णिरयोघं ।
४२७. तेऊए आभिणिबो० ज०हिबं० चदुणा०--छदसणा०-सादा०-चदुसंज-पंचणोक--देवगदि--पसत्थहावीस--उच्चा०-पंचंत णि । तं तु० । आहारदुगं तित्थयरं सिया० । तं तु । एवमेदारो एक्कमेक्कस्स । तं० तु.।
४२८, दंसणतिय-असादा-मिच्छ०-बारसक०-अरदि-सोग० मणजोगिभंगो । इत्थिवे. जहि०० पंचणा-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-पंचिंदि०-तेजा०क०-वएण०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग--सुस्सर-आदें-उच्चा०-पंचंत. णि. बं० संखेजगु० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-दोआणु० सिया० संखेज्जगु० । सादा
प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध होता है। तथा देवगति संयुक्त प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। कृष्ण और नील लेश्यामें मनुष्य स्वस्थानमें विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ तीर्थकर प्रकृतिका बन्धक होता है। जिसके असंयत स्वामित्वकी अपेक्षा असंयतके समान भङ्ग है । कापोत लेश्याम तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है।
४२७. पीतलेश्यावाले जीवों में अभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी
अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
४२८. तीन दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कषाय, अरति और शोक इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष मनोयोगी जीवोंके समान है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और दो श्रानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे
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जहण्णपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१६७ साद-हस्स-रदि-अरदि--सोग-समचदु०-बजरि-थिराथिर-सुभासुभ--जस०-अजस० सिया० संखेज्जगु० । जग्गोद-सादि०-वज्जरि०--णारा० सिया० संखेजभा०। एवं णवुस० । णवरि चदुसंठा०-चदुसंघ [सिया० संखेजमा० ।]
४२६. तिरिक्ख-मणुसायु- देवभंगो। देवायु० जहिबं० पंचणा० छदंसणासादावे०-बारसक०हस्स-रदि-भय-दु०-देवगदिपसत्थट्ठावीस-उच्चा०-पंचंत• णि• बं० संखेज्जगु० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अयंताणुबंधि०४-पुरिस० सिया० संखेजगु० । इत्थिवे० सिया० संखेज्जगु । तित्थय सिया० संखेज्जगु० ।
४३०. मणुस जटिबं० पंचणा-छदसणा०-सादा-बारसक०-पंचपोक०णामसत्थाणभंगो उच्चा०-पंचंत०-णि बं० संखेज्जगु० । तित्थय. सिया० संखेज्जगु० । एवं ओरालि०--ओरालि०अंगो०-बज्जरि०--मणुसाणु । तिरिक्खगः-- अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजधन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वातिसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन और नाराचसंहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि चार संस्थान और चार संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
४२६. तिर्यश्च श्रायु और मनुष्य आयुका भङ्ग देवोंके समान है। देवायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और पुरुषवेद इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
४३०. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच शानावरण, छह दर्शना. वरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पाँचनोकषाय, नामकर्मको स्वस्थानके समान प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार औदारिक शरीर, औदारिक
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
एइंदि० - पंचसंठा०-पंच संघ० - तिरिक्खाणु० - आदाउज्जो ० अप्पसत्थवि ० थावरं सोधम्मभंगो । एवं पम्माए वि ।
४३१. सुकाए मणजोगिभंगो । वरि इत्थि ० स ० - मणुसगदि-ओरालि०पंच संठा० ओरालि ० अंगो० - इस्संघ० मणुसाणु० - अप्पसत्थवि०-दूर्भाग- दुस्सर - अणादे० जहणसरिया से संजम० सम्मत्त ०-मिच्छ० पात्रोग्गाओ पगदीओ खाद्य सरियासेदव्वं ।
४३२, भवसिद्धि० ओघं । अन्भवसिद्धिया० मदिभंगो । सम्मादि ० - खड्ग०वेदग०-उवसम० श्रधिभंगो। वरि वेदगसं० जहरिणगारिण पत्ता अप्पमत्ता करेंति । ४३३. मणुसग ० ज ० हि० बं० पंचरणा० - इदंसरणा० वेदगे करेदि । तरणादूण सरिणयासेदव्वं ते भंगो ।
४३४ [ सास आभिणिवो० ज० हि०० ] चदुणा०-- एवदंसणा०--सादा०-सोलसक० - पंचणोक ० -- पंचिंदि० -तेजा०-- क० - समचदु० - वरण ०४- अगु० ४-- पसत्थ०तस०४ - थिरादिछ० - णिमि० - पंचंत० णि० बं० । तं तु० । तिरिणगदि - दोसरीर
श्रङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति और स्थावर इनका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है । इसीप्रकार पद्मलेश्या में भी जानना चाहिए ।
४३१. शुक्ल लेश्यामें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय तथा जघन्य सन्निकर्ष में संयम, सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके योग्य प्रकृतियोंको जानकर सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
४३२. भव्य जीवोंका भङ्ग श्रोधके समान है । अभव्य जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है । सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवका भ अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि वेदक सम्यक्त्वमें प्रमत्त और अप्रमत्त जीव जघन्य सन्निकर्ष करते हैं ।
४३३. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण और छह दर्शनावरणको वेदक सम्यक्त्वमें करता है । उसे जानकर पीतलेश्या के समान सन्निकर्ष साध लेना चाहिए ।
४३४. सासादन सम्यक्त्वमें आभिनिवोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। तीन गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ
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जहण्णपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा दोअंगो०-वज्जरि०--तिरिणाणु०-उज्जो०-गीचुच्चागो० सिया० । तं तु. । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० ।
४३५. असादा० ज०ट्टि • धुविगाओ णि बं० संखेज्जभाग० । अरदिसोग-अथिर असुभ-अजस० सिया । तं तु० । हस्स--रदि--तिरिणगदि-दोसरीर-दोअंगो०-वजरिस-तिरिणाणु--उज्जो०-थिर--सुभ--जस०---णीचुच्चा सिया० संखेंज्जभा० ।
४३६. इत्थिवे० असादभंगो। णवरि तिषिणसंठा०--तिषिणसंघ० सिया० संखेजदिभा० । णवंसगे इत्थिभंगो । णवरि तिरिक्व-मणुसगदि-पंचसंठा०पंचसंघ०-दोआणु० सिया० संखेंजदिभा०। सेसाओ परावत्तमाणियाओ सिया० नारोचसंहनन, तीन प्रानुपूर्वी, उद्योत, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकले लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
४३५. असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ध्रुवप्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
शोक. अस्थिर, प्रशभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, तीन गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीन आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक
४३६. स्त्रीवेदका भङ्ग असातावेदनीयके समान है। इतनी विशेषता है कि तीन संस्थान और तीन संहननका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नपुंसकवेदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । इतनो विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पांच संस्थान, पाँच संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शेष परावर्तमान प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थिति
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महाबँधे ट्ठिदिबंधाहियारे
संखेज्जगु० । एवं मणुस्सायु० | देवायु० ज० हि० बं० णाणावरणादि० शि० ज० संखेज्जगु० ।
२००
४३७. तिरिक्खायु० ज० द्वि०बं० धुविगाओ णि० बं० संखेज्जगु० । सेसा परियत्तमाणियाओ सिया० संखेज्जगु० । एवं मणुसायुगं पि । देवायु० ज० ज० द्वि० बं० खाणावरणादि० रिंग० बं० संखेज्जगु० ।
४३८. एग्गोद० ज० द्वि० बं० पंचरणा०- एवदंसणा ० - सोलसक० --भय-दु०पंचिदि० -- तेजा ० क० णि० बं० संखेज्जभा० । असादा० - हस्स -रदि- अरदि-सोगणीचुच्चा० सिया० संखेज्जभा० । पुरिस० गियमा संखेज्जभा० । णाम० सत्थाणभंगो। एवं गोदभंगो तिरिए संठा० - चदुसंघ० - अप्पसत्थवि ० दूभग दुस्सर अणादें । ४३६. सम्मामिच्छ० आभिणिबोधि० ज०ट्टि。बं० चदुणा० - छदंसणा०-० - बारसक० -- पंचरणोक ० - पंचिदि० -- तेजा० क० - समचदु० - वरण ० ४ अगु०४
सादा०
का बन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। देवायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ज्ञानावरणादिका नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
४३७ तिर्यञ्च प्रयुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । शेष परावर्तमान प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। देवायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ज्ञानावरण आदिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
४३८. न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलहकषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, और कार्मण शरीर इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे श्रजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान तीन संस्थान, चार संहनन, प्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और श्रनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
४३९. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें श्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान वर्णचतुष्क, श्रगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो
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जहरणपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
२०१ पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा०--पंचंत० णि बं० । तं तु० । दोगदिदोसरीर-दोअंगो०--वज्जरि०--दोआणु• सिया० । तं तु । एवमेदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० ।
४४०. असादा० ज० ट्ठि०बं० धुविगाणं णि० बं० संखेज्जगु० । हस्स--रदिदोगदि--दोसरीर-दोअंगो०-वज्जरि०---दोआणु०--थिर-सुभ-जस० सिया० बं० संखेज्जगु० । अरदि-सोग-अथिर-अजस• सिया । तं० तु.।।
४४१. मिच्छादिही० मदि०भंगो । सगिण मणुसभंगो। असगिण तिरिक्खोघं। णवरि णिरयायु० ज०हि०बं० णिरयगदि--वेउव्वि०--उवि०अंगो०--णिरयाणु० णि बं० संखेज्जभा० । सेसाणं संखेज्जगुः । एवं देवायु० । आहार० ओघं ।
नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और दो अानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँभाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
४४०. असातावेदनीयको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, दो गति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो प्रानुपूर्वी, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक हीता है यदि बन्धक होता है तो वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धकहीता है।
४४१. मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। संशी जीवोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। असंही जीवोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि नरकायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव नरकगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है तथा शेष प्रकृतियोंकी संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार देवायुको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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२०२
महाबंधे द्विदिवंधाहियारे अणाहार० कम्मइ० भंगो।
एवं जहएणसरिणयासो समत्तो।
एवं सएिणयासो समत्तो । ४४२. णाणाजीवहि भंगविचयाणुगमेण दुवि०-जह० उक्क । उक्कस्सए पगदं । तं तत्थ इमं अपदं मूलपगदिभंगो कादव्यो । एदेण अपदेण दुवि०-अोघे० आदे० । ओघे० णिरय--मणुस--देवायूर्ण उक्कस्सा० अणुक्कस्सा० अभंगो । सेसाणं पगदीणं उक्कस्स० अणुकस्सा० तिरिणभंगो। एवं ओघभंगो तिरिक्वोघं पुढवि०-अाउ०-तेउ०वाउ० तेसिं च बादर-बादरवणप्फदिपत्तेय-कायजोगि--ओरालि०-ओरालियमिकम्मइ०--णस०--कोधादि०४--मदि०--सुद०--असंज०--अचक्खु०--किरण-पीलकाउ०-भवसि०-अब्भवसि-मिच्छा०-असएिण-आहार०-अणाहारगे ति ।
४४३. एइंदिय--बादरपुढवि०--आउ.--तेउ०-चाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेय अप-- जत्त--सव्वसुहुम-वणप्फदि--णियोद० आयूणि दोगिण अोघं । सेसाणं उक्क. अणुक्क० बंधगा य अबंधगा य ।
४४४. मणुसअपज्जत्त०--ओरालियमि---कम्मइग०-अणाहार० देवगांद०४तित्थय० वेव्वियमि०-आहार-आहारमि०-अवगद-सुहुमसंप०-उवसम०-सासणआहारक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है तथा अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है।
इस प्रकार जघन्य सन्निकर्ष समाप्त हुआ।
इस प्रकार सन्निकर्ष समाप्त हुआ। ४४२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसके विषयमें यह अर्थपद मूल प्रकृतिबन्धके समान कहना चाहिए। इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे नरकायु, मनुष्यायु और देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धकके आठ भङ्ग होते हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके तीन भङ्ग होते हैं। इस प्रकार प्रोघके समान सामान्य तिर्यश्च पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इनके बादर, बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येक, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदो, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी,
ताज्ञानी. असंयत, अचचुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
४४३. एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, वादरजलकायिक अपर्याप्त, वादर अग्निकायिकअपर्याप्त, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सब सूक्ष्म, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके दो अायु ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव होते हैं और अबन्धक जीव होते हैं।
४४४. मनुष्य अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में देवगतिचतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिके तथा वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत, उपशमसम्यग्दृष्टि,
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गाणाजीवहि भंगविचयाणुगमपरूवणा
सम्मामिच्छादिहि त्ति सव्वपगदी उकस्सा० अणुकस्सा० अहभंगा ।
c
पदे
४४५. बादरपुढवि० - आउ०- तेउ०१० वाउ०- वादरवणफदिपत्तेय ०पज्जत्ता० देवगदि भंगो। आयु० रियायुभंगो। सेसारिया याव सरिण त्ति श्रवं । एवमुक्कस्सं समत्तं ४४६. जहणए पदं । तत्थ इमं पदं मूलपगदिभंगो । एदे दुवि० -- ओघे० दे० । श्रघे० खत्रगपगदीणं तिरिणआयु- वेडव्वियछक-तिरिक्खगदि ०४ - आहारदुग- तित्थय० जह० जह० उक्तस्तभंगो। सेसाणं पगदी जह० ज० बंधगा य । एवं ओघभंगो कायजोगि - ओरालियका ० एस ०६०४ अचक्खु०-भवसि ० - आहारए ति ।
बंधा
कोधादि ०
२०३
O
४४७. तिरिक्खगदीए तिरिण आयु० - वेडव्नियछ ०-तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० उज्जी० - पीचा० उक्कसभंगो । सेसाणं जह० अ० अत्थि बंधगा य अबंधगा यं । एवं तिरिक्खोघं ओरालियमि० कम्मइ० मदि० सुद० - असंजद० - किरण ०-पील० - काउले ०अब्भवसि० --मिच्छादि ० - असरिण० -- अणाहारग ति । वरि ओरालियमिस्स-कम्मरहार देवदिपंचगं उकरसभंगो ।
सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके आठ भङ्ग होते हैं ।
४४५. बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके देवगति के समान भङ्ग है। तथा आयुका नरकायुके समान भङ्ग है । शेष नरकगति से लेकर संज्ञी तक सब मार्गणाओं में ओघके समान भङ्ग है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ ।
४४६. जघन्यका प्रकरण है । उस विषयमें यह अर्थपद मूलप्रकृतिस्थिति बन्धके समान है । इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और श्रादेश | शोधकी अपेक्षा क्षपक प्रकृतियाँ, तीन आयु, वैक्रियिक छह, तिर्यञ्चगति चार, आहारकद्विक और तीर्थंकरकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके बन्धक जीव होते हैं और अबन्धक जीव होते हैं । इस प्रकार ओोधके समान काययोगी, श्रदारिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
४४७ तिर्यञ्चगतिमें तीन आयु, वैक्रियिक छह, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके बन्धक जीव होते हैं और प्रबन्धक जीव होते हैं । इस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोके समान श्रदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंके देवगति पञ्चकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है ।
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे ४४८. एइंदिएसु [मणुसग०-] मणुसाणु०-तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु०-उज्जो०णीचा ओघो। सेसं उक्कस्सभंगो । पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरपुढवि०-ग्राउ.तेउ०-वाउ० तिरिक्खायु० ओघं। सेसं उक्कस्सभंगो। बादरपुढवि०-पाउ०-तेउ०-वाउ०बादरवणप्फदिपत्तेय अपज्जत्त-सव्वसुहुम-बणप्फदि-णियोदे मणुसायु ओघं। सेसाणं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । सेसाणं णिरयादि याव सरिण ति उक्कस्सभंगो।
एवं जहएणयं समत्तं । ४४६. भागाभागं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं। दुवि०. ओघे० आदे० । अोघेण तिरिणायु०-वेउव्वियछ--तित्थय० उक्क हिबंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? असंखेंजदिभागो । अणु०हिबंधगा सव्वजी० के. ? असंखेज्जा भागा। आहार--आहार अंगो० उ०हिबं० सव्वजी० के० ? संखेजदिभा० । अणुहि०६० के० 'संखेजा भा०। सेसाणं पगदीणं उहि बं० सबजी० के ? अरणंतो भागो। अणु हि०७० सव्व० के०? अणंता भागा। एवं अओवभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि०-ओरालि --अोरालियमि०-कम्मइ०--णबुंस०-कोधादि०४मदि०-सुद०-असंजद-अचक्खुदं०-तिएिणले--भवसिद्धि०--अब्भवसि०--मिच्छादि०
४४८. एकेन्द्रियों में मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भङ्ग ओघके समान है तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर पृथ्वीकायिक, बादरजलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीवोंमें तिर्यञ्चायुका भङ्ग ओघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सब सूक्ष्म, वनस्पति कायिक और निगोद जोवोंमें मनुष्यायुका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव होते हैं और अवन्धक जीव होते हैं। नरकगतिसे लेकर संशी मार्गणा तक शेष सब मार्गणाओंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है।
इस प्रकार जघन्य भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ। ४४९. भागाभाग दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे तीन आयु, वैक्रियिक छह और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण है ? असंख्यातवे भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण है ? संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार अोधके समान सामान्य तिर्यश्च, . काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले,
१ मूलप्रतौ संखेजदिभाग० इति पाठः । २ मूलप्रनो अणता भागा इति पाठः ।
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भागाभागपरूवणा
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आहार-प्रणाहारग त्ति । रणवरि ओरालियमि०-कम्मइ०-अणाहार० देवगदिपंचगस्स आहारसरीरभंगो। सेसाणं णिरयादि याव सएिण त्ति ए असंखेज्जजीविगा तेसिं तित्थयरभंगो। एवं ए संखेजजीविगा तेसिं आहारसरीरभंगो। एइंदिय-वरणप्फदि-णियोदाणं तिरिक्वायु० ओघं । सेसाणं पगदीणं मणुसअपज्जत्तभंगो।
एवं उक्कस्सभागाभागं समतं । ४५०. जहण्णए पगदं। दुवि --अोघे० आदे। अोघे० खवगपगदीणं तिरिक्वगदि-तिरिक्वाणु०-उज्जो०-णीचा० ज०हिवं. सव्व० केव? अणंतत्रो भागो। अज ट्ठि०७० सव्व. केव० ? 'अणंता भा० । आहार०--आहार०अंगो उक्कस्सभंगो। सेसाणं पगदीणं जहिवं. सव्व० केव० ? असंखेज्जदिभागो। अज०टिबं सव्व केव० ? असंखेज्जा भागा। एवं अोघभंगो कायजोगि०--ओरालियका--- णवुस०-कोधादि०४-अचखुदं०-भवसिद्धि०-पाहारग ति ।
४५१. तिरिक्खेसु तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु०--उज्जो०-णीचा ओघ । सेसाणं पगदीणं देवगदिभंगो। एवं तिरिक्खोघभंगो एइंदि०--ओरालियमि०--कम्मइ०-मदि०
भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगति पञ्चकका भङ्ग आहारक शरीरके समान है। शेष नरकगतिसे लेकर संशी मार्गणा तक जिन मार्गणाओं में जो असंख्यात जीव राशियाँ हैं, उनका भङ्ग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान है। तथा इसी प्रकार जो संख्यात जीव-राशियाँ है, उनका भङ्ग आहारक शरीरके समान है। एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके तिर्यञ्चायुका भङ्ग अोधके समान है तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है।
इस प्रकार उत्कृष्ट भागाभाग समाप्त हुआ। ४५०. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-अोघ और आदेश। ओघसे क्षपक प्रकृतियाँ, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं? अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं । आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। इस प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
४५१. तिर्यञ्चोंमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भंग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भंग देवगतिके समान है। इस प्रकार सामान्य
१. मूलप्रतौ -गदीणं तिरिक्खगदीणं तिरिक्ख-इति पाठः । २, मूलप्रतौ अणंतभा० इति पाठः ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सुद० --असंज०-तिएिणले-अब्भवसि०--मिच्छा-असण्णि-अणाहारग त्ति । णवरि
ओरालियमि--कम्मइ०-अणाहार० देवगदि०४-तित्थय० आहारसरीरभंगो । सेसाणं णिरयादि याव सरिण त्ति ए संखेज्जजीविगा ए अ असंखेज्जजीविगा तेसिं जह० अज• उक्कस्सभंगो।
__ एवं भागाभागं समत्तं । ४५२. परिमाणं दुवि०-जह० उक्क० । उक्कस्सए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे० । अोघेण णिरयायु०--वेउवियछ० उक्क. अणु हिदिवंधगा केत्तिया ? असंखेज्जा । तिरिक्खायु० उ०ट्टि०७० केत्तिया ? संखेज्जा । अणु हिं०७० केत्तिया ? अणंता । मणुसायु-देवायु-तित्थय० उक-ट्टियं० केत्तिया ? संखेज्जा । अणुहि केत्ति ? असंखेंजा । आहा०२ -उक्क. अणु० हि०० केत्ति० ? संखेंजा । सेसाणं पगदीणं उ०हिबं० केत्ति० ? असंखेजा । अणुहि०व० केत्ति ? अणंता । एवं अोधभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि--ओरालि-ओरालि मि.--कम्मइ०--णदुस---कोधादि०४-- मदि०-सुद--असंज०--अचक्खुदं०-तिएिणले- भवसि०--अब्भवसि०--मिच्छादि०--
आहार-अणाहारग त्ति । एवरि किरण. गील..तित्थय० उ. अणु० हि०७० तिर्यञ्चोंके समान एकेन्द्रिय, औदारिक मिश्रकाययोगो, कार्मण काययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिका भंग आहारक शरीरके समान है। शेष नरकगतिसे लेकर संज्ञीतक जितनी मार्गणाएँ हैं इनमें जो संख्यात जीवशधियाँ हैं और जी असंख्यातं जोव-राशियाँ हैं, उन सबमें जघन्य और श्रजघन्यका भंग इराष्पके समान है।
इस प्रकार जघन्य भागाभाग समाप्त हुआ।
इस प्रकार.भागाभाग समाप्त हुआ। ४५२. परिणाम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। अोघसे नरकायु और वैक्रियिक छहको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात है। तिर्यञ्चायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। मनुष्यायु, देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। आहारक द्विककी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने है ? असंख्यात है? अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगो, कार्मण काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नीललेश्यामें
१. मूलप्रतौ णोल• श्रोरालिय तित्थय० इति पाठः ।
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उक्कसपरिमाणपरूवणा
संखेज्जा | ओरालियम ० -- कम्मइ० अणाहार० देवगदि ०४ - तित्थय० उक्क० अणु ० द्वि० बं० केत्ति० ? संखेज्जा ।
w
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४५३. रिए मणसायु० उ० अ० द्वि०० संखेज्जा | सेसाणं उक्क० अणु० के० ? असंखेज्जा । एवं सव्वणिरय - सव्वदेव० । एवरि सव्वहसि० सव्वपगदी उ० अ० द्वि०० केत्ति ? संखेज्जा ।
४५४. पंचिंदियतिरिक्ख ०३ तिणिआयु० उ० द्वि० बं० केत्ति ०? संखेज्जा । अणु०द्वि०० केत्ति ? असंखेज्जा | सेसाणं पगदी उ० अणु० द्वि०० केत्तिया ? असं खज्जा | पंचिदियतिरिक्खापज्जत्त० मणुसायु० उ० हि०ब० केत्ति ०१ संखेंज्जा । ऋणु० - हि०० केत्ति० ? असंखेज्जा | सेसाणं उ० अणु० द्वि० बं० केत्ति० ? संखेज्जा । एवं मणुस अपज्जत्त - सव्वत्रिगलिंदिय० चदुरहं कायारणं वादरवणफदिपत्तेय० ।
0
४५५. मणुसे दो यु० - वेडव्वियछ० - आहार ०२ - तित्थय० उ० अ० द्वि०बं० के० ? संखेज्जा | सेसारणं उ० द्वि०बं० के० ? संखेज्जा । अणु० द्वि० ० केत्तिया ? असंखज्जा | मणुसपज्जत - मणुसिणीसु सव्वाणं पगदीगं दो पदा संखेज्जा ।
V
४५६. एइंदिय--वरणप्फदि - - रिणयोदेसु तिरिक्खायु० उक्क० असंखेज्जा । अणु०
तीर्थंकर प्रकृतिको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव संख्यात हैं । श्रदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में देवगति चतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । ४५३. नारकियोंमें मनुष्यायुकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं । शेष प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकी और सब देवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें सब प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ! संख्यात हैं । ४५४. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिक में तीन आयुओं की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? श्रसंख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त जीवों में मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीव कितने हैं ? श्रसंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, चार स्थावर काय और बादर वनस्पति कायिक प्रत्येक शरीर जीवोंके जानना चाहिए |
४५५. मनुष्यों में दो आयु, वैक्रियिक छह, आहारक द्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके दो पदवाले जीव संख्यात हैं ।
४५६. एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में तिर्यञ्च्चायुकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव श्रसंख्यात हैं । श्रनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव अनन्त हैं। मनुष्यायुकी
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महाबंधे दिदिबंधाहियारे अयंता । मणुसायु० उक्क० अणु० ओघं । सेसाणं उक्क अणु अणंता ।
४५७. पंचिंदिय--तसपज्जत्ता०२ तिगिण आयु० तित्थय० उ०हि०० संखेज्जा। अणु० असंखेजा। आहार०२ उक्क. अणु० संखेज्जा । सेसाणं उक० अणु असंखेज्जा । एवं पंचमण-पंचवचि -इत्थि-पुरिस०-चक्खु०-सणिण त्ति । पंचिंदि०तसअपज्जत्त तिरिक्खभंगो ।
४५८. वेउवि०-वेवि० [मिस्स०] देवोघं । वरि मिस्से तित्थय० दो वि पदा संखेज्जा । श्राहार०--आहारमिस्स-अवगदवे--मणपज्जव--संजद-सामाइय-- छेदोव० परिहार -सुहमसं० सव्यपगदीणं उक्क० अणु० हि०० के० ? संखेज्जा।
४५६. विभंगे तिरिणायु० उ०ट्टि बं० के० ? संखेज्जा ! अणु० के० ? असंखेज्जा। सेसाणं उक्क अणु हि०बं० केत्ति० ? असंखेज्जा। आभि०-सुद०-ओधि० मणुसायु०-आहार०२ दो वि पदा संखेंज्जा । देवायु०-तित्थय० उ०हिब केत्ति ? संखेज्जा । अणु० असंखेज्जा । सेसाणं उ० अणु० हि०० के० ? असंखेंज्जा । एवं
ओधिदं०-सम्मादि०-वेदगसम्मा०-[उवसमसम्मा० । वरि उवसमस० आहार०२तित्थय० दो वि पदा संखेज्जा। संजदासंजदेसु देवायु० उ०हि०बं० संखेज्जा। अणु० उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव ओघके समान हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव अनन्त हैं।
४५७. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और प्रसपर्याप्त जीवोंमें तीन आयु और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात है। आहारक द्विकको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार पाँच मनोयोगो, पाँच वचनयोगी, स्त्रीवेदो, पुरुषवेदी चक्षुदर्शनी और संशी जीवोंके जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंमें तिर्यञ्चोके समान भङ्ग हैं
४५८. वैक्रियिक काययोगी और वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवों में सामान्य देवोंके समान भङ्ग हैं। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें तीर्थंकर प्रकृतिके दोनों ही पदवाले जीव संख्यात है । आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदो, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामयिक संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धि संयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं।
४५९, विभङ्ग ज्ञानी जीवोंमें तीन आयुओंकी उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीव कितने हैं संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं ? शेष प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ! असंख्यात हैं। आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में मनुष्यायु और आहारक द्विकके दोनों ही पदवाले जीव संख्यात हैं। देवायु और तीर्थंकर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यगदृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में आहारक द्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके दोनों ही पदवाले जीव संख्यात हैं। संयतासंयत जीवोंमें देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीव संख्यात हैं। अनुकृप
८८. पा
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जहएणपरिणामपरूवणा
२०६ असंखेजा । तित्थय० दो वि पदा संखेजा। सेसाणं उक्क० अणु वि०म० असंखेजा।
४६० तेउ-पम्मासु मणुसायु० देवोघं । देवायु० उ०ढि०व० संखेजा । अणु. असंखेजा । सेसाणं उ० अणुहि ०६० के० १ असंखेजा । सुक्काए खड़गे दोभायु०आहार०२ दो पदा संखेजा। सेसाणं उक्क० अणु० असंखेजा। सासणे तिरिक्ख-देवायु० उक्क० संखेजा। अणु ट्ठि०० असंखेजा। मणुसायु० दो विपदा संखेजा । सेसाणं उक्क० अणु० असंखेज्जा । सम्मामिच्छा० सव्वाण उक्क० अणु० असंखेजा । भसण्णीसु णिरय-देवायु० उक० अणु० असंखेजा । तिरिक्खायु० उक्क० असंखेजा । अणु० अणंता । सेसाणं अोघं ।
एवं उकस्सपरिमाणं समत्तं। ४६१ जहण्णए पगदं । दुवि०-योघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-चदुदंसणा०सादा०-चदुसंज०-पुरिस०-जस०-उच्चा०-पंचंत० जहटिबंधमा केत्तिया ? संखेजा। अज० केत्ति०? अणंता० । तिण्णि आयु०-वेउ व्वियछ० जह० अज० असंखेजा। आहार० २ उकस्सभंगो। तित्थय० ज०ढि० संखेजा। अज० असंखेजा। तिरिक्खगदितिरिक्खाणु०-उजो०-णीचा. जह० असंखेजा। अज० अणंता। सेसाणं जह० अज. स्थितिके बंधक जीव असंख्यात हैं। तीर्थङ्कर प्रकृतिके दोनों ही पदवाले जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बंधक जीव असंख्यात हैं।
४६०. पीत और पद्म लेश्या में मनुष्यायुका भंग सामान्य देवोंके समान है। देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। शुक्ल लेश्या और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो आयु और श्राहारक द्विकके दोनों ही पदवाले जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव असंख्यात हैं। सासादन सम्यक्त्वमें तियश्चायु और देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायुके दोनों ही पदवाले जीच संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । असंज्ञी जीवोंमें नरकायु और देवायकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। तिर्यञ्चायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बंधक जीव असंख्यात हैं। अनुकृष्ट स्थितिके बन्धक जीव अनन्त हैं। शेष प्रकृतियोंका भन्न ओघ के समान है।
__ इस प्रकार उत्कृष्ट परिमाण समाप्त हुआ। ४६१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार सज्वलन, पुरुपवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। तीन आयु और वैक्रियिक छहकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। आहारक द्विकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। तीर्थकर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। तिर्यव्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव अनन्त हैं। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव
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महाबं द्विदिबंधाहियारे
O
अनंता । एवं श्रोघभंगो कायजोगि ओरालि० - बुंस० - कोधादि ०४ - प्रचक्खु०अवसि० - आहारगे ति । यवरि ओरालि० वित्थय० उकस्तभंगो |
-
४६२ गिरएसु उक्कस्सभंगो । तिरिक्खेसु तिष्णिश्रायु ० - वेउव्वियछ० - तिरिक्खगदि ४ मोघं । सेसाणं जह० अ० श्रणंता । सव्वपंचिंदियतिरिक्खेषु सव्वपगदीणं जह० अज० असंखेजा । एवं पंचिदिय०तिरिक्खभंगो सव्वापजत्त - विगलिंदि० चदुष्णं कायाणं चादरवणदिपत्ते ० ।
४६३ मणुसेसु खविगाणं जह० संखेजा । अज० श्रसंखेजा । दो आयुवेउव्वियछ०-- आहार०२ - तित्थय० दो पदा संखेजा । सेसाणं दो विपदा श्रसंखेजा । मणुस पज्जत - मणु सिणीसु उक्करसभंगो ।
1
I
४६४ एइंदि० तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु-उज्जो ० -णीचा० श्रधं । सेसाणं जह० श्रज० अ ंता । एवं सव्ववणप्फदि - णियोदाणं । एवरि तिरिक्खगदि०४ जह० ज० श्रता ।
४६५ पंचिदिय -तस०२ खविगाणं तित्थय० जह० संखेजा । अज० श्रसंखेज्जा । आहार०२ श्रधं । सेसाणं जह० अज० असंखेजा ।
४६६ पंचमण - तिण्णिवचि० पंचणा०-णवदंसणा ० - सादासाद० - चदुवीसमोह०अनन्त हैं । इसीप्रकार ओधके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि औदारिक काययोगमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग उत्कृष्टके समान है ।
४६२. नारकियोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है । तिर्यखों में तीन आयु, वैक्रियिक छह, तिर्यञ्चगति चारका भंग श्रधके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव अनन्त हैं । सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान सब अपर्याप्त, विकलेन्द्रिय, चारकायवाले और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंके जानना चाहिए ।
४६३. मनुष्योंमें क्षपक प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । दो आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदवाले जीव संख्यात हैं । तथा शेष प्रकृतियोंके दोनों ही पदवाले जीव असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है ।
४६४ एकेंद्रियोंमें तिर्यञ्चगति, तियचगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भङ्ग ओघ के समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बंधक जीव अनंत हैं । इसी प्रकार सब वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बंधक जीव अनंत हैं ।
४६५ पंचेंद्रिय, पंचेंद्रियपर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवोंमें क्षपक प्रकृतियों और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । आहारद्विकका भंग के समान है। तथा शेष प्रकृतियों की जघन्य और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीव असंख्यात हैं ।
४६६. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण,
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जहरण परिमाण परूवणा
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देवदि--पंचिदिय० - वे उव्जिय तेजा० क० - समचदु० - वेउच्चि ० अंगो० - चण्ण०४ - देवाणु० - ०४ - पसत्थ - ० तस०४ - थिराथिर - सुभासुभ-सुभग सुस्सर - आदेज-जस०जस० - मि० - तित्थय० - उच्चा०- पंचंत० जह० संखेज्जा । ज० श्रसंखेज्जा | आहारदुगं श्रवं । सेसाणं दो विपदा असंखेज्जा | वचिजो ० असच्च मो० - इत्थि० - पुरिस० पंचिदियभंगो । वरि इत्थि तित्थय० जह० ज० संखेज्जा |
०
४६७ ओरालियमि०-कम्मइ० - अणाहार० तिरिक्वोघं । णवरि देवमदि०: तित्थय० उक्तस्सभंगो । वेउव्वि०-वेवियमि० आहार - आहारमि- अवगद०-मणप ज्जव० - संजद - सामाइ० छेदोव० परिहार०- मुहुमसंप० उकस्समंगो । मदि-सुद० - असं ०तिमिले ० - अभवसि ० -मिच्छादि० - प्रसरिण० तिरिक्खोघं । णवरि संजद० तित्थय० जह० संखेज्जा । अज० श्रसंखेजा । किण्ण० - गील० तित्थय० जह० संखेजा । काऊए तित्थय० दो विपदा संखेजा ।
४६८. विभंगे पंचणा० - वदंसणा ० - सादा० - मिच्छ० - सोलसक० - पंचणोक०देवगदि--पसत्थठ्ठावीस - उच्चा० - पंचंत० जह० संखेजा। अज० असंखेजा । सेसाणं जह०
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सातावेदनीय, असातावेदनीय, चौवीस मोहनीय, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर शुभ, अशुभ, सुभग, सुवर, देय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी जघन्य स्थिति बन्धक जीव संख्यात हैं, तथा अजवन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । आहारकद्विकका भंग ओवके समान है. तथा शेष प्रकृतियोंके दोनों ही पदवाले जीव असंख्यात हैं । वचनयोगी, असत्यमृपावचनयोगी, स्त्रीवेदी और पुरुपवेदी जीवों में भंग पञ्चेन्द्रियों के समान है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदियों में तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं ।
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४६७ औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी ओर अनाहारक जीवोंका भंग सामान्य तिर्यब्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति चतुष्क और तीर्थंकर प्रकृति का भंग उत्कृष्टके समान है। वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है । मत्यज्ञानी, श्रताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका भंग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । इतनी विशेषता है कि असंयतोंमें तीथङ्कर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। कृष्ण और नील लेश्यामें तीर्थंकर प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बंधक जीव संख्यात है । कापीत लेश्या में तीर्थकर प्रकृतिके दोनों ही पदवाले जीव असंख्यात हैं ।
४६८. भिंगज्ञानी जीवने पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, पांच नोकपाय, देवगति आदि प्रशस्त अाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इनकी जवन्य स्थिति बन्धक जीव संख्यात है तथा अजघन्य स्थिति बन्धक जीव
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अज० असंखेजा । श्राभि-०सुद०-प्रोधि०-मणुसायु०-पाहारदुर्ग उक्करसभंगो । मणुसगदिपंचगं देवायु० ज० अज० असंखेजा। सेसाणं ज० संखेजा। अज० [असंखेजा] । एवं पोधिदंस०-सम्मादि०-खड्ग०-वेदग०-उवसम० । णवरि खइगे दो आयु० उवसमे यथासंखाए तित्थय० उक्करसभंगो। चक्खुदं० तसपजत्तभंगो ।
४६९. तेऊए इत्थि०-णवूस०-तिरिक्ख--देवायु--तिरिक्खगदि०४--मणुसगदिपंचगएइंदि०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-आदाव०-अप्पसत्थ०-थावर-भग-दुस्सर-अणादे ज० अज० असंखेजा । सेसाणं ज० संखेजा। अज० असंखेजा। मणुसायु-आहारदुगं दो वि पदा संखेजा। एवं पम्माए वि । णवरि एइंदियतिगं वज । सुकाए इथि०बस०-मणुसगदिपंचग-पंचसंठा०- पंचसंघ०- अप्पसत्थ०- भग - दुस्सर -- अणादे० णीचा० ज० अज० असंखेजा। दोआयु-आहारदुर्ग उक्कस्सभंगो। सेसाणं जह० संखेजा । अज० असंखेजा।
४७०, सासण-सम्मामि० पसत्थाणं ज० अज० असंखेजा। मणुसायु० उक्करसभंगो । सरणीसु खविगाणं देवगदि०४-तित्थय० जह० संखेजा । अज०
असंख्यात हैं । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मनुष्यायु और आहारकद्विकका भंग उत्कृष्टके समान है। मनुष्यगति पञ्चक और देवायुकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो आयु और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें क्रमसे तीर्थकर प्रकृतिका भंग उत्कृष्टके समान है । चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भंग त्रस पर्याप्तकोंके समान है।
४६६. पीतलेश्यावाले जीवोंमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यचायु, देवायु, तियञ्चगति चतुष्क, मनुष्यगतिपंचक, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीव असंख्यात हैं । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायु और माहारकद्विकके दोनों ही पदवाले जीव संख्यात हैं। इसी पद्मलेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है एकेन्द्रियत्रिकको छोड़कर कहना चाहिए । शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मनुष्यगतिपश्चक, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। दो आयु और आहारकद्विकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं।
४७०. सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में प्रशस्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायुका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । संज्ञी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियाँ, देवगति चार और तीथङ्कर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात है। आहारकद्विकका भङ्ग शोधके समान है। शेष
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उकस्सखेत्तपरूवणा
२१३ असंखेज्जा । आहारदुगं ओघं। सेसाणं जह० अज० असंखेंजा । एवं परिमाणं समत्तं ।
खेत्तपरूवणा ४७१, खेत्तं दुवि०-जह० उक्क० । उकस्सए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघेण तिषिण आयुगाणं वेउव्वियछ०-आहारदुग-तित्थय० उक० अणु० ढि० केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेजदिभागे । सेसाणं उक्क. लोगस्स असंखेजदिभागे । अणु० सव्वलोगे। एवं श्रोधभंगो तिरिक्खोघो काय जोगि-ओरालि०-पोरालियमि०कम्मइ-णस० - कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज० - अचक्खु०- तिएिणले०भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०-असरिण-आहार-प्रणाहारग ति। णवरि किरण०-णील०-काउ० तित्थय० उक्क० अणुक्क० लोगहस असंखेजदिभागे ।
४७२ एइंदिएसु पंचणा०-णवदंस०-सादासाद०-मोहणीय०२४-तिरिक्खगदिएइंदि०-ओरालिक-तेजा०-क०-इंडसं०-वरण०४--तिरिक्खाणु०-अगु०४--थावरसुहुम-पजत्तापजत्त-पत्ते- साधार०-थिराथिर - सुभासुभ-भग-अणादें०-अज०णिमि०-णीचा०-पंचंत. उक• अणु० सबलोगे। इथि०-पुरिस०-चदुजादिपंचसंठा०-ओरालि० अंगो०-छरसंघ०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तस-बादर- सुभमसुस्सर-दुस्सर-आदेज-जस० उक्क० लोग० संखेज० । अणु० सव्वलोगे। तिरिक्खप्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीव असंख्यात हैं । परिमाण समाप्त हुआ।
क्षेत्रप्ररूपणा ४७१. क्षेत्र दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । अोघसे तीन आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थकरकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीव
जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
४७२. एकेन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चौबीस मोहनीय, तिर्यश्च गति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वणेचतुष्क, तियेश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त. प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय और यशःकीति इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है ' तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक
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महाधे द्विदिबंधाहिया रे
मसा०-- मणुसगदि - मणुसाणु ० - उच्चा० श्रघं । बादरए इंदियपज्जत्तापज्जत ० थावरपगदी उक० प्रणु० सव्वलो० । मणुसायु० - मणुमर्गादि-मधुला ०--उच्चा० उक्क० अणु० लोग० असंखेज्ज० । तिरिक्खायु० उक्क० लोग० श्रसंखेज्ज० । ० लोग० संखेज दि० । सेसाणं उक्क) अणु० लोग० संखेजा० । सुहुमएईदिय-पजत्तापज्जत • तिरिक्ख - मणुसायु श्रघं । सेसाणं सव्वपगदीणं उक्क० अ० सव्वलोगे । एवं सव्वसुहुमाणं ।
२१४
४७३ पुढवि० - उ० – तेउ० - वाउ० सव्वाणं श्रघं । बादरपुढविका० - आउ०उ०- वाउ०- बादरवणष्फ दिपत्ते ० थावरपगदीर्ण उक्क० लो० श्रसंखेज्ज० । अणु० सव्वलो० । तिरिक्खायु० - तसपगदीणं उक्क० श्रणु० लो० श्रसंखेज ० । बादरपुढ वि- ० उ०- ते उ-वाउ०- बादरवणफ दिपत्ते ० पज्जत्ता ० विगलिंदियभंग | बादरपुढवि०--: ० आउ० तेउ०- वाउ०- बादरवणष्क दिपत्ते ० अपज्जत्ता० थावरपगदीणं उक्क० अणु० सव्वलो० । मणुसायु० श्रघं । तिरिक्खायु० तसपगदीणं च लो॰ असंखेज्ज० । वरि बादरवाऊणं श्रायु० अणु० लो०
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उक्क० अणु ० जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। तिर्यश्चायु, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भंग ओघके समान है । बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तिर्यवायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यात बहुभाग प्रमाण है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें तिर्यवायु और मनुष्यायु का भङ्ग ओघ के समान है । तथा शेष सब प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । इसी प्रकार सब सूक्ष्म जीवोंके जानना चाहिए ।
४७३. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, और वायुकायिक जीवोंमें सब प्रकृतितियों का भङ्ग ओघके समान है । बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवों में स्थावर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवों का क्षेत्र सब लोक है । तिर्यचाय और सप्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अभिकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंका भङ्ग विकलेन्द्रिय जीवोंके समान है । बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वादर वायुकायिक अपर्याप्त, और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। मनुष्यायुका भङ्ग के समान है । तिर्यब्चायु और बस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि वादर वायु
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२१५
जहएणखेत्तपरूवणा संखेज० । सेसाणं यम्हि लोगस्स असंखेज० तम्हि लोगस्स संखेज० काव्यो । वणप्फदि-णियोद० थावरपगदीणं उक्क• अणु० सबलो० । मणुसायु. ओधो । तिरिक्खायु०-तसपगदीणं लोग. असंखेन्ज । अणु० सव्वलोगे। बादरवणफदिणियोद० पजत्तापजत्तगाणं च बादरपुढवि०अपज्जत्तभंगो । सेसाणं णिरयादि याव सणिण त्ति संखेजासंखेजरासीणं उक्क० अणु० लोग० असंखेजदिभागे।
एवं उक्कस्सं समत्तं ४७४ जहएणए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०--चदुदंसणा०-- सादा०-चदुसंज-पुरिस०-मणुसगदि-मणुसाणु०-जस०-उच्चा०-पंचंत० जह० लो० असंखेज्ज० । अज० सव्वलोगे। तिरिणायु०-वेउधियछ.-आहारदुग-वित्थय० जह० अज० उक्करसभंगो । तिरिक्खायु०--सुहुमणाम० ज० अज० सव्वलो० । सेसाणं ज० लो० संखेन्ज । अज. सबलो० । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०-णवंस कोधादि०४.-अचक्खु०--भवसि०-आहारग त्ति ।
४७५ तिरिक्खेसु वेउन्वियछ०-तिरिणायु०-मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० ओघं। तिरिक्खायु०--सुहुमणामाणं जह० अज० सव्वलो० । सेसाणं ओघं । एवं एइंदि०कायिक जीवों में आयुकी अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीवोंका जहाँ लोकका असंख्यातवों भाग क्षेत्र कहा है,वहाँ वह लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण जानना चाहिए। वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । मनुष्यायुका भंग ओघके समान है। तिर्यश्वायु और त्रस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है , तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवों क्षेत्र सब लोक है। बादर वनस्पतिकायिक
और निगोद जीव तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका भंग बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त जीवोंके समान है। शेप नरकगतिसे लेकर संज्ञी मार्गणा तक संख्यात और असंख्यात राशिवाले जीवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
इस प्रकार उत्कृष्ट क्षेत्र समाप्त हुआ। ४७४. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार सं ज्वलन, पुरुषवेद, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिके वन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । तीन आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र उत्कृष्टके समान है । तिर्यश्चायु और सूक्ष्म इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके वन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागका प्रमाण है और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सव लोक है । इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, औदरिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
४७५. तियञ्चोंमें वैक्रियिक छह, तीन आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग अोधके समान है । तियञ्चायु और सूक्ष्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बंधक जीवोंका क्षेत्र सब
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे बादरएइंदि०-पज्जत्तापज्जत्त० । थावरपगदीणं च एवं चेव । तिरिक्खायु०-तसपमदीणं च ज. अज. लोग० संखेज्ज० । मणुसायु-मणुसगदिदुग० दो पदा लोग० असंखेज०। सव्वसुणुपाणं मणुसायु० अोघं । सेसाणं सव्वपगदीणं ज० अज सबलो।
४७६ पुढवि०--प्राउ-तेउ०--वाउ० तिरिक्ख-मणुसायु० ओघं । सेसाणं ज. लो० असं० । अज० सव्वलो० । बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-बाउ० थावरपगदीणं ज० लो० असंखें । अज० सव्वलो० । सेसाणं ज० अज० लोग० असंखे । बादरपुढवि०. पाउ०--तेउ०--वाउ०पजत्त० विगलि दियभंगो। बादरपुढवि०--आउ०--तेउ० --वाउ०. अपज्जत्त० थावरपगदीणं जह० लोग० असंखे० । अज० सव्वलो० । दोश्रायु०. तसपगदीणं जह० अज० लोग० असंखें। सुहुमं दो वि सव्वलोगे। णवरि वाऊणं सव्वत्थ जह० लो० असंखें तम्हि लोगस्स संखेजदिमागं कादव्वं । वणफदिणियोदाणं दोआयु०-सुहुमणाम. ओघ । सेसाणं ज. लो० असंखेज० । अज०
लोक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसीप्रकार एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। स्थावर प्रकृतियोंका क्षेत्र इसी प्रकार है। तियेच्चायु
और त्रस प्रकृतियों की जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। मनुष्यायु और मनुष्यगतिद्विक इनके दोनों ही पदोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सब सूक्ष्म जीवोंके मनुष्यायुका भंग ओघके समान है। शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है ।
४७६. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का भंग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवों का क्षेत्र सब लोक है। बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादरवायुकायिक जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है
और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवेंभाग प्रमाण है। बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग विकलेन्द्रियोंके समान है । बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । दो आयु और त्रस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । सूक्ष्मके दोनों ही पदवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। इतनी विशेषता है कि वायुकायिक जीवोंके सर्वत्र जहाँ लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र कहा है वहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग क्षेत्र कहना चाहिए । वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें दो आयु और सक्ष्मनामकी अपेक्षा क्षेत्र ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और अजघन्य स्थिति
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उक्कस्सफोसणपरूवणा
२१७ सबलो० । बादरवणप्फदि-णियोदाणं पज्जतापज्जत्ता. थावरपगदीणं ज. लो. असंखेज्ज० । अज० सव्वलो०। सेसाणं पगदीणं ज० अज० लोग असंखेज्ज । सुहुम० दो वि पदा सव्वलो० । वादरवणफदिपत्ते० बादरपुढविभंगो ।
४७७. ओरालियमि० तिरिक्ख-मणुसायु-मणुसगदि-मणुसाणु-देवगदि०४--तित्थय०-उच्चा० ओघ । सेसाणं तिरिक्खोघं । एवं कम्मइ०-प्रणाहारग ति। मदि०-सुद०असंजतिएिण-अब्भवसि०-मिच्छादि०-प्रसारण तिरिक्खोघ । सेसाणं णिरयादि याव सएिण० संखेज्जासंखेज्जरासीणं जह० अज० लो० असंखेज्ज । एवं खेत्तं समत्तं
फोसणपरूवा __४७८. फोसणं दुवि०-जह उक्क० । उक्कस्सए पयदं । दुवि०-मोघे० आदे० । ओघे० पंचणा--णवदंसणा-प्रसादावे-मिच्छ०-सोलसक०--णqस०-अरदि-सोग-भयदुगुं०-तिरिक्खग-अोरालि०--तेजा०-३०-हुंड०-वण्ण०४--तिरिक्खाणु०--अगु०४-- उज्जो०-बादर-पजत्त-पत्त०-प्रथिर-असुभ-भग-दुस्सर-अणादे०-जस०-अजस०णिमि०-णीचा०-पंचंत० उक्कस्सहिदिबंधगेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्ज० अट्ट-तेरसचौदसभागा वा देरणा | अणु० सव्वलो० । सादा०-हस्स जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। बादर वनस्पतिकायिक और निगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी जधन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सूक्ष्मके दोनों ही पदोंका क्षेत्र सब लोक है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंका भङ्ग बादर पृथिवीकायिक जीवों के समान है।
४७७. औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति चतुष्क, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र इनका भङ्ग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंका भन्न सामान्य तिर्यचोंके समान है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंही जीवोंके अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तियञ्चोंके समान है। शेष नरक गतिसे लेकर संज्ञीतक संख्यात और असंख्यात राशिवाली सब मार्गणाओंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इस प्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ।
स्पर्शन प्ररूपणा ४७८. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तियञ्चगति औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसस्थान, वणेचतुष्क, तियेचगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दु.स्वर, अनादेय, कीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, कुछ कम आठबटे चौदहराजू और कुछ कम तेरह वटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे रदि-थिर-सुभ० उक्क० लो० असंखेज्जदिभागो अट्ठ-चोदसभागा वा देसूणा । अणु० सव्वलो० । सादा०-हस्स-रदि-थिर-सुभ० उक्क० लो० असंखेजदिभागो अट्ठ-चौदसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । अणु ० सव्वलो० । इस्थि०-पुरिस०पंचिंदि०-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर०-आदे० उक्क० लोगस्स असंखे० अट्ठ-बारह । अणु० सव्वलो० । णिरय-देवायु०-आहारदुगं खेत्तभंगो। एवं सव्वत्थ । तिरिक्खायु-तिण्णिजादि० उक्क० खेत्त० । अणुक० सव्वलो० । मणुसायु० उक्क० खेत्त० । अणु० अट्टचोदस० सव्वलोगो। णिरयग०-णिरयाणु० उक्क० अणु० लोगस्स असंखे० छच्चोदस० । मणुसग०-मणुसाणु०-प्रादाव०उच्चा० उक्क० लोगस्स असंखे० अडचोद्दस०। अणु० सव्वलो० । वेउवि०वेउव्वि० अंगो० उक्क० लो० असंखे० छच्चोइस० । अणु० बारहचोदस० । देवग०देवाणु० उक्क० लो० असंखे० अथवा दिवड्डचोदस० । अणु० छच्चोंदस० । एइंदि०--थावर० उक्क० अट्ट--णवचोदस० । अणु० सबलो० । सुहम-अपजत्तलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, और शुभ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और कुछ कम आठ वटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावदनीय, हास्य, रति, स्थिर और शुभकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकक असंख्यातवें भाग, कुछ कम आठबटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेय इनकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और कुछ कम बारह वदे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सव लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार इन तीन प्रकृतियोंके आश्रयसे सर्वत्र स्पर्शन जानना चाहिए। तिर्यश्चायु और तीन जातिकी उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक है । मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजु और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और कुछ कम आठवटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राङ्ग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगति और देवगत्यानुपूर्वी की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभाग प्रमाण अथवा कुम कम डेढ़ बटे चौदह राजु क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह वटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावर
इनकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवों को कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम नौ
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उक्करसफोसणपरूवणा
२१६ साधारण० उक्क० लो० असंखे० सब्बलो० । अणु० सव्वलो० । तित्यय० उक्क० खेत्तभंगो। अणु० अट्ठचोंदस० ।
४७६. आदेसेण णेरइएसु दोआयु-मणुसग०-मणुसाणु०-तित्थय०-उच्चा० उक० अणु० खेत्तं । सेसं उक्क० अणु० छच्चोंदस० । पढमाए पुढवीए खेत्तभंगो । विदियादि याव सत्तम ति दोआयु-मणुसगदिदुग-तित्थय०-उच्चा० उक्क० अणु० खेत्तभंगो । सेसाणं उक्क० बे-तिण्णि-चत्तारि-पंच-छच्चोदस० । __४८० तिरिक्खेसु पंचणा०-णवदंस०-प्रसादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णस०अरदि-सोग--भय-दुगुं०-पंचिंदि--तेजा०-०-हुंड०-वएण०४-अगु०४-अप्पसत्यतस०४--अथिरादिछ०--णिमि०--णीचा०-पंचंत० उक्क० छच्चोंदस० । अणु० सव्वलो । सादा०--हस्स--रदि--तिरिक्खगदि .- एइंदि०-- ओरालि०-तिरिक्वाणु०-थावरादि०४-- थिर--सुभ० उक्क० लो० असं० सबलो० । अणु० सव्वलो० । इथि०--तिरिक्खायु०.मणुसगदि--तिरिणजादि-चदुसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-प्रादाव० खेत्तभंगो। बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्कर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं।
४७६. आदेशसे नारकियों में दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह वटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहिली में सब प्रकृतियोंके स्पर्शनका भङ्ग क्षेत्रके समान है। दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं तक दो आयु, मनुष्यगतिद्विक, तीर्थङ्कर और उच्च गोत्रकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । शेप प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम एक बटे चौदह राजू, कुछ कम दो बटे चौदह राजु, कुछ कम तीन बट चौदह राजु कुछ कम चार वटे चौदह राजू और कुछ कम पांच बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
४८०. तियश्चों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हण्डसंस्थान. वर्णचतष्क, अगरुलघचतष्क. अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह वटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय हास्य, रति, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तिर्यम्बगत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार, स्थिर
और शुभ इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, तिर्यञ्चायु, मनुष्यगति, तीन जाति, चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह
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२२०
महाबंधे द्विदिबंधाहिया रे
पुरिस० - समचदु० - पसत्थवि० - सुभग- सुस्सर - श्रादे० उच्चा० उक्क० दिवडचोदस० । • सव्वलो ० | उब्वियछ० श्रोधं । उज्जो० - जसगि० उक्क० सत्त - चोदस० । अणु० सव्वलो ० | मणुसायु० श्रघं । वरि वज्जे णत्थि ।
४८१
पंचिदियतिरिक्खतिरिण० पंचणा० - णवदंसणा०-मिच्छ - प्रसादा सोलसक० स० - अरदि-सोग-भय- दुगुं० - तेजा० - क० - हुंड० - वण्ण०४ अगु० ४ पजत-पचे० - श्रथिरादिपंच - णिमि० णीचा० - पंचंत० उक्क० लो० असंखे० बच्चो स० । अणु० सव्वलो० । सादावे ० - हस्स - रदि-तिरिक्खगदि - एइंदि० - ओरालि० - तिरिक्खाणु ०-यावरादि०४--थिर - सुभ० उक्क० अणु० लोग० असंखे० सव्वलो० । इत्थि० उक० खेत्तं । श्रणु० दिवडचोइस० । पुरिस० - देवर्गादि - समचदु० -देवाणु ०पसत्थ- सुभग- सुस्सर - प्रादे० - उच्चा० उक्क० खेतभंगी । किं णिमित्तं भवणवासीए उपजदि सोघम्मीसाणे ण उपजदि त्ति उकस्सट्ठिदिबंधंतो तेरा खेत्तं इदरत्थ दिवड - चोदस० । अणु छच्चोंदस० । गिरयग० - गिरयाणु • उक्क० अणु ० छच्चोद्दस० । पंचिंदि० - उत्रि० – वे उच्च ० अंगो ० ० -तस० उक० छच्चोंदस० । श्रणु० बारह० ।
०
०
संहनन और आप इनकी मुख्यतासे स्पर्शन क्षेत्रके समान है । पुरुषवेद, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग सुरवर, आदेय और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक छहकी मुख्यंतासे स्पर्शन के समान है । उद्योत और यश कीर्तिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
०
४८१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में पाँच ज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, मिथ्यात्व, असाता वेदनीय, सोलहकषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, गोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवों ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कुष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, हास्य, रति, तिर्यगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार, स्थिर और शुभ इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । aarat उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पुरुषवेद, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। क्योंकि यह जीव भवनवासियोंमें उत्पन्न होता है; सौधर्म और ऐशान कल्पमें नहीं उत्पन्न होता, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । अन्यत्र कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू स्पर्शन है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नरकगति और नरगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राज् क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आंगोपांग और बस इनकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनु
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उक्करस फोसपरूवणा
२२१
अप्पसत्थ० - दुसरं गिरयगदिभंगो । उज्जो ०. ० - जस० उक० अणु० सत्तचोद्दस ० । बादर० उक्क० बच्चोंदस० । अणु० तेरह चौदस० । सेसाणं उक्क० श्रणु ० खेतभंगो ।
४८२. पंचिदियतिरिक्खश्रपञ्ज० पंचरणा० - वदंसणा ० - सादासाद० - मिच्छ०सोलसक० स०-हस्स-रदि-प्ररदि-सोग-भय-दुगुं० - तिरिक्खगदि - एइंदि० - ओरालि०
तेजा० - क० - हुंड० - वण्ण ०४ - तिरिक्खाणु ० - प्रगु० ०४ - थावर - सुहुम-पञ्जत्तापजत्त-प - पत्ते० साधार० - थिरायिर - सुभासुभ- भग- श्रणादे० - अजस० - णिमि० - णीचा पचंत० उक्क० अणु • लो० श्रसंखे० सव्वलो० । उज्जो०- बादर जसगि० उक्क० अणु ० सत्तचोद्दस० । साणं उक्क० अणु • लो० असंखे० । एवं मणुसअपजत्त - सव्वविगलिंदि० - पंचिंदि०तस अपजत । बादर-बादरपुढवि००- ग्राउ० तेउ०० - वाउ०- बादरवणप्फ दिपतेय० पञ्जन्ता० ।
०
४८३ मणुस मणुसपजच मणुसिणीसु पंचणा० णवदंसणा० - प्रसादा० - मिच्छ०सोलसक० - णवुं स ० - अरदि - सोग - भय - दुगुं ० - तेजा० क० - - हुंड० ० - वण्ण० ४- अगु० ४
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कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अप्रशस्तविहायोगति और दुःश्वर इनकी मुख्यतासे स्पर्शन नरकगतिके समान है । उद्योत और यशः कीर्तिकी उत्कृष्ट और अनुकृष्ट थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है ।
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४८२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानवरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मरण शरीर, हुएडसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यब्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय, श्रयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशः कीर्तिः इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, बादर पृथ्वी कायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पति कायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए ।
४८३. मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर आदि
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
सादा०
91
पजत्त- पत्ते ० -अथिरादिपंच णिमि० णीचा० - पंचंत० उक्क० खेतं । अणु ० लो० असंखे० [० - हस्त-रदि- तिरिक्खगदि - एइंदि० - श्ररालि० - तिरिक्खाणु ० थावरादि ०४ - थिर - सुभ० उक्क० अणु० लो० असंखेज दि० सव्वलो० । उज्जो०जसगि० उक्क० अणु ० लोग० श्रसंखे० सत्तचो० । बादर० उक्क० खेत्तं । अणु ० सन्तचों | सेसाणं खेत्तं ।
O
सव्वलो ०
| ०.
४८४
देवे इत्थि० - पुरिस० - दो आयु ० - मणुसग ० - पंचिंदि० - पंचसंठा०ओरालि० अंगो० - जस्संघड० - मणु साणु ० - आदाव- दो विहा० - तस - सुभग दुस्सर-आदेज ०तित्थय० - उच्चा० उक्क० अणु० अट्ठचोद्दस० । सेसाणं उक्क० अणु • अट्ठ - णवचोदस० । एवं सव्वदेवाणं पप्पणी फोसणं कादव्वं ।
४८५. एईदिए उजो० बादर० - जस० उक्क • खेत्तं । अणु •
थावरपगदीणं उक्क० अणु० सव्वलो० । दोश्रयु० तिरिक्खोघं । उक्क० सत्तचद्दस० । अणु० सव्वलो० | सेसाणं पगदीणं सव्वलो० । बादरएइंदि० पजत्तापजत्त० थावरपगदीगं उक्क०
पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। साता वेदनीय, हास्य, रति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति,
दारिकशरीर, तिर्यगत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार, स्थिर और शुभ इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यात वें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योत और यश कीर्ति इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवेंभाग प्रमाण और कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी मुख्यता से स्पर्शन क्षेत्रके समान है ।
४८४. देवोंमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, पांच संस्थान, दारिक गोपांग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दुःस्वर, आय, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछकम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए ।
४८५. एकेन्द्रियोंमें स्थावर प्रकृतियोंको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयुओंका भङ्ग सामान्य तिर्यवोंके समान है । उद्यो, बादर और यशःकीति इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातवटे
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उक्कस्सफोसणपरूवणा
२२३ अणु० सत्तचो । मणुसायु०-मणुसगदि-मणुसाणु०-उच्चा० उक्क० अणु० लोग० असंखेन्ज ।
४८६ पुढवि०-आउ०-तेउ०-बाउ० थावरपगदीणं उक० लोग. असंखेंज. सव्वलो० । अणु० सव्वलो। तिरिक्ख-मणुसायु० तिरिक्खोघं । उजो०-बादर०जस० उक्क० सत्तचो० । अणु० सव्वलो० । तसपगदीणं आदाव उक्क लोग० असंखेज । अणु ० सबलो० ।
४८७. चादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-थावरपगदीणं उक्क० लोग० असंखेज० सव्वलो० । अणु० सव्वलो० । दोआयु० खेत्तभंगो। उजो०-बादर०-जस० उक्क० अणु० लोग० असंखेज० सत्तचोदस । सेसाणं उक्क० अणु० लोग० असंखेजः ।
४८८. बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० अपज्जत्ताणं थावरपगदीणं उक्क० अणु० सव्वलो० । उजो०-चादर०-जसगि० उक्क० अणु० सत्तचोदस० । सेसाणं उक्क० अणु० लोग० असंखे० । णवरि वाऊणं यम्हि लोगस्स असंखेज० तम्हि लोगस्स संखेज० कादव्यो। चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके अंसस्यातवेंभाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
४८६. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तियश्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तियश्चोंके समान है। उद्योत, बादर और यशःकीर्ति इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातवटे चौदह राजू क्षत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। त्रसप्रकृतियाँ और
आतप इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुकृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षत्रका स्पर्शन किया है।
४८७. बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीवों में स्थावर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण
और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयुका भङ्ग क्षेत्रके समान है। उद्योत, बादर और यशःकीर्ति इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभाग प्रमाण और कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
४८८. बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशःकीर्ति इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा शेष प्रकृतियोंकी उत्कृट और अनुकृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग
माण क्षेत्रका पशन किया है । इतनी विशेषता है कि जहाँ पर लोकका असंख्यात भाग प्रमाण स्पशन कहा है वहाँ पर वायुकायिक जीवोंके लोकके संख्यातवाँभाग प्रमाण पशन कहना चाहिए।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ४८९. सव्वसुहुमाणं सव्वपगदीणं उक्क० अणु० खेरी । णवरि तिरिक्खायु० उक्क० लोग० असंखें. सव्वलो० । अणु० सव्वलो०। मणुसायु० उक्क० अणु० लोग० असंखेज० सव्वलो० । षणप्फदि-णियोदाणं एइंदियमंगो । णवरि तसपगदीणं लोग० असंखें कादव्यो। उजो०-बादर०-जसगि० उक्क० सत्तचोद्दस० । अणु० सब्बलो। बादरवणप्फदि-णियोदाणं पजत्तापजत्त० बादरपुढविअपजत्तभंगो । बादरवणफदिपत्ते. बादरपुढविभंगो। __४६०. पंचिंदिय-तस०२ पंचणा०-णवदसणा०-असादावे०-मिच्छ०-सोलसक०-णस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०-तिरिक्खग०-ओरालि०-तेज-क०- हुंड०-वण्ण. ४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-पजल-परोय-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०-पंचंत. उक० अह-तेरहचों । अणु० अहचौदस० सव्वलो० । सादावे०-हस्स-रदि-थिरसुभ० उक्क० अणु० अट्ठचो. सव्वलो० । इस्थि०-पुरिस-पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-पंचसंठा०-छस्संघ०-दोविहा०-तस-सुभग-सुस्सर-आदें उक. अणु० अट्ठ
४६. सब सूक्ष्म जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यन्चायुकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है. और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायुकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वनस्पति कायिक और निगोद जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है किस प्रकृतियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहना चाहिए। उद्योत, बादर और यशःकीर्ति इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर वनरपतिकायिक, बादर निगोद और इनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त जीवोंके समान है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग बादर पृथ्वीकायिक जीवोंके समान है।
.४९०. पन्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, स और त्रस पर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यब्चगति औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राज और कुछ कम तेरह बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राज और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, और शुभ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राज और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आजोपाङ्ग, पाँच संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, स, सुभग, सुस्वर और आदेय इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और कुछ कम
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उक्कत्सफोसरणपरूवरणा
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बारह० । गिरय- देवायु० - तिरिण जादि ० - आहारदुर्गं उक्क० अणु ० खेत्तं । तिरिक्खमणुसायु० - तित्थय० उक्क० खेचं । अणु० अट्ठचोद्दस० । गिरयगदि- गिरयाणुपु० उक्क० अणु० छच्चोद्दस०| देवगदि देव णु० उक्क० अणु० ओघं । मणुसग ० -- मणुसाणु ० आदाब ० - उच्चा० उक्क० अणु० अडचोद्दस० । एइंदि००-धावर० उक्क० अट्ठ-णवचो० । अणु० अट्ठचो० सव्वलो० । वेउन्त्रि० - वेउब्वि० गो० उक्क० छबोंद्दस० । अणु० बारहचों० । उज्जो० – बादर० - जसगि० उक्क० अणु० अट्ठ-तेरह० | सुहुम-अपजतसाधार० उक्क० अणु० लोग० असंखे० सव्वलो० । एवं पंचमण० - पंचवचि०चक्खुदंसणित्ति |
४९१. कायजोगि० ओघं । ओरालिय० तिरिक्खोघं । णवरि आहारदुगतित्यय० मणुसभंगो। ओरालिय मि० दोआ यु० -सुहुमपगदीणं सत्थाणं उक्क० लो० असंखेज ० सव्वलो० । अणु० सव्वलो० । वरि मणुसायु० अणु० लो० असंखेज बारह वटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु, तीन जाति और हारक a sant उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और तीर्थकर प्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगति और देवगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवों का स्पर्शन ओघ के समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्र इनकी उत्कृट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । एकेन्द्रिय और स्थावर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौबडे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक शरीर और वैकियिकांगोपांग इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यश कीर्तिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी, पांच वचनयोगी और चक्षुदर्शनी जीवोंके जानना चाहिए ।
४६१. काययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। श्रदारिक काययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्यश्वोंके समान है । इतनी विशेषता है कि द्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्योंके समान है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें दो आयु और सूक्ष्म प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुकी अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सव्वलो० । अथवा सरीरपञ्जत्तीए पञ्जत्ती पजत्तगदस्स खेत्तभंगो। उज्जो०-चादर०जसगि० उक. सत्तच्चों० । अणु० सव्वलो० । अण्णत्थ खेत्तं । देवगदि०४ तित्थय० उक्क० अणु० खेनं । सेसाणं उभयथा उक्क० लो० असंखेंज० । अणु० सव्वलो० ।
४६२. वेउव्वियका० पंचणा०-णवदंसणा०-सादासाद०-मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक०-तिरिक्खगदि-पोरालि०-तेजा०-०-हुंड०-चण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४उज्जो०-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादें-जस० - अजस०णिमि०-णीचा-पंचंत० उक्क० अणु० अढ०-तेरह । इस्थि०-पुरिस०-पंचिंदि०पंचसंठा०-ओरालि० अंगो०-छस्संघ०-दोविहा०-तस-तुभग-दोसर०-आदें. उक्क० अणु० अट्ठ-बारह० । दोआयु०-मणुसगदि-एइंदि०-मणुसाणु०-आदाव-यावरतित्थय०-उच्चा० देवोघं । वे उब्धियमि०-आहार०-आहारमि० खेतभंगो।।
४९३. कम्मइग० पंचण।०-णवदंसणा०-सादासाद०-मिच्छ०-सोल सक०णवणोक०-तिरिक्खगदि-पंकिंदि०-ओरालि०-तेजा०-कम्म०-छस्संठा०-ओरालि०
असंख्यातवें भाग प्रमाण और सव लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है अथवा शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उद्योत, बादर और यशःकी तिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अन्यत्र स्पर्शन क्षेत्रके समान है। देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीवोंका रपर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंकी दोनों प्रकारसे उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यात भाग प्रमाण है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बधक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पशन किया है।
४९२. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, सात नोकपाय, तिर्यचगति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तियश्चगत्यानुपूर्वी. अगुरुलवु चतुष्क, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेय इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो श्रायु, भनुष्यगति, एकेद्रिय जाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, तीर्थङ्कर
और उच्चगोत्र इनका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। वैक्रियिमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियों की मुख्यत।से स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
४९३. कामणकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दशनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, नौ नोकपाय, तियश्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वणचतुष्क,
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उक्कस्सफोसण. परूवणा
२२७ अंगो०-छस्संघ०-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-उज्जो०-दोविहा०-तस०४-थिरा दिछयुग०-णिमि०-णीचा०-पंचंत० उक० बारहचों । अणु० सव्वलो०। मणुसगदितिएिणजादि-मणुसाणु० उक्क० अणु० खेत्तं । सुहुम-अपज्जत्त-साधार० उक्क० लो० असंखें । अणु० सबलो० । देवगदि०४-तित्थय० उक० अणु० खेतं । एइंदि०आदाव-थावर० उक्क० दिवड्डचोदस० । अणु० सव्वलो०।
४९४, इस्थिवे० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०तेजा०-२०-हुंडसं०-वण्ण०४-अगुरु०-पज्जत्त-पत्तेग०-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०पंचंत० उक० अट्ठ-तेरहचों । अणु० अट्ठचौ० सव्वलो० । सादा०-हस्स-रदि-थिरसुभ० उक्क० अणु० अट्ठचौदस० सव्वलो० । इथिवे०-पुरिस०-मणुसग०-पंचसठा०ओरालि० अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०-आदाव --पसस्थवि० - सुभग--सुस्सर--प्रादेंउच्चा० उक० अणु० अट्ठचोंदस० । णिरय-देवायु०-तिण्णिजादि-आहार०२-तित्थय० उक्क० अणु० खेत्तभंगो। तिरिक्ख-मणुसायु० उक्क० खेतं । अणु० अट्ठचोद्दस० । तिर्यश्वगत्यानु पूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, दो विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह मुगल, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यगति, तीन जाति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृ बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगति चतुष्क और तीर्थकर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। एकेन्द्रिय जाति, आतप
और स्थावर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
४९४ स्त्रीवेदवाले जीवोंमें पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकपाय, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलधु, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पांच, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम तेरह बदे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। साता वेदनीय, हास्य, रति, स्थिर और शुभ इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजु और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुपवेद, मनुष्यगति, पांच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुरवर, आदेय और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु, नीन जाति, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका पर्शन क्षेत्रके समान है। तियश्चायु अंर मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट स्थिनिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह गजु क्षेत्र का स्पर्शन किया है। वैक्रियिक छहको मुख्यतासे स्पर्शन ओषके समान है। तियश्चगति,
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महाबंधे विदिबंधाहियारे वेउव्वियछ० ओघ । तिरिक्खगदि-एइंदि०-पोरालि०-तिरिक्खाणु०-थावर ० उक्क० अह-णवचों । अणु० अट्ठचौ० सव्वलो० । पंचिदि०-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर० उक्क० छच्चोंदस० । अणु० अट्ठ-बारह० । उज्जो०-जस० उक्क० अणु० अट्ठ-णवचोदस० । बादर० उक० अणु० अट्ठ-तेरहचौद्दस । सुहुम-अपज्जत्त-साधारण० उक्क० अणु० लोग० असंखे० सव्वलो० । पुरिसेसु इस्थिभंगो । णवरि पंचिंदि०-अप्पसत्थ०-तसदुस्सर० उक्क० अणु० अट्ठ-बारहचोदस० । तित्थय० ओघं ।
४६५, णवूस० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छत्त-सोलसक०-इत्थिपुरिस०-णवूस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०-तिरिक्खग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०. छसंठा---पोरालि० अंगो०-छसंघ०-वण्ण०४--तिरिक्खाणु०-अगु०-दोविहा०-उज्जो०तस०४-अथिर - असुभ-सुभग-भग-सुस्सर--दुस्सर--प्रादें -अणादे०-अजस०-णिमि०णीचा०-पंचंत० उक० छच्चोंदस० । अणु० सव्वलो० । सादावे०-हस्स-रदि-एइंदि०थावरादि ४-थिर-सुभ० उक्क० लो० असंखें सव्वलो० । अणु० सव्वलो० । एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर इनकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रिय जाति, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत और यश.कीर्तिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन
या है। बादर प्रकृतिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सूक्ष्म, अपर्याप्त
और साधारण इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदी जीवोंमें स्त्रीवेदी जीवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, अप्रशस्त विहायोगति, बस और दुस्वर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग ओघके समान है।
४९५. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व; सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, दो विहायोगति, उद्योत, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, हास्य, रति, एकेन्द्रियजाति, स्थावर आदि चार, स्थिर और शुभ इनकी उत्कृष्ट स्थितिके
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उक्करस फोसण परूवणा
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दोषयु० - प्रहारदुग - तित्थय ०
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क० अणु ० खेत्तभंगो । तिरिक्खा यु- मणुसग दि-तिष्णिजादि- मसाणु० - श्रादाव उच्चागो० उक्क० लो० असंखेज दि० । अणु० सन्चलो० । मणुसायु० उक्क० खे० । अणु ० लो० असंखे० सव्वलो० । वेउव्वियछ० श्रघो । उज्जो०१०- जस० उक्क० तेरहचद्दस० । अणुक्क० सव्वलो० । श्रवगदवेदे खे० भंगो कोधादि०४ श्रधं ।
४९६, मदि० - सुद० श्रघं । वरि देवगदि - देवाणु० उक्क० ० । अणु० पंचचौद्द० । वेउब्वि० - वेउच्चि ० अंगो० उक० छच्चोंदस० । अणु एक्कारसचद्दस० । विभंगे पंचणा० - वसणा० - श्रसादावे० - मिच्छ०- सोलसक०- पंचणोक० - तेजा०-क०हुंड सं० - वरण ०४ - प्रगु०४-- पज्जत्त- पत्तेय० - श्रथिरादिपंच - णिमि० णीचा० - पंचत० उक्क० अट्ठ-तेरह० । अणु० अट्ठ-तेरह० सव्वलो० । सादावे० - हस्स -रदि-थिर- सुभ० उक्क० अणु० अट्ठचों० सव्वलो० । इत्थि० - पुरिस० - पंचिदि० - पंचसंठा०-ओरालि •.
बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयु, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तिर्ययु, मनुष्यगति, तीन जाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट स्थिति ब जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्र के समान है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक छहकी अपेक्षा स्पर्शन ओके समान है । उद्योत और यशः कीर्तिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अपगतवेदी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तथा क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें ओघके समान हैं ।
४६६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति और देवगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वैक्रियिक शरीर और वैयिक आङ्गोपाङ्गकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विभंगज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकपाय, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, व चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवों म आठ वटे चौदह राजू, कुछ कम तेरह वटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर और शुभ इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुपवेद,
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__ महाबंधे हिदिबंधाहियारे अंगो०-छस्संघल-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर-आदें उक० अणु० अट्ठ-बारहचोंहसः । णिरय-देवायु०-तिएिणजादि० उक्क० अणु० खेत्तभंगो । तिरिक्ख-मणुसायु० उक्क० खेत्तभंगो । अणु० अट्ठ-चौद्द । वेवियछ० मदिभंगो । तिरिक्खग--ओरालि०-- तिरिक्खाणु० उक० अट्ट-तेरहचों । अणु० अट्ठ-तेरहचों सव्वलो० । मणुसग०-- मणुसाणु०-आदाव०--उच्चा० उक्क. अणुं० अडचो०। एहदि०.-थावर० उक्क० अट्ठ-णवचो अणु० अट्ठ० सवलो० | उज्जो०-बादर०-जसगि० उक्क० अणु० अटु. तेरह० । सुहुम-अपज्जत-साधार० उक्क० अणु० लो० असंखें सवलो० ।
४६७. आभिणि०--सुद०-श्रोधिणा० देवायु०--आहारदुर्ग उक्क. अण. ओघं । देवगदि०४ उक्क० ओघ० । अणु० छच्चोंदस० । तित्थय० ओघं । सेसाणं उक्क० अणु० पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दोविहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और श्रादेय इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राज़ और कुछ कम बारह बटे चौदह राज़ क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु और तीन जाति इनकी उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तिर्यश्चायु
और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियक छहकी मुख्यतासे स्पर्शन मत्यज्ञानियोंके समान है। तिर्यञ्चगति औदारिकशरीर और तिर्यचगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राज़, कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु दोत्रका स्पर्शन किया है । एकेन्द्रियजाति और स्थावर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योत, वादर और यशःकीर्ति इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
४६७. आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें देवायु और आहारक द्विककी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अोधके समान है। देवगति चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू दोत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओधके समान है। शेप प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दष्टि, क्षायिक सम्यग्दष्टि,
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उक्करसफोसणपरूवणा अट्ठचोदस० । एवं प्रोधिदंस०--सम्मादिहि-खइग०. वेदग०--उवसमस० । णवरि खइगे देवगदि०४ खेतं । तित्थय० उक्क० अणु० अट्ठचौ०।।
४९८, मणपज्ज०--संजद-सामाइ०-छेद।०--परिहार०-सुहमसं० खेतं । संजदासंजदे सादावे०-हस्स-रदि-यिर-सुभ-जस० उक्क० अणु० छचोदस० । देवायु-- तित्थय० उक्क० अणु० खेत्तं । सेसाणं उक्क० खेतं । अणु० छच्चाद्दस० । असंजद०-- अचखुदं ओघं।
४६६. किण्णले. णqसगभंगो । णवरि णिरयगदि-वेउवि० --बेउन्धि०अंगा० - णिरयाणु० उक्क० अणु० छच्चॉदस ० । देवगदि-देवाणु०--तित्थय० उक्क० अणु० खेत्तभंगो। णील-काऊर पढमदंडओ णqसगभंगा। णवरि चत्तारि बेच्चोंदस० । सादा-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० एदाओ पढमदंडओ भाणिदवाओ। णिरयग०-वैउत्रिःवेउत्रि०अंगो०-णिरयाणु० उक्क० अणु० चत्तारि-बे चौद्दस० । देवगदि०-देवाणु० किण्णभंगो । सेसाणं णवुसगभंगो। वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें देवगति चतु:कका भङ्ग क्षेत्रके समान है तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
४६८. मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धि संयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। संयतासंयत जीवोंमें सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंयत और अवक्षुदर्शनी जीवोंका भंग ओघके समान है।
४६. कृष्णलेश्यावाले जीवोंका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि नरकगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकांगोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी इनकी उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगति, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें प्रथम दण्डकका भंग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति इनकी मुख्यतासे स्पर्शन प्रश्रम दण्डकके समान कहना चाहिए। नरकगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगति और देवगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे स्पर्शन कृष्ण लेश्यावाले जीवोंके समान है तथा शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे स्पर्शन नपुंसकवेदी जीवोंके समान है।
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उक्करप खेतपरूवणा ५००. तेऊए देवाय-पाहारदुगं० खे । देवगदि ०४ उक्क० खेचं । अणु० दिवड्डचौद्द ० । इत्थि०-परिस० मणुसग०-पतिदि० पंचसंठा० श्रीरालि० अंगो०-छस्संघ०
आदाव--दोविहा०-तस-सुभग-दोसर-आदेज--तित्थय. -उच्चा०--तिरिक्ख० -मणुसायु० उक्क० अणु ० अट्ठचो० । सेसाणं उक्क० अणु ० अट्ठ-णव० । पम्माए देवायु--आहाग्दुगं खें। देवगदि०४ उक्क खेच। अणु ० पंचचो०। सेसाणं उक्क० अण० अट्ठ-णवचो सुकाए देवायुआहारदुगं ओघ देवगदि०४ उक्क० खेनं । अण० छच्चोदस० । सेसाणं उक्क० अण० छच्चोद०। ___ ५०१. भवसिद्धिया० ओघं। अब्भवसि० मदि० भंगो। सापणे देवायु प्रोघं । तिरिक्खमणसायु० उक० खेलें । अण. अट्ठचो । मणमगदि-मणसाण--उच्चा० उक्क० अणु० अट्टचॉ० । देवगदि०४ उक० खेलें । अण. पंचचोदम । सेसाणं उक्क० अण० अट्टबारह० । सम्मामि० देवगदि०४ उक्क० अणु० खे । सेसाणं उक० अणु० अट्ठची ।
५००. पीत लेश्यावाले जीवोंमें देवायु और आहारक द्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है। देवगति चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे क्षौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुपवेद, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदीरिक अांगोपांग, छह संहनन, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु इनकी उत्कृष्ट और
वान कुछ कम आठ वटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पशन किया है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पद्मलेश्यावाले जीवोंमें देवायु और आहारकद्विकका भंग क्षेत्रके समान है । देवगति चतुककी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेप प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वठे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शुक्ल ले यावाले जीवोंमें देवायु और आहारकद्विकका भंग ओघके समान है । देवगति चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
५०१. भव्य जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग आपके समान है। अभव्य जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टि जोवोंमें देवायुका भङ्ग अोधके समान है। तिर्यञ्चायु और मनुष्या युकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम
आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगतिचतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेप प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम
आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें देवगतिचतुष्कको उत्कृट और अनुत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राज प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
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जहण्णफोसरणपरूवणा
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५०२. असण्णी पंचणा० - वदंसणा ० - असादा० - मिच्छ० - सोलसक० - सत्तखोक०-तिरिक्खायु- मणुसगदि-चदुजादि [ओरालि० ] - तेजा ० क० छंस्संठा० - ओरालि०अंगो० - छस्संघ० १० - वरण ०४ - मणुसागु० - गु० - ४ - प्रादाव- दो विहा० -तस०४ - अथिरादिछ० - सुभग सुस्सर - श्रादे० - णिमि० णीचुच्चा०- पंचंत० उक्क० खेत्तं । श्रणु० सव्वलो ० | सादावे० - हस्स रदि-तिरिक्खगदि - एइंदि० - ओरालि० - तिरिक्खाणु० - थावरादि ०४ - थिरसुभ० उक्क० लो० असंखेज ० सव्वलो० । अणु० सव्वलो० । गिरय- देवायु- वे उब्वियछ०खेत्तभंगो । मणुसायु० एइंदियभंगो । उज्जो० - जसगि० उक्क० सत्तचद्दस० । ऋणु० सव्वलो० । श्राहार० श्रघं । अणाहार० कम्महगभंगो | एवं उक्कस्सफोसणं समत्तं । ५०३. जहणए पगदं । दुवि० - ओघे० दे० । श्रघे० खविगाणं मणुसग०मसाणु जहण्णडिदिबंधगेहिं केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज दिभागो । ज० सव्वलो ० | पंचदंस ० - असादा० - मिच्छ०- बारसक०- - अणोक० - तिरिक्खगदिचदुजादि - ओरालि० - तेजा० - क० - छस्संठा० - ओरालि० अंगो० - छस्संघ० - वण०४-तिरिक्खाणु० - अगु०४ - आदाउजो ० -- दो विहा ०--तस - बादर--पञ्जत्त - श्रपञ्जत्त - पत्तेय० साधार० - थिरादिपंचयुगल - अजस० णिमि० णीचा० जहरण० अजहराण० खेत्तं । गिरय
•
01
५०२. असंज्ञी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चायु, मनुष्यगति, चार जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर कार्मणशरीर, छह संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, तप, दो विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक है । सातावेदनीय, हास्य, रति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार, स्थिर और शुभकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक है। नरकायु, देवायु और वैक्रियिक छहका भङ्ग क्षेत्रके समान है । मनुष्यायुका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है । उद्योत और यशः कीर्तिकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजू है और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक है । आहारक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है । अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मरणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्शन समाप्त हुआ ।
५०३ जघन्यका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओ और आदेश | घसे क्षपक प्रकृतियाँ, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य स्थिति बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पाँच दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कपाय, आठ नोकपाय, तिर्यञ्चगति, चार जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारण, स्थिर आदि पाँच युगल, अयशः कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। नरकायु, देवायु और आहारकद्विकका
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महाबंधे डिदिबंधाहियारे देवायु०-आहारदुर्ग उक्करसभंगो। एवं सव्वत्थ । तिरिक्खायु--सुहुम० जह० अज० सव्वलो० । मणुसायु० जह० [अज०] लोग० असंखेंज. सव्वलोगो वा । णिरय-देवगदि-णिरय-देवाणु० जह० खेत । मज० छच्चोंद । एइंदि०-थावर० जह० सत्तचोद्द० । अज० सव्वलो० । वेउबि०-वेउव्विअंगो० जह० खेत । अजह० बारहों। तित्थय० जह० खेत्त । अज० अट्टचो ।
५०४. णिरएसु दोआयु-मणुसग०-मणुसाणु०--तित्थय०-उच्चा० उकस्सभंगो । सेसाणं जह० खेत्तभंगो । अज० छच्चोस । पढमाए खेत्तं । विदियादि याव छट्टि त्ति तिरिक्खायु-मणुसगदि०४-तित्थय० खेत। सेसाणं जह० खेत्तं । अज० एक-दोतिण्णि-चत्तारि-पंचचोदस० । णवरि तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु०-उज्जो० जह मज. एक-बे-तिरिण-चत्तारि-पंचचौदस० । सत्तमाए इत्थि-णस०-पंचसंठा०पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-प्रणादें जह० अज० छच्चोंदस० । तिरिभङ्ग उत्कृष्टके समान है । इसी प्रकार इन चार प्रकृतियोंकी मुख्यतासे स्पर्शन सर्वत्र जानना चाहिए। तिर्यञ्चायु और सूक्ष्म इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायुकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति, देवगति, नरकगत्यानपर्वी, और देतगत्यानुपूर्वी इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य स्थतिके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
५०४ नारकियोंमें दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहिली पृथ्वीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दूसरीसे लेकर छटवीं तक पाँच पृथिवियोंमें तिर्यञ्चायु, मनुष्यगति चार और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवों का
के समान है। अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने क्रमसे कछ कम एक बटे चौदह राज़, कुछ कम दो बटे चौदह राजु, कुछ कम तीन बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजु
और कुछ कम पाँच बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवों ने क्रमसे कुछ कम एक बटे चौदह राजू, कुछ कम दो बटे चौदह राजू, कुछ कम तीन बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम पाँच बटे चौदह राज़ क्षेत्र का स्पर्शन किया है। सातवीं पृथिवीमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर
और अनादेय इनकी जघन्य और अजधन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तिर्यश्वायु और मनुष्यगति त्रिकका भङ्ग क्षेत्र के समान है । शेष
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जहएणफोसणपरूवणा क्खायु-मणुसगदितिगं खेत्तं । सेसाणं जह० खेनं । अज० छच्चोंदस० ।
५०५. तिरिक्खेसु पंचणा०-णवदंसणा०-दोवेदणीय--मिच्छ०--सोलस: ०णवणोक०-दोगदि--चदुजादि-ओरालि०-तेजा०-क०-छस्संठा०--मोरालि अंगो०-- छस्संघ०-वएण०४-दोबाणु०-अगु०४-प्रादाउजो०-दोविहा०-तस-चादर -पज्जत्तअपञ्जत-पत्ते०-साधार०-थिरादिछयुग०-णिमि०-णीचच्चा०-पंचंत० जह० खे । अज० सबलो० । तिरिक्खायु-सुहुमणा. जह० अज० सव्वलो० । मणुसायु० जह० अज. लोग. असंखेज. सव्वलो०। एइंदि०--थावर-वेउब्धियछ० ओघं । एवं तिरिक्खोघं मदि०-सुद०-असंज०--अब्भवसि०--मिच्छादिहि त्ति । वरि एदेसिं देवगदि-देवाण. अज. पंचचोदस० । णवरि असंजद० वेउव्वि०-वेउवि०अंगो० अज० एक्कारहचोद्दस० । असंज० तित्थय० अज० अढचोद्दसः ।
५०६. पंचिंदियतिरिक्ख०३ पंचणा०-णवदंसणा०-सादासाद०- मोहणीय० २४-तिरिक्खगदि-एइंदि०--ओरालि०-तेजा०-०-हुंड०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०मगुरु०४-थावर- पञ्जत्त- अपजत्त-पत्तेय०-साधार०-थिराथिर-सुभासुम-भग-अप्रकृतियों की जघन्य स्थिति के बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्र के समान है। अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
५०५. तिर्यञ्चोंमें पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, दो गति, चार जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, स्थिर आदि छह युगल, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पशन क्षेत्रके समान है । अजवन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तियश्चायु और सूक्ष्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने सव लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुको जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । एकेन्द्रिय जाति, स्थावर और वैक्रियिक छहका भङ्ग ओषके समान है। इसी प्रकार सामान्य तियश्चोंके समान मत्यज्ञानी, श्रताज्ञानी, असयत, अभव्य और मिथ्याहाट जीवीके जानना चाहिए। इतना विशेपता है कि इन जीवोंके देवगति और देवगत्यानुपूर्वीकी अजयन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम पांच बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि असंयत जीवोंमें वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्गकी अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इन्हीं असंयत जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
५०६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मोहनीय चौवीस, तियश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवं भाग प्रमाण
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे णादें-अजस०-णिमि०-णीचा०-पंचंतराइगं० जह० लो० असंखेंज० । अज० लो० असखेंज० सव्वलो० । णवरि एईदि०-थावर० जह० सत्तचोद्दस० । उजो०-जसगि० जह० खेत्तं । अज० सत्तचौद्दस०। बादर० जह० खेतं । अज० तेरहचौदस । सुहम० दो वि पदा लोग० असंखेज्ज० सवलो० । सेसाणं जह• खेत्तं । अज. अप्पप्पणो [ फोसणं कादव्वं ।]
५०७. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता० पंचणा०-गवदसणा०-दोवेदणी०-मोहणीय०२४-तिरिक्खगदि-एईदिय०-ओरालि०-तेजा०-०-हुड०-वएण०४-तिरिक्खाण०-अगु०४-थावरणा०-पज्जत्त-अपज्जत-पो०-साधार०-थिराथिर-सुभो. सुभ-भग-अणादें-अजस-णिमि०-णीचा०-पंचंत० जह० खेलें। अज०ट्टि० लोग. असंखेंज. सव्वलो० । णवरि एइंदि०-थावर० जह० सत्तचोद्द० । उज्जो०-बादर०जसगि० जह० खेत्त । अज. साचोदस० । सेसाणं जह० अज० खेतभंगो । सवरि सुहम० जह० अज० लोग० असंखेज. सव्वलो० । एवं पंचिदिय-तस-अपजगाणं सव्वविगलिंदिय-बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपशेय०पन्जचाणं च । क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमोण
और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति और स्थावरकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योत
और यशःकीर्तिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादरकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सूक्ष्मके दोनों ही पदवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अपना अपना स्पर्शन करना चाहिए ।
५०७. पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, चौवीस मोहनीय, तियश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, क हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तियश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पशन किया है। उद्योत, बादर और यशःकीर्ति इनकी जघन्य स्थिति बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियों की जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस पर्याप्त जीवोंके तथा सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथ्वी
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जहएणफोसणपरूवणा
२३७ ५०८. मणुसगदीएसु३ सव्वपगदीणं जह० खेच। अज. अप्पप्पणो फोसणं कादव्वं । एवं मणुसअपज्जत्त।
५०९. देवेसु थावरपगदीणं जह० खेतं । अज्ज. अट्ठ-णवचो । तसपगदी] जह० खेत्तभंगो । अज० अट्टचों । णवरि दोआयु०-तित्थय० जह० अज० अट्ठचोद्द । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो फोसणं णादण णेदव्वं ।
५१०. एइंदिए तिरिक्खोघं । बादरएइंदिय-पज्जत्त-अपज्जत्त० सव्वपगदीणं जह० लोग० संखेज्ज० । अज० सव्वलो० । णवरि मणुसायु०-मणुसगदि-मणु साणु०-उच्चा० जह० अज० लोग० असंखेन्जः। एइंदि०-थावर० जह• सत्तचों । अज० सबलो० । उज्जो०-बादर०-जसगि० जह० खेत्तं । अज० सत्तचोद । तिरिक्खायु०-आदाव०-सुहुम०-तसपगदीणं च खेत्तं ।
५११. पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० तिरिक्खायु०-सुहुम० जह० अज. सव्वलो० । सेसाणं जह० लोग० असंखेज्ज० । अज० सव्वलो० । णवरि एइंदिय-थावर० कायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए।
५०८. मनुष्यत्रिकमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अपना-अपना स्पर्शन करना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए ।
५०६. देवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पशन किया है। त्रस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पशन क्षेत्रके समान है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौवह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि दो आयु और तीर्थकर प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना स्पशन जानकर ले आना चाहिए । . ५१०. एकेन्द्रियों में सामान्य तिर्यकचोंके समान भङ्ग है। बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्तअपर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवींने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगीत्रकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावरकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योत, बादर और यश कीर्ति इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है। तिर्यन्चायु, आतप, सूक्ष्म और त्रस प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है।
५११. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें तिर्यश्चायु और सूक्ष्म इनकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्र का स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे जह सत्तचों । अज० सव्वलो। उज्जो०-बादर-जसगि० जह० अज० खे। बादरपुढवि०-पाउ०-तेउ०-वाउ० थावरपगदीणं जह० लोग० असंखेंज्ज० । अज. सव्वलो० । एइंदिय०-थावर० पुढविभंगो । उज्जो०-बादर-जसगि० तिरिक्ख०अपजत्तभंगो। सेसाणं जह० अज० खेत्तमंगो। बादरपुढवि०-आउ० तेउ०-बाउ०अपजत्त० थावरपगदीणं जह० अज० खें। एइंदि०-उज्जो०-थावर०-बादर०-जसगि० बादरपुढविभंगो । सुहुम० जह० अज० खेतं । सेसाणं पि खेचमंगो।
५१२. वणप्फदि-णियोदेसु तिरिक्खायु-सुहुम० जह० अज० सव्वलो० । एइंदि०उज्जो०-थावर-बादर-जसगि० पुढविभंगो। सेसाणं खेत्तभंगो । णवरि मणुसायु० तिरिक्खोघं । बादरवणफदि-णियोद-पज्जन-अपज्जना० बादरपुढविप्रपज्जतभंगो। बादरवणप्फदिपत्ते० बादरपुढविभंगो । सबसुहुमाणं खें। पवरि मणुसायु० एहदियभंगो । णवरि वाऊणं जम्हि लोग० असंखें तम्हि लोगस्स संखेन्जदिभागं कादव्वं ।
५१३. पंचिंदिय-तस०२ एइंदिय-थावर' • जह० सत्तचों । अज० अट्ठचौद्द० किया है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवों ने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशःकीर्ति इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्र का स्पर्शन किया है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनका भङ्ग पृथ्वीकायिक जीवोंके समान है । उद्योत, बादर और यशःकीर्ति इनका भङ्ग तिर्यञ्च अपर्याप्तकों के समान है । शेष प्रकृतियों की जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पशन क्षेत्रके समान है। बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंमें स्थावर प्रकृतियों की जघन्य और अजयन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। एकेन्द्रिय जाति, उद्योत, स्थावर, बादर, और यश कीर्ति इनका भङ्ग बादर पृथ्वीकायिक जीवोंके समान है । सूक्ष्म प्रकृतिको जघन्य और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। शेष प्रकृतियोंका भी स्पर्शन क्षेत्रके समान है। - ५१२. वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें तियेचायु और सक्ष्म इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। एकेन्द्रियजाति, उद्योत, स्थावर, बादर और यशःकीर्तिका भङ्ग पृथ्वीकायिक जीवोंके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्र के समान है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भङ्ग समान्य तियञ्चों के समान है । बादर वनस्पतिकायिक और निगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंमें बादर पृथ्वीकायिक जीवोंके समान भङ्ग है । सब सूक्ष्मोंका भङ्ग क्षेत्र के समान है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यायु का भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि वायुकायिक जीवोंका जहाँपर लोकका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण स्पर्शन कहा है,वहाँ पर लोकका संख्यातवाँ भाग प्रमाण स्पशन कहना चाहि ५१३. पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें एकेन्द्रिय और स्थावर इनकी जघन्य स्थिति
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जहएणफोसणपरूवणा सव्वलो। सेसाणं जह० खेतं । अज० अणुक्कस्सभंगो।
५१४. पंचमण-तिण्णिावचि० इथि०-णस-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें जह० अदु-बारह । अज० अणुक्कस्सभंगो । एइंदि०थावर० जह० अट्ठ-णवचो० । अज० अणुकरसभंगो । मणुसगदि०४ जह० अज० अट्ठचौदस० । एवं श्रादावं पि । सेसाणं पि जह० खे । अज० अणुक्कस्सफोसणभंगो। णवरि सुहुम० जह० लो० असंखेज्ज. सव्वलो० । वधिजोगि०-असचमोस० तसपज्जत्तभंगो।
५१५. कायजोगि०-ओरालिय० ओघ । णवरि ओरालियका० मणुसायु-तित्थयराणं चरज णत्थि । ओरालियमि० देवगदि०४-तित्थय० उकस्सभंगो । सेसाणं तिरिक्खोघं । णवरि एइंदि०-थावर०-सुहुम० जह० अज० खेतं । वेउब्वियका० थीणगिद्धि०३मिच्छ०-अणताणुपंधि०४ जह० अट्ठचो । अज० अणुक्कस्सभंगो। तिरिक्खगदि०४ जह० खेत्त। अज० अणुक्करसभंगो। इथि०-णवुस-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है।
५१४. पांच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। एकेन्द्रय जाति और स्थावरकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । मनुष्यगति चार की जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार आतपकी अपेक्षा भी स्पर्शन जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पशन क्षेत्रके समान है और अनुकृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवोंका भङ्ग सपर्याप्त जीवोंके समान है।
५१५. काययोगी और औदारिककाययोगी जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यायु और तीर्थंकर प्रकृतियोंका राजुप्रमाण स्पर्शन नहीं है। औदारिक मिश्रकाययोगी जीवीं में देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्टके समान है तथा शेष प्रकृतियोंका भग सामान्य तिर्यकचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति, स्थावर और सूक्ष्म इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। वैक्रियककाययोगी जीवोंमें स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है । तिर्यञ्चगति चारकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पशन क्षेत्रके समान है। अजधन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे सत्थ०-भग-दुस्सर-प्रणादे जह० अट्ठ-बारह । अज० अणुकस्सभंगो । दोश्रायुमणुसग०-मणुसाणु०-आदाव-तित्थय०-उच्चागो० जह० अज० अट्टचों । एइंदि०थावर० जह० अज० अट्ठ-णवचौद्द० । सेसाणं जह० अट्टचों । अज० अणुक्कस्सभंगो । वेउव्वियमि०-आहार-आहारमि० खेत्तभंगो । कम्मइग० खेत्तभंगो एवं अणाहार० ।
५१६. इस्थि-पुरिसेसु एई दिय-थावर० जह० सत्तचों । अज० अणुकस्सभंगो । सुहुम० जह० अज. लोग० असंखेज० सव्वलो० । इत्थीए तित्थय. जह० अज० खेत्तं । सेसाणं जह० खेत्तं । श्रज. अणुकस्सभंगो। णqसगे कोधादि०४-प्रचक्खुदं०भवसि०-पाहारग त्ति ओघं । णQस०-मणुसायु०-तित्थय० ओरालियकायजोगिर्भगो। णवरि णqसगे तित्थय० खेत्तं । अवगदवेदे खेत्तं ।
५१७. विभंगे असादा०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह. अट्ठबारहचोदस० । अज० अणुक्कस्सभंगो । इत्थि०-णस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पस्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । स्त्रीवेद, नपुसंकवद, पांच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग दुःस्वर और अनादेय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु
और कुछ कम बारह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है । दोआयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, तीर्थङ्कर
और उच्च गोत्र इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदहराजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौददं राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । कामणकाययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके स इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए।
५१६. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात वटे चौदह राजु क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। सूक्ष्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवों का स्पर्शन अनुत्कृष्ट के समान है । नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षु दर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। किन्तु नपुंसकवेद, मनुष्यायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग औदारिक काययोगी जीवों के समान है । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। अपगतवेदमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है।
५१७. विभङ्ग ज्ञानी जीवोंमें असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और
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जहरणको सपरूवणा
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सत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर - प्रणादे० जह० श्रड - बारहचौ० । अज० अणुकरसभंगो । मणुसगदिपंचग० जह० अ० श्रचोद० । सेसाणं जह० खेत्तं । अज० श्रणुकरसभंगो । वरि एइंदि० - थावर० जह० श्रट्ट - एक्चों६० । श्रज ० अणुकरसभंगो । सुडुम० जह० ज० लो० सं० सव्वलो ० ।
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५१८. आभिणि० - सुद० - प्रोधि० मणुसायु० - मणुसगदिपंचग० जह० अज० चौदस० । देवायु० - श्राहारदुगं खेतं । देवगदि०४ उक्करसभंगो | सेसाणं जह० खेत । श्रज० अणुकरसभंगो । मणपज्ज० - संजद - सामाह० - छेदो ० - परिहार०सुहुमसं० तं ।
५१६. संजदासंजद० असादा० - अरदि- सोग - अधिर - असुभ -प्रजस० जह० श्रज० छच्चोद्द० | देवायु० - तित्थय० जह० अन० खेत' । सेसाणं जह० र्खेत । अज० छच्चद्द० । ओधिदं०- सम्मादि० - खड्ग ० - वेदग० - उवसम० - आभिणि० भंगो । यवरि
कुछ कम बारह वटे चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, पाँच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । मनुष्यगतिपञ्चककी जघन्य और अ घन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्ट के समान है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है। सूक्ष्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
५१८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मनुष्यायु और मनुष्यगति पञ्चककी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है । देवगतिचतुष्कका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । मन:पर्ययज्ञानी, संयंत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धि संयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है ।
५१६. संयतासंयत जीवोंमें असाता, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायु और तीर्थंकर इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा अन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि
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महाबंचे द्विदिबंधाहिया रे
खड़गे देवगदि०४ खेत । उवसमे तित्थय० खेत्तं । चक्खदं० तसपजतभंगो ।
५२०. किण्ण० - गील० - काउ० श्रसंजदभंगो । वरि देवग दि०३ - तित्थय० खेचं । मसायु० तिरिक्खभंगो | तेऊए० पंचणा० - वदंसणा ० - खादासाद० - मोह०२४पंचिंदि० - तेजा ० - ० - समचदु० चण्ण०४ - अगु०४ - पसत्थत्रि ०-तस०४ - थिराथिर सुभा सुभ-जस० - अजस० णिमि० उच्चा० - पंचंत० जह० खेत' । अज० अणुकरसभंगो | देवगदि०४ जह० खैतं । श्रज० दिवडचो० । सेसाणं सोधम्मभंगो । एवं पम्माए सहस्सारभंगो कादव्वो । देवदि०४ जह० खेचं । अज० पंचचो० | सुकाए मणुसग दिपंचग० जह० अज० बच्चोद्द० | सेसाणं जह० खैच । अज० छच्चो० । णवरि इत्थि० - स०पंचसंठा०-पंच संघ०-अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर - प्रणादे० जह० अ० बच्चों० ।
५२१. सासणे इत्थि० - पंचसंठा० - पंच संघ० - अप्पसत्थ० -तस०४ जह० ज० अट्ठ - एकारस० । मणुसगदिपंचग० जह० अज० अट्ठचों० | देवगदि०४ जह० ज०
जीवों का भङ्ग अभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें देवगतिचतुष्कका भङ्ग क्षेत्रके समान है तथा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्र के समान है । चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग त्रसपर्याप्त जीवोंके समान है ।
५२०. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंका भङ्ग असंयत जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति त्रिक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्र के समान है । तथा मनुष्यायुका भङ्ग तिर्यष्चों के समान है । पीतलेश्यावाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चौबीस मोहनीय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । देवगति चतुष्ककी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है तथा अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है । इसी प्रकार पद्मलेश्या - वाले जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सहस्त्रार कल्षके समान भङ्ग करना चाहिए | तथा देवगति चतुष्ककी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शुक्ल लेश्यावाले जीवोंमें मनुष्यगतिपञ्चककी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बढे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बढ़े चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुखर और अनादेय इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने-कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
५२१• सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें स्त्रीवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और स चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बढ़े चौदह राजू और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यगतिपश्वककी
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उक्करसफोसणपरूवणा
२४३ पंचचो० । सेसाणं जह० अट्ठचौ। अज० अणुक्कस्सभंगो। सम्मामिच्छे सव्वपगदीणं जह अज० अढचों । णवरि देवगदि०४ जह० खेत । सएिण. पंचिंदियभंगो। असणिण तिरिक्खोघं । णवरि आयु०-वेउव्वियछ० जह० अज० खेत्तभंगो । एवं जहएणयं समत्तं । एवं फोसणं समत्तं ।
- कालपरूवणा ५२२. कालो दुवि०-जह० उक्कस्सयं च । उकस्सए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० णिरयायु० उकाटिदिबंधया केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण श्रावलियाए असंखेजदिमागो । अणु० जह० अंतो०, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेजदि.। तिरिक्खायु० उक्क० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसमया । अणु० सव्वद्धा । मणुस-देवायु० उक० जह० एग०, उक्क० संखेजसम० | अणु० जह० अंतो०, उक० पलिदोवमस्स असंखेजदिमा० । आहार-आहार०अंगो०-तित्थय० उक्क० जहण्णु० अंतो०,अणु० सव्वद्धा। सेसाणं उक्क० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखें। जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगतिचतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच वटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाठ बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चोदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि देवगति चतुष्ककी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। संज्ञी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। असंज्ञी जीवोंमें समान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि आयु और वैक्रियिक छह इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इस प्रकार जघन्य स्पशन समाप्त हुआ। इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ।
कालप्ररूपणा ५२०. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तियश्चायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। मनुष्यायु और देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवीका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तियञ्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, नपुंसकवेदी,
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अणु० सव्वद्धा । एवं पोषभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालि०-णवुस०-कोधादि०४-मदि-सुद०-असंज०-अवक्खुदं०-तिण्णिले०-भवसिद्धि-अब्भवसिद्धि-मिच्छादि०-असरिण-पाहारग ति।
५२३. णिरयेसु तिरिक्खायु० उक्क० जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखें । अणु० जह० अंतो०, उक० पलिदो० असंखेज० । मणुसायु० उक० जह० एग०, उक्क० संखेजसम० । अणु० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं उक्क० जह० एग,. उक्क० पलिदो० असंखेज० । अणु० सव्वद्धा । एवं सव्वणिरयाणं सव्वदेवाणं च । णवरि सत्तमाए मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे । अणु० सबद्धा।
५२४. पंचिंदियतिरिक्खतिण्णि तिरिक्खायु० उक्क० श्रोघं । अणु० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखेज । सेसोणं ओघ । पंचिंदियतिरिक्खअपजसगेसु तिरिक्खायु० पिरयभंगो । सेसं ओघं । एवं सबअपजताणं तसाणं सव्वविगलिंदियाणं बादरपुढवि०आउ०-तेउ०-वाउ.-बादरवणफदिपत्त यपजत्ताणं च । णवरि मणुसअपजत्नगे आयुगवजाणं सवपगदीणं उक्क० अणु जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखेन । क्रोधादिचार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
५२३ नारकी जीवोंमें तिर्यश्चायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है । इसी प्रकार सब नारकी और सब देवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है की सातवीं पृथ्वीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है।
५२४. पञ्चेन्द्रितिर्यश्चत्रिकमें तियश्चायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें तिर्यञ्चायुका भङ्ग नारकियोंके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त, त्रस, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथ्वीकायिक, पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकों में आयुओंको छोड़कर सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
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एक्कस्सकालपरूवणा
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५२५. मणुसेसु खिरय देवायु० उक्क० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसम० । अणु० जह० उक्क अंतो० । तिरिक्ख मणुसायु उक्क० श्रघं । अणु० जह० तो ०, उक्क० पलिदो० असंखेज्ज० । सेसाणं उक्क० जह० एग०, [उक्क० ] अंतो० । अणु० सव्वद्धा । आहारदुर्गं तित्थय० श्रघं । मणुसपज्जत - मणुसिणीसु चदुप्रयु० उक्क० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसम० । अणु० जहरगु० अंतो० । सेसागं उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० सव्वद्धा । आहारदुगं तित्थय० ओघं ।
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५२६. सव्वट्टे सव्वपगदी उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० सव्वद्धा । आयु० रियभंगो ।
५२७. सव्वएईदिए तिरिक्ख - मणुसायु० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । raft तिरिक्खायु० अणु सव्वद्धा । सेसाणं उक्क० अणु सव्वद्धा । एस भंगो. सव्वसुहुमाणं बादरपुढवि ०. ० आउ० तेउ० - वाउ ० अपज्जत्त ० --- वणप्फदि--रिणयोद० बादरपज्जत्त-अपज्जत्ता० बादरवणप्फदिपत्तेय० अपज्जत्तगाणं च ।
५२८. पुढवि० उ० तेउ ० - वाउ०० - बादर पुढवि० आउ०- तेज० -- वाउ०- बादर
५२५. मनुष्यों में नरकायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल श्रोघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यालवें भाग प्रमाण है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका सब काल है । श्राहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग श्रोघके समान है। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनी जीवों में चार श्रायुओंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । श्रनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है । आहारकद्विक और तीर्थङ्करका भङ्ग श्रधके समान है ।
५२६. सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है । आयुका भङ्ग नारकियोंके समान है ।
५२७. सब एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्या कोंके समान है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है । यह भङ्ग सब सूक्ष्म, बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद और इन दोनोंके बादर और पर्याप्त अपर्याप्त तथा वादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए ।
५२८. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वादर पृथ्वीकायिक,
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वणप्फदिपत्तेय. दोआयु० एइंदियभंगो । पज्जत्तगे. दोआयु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । सेसाणं पगदीणं उक्क० जह० एग०, उक० पलिदो० असंखें । अणुः सव्वद्धा। __ ५२६. पंचिंदिय--तस०२ तिरिणायु० उक्क जह ० एग०, उक्क० संखेंजसम० । अणु० जह• अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखें। सेसाणं अोघं । एवं पंचमण-पंचवचि०-वेउव्वियका-इत्थि--पुरिस०--विभंग०-चक्खुदं०--तेउले०-पम्मलेमुक्कले०--सणिण त्ति । णवरि पंचमण-पंचवचि०--उव्वि० आयु. अणु० जह० एग०, उक. पलिदो० असंखेंजः । तेउ-पम्माए तिरिक्व-मणुसायु० देवोघं । सुक्काए दो वि आयु मणुसिभंगो।
५३०. ओरालियमिस्से दोआयु० एइंदियभंगो । देवगदि०४-तित्थय० सत्थाणे उक्क० जह० एग०, उक्क. अंतो०। अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अथवा सरीरपज्जत्तीए दिज्जदि त्ति तदो उक्क० जहएणु० अंतो० । अणु० जह० उक्क अंतो० । सेसाणं उक्क० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखेंज । अणु० सव्वद्धा अधाबादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकयिक और बादर वनस्पतिकायिक, प्रत्येक शरीर जीवों में दो आयुओंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। इनके पर्याप्तकोंमें दो आयुओका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। शेष प्रकृतियोंको उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है।
५२६. पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें तीन आयुओंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी और वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें आयुकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। पीत और पद्मलेश्यावाले जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। शुक्ललेश्यावाले जीवों में दोनों ही आयुओंका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है।
५३०. औदारिकमिश्रकाययोगी जोवोंमें दो आयुओंका भङ्ग एकेन्द्रियों के समान है। देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर इनकी स्वस्थानमें उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अथवा शरीर पर्याप्तिमें अगर यह काल प्राप्त किया जाता है तो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जोवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट
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उक्कस्सकालपरूवणा
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पवत्तस्स | अथवा सरीरपज्जत्तीए दिज्जदि त्ति तदो धुविगाणं उक० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखेज्ज० । एवं वेउच्चियमि० - आहारमि० । एवरि वेउव्वियमि० अणु० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखेज्ज० । आहारमिस्से चत्तारि श्रंतो ० ।
५३१. आहारकायजोगि० सव्वपगदी उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० तो ० । वरि देवायु० उक्क० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसम० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० | एवं आहारमिस्से देवायु० ।
५३२. कम्मगे देवगदि ०४ - तित्थय० उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसम० ० । सेसाणं उक्क० जह० एग०, उक्क० श्रावलियाए असंखेज्ज० | अणु० सव्वद्धा ।
५३३. अवगदवेदे सव्वाणं उक्क० अणु० जह० एग०, उक० अंतो० । एवं सुहुमसंप० ।
५३४. आभि० - सुद० - ओधि० सादावे ० - हस्स-रदि- आहारदुग-थिर-सुभ-जसगि०तित्थय • श्रघं । मणुसायु० देवोघं । देवायु० श्रोघं । सेसाणं सव्वाणं उक्क० जह०
स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल अधः प्रवृत्तके सर्वदा है । अथवा शरीरपर्याप्ति में यह काल दिया जाता है तो ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा आहारकमिश्र काययोगी जीवोंमें चारों ही काल अन्तर्मुहूर्त हैं ।
५३१. अहारककाययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इनकी विशेषता है कि देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में देवायुकी मुख्यतासे काल जानना चाहिए ।
५३२. कार्मणकाययोगी जीवोंमें देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृति की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है ।
५३३. श्रपगतवेदी जीवों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके जानना चाहिए ।
५३४. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में साता वेदनीय, हास्य, रति श्राहारकद्विक, स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति और तीर्थङ्कर इंजका भङ्ग श्रधके समान है । मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । देवायुका भङ्ग श्रधके समान है। शेष सब
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
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अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे । अणु० सव्वद्धा । एवं संजदासंजदे श्रधिदं० सम्मादि० - वेदग० |
५३५. मणपज्जव० सादावे ० - हस्स-रदि-- आहारदुग - थिर-सुभ-जसगि० उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० सव्वद्धा । सेसाणं उक्क० जह० उक्क० अंतो० । अणु सव्वद्धा । एवं संजद - सामाइ० - छेदो०- परिहार० ।
५३६ . उवसम० पंचरणा० छदंसरणा० - बारसक० - पुरिस०-भय-दुगु - मणुसगदिपंचिदि० ओरालि ० तेजा ० - क००- समचदु० - ओरालि० अंगो० -- वज्जरि ० - वरण ०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थवि ० --तस०४- सुभग- सुस्सर आदेज्ज० - गिमि० णीचा० - पंचंत० उक्क० अणु० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखेज्ज० । सादावे ० - हस्स-रदि-थिरसुभ- जसगि० उक्क० श्रणु० जह० एग०, उक्क ० पलिदो ० असंर्खेज्जदिभा० । असादा० -अरदि-सोग - अथिर- असुभ अजस० देवगदि०४ उक्क० जह० तो ०, उक्क० पलिदो ० असंखें • ० । श्ररंतु० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखे | आहारदुगं उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क अंतो० । तित्थय० उक० जह० एग०, उक्क० तो ० ।
प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका सब काल है । इसी प्रकार संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । ५३५. मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें सातावेदनीय, हास्य, रति, श्राहारकद्विक, स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इनकी उत्कृष्ठ स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है तथा अनुकृस्थिति बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार संयत, सामायिक संयत छेदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिए ।
५३६. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कर्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, श्रदारिकाङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, गुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, गोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है । असातावेदनीय, रति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति और देवगतिचार, इनकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाण है। आहारकद्विककी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तीर्थङ्कर प्रकृतिक उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्त
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जहरण कालपरूवणा
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अणु० जह० उक्क० तो ० । एवं सम्मामि० । वरि देवगदि ०४ धुविगाण भंगो । सासणे दोणिण आयु० उक्क० जह० एग०, उक्क संर्खेज्ज० । अणु० जह० एग०, उक्क० पलिदो ० संर्खेज्ज० । अणाहार० कम्मड्गभंगो ।
एवं उक्कस्सकालं समत्तं
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५३७. जहणए पगदं । दुवि० ओघे० दे० । श्रघे० खवगपगदीणं आहारदुर्गं तित्थय० जह० द्विदिबंध० केवचिरं० ? जह० उक्क० अंतो० । अज० सव्वद्धा । तिरिक्खग ०-तिरिक्खाणु० उज्जो० - णीचा० जह० जह० एग०, उक्क० पलिदो ० असं खेंज्ज० ० । अज० सव्वद्धा । तिरिणायु० जह० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंर्खेज्ज० । अज० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखेज्ज० । वेउब्वियछ ० उक्करसभंगो । सेसाणं जह० अज० सव्वद्धा । एवं ओघभंगो कायजोगि--ओरालियका० स० कोधादि ० ४ अचक्खुर्द ० -भवसि० - आहारगे त्ति । वरि खवगपगदीगं कायजोगि - ओरालियका० जह० जह० एग० । णवरि जोग-कसाए युगस्स
ज० जह० एस० ।
मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य इसी प्रकार सम्यरमिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। चतुष्कका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है ।
युकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है ।
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि देवगति सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो
इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ ।
५३७. जघन्यका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रोघसे क्षपक प्रकृतियाँ, श्राहारकद्विक और तीर्थङ्कर इनकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका सब काल है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है । श्रजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । तीन आयुकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है। वैक्रियिक छहका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जोवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार ओघके समान काययोगो, औदारिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि क्षपक प्रकृतियोंके काययोगी और श्रदारिक काययोगी जीवों में जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है । इतनी विशेषता है कि योग और कषायवाले जीवोंमें आयुकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है ।
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महाबंधे ट्ठिदिवंधाहियारे ५३८. णिरएसु दोश्रायु० उकस्सभंगो। सेसाणं जह• [ जह• ] एग, उक्क. आवलि. असंखेंज । अज० सव्वद्धा । तित्थय० उकस्सभंगो। एवं पढमपुढवीए । विदियादि याव सत्तमा ति उक्कस्सभंगो। एवरि थीणगिद्धि३-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४ जह० जह• अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखें । सत्तमाए तिरिक्खगदितिरिक्वाणु०-णीचा० थीणगिद्धिभंगो ।
५३६. तिरिक्वेसु णिरय--मणुस--देवायु०-चेउविछ०-तिरिक्रवगदि०४ ओघं । सेसाणं जह० अज० सव्वद्धा । एवं तिरिक्खोघं मदि०-सुद०--असंज०-तिएिणलेअब्भवसि०-मिच्छादि०-असगिण त्ति । सव्वपंचिंदियतिरिक्वाणं उक्कस्सभंगो। णवरि चदुअआयु णिरयायुभंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्त० दोआयु० तिरिक्वायुभंगो । एवं सव्वअपज्जत्ताणं तसाणं सव्वविगलिंदियाणं बादरपुढ विकाइय-ग्राउतेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयपज्जत्ताणं च ।
५४०. मणुसेसु खवगपगदीणं देवगदि०४ जह० जह० उक० अंतो० । अज. ओघं । दोआयु. पंचिंदियतिरिक्खभंगो। दोआयु० जह० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसम। अज० जहणणु अंतो । णिरयगदि-णिरयाणु० जह० जह• एग०,
५३८. नारकियों में दो आयुओंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पहली पृथ्वीमें जानना चाहिए। दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं तक भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सातवीं पृथ्वीमें तिर्यञ्चग
को पृथ्वीमें तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धि तीनके समान है।
५३६. तिर्यञ्चोंमें नरकायु, मनुष्यायु, देवायु, वैक्रियिक छह और तिर्यञ्चगति चतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके समान मत्यज्ञानी, श्रुतीज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंका मङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि चार आयुनोंका भङ्ग नरकायुके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें दो अायुओका भङ्ग तिर्यञ्चायुके समान है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त प्रस, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त, वादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायकायिक पर्याप्त और बादरवनस्पति कायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए।
५४०. मनुष्योंमें क्षपक प्रकृतियाँ और देवगतिचतुष्ककी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल ओघके समान है। दो आयुओका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। दो आयुगोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मरकगति और नरकगत्यानुपूर्वोकी जघन्य स्थितिके वन्धक जीवोंका जघन्य काल एक
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जहणकालपरूवणा
उक्क अंतो० । अज० सव्वद्धा । सेसाणं जह० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखे । ज० सव्वद्धा ।
५४१. मणुसपज्जत्त -- मणुसिणी सो चैत्र भंगो । वरि यहि अवलिया ० असं तम्हि संखेज्जसम० । मणुस पज्जत्त० सव्वपगदीणं जह० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखे० । अज० जह० खुद्दाभव० विसमयणं, उक० पलिदो ० असं० । वरि सव्वह परियत्तियां आयुगाणं च अज० पगदिकालो कादव्वो । hari futयभंग | वरि एइंदि० - आदाव थावर० सत्थाणभंगो |
५४२. एईदिए मणुसायु० -- तिरिक्खगदि --- तिरिक्खाणु० --- उज्जो ० -- णीचा० घं । सेसाणं जह० अ० सव्वद्धा । पुढवि० - आउ०- तेउ० वाउ० - बादरपुढ वि०आउ० तेउ०- वाउ०- बादर-वणफदिपत्तेय० दोश्र० श्रघं । सेसागं जह० जह० एग०, उक्क० पलिदो ० असंखेज्ज० । अज० सव्वद्धा । वादरपुढ वि० - वाउ ० तेउ० - वाउ०अपज्जत्ता • मणुसागु० ओघं । सेसाणं जह० अ० सव्वद्धा । एवं वरणफदिणियोद-बादरवणफदि-पियोद - पज्जत - अपज्जत्त० बादरवणफदिपत्तेय ० अपज्जत्ताणं
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समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है | जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है ।
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५४२. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें वही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि जहाँ पर लिके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण काल कहा है, वहाँ पर संख्यात समय काल कहना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लक भव ग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सर्वत्र परिवर्तमान प्रकृतियोंकी और श्रायुओंकी अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल प्रकृतिबन्धके कालके समान कहना चाहिए । देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर इनका भङ्ग स्वस्थानके समान है ।
५४२. एकेन्द्रियों में मनुष्यायु, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीच गोत्रका भङ्ग के समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक, वादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवों में दो आयुका भङ्ग श्रोघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक
पर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और वादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवों में मनुष्यायुका भङ्ग के समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
सव्वमहुमाणं च ।
५४३. पंचिंदिय-तस० २ खवगपगदीणं ओघं । सेसाणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो | एवं इत्थि० - पुरिस० । वरि इत्थवे तित्थय० जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० ।
५४४. पंचप्रण० - तिरिणवचि० पंचणा० एवदंसरण -सादासाद०-२ -- मोह०२४-देवगदि०४- पंचिंदि० -तेजा० क० - समचदु० - वरण०४- अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर - सुभासुभ-सुभग-मुस्सर-यादे० ० - जस० - अजस० - णिमि० - तित्थय० - उच्चागो ० पंचंत० जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० सव्वद्धा । इत्थवे ० -- एस०तिरिणगदि चदुजादि-ओरालि० पंचसंठा०--ओरालि ० अंगो० छस्संघ० - तिरिणआणु०आदाउज्जो०० - अप्पसत्थ० थावरादि०४- दूर्भाग- दुस्सर - अणादें - णीचा० जह० जह० एग०, उक्क० पलिदो असंखे० । ज० सव्वद्धा । चदुत्रयु० पंचिदियतिरिक्खभंगो । वरि ज ० जह० एग० । दोवचि० खवगपगदीगं जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० [० | अज० सव्वद्धा । चदुत्रयु० मणजोगिभंगो । सेसाणं तसभंगो ।
काल सर्वदा है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक, निगोद, वादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद और इनके पर्याप्त - अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त और सब सूक्ष्म जीवोंके जानना चाहिए ।
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५४३. पञ्चेन्द्रियद्विक और सद्विक जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोघके समान है। शेष प्रकृतियों का भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । इसी प्रकार स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । ५४४. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चौबीस मोहनीय, देवगतिचार, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरम्न संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति,
यशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । स्त्रोवेद, नपुसंकवेद, तीन गति, चारजाति, श्रदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, स्थावर श्रादि चार, दुर्भग, दुःस्वर, श्रनादेय और नीचगोत्र इनकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असं ख्यातवें भाग प्रमाण है । जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । चार श्रायुओं का भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोके समान है । इतनी विशेषता है कि जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है । दो वचनयोगवाले जीवों में क्षपकप्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थिति बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । चार आयुओं का भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियों का भङ्ग त्रस जीवोंके समान है ।
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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
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५४५. ओरालियमि० तिरिक्खग ०-तिरिक्खाणु० उज्जो ० णीचा ० - देवर्गादि ०४तित्थयरं० उक्कस्सभंगो । मणुसायु० श्रवं । सेसागं जह० ज० सव्वद्धा । वेजव्वि०asव्वयमि०१० - आहार० - आहारमि० उक्कस्सभंगो । कम्मइगे तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु०उज्जो०-णीचा० जह० जह० एग०, उक्क० आवलि० असं० । अज० सव्वद्धा । देवगदि ० ०४ - तित्थय० उक्कस्सभंगो । सेसारणं जह० अ० सव्वद्धा । ५४६. अवगदे सव्वाणं जह० जह० उक० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क ० अंतो० ० । एवं सुहुमसंप० ।
५४७. विभंगे पंचणा०-रणवदंसणा०-सादावे०-मिच्छ०- सोलसक० - पंचपोक०देवरादि--पंचिंदि० - वेडव्वि० - तेजा० क० समचदु० - वेड व्वि ० अंगो० - वरण ०४ - देवाणु ०अगु०४ - पसत्थ०-तस०४ - थिरादिछ० रिणमि० उच्चा० पंचंत० जह० जह० उक्क० अंतो॰ | अज० सव्वद्धा । श्रसादा० इत्थि० एस० -अरदि-सोग--गिरयगदि-चदुजादि - पंचसंठा० - पंचसंघ० - णिरयाणु० - अप्पसत्थ० -- आदाव - थावरादि० ४- दूर्भाग- दुस्सर० जह० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखें । अज० सव्वद्धा । चदुआयु०
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५४५. औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों में तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, उद्योत, नीच गोत्र, देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर इनका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । मनुष्यायुका भङ्ग
के समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, और आहाकमिश्रकाय योगी जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । कार्मणकाययोगी जीवों में तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीच गोत्रकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । ५४६. अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियों की जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके जानना चाहिए । ५४७. विभंगज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, गुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र, और पाँच अन्तराय इनकी जन्धय स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
जघन्य स्थिति बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्र शस्त विहायोगति, तप, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। चार श्रायुका भङ्ग
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे पंचिंदियभंगो। तिरिक्ख-मणुसग०-ओरालि-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-दोबाणु०उज्जो०-णीचा. जह• जह• अंतो० । अज० एग०, उक्क० पलिदो० असंखेंज। अज० सव्वद्धा।
५४८. आभि०-सुद-अोधि० असादा०--अरदि--सोग-अथिर-असुभ-अजस. जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज. सव्वद्धा । सेसाणं जह० जह० उक अंतो० । अजः सव्वद्धा । गवरि मणुसगदिपंचग० जह० जह० एग०, उक० पलिदो० असंखेंज । एवं अोधिदं०-सम्मादि-खइग-वेदग० । गवरि दोआयु देवभंगो । खइगे दोआयु० मणुसि०भंगो ।
५४६. मणपज्ज -संजद-सामाइय--छेदो० खवगपदीणं अोघं । असादावे०अरदि-सोग-अथिर--असुभ-अजस० जह० जह० एग०, उक० अंतो० । सेसाणं जह० जहएणु० अंतो। सव्वपगदीणं अज० सव्वद्धा । आयु० मणुसि भंगो। एवं परिहार० ।
५५०. संजदासंजदे असादा-अरदि-सोग-अथिर-अमुभ-अजस० जह• जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखें। अज० सव्वद्धा ! सेसाणं जह० जह० उक्क० पञ्चेन्द्रियों के समान है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
५४८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर अशुभ और अयश-कीर्ति इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति पञ्चकको जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि दो आयुओं का भङ्ग देवोंके समान है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में दो आयुओंका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है।
५४९. मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्ति इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। प्रायुका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिए।
५५०. संयतासंयत जीवों में असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और
काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट
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जहण्णकालपरूषणा
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अंतो। अज० सव्वद्धा । देवायु० अोघं । चक्खुदं० तसभंगो।
५५१. तेऊए इत्थि०-णवुस-दोगदि-एइंदि०--ओरालि०-पंचसंठा---छस्संघ०दोआणु० --आदाउज्जो०-अप्पसत्व०-थावर-दृभग-दुस्सर-अणादें-णीचा० जह• जह० एग०, उक्क० पलिदो असंखेंज। अज० सव्वधा । असादा०-अरदि-सोग-अथिरअसुभ-अजस० जह• जह० एगसमयं, उक्क० अंतो० । सेसाणं जह० जह० उक्क० अंतो० । अज० सव्वधा । एवं पम्माए। तेऊए एसिं अप्पमनो करेंति तेसिं दुविधो कालो । यदि अधापवत्तसंजदो जहएणहिदिवंधकालो जह• जह• एग०, उक्क अंतो। अथवा दंसणपोहखवगस्स कीरदि तदो जहएणु० अंतो० । एवं परिहारे । पम्माए देवगदिअादि अधापवत्तस्स दिजदि । एवं मुक्काए वि।।
५५२. उत्सम पंचणा-छदसणा-चदुसंज-पुरिस --भय--दुगु-पंचिंदितेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्यवि०-तस०४-सुभग-मुस्सर-आदे-णिमिः उच्चा०-पंचंत• जह० जह एग०, उक० अंतो० । अज० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो. असंखज्ज । सादासाद-हस्स-रदि--अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस०देवगदि०४ जह• जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह• एग०, उक्क० पलिदो. काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। देवायका भङ्ग ओघके समान है। चनुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग त्रस जीवोंके समान है।
५५१. पीतलेश्यावाले जीवों में स्त्रोवेद, नपुंसकवेद, दो गति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, छह संहनन, दो ग्रानुपूर्वी, पातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। अजघन्य स्थितिके वन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोके जानना चाहिए। पीतलेश्याम जिनको
मत्त करते हैं उनका दो प्रकारका काल है। यदि अधःप्रवृत्तसंयत करता है तो उसके जघन्य स्थितिके बन्धकका जघन्य काल एक सभय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अथवा दर्शनमोहनीयका क्षपक करता है तो जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके जानना चाहिए। पद्मलेश्यावाले जीवोंमें देवगति आदि अधःप्रवृत्तके देनी चाहिए । इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके भी जानना चाहिए ।
५५२, उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग सुस्वर, श्रादेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिके वन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति और देवगति चतुष्ककी जघन्य स्थितिके वन्धक जीवांका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे असंखेंजः । अहक० जह० जह० उक्क० अंतो० । अज० जह• अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखेंज । मणुसगदिपंचग० जह• अज० जह० एग• अंतो० । उक्क० पलिदो० असंखेंज्ज०। आहारदुगं जह• अज० जह• एग०, उक्क० अंतो० । तित्थय. जह० जह• एग०, उक० अंतो० । अज. जह० एगसमयं, उक्क० अंतो० ।
५५३. सासणे सम्मामि० उक्कस्सभंगो। णवरि सासणे तिरिक्ख-देवायु० जह० जह० एग०, उक्क० श्रावलि. असंखेंज्ज० । अज० जह• अंतो, उक्क० पलिदो० असंखे० । मणुसायु० देवभंगो।
५५४. सगणीसु खवगपगदीणं देवगदि०४--आहारदुग-तित्थय मणुसभंगो । चदुअआयु० पंचिंदियभंगो। सेसाणं जह० जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखेंज। अज० सव्वद्धा । एवं जहएणयं समत्तं ।
एवं कालं समत्तं
अंतरपरूवणा ५५५. अंतरं दुविधं । जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि०-अोघे० काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और
और उत्कृष्ट काल पल्यके. संख्यातचे भाग प्रमाण है। आठ कषायोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। मनुष्यगति पञ्चककी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। आहारक द्विककी
ग्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तीर्थङ्कर प्रकृतिको जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
५५३. सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सासादनमें तिर्यञ्चाय और देवायुकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान है।
५५४. संधी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियाँ, देवगति चतुष्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्योंके समान है। चार आयुओका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार जघन्य काल समाप्त हुआ।
इस प्रकार काल समाप्त हुआ।
अन्तरप्ररूपणा ५५५. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा
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उक्कस्सअंतरकालपरूवणा आदे। ओघेण णिरय-मणुस-देवायूर्ण उकस्सहिदिबंधगंतरं केवचिरं० ? जह० एग०, उक्क० अंसुलस्स असंखें असं० ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। अणु० जह० एग०, उक० चदुवीसं मुहुत्तं । सेसाणं उक्क० जह० एग०, उक्क. अंगुलस्स असं. असंखे० ओसप्पिणि । अणु० णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि--ओरालि०--ओरालियमि०--कम्मइ०--णवुस --कोधादि०४-मदि०-सुद०असंज०[चक्खुदं ] अचक्खुदं०--तिएिणले---भवसि०-अब्भवसि०--मिच्छादि०-- असएिण--आहार० अणाहारग त्ति । णवरि ओरालियमि.--कम्मइ०-अणाहारगे देवगदि०४-तित्थय० उक्क ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क मासपुधत्तं । तित्थय० वासपुधत्तं ।
५५६. सव्वएइंदियाणं दोआयु० अोघं । सेसाणं उक्क अणु० एत्थि अंतरं । एवं वणप्फदि-णियोदाणं ।
५५७. पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० बादरपुढवि०--आउ०-तेउ०-वाउ० तेसिं चेव पज्जत्ता० ओघं । वरि पज्जत्तेसु तिरिक्खायु० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे, नरकायु, मनुष्यायु और देवायु इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है . जो कि असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणो और अवसर्पिणी कालके बराबर है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल चौबीस मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल अङ्गलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो कि असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके बराबर है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंझी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी,
योगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्व है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है।
५५६. सब एकेन्द्रिय जीवों में दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए।
५५७. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकयिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक तथा इन्हींके पर्याप्त जीवोंका भङ्ग श्रोधके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें तिर्यञ्चायुकी अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ' तथा तैजस
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महाबँधे ट्ठिदिबंधाहियारे
तेजा०--क० चदुवीसं मुहुत्तं । बादर [ पुढवि०- ] आउ०--तेज १० बाउ ० अपज्जत्ता ० एइंदियभंगो | सव्वसुहुमाणं एइंदियभंगो । बादरवणफदिपतेय० बादरपुढविभंगो । ५५८. अवगदवेदे सव्वपगदीरणं उक्क० जह० एग०, उक्क० वासपुधत्तं । अणु० जह० एग०, उक्क० लम्मासं । एवं सुहुमसं० । वेउब्वियमि०[० - आहार० - आहारमि० तित्थय० उक्त० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० वासपुधत्तं० । सेसागं उक्क०
घं । ऋणु० जह० एग०, उक्क० अष्पष्पणो पगदिअंतरं ।
५५६. मणुस पज्ज० - सासण० सम्मामि० उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० पलिदो ० संर्खे । सेसाणं खिरयादि याव सरिणत्ति उक्क० जह० एग०, उक्क० अंगुल॰ असंर्खे ० । ० पगदिअंतरं । युगारि एसिं प्रत्थि तेसिं उक्क जह० एग०, उक्क० अंगुल असंखे० । अणु० अप्पप्पणी पगदिअंतरं कादव्वं । एवं उक्करसंतरं समत्तं
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शरीर और कार्मणशरीरका चौबीस मुहूर्त है । बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है । सब सूक्ष्मोंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका भङ्ग बादर पृथ्वीकायिक जीवोंके समान है ।
५५८. अपगतवेदी जीवों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके जानना चाहिए । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, ग्राहारककाययोगी और आहाकमिश्रकाययोगी जीवों में तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल
के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट, अन्तर वर्षपृथक्त्व है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर के समान है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अपने - अपने प्रकृति बन्धके समान है ।
५५९. मनुष्य पर्याप्त, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल श्रोघके समान है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । नरकगति से लेकर संज्ञी तक शेष सब मार्गणात्रों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर श्रृङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो असंख्याता संख्यात अवसर्पिणी और उत्स पिणियोंके बराबर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल प्रकृतिबन्धके अन्तर कालके समान है। आयु जिनके हैं उनके उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल अंगुलके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है। जो कि श्रसंख्याता संख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिगियोंके बराबर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंका अन्तर काल अपने- अपने प्रकृतिवन्धके अन्तर कालके समान करना चाहिए |
इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर काल समाप्त हुआ ।
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जहण्णअंतरकालपरूवणा
२५६ ५६०. जहएणए पगदं । दुवि०-अोवे० प्रादे० । ओघे० खवगपगदीणं जह० जह• एग०, उक्क छम्मासं० । अज० पत्थि अंतरं । तिण्णिायु-चेउव्वियछ०तिरिक्खग-अाहारदुग-तिरिक्खाणु०-उज्जो०-तित्थय०-णीचा० उक्स्सभंगो । सेसाणं जह० अज० णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो कायजोगि--ओरालियका०--णवुस०-- कोधादि०४-अचक्खु०-भवसि-पाहारगे त्ति । __५६१. तिरिक्खेसु तिएिणआयु०-वेउब्बियछ--तिरिक्वगदि०४ जह• अज. उक्कस्सभंगो। सेसाणं जह• अज० पत्थि अंतरं । एवं तिरिक्वोघं ओरालियमि० [ कम्मइ०-] मदि०--सुद०--असंज०--तिएिणले०--अब्भवसि-मिच्छादि०-असएिणअणाहारे त्ति । एवरि ओरालियमि० कम्मइ०-अणाहारगेसु देवगदि०४--तित्थय० जह० अज० उक्कस्सभंगो।।
५६२. मणुस०३ खवगपगदीणं अोघो । सेसाणं उक्कस्सभंगो। णवरि मणुसि० खवगपगदीणं वासपुधत्तं० ।
५६३. एइंदिय-बादरेइंदिय--पजत्ता अपज्जत्ता मणुसायु० तिरिक्खगदि०४ उकस्सभंगो । सेसाणं जह• अज० पत्थि अंतरं । सव्वसुहुमाणं मणुसायु० ओघं ।
५६०. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे क्षपक प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है । तीन आयु, वैक्रियिक छह, तिर्यञ्चगति, आहारकद्विक, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, तीर्थङ्कर और नीचगोत्र इनका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी,नपंसकवेदी, क्रोधादि चार
वेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
५६१. तिर्यञ्चों में तीन आयु, वैक्रियिक छह और तिर्यञ्चगति चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके समान औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगो, मत्यशानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगो, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल उत्कृष्टके समान है।
५६२. मनुष्यत्रिकमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में क्षपक प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर काल वर्षपृथक्त्व है।
५६३. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंमें मनुष्यायु और तिर्यश्रगतिचतष्कका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। सब सूक्ष्म जीवों में मनुष्यायुका भङ्ग ओघके
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२६०
महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सेसाणं जह• अज० णत्थि अंतरं । पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० तिरिक्खायु० जह० अज० पत्थि अंतरं । सेसाणं जह० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखें । अज० पत्थि अंतरं । मणुसायु० ओघं । बादरपुढवि०अपज्जत्ता मणुसायु० अोघं । सेसाणं जह० अज० पत्थि अंतरं । एवं बादराउ०-तेउ --बाउ०अपज्जत्ता । वणप्फदिणियोद---सव्ववादरवणप्फदि-णियोद-बादरवणप्फदिपत्तेय. तस्सेव अपज्जता० मणुसायु० ओघं । सेसाणं जह० अज० पत्थि अंतरं ।
५६४. पंचिंदि०-तस०--पंचमण--पंचवचि०--इत्थि०--पुरिस०--आभि०-सुद०प्रोधि०-मणपजव०-संजद-सामाइ०-छेदो०---परिहार०--संजदासजद---चक्खुदं०-- अोधिदं०-सुक्कले०-सम्मादि०-वइग०-सणिण त्ति एदेसिं मणुसभंगो। णवरि खवगपगदीणं सेढिविसेसो णादव्यो । अवगदवे० सव्वपगदीणं जह• अज० जह० एग०, उक्क० छम्मासं० । एवं सुहमसंप० । सेसाणं णिरयादि याव सम्मामिच्छादिहि त्ति सव्वपगदीणं अप्पप्पणो उक्स्सभंगो।
एवं अंतरं समत्तं समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें तिर्यञ्चायुकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके बराबर है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त जीवोंमें मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंको जघन्य और अजघन्य स्थितिके वन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार वादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वायुः कायिक अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, सब बादर वनस्पतिकायिक, सब बादर निगोद जीव, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और उनके अपर्याप्त जीवों में मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है।
५६४. पञ्चेन्द्रिय, त्रसकायिक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययशानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और संज्ञी इनका भङ्ग मनुष्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि क्षपक प्रकृतियोंकी श्रेणीविशेष जाननी चाहिए । अपगतवेदी जीवों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह म होना है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिए । शेष नरकगतिसे लेकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों तक शेष सब मार्गणाओंमें सब प्रकृ तियोंका भङ्ग अपने-अपने उत्कृष्टके समान जानना चाहिए।
इस प्रकार अन्तर काल समाप्त हुआ।
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जीवअप्पाबहुगपरूवणा
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भावपरूवणा ५६५. भावं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उकस्सए पगदं । दुवि०--ओघे० आदे० । ओघे० सञ्चपगदीणं उक्क० अणु० बंधगा ति को भावो ? ओदइगो भावो । एवं अणाहारग ति णेदव्वं ।
५६६. जहएणए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे। [ोघे०] सव्वपगदीणं जह० अज० को भावो ? ओदइगो भावो । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्वं ।
एवं भावं समत्तं
अप्पाबगपरूवणा ५६७. अप्पाबहुगं दुविधं-जीवअप्पाबहुगं चेव हिदिअप्पाबहुगं चेव । जीवअप्पाबहुगं तिविधं--जहएणयं उकस्सयं अजहएणअणुकस्सयं चेव । उकस्सए पगदं। दुवि०-अोघे० आदे० । ओघे० तिरिणायुगाणं वेउवियछ--तित्थय० सव्वत्थोवा उक्कस्सहिदिबंधगा जीवा । अणुक्कस्सहिदिबंधगा जीवा असंखेंजगुणा । आहारदुर्ग सव्वत्थोवा उक्क जीवा । अणु० जीवा संखेंजगुणा। सेसाणं सव्वत्थोवा उक्का जीवा । अणु जीवा अणंतगु० । एवं अोघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालियकाओरालियमि०-कम्मइ०--णवुस--कोधादि०४-मदि-सुद०--असंज०--अचक्खुदं०
भावप्ररूपणा ५६५. भाव दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका कौन भाव है? औदयिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए।
५६६. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका कौन भाव है ? औदयिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणतक जानना चाहिए ।
इस प्रकार भाव समाप्त हुआ।
अल्पबहत्वप्ररूपणा ५६७. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जीव अल्पवहुत्व और स्थिति अल्पबहुत्व । जीव अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे तीन श्रायु, वैक्रियिक छह और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे अल्प हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आहारकद्विककी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे अल्प हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कट स्थितिके बन्धक जीव सबसे अल्प हैं। इनसे अनत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिथकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि,
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२६२
महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
तिरिणले ०-भवसि० - अब्भवसि ०--मिच्छादि ० - असरिण० - आहार० - अणाहारगे त्ति । raft रालियम ० - कम्मइ० - अणाहार० देवगदि ० ४ - तित्थय० सव्व ० उक्क० जीवा ।
० जीवा संखेंज्जगु० । एवरि ओरालियका• तित्थय० अ० द्विदि० संखेज्जगु० । सेस रियादि याव सरिण त्ति एस असंखेज्जाणंतरासीणं तेसिं सव्वत्थोवा उक्क० जीवा । अणु० जीवा असंखेज्ज० । एसु संखेज्जरासिं तेसिं सव्वत्थोवा उक्क० जीवा । अणु० जीवा संर्खेज्जगु० । वरि एइंदि० वणफदि - रिणयोदेसु तिरिक्खायु० ओघं । एवं उकस्सं समत्तं
५६८. जहणए पगदं । दुवि० -- श्रघे० दे० । श्रघे० खवगपगदी तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० -- उज्जो ० णीचा० सव्वत्थोवा जह० । अज० गु० । सेसारणं जह० सव्वत्थोवा जीवा । अज० असंखेज्ज० । एवरि आहारदुगं तित्थयरं च उकस्सभंगो । एवं श्रोघभंगो कायजोगि - ओरालियका०--एस० - कोधादि०४अचक्खु०- भवसि ० - आहारगे त्ति ।
५६६. तिरिक्खे तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु०--उज्जो ० णीचा० सव्वत्थोवा जह० । अज० अांतगु० । सेसाणं सव्वपगदीगं सव्वत्थोवा जह० जीवा । अज०
श्रसंज्ञी, श्राहारक और श्रनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इतनी विशेषता है कि श्रदारिककाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नरकगति से लेकर संज्ञी तक शेष सब मार्गणाओंमें जो असंख्यात और अनन्त राशिवाली मार्गणायें हैं, उनमें उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तथा इनमें जो संख्यात राशिवाली मार्गणायें हैं, उनमें उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, वनस्पति और निगोद जीवों में तिर्यञ्चायुका भङ्ग श्रधके समान है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
५६८. जघन्यका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश | ओघसे क्षपक प्रकृतियाँ, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थिति के बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थिति बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इसी प्रकार शोधके समान काययोगी, श्रदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, अचतुदर्शनो, भव्य और आहारक जीवों के जानना चाहिए ।
५६९. तिर्यञ्चों में तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इनकी जघन्य स्थिति के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे
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जीवपाबहुगपरूवणा
०
जीवा असंखे । [ एवं ] ओरालियमि० - कम्मइ० मदि० सुद०--असंज० - तिरिणले अब्भवसि०-मिच्छादि ० - अस रिण - अणाहारगे त्ति । वरि ओरालियमि० कम्मइ०अणाहार० देवगदि०४ - - तित्थयरं उक्करसभंगो । सेसाणं णिरयादि याव सरि ति असंर्खेज्ज-संर्खेज्ज-- अांतरासीणं उकस्सभंगो । वरि एइंदिय-वरणप्फेदि --गियोदेसु तिरिक्खायु० श्रघं |
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I
५७० अजहरणमणुकस्सए पगदं । दुवि० ओघे० दे० । श्रघे० खवगपगदीगं सव्वत्थोवा जह० जीवा । उक्क० असंखेज्ज० । अजहराणमणुक० अांतगु० । आहारदुर्ग सव्वत्थोवा जह० हिदि० । उक्क० हिदि० संर्खेज्जगु० । अज०म० संखेज्ज० । तिरिणायु० -- वेडब्बियछ० सव्वत्थोवा उक० । जह० असंखेज्ज० । अज० अणु० असंखेज्ज० । तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० - उज्जो ० - णीचा० सव्वत्थोवा उक्क० । जह० असंखे० । अज० अणु अांतगु० । तित्थय० सव्वत्थोवा उक्क० । जह० संर्खेज्ज० । ज० अणु संखेज्ज० । सेसाणं पंचदंसणावररणादीरणं सव्वत्थोवा उक्क० । जह० अतगु० । अज० अणु संखेज्जगु० ।
0
अजघन्य स्थिति के बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार श्रदारिक मिश्रकाय योगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, श्रसंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि,
संज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि श्रदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगति चतुष्क और तीर्थङ्करका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । नरकगति से लेकर संज्ञी तक शेष जितनी मार्गणायें हैं, उनमें असंख्यात, संख्यात और अनन्त राशिवाली मार्गणाओंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, वनस्पति और निगोद जीवों में तिर्यञ्चायुका भङ्ग श्रोघके समान है ।
५७०. जघन्य उत्कृष्ट पबहुत्वका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे क्षपक प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य श्रनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । आहारकद्विककी जघन्य स्थिति के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तीन आयु और वैक्रियिक छहकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिके वन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थिति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। शेष पाँच दर्शनावरण आदि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं ।
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महावंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ५७१. आदेसेण णेरइएसु दोगणं आयु०सव्वत्थोवा उक्क । जह• असंखेज। अज०मणुका असंखज्जगु० । णवरि मणुसायु० संखेंजगुणं कादव्वं । सेसाणं सव्यपगदीणं सव्वत्थोवा जह• ! उक्क० असंखें । अजमणुक्कस्स० असंखेंज । एवं सव्वणिरयाणं । णवरि विदियादि याव छट्टि त्ति इत्थि-णदुंस०--तिरिक्खगदितिग-पंचसंठा०--पंचसंघ०-अप्पसत्य-दूभग-दुस्सर--अणादें--णीचागो० सव्वत्थोवा जह । उक्क० संखेंजगु० । अज०अणु० हिदि० असंखेंज । रणवरि सत्तमाए तिरिक्वगदि०४ णिरयोघं । मणुसग०-मणुसाणु०--उच्चा० तिरिक्खायुभंगो। एवं सव्वदेवाणं । गवरि आणद-पाणद० इत्थि०-णवूस०-पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०भग-दुस्सर-अणादे०--णीचा सव्वत्थोवा जह० । उक्क० संखेंजगु० । अज अणु. असंखेज्ज । संसाणं सव्वत्थोवा उक० । जह० संखेंज। अज अणु० असंखेंज । एवं उवरिमगेवजा त्ति । अणुदिस-अणुत्तर-सव्वढे मणुसायु० देवोघं । सेसाणं सव्वस्थोवा जह० । उक्क० संखेंज । अज अणु० असंखेज । वरि सबढे संखेंजगु० ।
५७१. श्रादेशसे नारकियोंमें दो आयुओंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुको संख्यातगुणा करना चाहिए। शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सव नारकियोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दूसरी पृथ्वीसे लेकर छठी पृथ्वी तकके नारकियोंमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगतित्रिक, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर,अनादेय
और नीचगोत्र इनको जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुण है। इनके अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जोव असंख्यातगण है। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथ्वीमें तिर्यञ्चगतिचतुष्कका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है । तथा मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी ओर उच्चगोत्रका भङ्ग तिर्यञ्चायुके समान है। इसी प्रकार सब देवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अानत और प्राणत कल्प वासी देवों में स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके न्धक जोव संख्यातगुरणे है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक
। इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं इसी प्रकार उपरिम |वेयक तकके देवोंके जानना चाहिए । अनुदिश, अनुत्तर और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में संख्यातगुणे करने चाहिए ।
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जीवप्पा बहुगपरूवणा
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५७२. तिरिक्खेसु चदुआयु-- वेउब्वियछ० - तिरिक्खग० - तिरिक्खाणु० --उज्जो०पीचा ओघं । सेसाणं सव्वत्थोवा उक्क । जह० अांतगु० । अज०० असंखेज्ज • ० । पंचिंदियतिरिक्ख ०३ सव्वपगदीणं सव्वत्थोवा उक्क० । जह० संर्खेज्ज० । अज० अणु असंखेज्ज० । पंचिदियतिरिक्ख पज्जत० सव्वपगदीर्णं सव्वत्थोवा उक्क० । जह० असंर्खेज्ज० । अज० अणु० असंखेज्ज० ।
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५७३. मणुसेसु खवगपगदीरणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क० संखेंज्ज० । अज० अणु० असंखेज्ज० । णिरय देवायु० - तित्थय ० थोवा उक्क० । जह० संखेज्ज० | ज० ० संखेज्ज० । वेउब्वियछ - सव्वत्थोवा जह० । उक्क संर्खेज्ज० । अज० अणु० संखेज्ज० ० । आहारदुगं घं । सेसाणं सव्वत्थोवा उक्क ० । जह० असंखेज्ज० । अज० अणु० असंखेज्ज० । मणुसपज्जत -- मणुसिणीसु सपिगदीणं खवगपगदी च घं । वरि संखेज्जगुणं कादव्वं । मणुस पज्जत्तेसु पिरयो ।
५७४. एईदिए दो यु० श्रघं । तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० - उज्जो०-णीचा०
५७२ तिर्यञ्चों में चार आयु, वैक्रियिक छह, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भङ्ग श्रोघके समान है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव श्रसं ख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च श्रपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थिति बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं ।
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५७३. मनुष्यों में क्षपक प्रकृतियों की जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इसे उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। नरकायु, देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । वैकियिक छहकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनके अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थिति के बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें असशी सम्बन्धी प्रकृतियों और क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है । इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए । मनुष्य पर्यातकों में सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है ।
५७४. एकेन्द्रियोंमें दो आयुओंका भङ्ग ओधके समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी उद्योत और नीचगोत्र इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सव्वत्थोवा जह० । उक्क० अणंतगु० । अजह. असंखेज्जगु० । सेसाणं सव्वत्थोवा जह । उक्क० संखेंजगु० । अज अणु० असंखेंज । एवं सव्यविगलिंदिय-सव्वपंचकायाणं । पंचिंदिय-तसअपज्ज० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो।
५७५. पंचिंदिय-तस०२ खवगपगदीणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क० असंखें। अज अणु० असंखें । पंचदंस०-असादा-मिच्छ०-बारसक---अहणोक-तिरिक्वगदि-मणुसगदि-एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि-तेजा०-क०-छस्संठा--ओरालिअंगो०छस्संघ०--वएण०४-दोआणु०--अगु०४--आदाउज्जो०---दोविहा०-तस०४-थावरादिपंचयुगल-अजस-णिमिणीचा० सव्वत्थोवा उक्क० । जह० असंखेंज० । अज०अणु० असंखेंज । णवरि सेसो णादव्यो । चदुआयु०-वेउव्वियछ० थोवा उक्क० । जह असंखेंज । अज० अणु० असंखेंज्ज० । तिएिणजादि-सुहुमणामाणं अपज्ज०साधार० देवगदिभंगो । आहारदुगं तित्थय. अोघं ।
५७६. पंचमण-तिण्णिवचि० चदुअआयु० सव्वत्थोवा उक्क० । जह० असंखें ।
उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक है। इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय और सब पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तोंके समान है।
५७५. पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जोव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जोव असंख्यातगुणे हैं । पाँच दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कषाय, आठ नोकषाय, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक आगो. पाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क,दो अानुपूर्वी, अगुरुलधुचतुष्क, पातप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थावर आदि पाँच युगल, अयशःकीति, निमोण और नीचगोत्र इनको उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य स्थितिके वन्धक जीव असं हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुरणे हैं। इतनी विशेषता है कि शेष अल्पबहुत्व जानना चाहिए । चार आयु और वैक्रियिक छहको उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जोव सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका भङ्ग देवगतिके समान है। आहारकद्विक और तीर्थकर इनका भङ्ग योधके समान है।
५७६. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में चार आयुओंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक है । इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुगणे हैं। इनसे
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जीव पावहुगपरूवणा
ज०० असंखेज्ज० । श्राहारदुगं तित्थय० ओघं । इत्थि० स० - णिरयगदिचदुजादि- पंचसंठा०-पंच संघ० - गिरयाणु० - अप्पसत्थ० - थावरादि ०४ दूभग-- दुस्सर० सव्वत्थोवा जह० | उक्क० संखेज्ज० । अज० अणु० असंखेज्ज० । सेसारणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क० असंखें । अ० अ० असंखें । दोवचि० तसपज्जत्तभंगो । कायजोगि ओरालियका० श्रवं ।
O
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५७७. ओरालियमि० देवगदि०४ - तित्थय० सव्वत्थोवा उक्क० । जह० संखेज्ज्ज० । ज०म० संखेज्ज० । सेसारणं श्रघं । एवं कम्म ग० - अणाहार० । donto सव्वगदीणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क० असंखेज्ज० । अ० अ० असंखेज्ज ० । वरि इत्थवेदादीणं विसेसारा । दोश्रायु० देवोघं । एवं वेउन्नियमि० । वरि आयु० एत्थ । आहार० आहारमिस्से सव्वपगदीणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क० संखेज्ज • ० । अ० अ० संखेज्ज० । देवायु० मणुसिभंगो ।
५७८. इत्थि० - पुरिस० खवगपगदीरणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क० असंखेज्ज० ।
अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । श्राहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग श्रोघके समान है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थावर श्रादि चार, दुर्भग और दुःस्वर इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । दो वचनयोगी जीवोंका भङ्ग त्रस पर्याप्त जीवोंके समान है । काययोगी और श्रदारिक काययोगी जीवोंका भङ्ग श्रधके समान है ।
५७७. श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग के समान है । इसी प्रकार कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद आदि प्रकृतियोंकी विशेषता जाननी चाहिए। दो ग्रायुओं का भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । इसी प्रकार वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके आयुका बन्ध नहीं होता । श्राहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के वन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । देवायुका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है ।
५७८ स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवाले जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं ।
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महाबंधे ट्ठदिबंधाहियारे
अज० अणु० असंखेज्ज० । एस० - कोधादि ०४ - अचक्खुर्द ० - भवसि० - आहार० मूलोघं । गदवे० सव्वपगदीरणं सव्वत्थोवा उक्क० । जह० संर्खेज्ज० । संखेंज्ज • 10 | एवं सुहुमसंप० ।
अज०
अणु०
५७६. मदि० - सुद० असं ० - तिरिणले ० - अन्भवसि ० --मिच्छादि० - असरिणति तिरिक्खोघं । विभंगे चदुत्रयु० मुखजोगिभंगो । सेसाणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क० असंखेज्ज० ० । अ० अ० असंखेज्ज० । एवरि सत्थाणपगदिविसेसो यादव्वो । आमि [० - सुद० प्रधि० देवायु० -- आहारदुग - तित्थय० । असादा० - अरदि- सोगअथिर असुभ अजस० सव्वत्थोवा जह० । उक्क० असंखें । अ० अ० असंखेज्ज • । मणुसायु देवोघं । सेसाणं सव्वपगदीणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क ० असंखेज्ज० । अज० अणु संखेज्ज० । मणपज्ज० असादावे ० -- अरदि-सोग-अथिर -- असुभ -- अजस० सव्वत्थोवा जह० । उक्क० संखेंज्ज० । अज० अ० संखेज्ज • ० । सेसाणं [ सव्वत्थोवा ] जह० । उक्क० संखेंज्ज० । जह० अणु संखेज्ज० । वरि आयु० मणुसि० भंगो। एवं संजद- सामाइ० - छेदो०- परिहार० ।
०
इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, श्रचक्षुदर्शनी, भव्य, और आहारक जीवोंका भङ्ग मूलोघके समान है । अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्यस्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंके जानना चाहिए ।
५७९. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, श्रसंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवों में अपनी-अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोके समान है । विभङ्ग ज्ञानी जीवोंमें चार आयुओं का भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे है। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि स्वस्थान प्रकृतिगत विशेषता जाननी चाहिए। श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में देवायु, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग श्रधके समान है । सातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनःपर्ययज्ञानी जीवों में असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इतनी विशेषता है कि आयुका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान हैं। इसी प्रकार संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके जानना चाहिए ।
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जीव अप्पाबहुगपरूवणा ५८० संजदासजदे असादावे०-अरदि-सोग-अथिर--असुभ-अजस० सव्वत्थोवा उक्क० । जह• संखेंज्ज । अज अणु० असंखेज्ज । सेसाणं सव्वत्थोवा जह। उक्क. असंखें । अज अणु० असंखेज्ज० । रणवरि तित्थय० संखेज्ज । प्रायः णारगभंगो। अोधिदंस०--सम्मादि०--वेदगस०-उवसमसम्मा० अोधिणाणिभंगो । चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो।
५८१. तेऊए मणुसगदिपंचगं सव्वत्थोवा जह० । उक्क० असंखेंज्ज । अज अणु० असंखेंज्ज० । सेसाणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क. असंखेंज । अज०अणु० असंखेज्ज । गवरि इत्थिवेदादिसत्थाणपगदिविसेसो रणादव्यो । एवं पम्माए । [मुक्काए वि एवं चेव ।] णवरि सुक्काए मणुसगदिपंचगं सव्वत्थोवा उक्क हिदिवं० । जह हिदि० संखेज्ज। अज अणु असंखेंज्ज ।
५८२. खइगसं० सव्यपगदीणं सव्वत्थोवा जह० । उक्क० असंखेंज । अज० अणु० असंखेज्ज०। णवरि दोआयु. सव्वहभंगो। णवरि मणुसगदिपंचगं सव्वत्थोवा जह । उक्क० संखेंज्ज । अज अणु० असंखेज्ज । सासणे सव्वपगदीणं सव्व
५८०. संयतासंयत जीवों में असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्ति इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगणे हैं। इनसे अजघन्य अनत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि तीर्थंकर प्रकृतिकी अपेक्षा संख्यातगुणे कहने चाहिए । आयु कर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है। अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। चक्षुदर्शनी जीवोंका भङ्ग त्रसपर्याप्त जीवोंके समान है। .
५८१. पीतलेश्यावाले जीवोंमें मनुष्यगति पञ्चककी जघन्य स्थितिके बन्धक जीय सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक है। इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे है । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद आदि स्वस्थान प्रकृतिगत विशेषताको जानना चाहिए । इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवों में भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें मनुष्यगति पञ्चककी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तीक हैं । इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
५८२.क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीप असंख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि दो आयुओंका भङ्ग सर्वार्थसिद्धिके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति पञ्चककी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे
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महावंधे टिदिबंधाहियारे त्थोवा उक्क । जह० असंखें । अज अणु० असंखें । सम्मामि० अोधिभंगो। सगणीसु चदुअआयु० पंचिंदियभंगो । सेसाणं मणुसोघं । एवं जीवअप्पाबहुगं समत्तं
छिदिअप्पाबहुगपरूवणा ५८३. हिदिअप्पाबहुगं तिविधं---जहएणयं उक्कस्सयं जहएणुक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं। दुवि०-अोघे आदे०। ओघेण सव्वपगदीणं सव्वत्थोवा उक्कस्सो द्विदिवंधो । यहिदिबंधो विसेसाधियो । एवं याव अणाहारग त्ति रणेदव्वं । ___५८४. जहण्णए पगदं । दुवि०--अोधे० आदे० । अोघे० सव्वपगदीणं सव्वत्थोवा जह० हिदि० । यहिदि० विसेसा । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्यं ।
५८५. जहएणुक्कस्सए पगदं । दुविधं--प्रोघे० प्रादे० । अोघे० खवगपगदीणं चदुअआयुगाणं सव्वत्थोवा जहएणयो हिदिवंधो। यहिदिवंधो विसेसा० । उक्कसहिदिबंधो असंखेंजगुणो। यहिदि० विसेसा । सेसाणं सव्वत्थोवा जह० । यहिदि० विसेसा । उक्क हिदि० संखेंज० । यहिदि० विसेसा०। एवं ओघभंगो मणुस०३पंचिंदि०--तस०२--पंचमण --पंचवचि०--कायजोगि--ओरालियका०--इत्थि०-णवूस०कोधादि०४-चक्खुदं०-अचखुदं०-भवसि०-सरिण-अणाहारए त्ति । अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। सासादनसम्यदृष्टि जीवों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुण हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । संज्ञी जीवों में चार आयुओंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य मनुष्योंके समान है । इस प्रकार जीव अल्पवहुत्व समाप्त हुआ।
स्थिति अल्पबहत्वप्ररूपणा । ५८३. स्थिति अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है-जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थिति बन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए ।
५८४. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-योघ और श्रादेश । ओघसे सव प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए।
५८५. जघन्योत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । योघसे क्षपक प्रकृतियों और चार आयुओका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थिति वन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार अोधके समान मनुष्यत्रिक पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, चनुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संशी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
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दिपाव हुगपरूवणा
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५८६. रइएस सव्वपगदीरणं सव्वत्थोवा जह० । यहिदि० विसे० । उक्क ० असंखज्ज० । यद्विदि० विसे० । एस भंगो सव्वणिरय-- सव्वदेवाणं ओरालियमि०उब्विय० - उव्वियमि० -- ग्राहार० - आहारमि ० कम्मइ० - परिहार०-संजदासंजदवेदसं० सम्मामि० ।
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५८७. तिरिक्खेसु चदुआयु० सव्वत्थोवा जह० द्विदि० । यहिदि० विसे० । उक्क० असंखेज्ज • ० । यद्विदि० विसे० । सेसारणं सव्वकम्मारणं सव्वत्थोवा जह० द्विदि० । यहिदि० विसे० । उक्क० द्विदि० संर्खेज्ज० । यहिदि० विसे० । एवं तिरिक्खोवं पंचिदियतिरिक्ख ०३ - मदि० - मुद० संज० - तिरिणले ० - अब्भवसि ० -मिच्छादिट्ठिति । पंचिदियतिरिक्खापज्जत्त० गिरयभंगो । एवं मणुस पज्जत - पंचिदि ० -तसग्रपज्ज० । ५८८. एइंदिए दोश्रायु० रियोघं । सेसाणं सव्वत्थोवा जह० द्विदि० । हिदि० विसे० । उक्क० हिदि० विसे० । यहिदि ० विसे० । एस भंगो सव्व एइंदियाणं सव्वविगलिंदियाणं पंचकायाणं च ।
५८६. अवगदवे० सादा० - जस० उच्चा० सव्वत्थोवा जह० हिदि० । यहिदि० विसे० । उक्क० द्विदि० असंखज्ज० । यद्विदि० विसे० | सेसाणं सव्वत्थोवा जह०
५८६. नारकियों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । यह भङ्ग सब नारकी, सव देव, श्रदारिकमिश्र काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्र काययोगी, आहारककाययोगी, श्राहारक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए ।
५८७ तिर्यञ्चों में चार श्रायुओं का जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। शेष सब कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिविशेष अधिक है । इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोके समान पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिक, मत्यशानी, श्रुताज्ञानी, श्रसंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकों में नारकियोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए ।
५८८. एकेन्द्रियों में दो श्रायुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। यह भङ्ग सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए ।
५८९. अपगतवेदी जीवोंमें सातावेदनीय, यशःकीर्ति श्रोर उच्चगोत्र इनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यरिस्थतिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे हिदि । यहिदि० विसे० । उक० संखेज्जः । यहिदि० विसे । एवं मुहमसंप० । णवरि सव्वाणं संखेंज्जगुणं कादव्वं ।
५६०. आभि०-सुद-बोधि० खवगपगदीणं ओघ । सेसाणं देवोघं । एस भंगो मणपज्जव-संजद-सामाइय-छेदो०-अोधिदं०-सुकले०-सम्मादि०-खइग०-उवसम०।
५६१. तेउ-पम्माए देवगदिभंगो । सासणे तिरिक्खोघं । असणिण णिरयदेवायूर्ण सव्वत्थोवा जह डिदि० । यहिदि. विसे | उक्क.हिदि. असंखेज्ज० । यहिदि० विसे । सेसाणं तिरिक्खोघं । णवरि तिरिक्ख-मणुसायु० मणुसअपज्जत्तभंगो। वेउब्बियलकं सव्वत्थोवा जहहिदि । यहिदि० विसे । उक्क हिदि. विसे । यहिदि. विसे । एवं डिदिअप्पाबहुगं समत्तं ।।
भूयो छिदिअप्पाबहुगपरूवणा ५६२. भूयो हिदिअप्पाबहुगं दुविधं--सत्थाणहिदिअप्पाबहुगं चेव परत्थाणहिदिअप्पाचहगं चेव । सत्थाणहिदिअप्पाबहगं दुविध--जहएणयं उक्कस्सयं च । उकस्सए पगदं। दुवि०--ओघे० आदे० । ओघे० पंचरणा-गरदंसणा-वएण४-अगु०४-तसथावर-आदाउज्जो -णिमि-तित्थय०--पंचंत. सव्वत्थोवा उक.हिदि । यहिदि० जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सब प्रकृतियोंका संख्यातगुणा करना चाहिए।
५९०. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। यह भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए ।
५६१. पीत और पद्मलेश्यावाले जीवों में देवगतिके समान भङ्ग है। सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। असंशी जीवोंमें नरकायु और देवायुका जघन्य स्थितिवन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिक छहका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इस प्रकार स्थितिअल्पवहुत्व समाप्त हुआ ।
भयः स्थितिअल्पबहत्वप्ररूपणा ५९२. भूयः स्थितिअल्पवहुत्व दो प्रकारका है-स्वस्थान स्थिति अल्पवहुत्व और परस्थान स्थितिअल्पबहुत्व । स्वस्थान स्थितिअल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रस, स्थावर, प्रातप, उद्योत, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। सातावेदनीयका उत्कृष्ट
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टिदिअप्पाबहुगपरूवणा
२७३ विसे० । सादावे. सव्वत्थोवा उक्क हिदि० । यहिदि. विसे । असादावे० उक्क. हिदि. विसे० । यहिदि. विसे० । सव्वत्थोवा पुरिस०--हस्स-रदीणं उक्क हिदि० । यहिदि० विसे० । इत्थि० उक्क०हिदि० विसे । यहिदि० विसे । णवुस०-अरदिसोग-भय-दुगु उक्क.हिदि. विसे । यहिदि० विसे० । सोलसक० उक्त हिदि० विसे । यहिदि० विसे० । मिच्छ ० उक्क हिदि० विसे । [ यहिदि विसे ।]
५६३. सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० उक्क हिदि०। यहिदि. विसे । णिरय-देवायु० उक्क हिदि० संखेंज्जगु० । यहिदि० विसे० ।
५६४. सव्वत्थोवा देवगदि० उक्क हिदि । यहिदि० विसे० । मणुसग० उक्क० हिदि० विसे । यहिदि० विसे० । णिरय-तिरिक्वगदि० उक्क हिदि० [विसे०] यहिदि० विसे० । सव्वत्थोवा तिएिणजादीणं उक्क हिदि० । यहिदि. विसे । एइंदि०-पंचिंदि० उक० हिदि० विसे । यहिदि विसे । सव्वत्थोवा आहार०.. उक्का हिदि० । यहिदि विसे० । चदुषणं सरीराणं उक्क हिदि० संखेज्ज । यहिदि. विसे । सव्वत्थोवा समचदुर० उक्क हिदि । यहिदि० विसे० । णग्गोद• उक्क.
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स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। पुरुषवेद, हास्य और रति इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
५६३. तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नरकायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यात. गुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
५९४. देवगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगति और तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । तीन जातियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे एकेन्द्रिय जाति और पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। आहारक शरीरका स्थितिवन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थिवन्ध विशेष अधिक है। इससे चार शरीरोंका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। समचतुरस्त्र संस्थानका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है।
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२७४
महाधे ट्ठिदिबंधाहियारे
हिदि० विसे० । यद्विदि० विसे० । सादि० उक १० हिदि० विसे० । यहिदि० विसे० । खुज्ज० उ० हिदि० विसे० । यद्विदि० विसे० । वामण० उक्क० द्विदि० विसे० । यहिदि० विसे० ० । हुड० उक्क० हिदि० विसे० । यहिदि० विसे० । सव्वत्थोवा आहार • अंगो० उक्क हिदि० । यहिदि० विसे० । दोरणं अंगो० उक्क० द्विदि० संखेज्ज० । यहिदि० विसे० ।
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५६५. जहा संठाणाणं तहा संघडणारणं । जहा गदीरणं तहा आणुपुव्वीणं । सव्वत्थोवा पसत्थ० उक० द्विदि० । यद्विदि० विसे० । अप्पसत्थ० उक्क० द्विदि० विसे० । यहिदि० विसे० । सव्वत्थोवा मुहुम- अपज्जत्त - साधारणाएं उक्क० हिदि० । यहिदि० विसे० । बादर - पज्जत्त- पत्तेय० ० उक्क० हिदि० विसे० । यद्विदि० विसे० । सव्वत्थोवा थिरादिछ उच्चा० उक्क० हिदि० । यहिदि० विसे० । अथिरादिछ० - णीचा० उक० हिदि० विसे० । यहिदि० विसे० । एवं ओघभंगो पंचिंदिय-तस० २- पंचमरण०-- पंचवचि०. कायजोगि - पुरिसवे ० - कोधादि ०४ - चक्खु ० -अचक्खु०- भवसि ० - सरिण - आहारए ति ।
५६६. आदेसेण णेरइएस पंचरणा०-वदंसणा ० -दो आयु पंचिंदि० ओरालि०तेजा ० - ० - ओरालि० अंगो० --वरण ०४ - गु०४- उज्जो ० --तस०४- णिमि०-- तित्थय ०
इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्वातिसंस्थानका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे कुब्जक संस्थानका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वामन संस्थानका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हुण्ड संस्थानका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । श्राहारक श्राङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे दो श्रङ्गोपाङ्गोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
५९५. पहले जिस प्रकार संस्थानोंका श्रल्पबहुत्व कह आए हैं, उसी प्रकार संहननोंका कहना चाहिए। तथा जिस प्रकार गतियों का कह आये हैं, उसी प्रकार आनुपूर्वियां का कहना चाहिए । प्रशस्त विहायोगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अप्रशस्त विहायोगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे
स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे बादर, पर्याप्त और प्रत्येकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । स्थिरादि छह और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अस्थिरादि छह और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार ओघके समान पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, चक्षुदर्शनी, श्रचतुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और श्राहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
५९६. आदेशसे नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो आयु, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क,
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विदिअाप्पाबहुगपरूवणा पंचंत० सव्वत्थावा उक्क हिदि० । यटिदि. विस । सेसाणं ओघं । एवं सव्वणिरयाणं। गवरि सत्तमाए सव्वत्थोवा मणु सग०-मणुसाणु-उज्जो० उक्त हिदि० । यट्टिदि. विसे । तिरिक्वगदि--तिरिक्रवाणु :--णीचा० उक्क संखेज्ज । यहिदि० विसे० ।
५६७. तिरिक्वेसु अोघं । णवरि सव्वत्थोवा तिरिक्ख--मणुसायु, उक्कल हिदि । यहिदि. विसे । देवायु० उक्त हिदि० संखेज्ज० । यहिदि विस० । णिरयायुः उक.हिदि. विरो० । यहिदि० विसे० । सव्वत्थोवा देवगदि० उक० हिदि० । यहिदि० विसे० । मणुसगदि० उक्क हिदि विसे | तिरिक्वगदि० उक० हिदि० विस० । यहिदि० विस० । णिरयगदि. उक्क.हिदि. विसे । यहिदि. विसे ।
५६८. सव्वत्थोवा चदुपएणं जादीणं उक० हिदि० । यहिदि विसे। पंचिंदि० उक्क हिदि. विसे० । यहिदि. विसे । सव्वत्थोवा ओरालिय० उक०हिदि० । यट्टिदि० विसे० । तिएिण सरीराणं उक्क हिदि विसे० । यहिदि० विसे ।
५६६. संठाणं ओघं । सबथोवा ओरालि अंगो० उक्क हिदि० । यहिदि.
अगुरुलघु चतुष्क, उद्योत, त्रस चतुष्क, निर्माण, तीर्थकर और पाँच अन्तराय इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओधके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथ्वीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उद्योतका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
५९७. तिर्यञ्चोंमें शोधके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । देवागतिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नरकगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है।
५९८. चार जातियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। औदारिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तीन शरीरोंका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
५९९. संस्थानोंका भङ्ग ओघके समान है। औदारिक आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका
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२७६
महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे विसे० । वेउब्विय अंगो• उक्क हिदि० विसे । यहिदि० विसे० । सव्वत्थोवा वज्जरिस० उक्क डिदि० । यहिदि. विसे०। वज्जणा० उक्क ट्ठिदि० विसे० । यहिदि० विसे० । णारायण उक्क ट्ठिदि. विसे० । यहिदि० विसे० । अद्धणा० उ.हि. विसे० । यहिदि० विसे०। खीलिय०-असंपत्त० उक्क.हि. विसे । यहिदि बिसे । यथा गदि० तथा आणुपुवि० ।
६००. सव्वत्थोवा थावरादि०४ उक्क हिदि । यहिदि० विसे० । तप्पडिपक्खाणं उक्क हिदि. विसे । यहिदि. विसे० । एवं पंचिंदिय-तिरिक्व०३ । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु पंचणा०-णवदंसणा०-ओरालि-तेजा-क-अोरालि. अंगो०--वएण०४-अगु०४--आदाउज्जो०--णिमि०--पंचंत. सव्वत्थोवा उक्क हिदि० । यहिदि० विसे । सव्वत्थोवा पुरिस० उक्क हिदि०। यहिदि० विसे० । इथि. उक्क हिदि० विसे०। यहिदि० विसे । हस्स-रदि० उक्क हिदि विसे । यहिदि. विसे । णवुस०-अरदि-सोग--भय-दु० उक्क०हिदि० विसे । यढिदि० विसे । सोलसक० उक्क.हिदि. विसे । यहिदि विसे । मिच्छ० उक्क हिदि० विसे । यहिदि० विसे । दोआयु० णिरयभंगो। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। वज्रर्षभ नाराचसंहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वज्रनाराच संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नाराचसंहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अर्द्धनाराच संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे कोलकसंहनन और असम्प्राप्ताः पाटिका संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । गतियोंका पहले जिस प्रकार अल्पबहुत्व कह आये हैं उसी प्रकार आनुपूर्वियोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिए।
६००, स्थावर आदि चारका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च त्रिकके जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्यातकोंमें पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, आतप, उद्योत, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। पुरुषवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य और रतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इनका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है।
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द्विदिअप्पाबहुगपरूवणा
२७७ ६०१. सव्वत्थोवा मणुसग उक्क हिदि० । यहिदि० विसे । तिरिक्वग० उक्क हिदि० विसे । यहिदि विसे । एवं आणुपु० । सव्वत्थोवा पंचिंदि० उक० हिदि । यहिदि विसे० । चदुरिं० उक्क हिदि विस० । यहिदि० विसे । तीइंदि० उक्क छिदि. विसे । यहिदि० विसे। बोइंदि० उक्क०हिदि० विसे । यहिदि विसे । एइंदि० उक्क.हि. विसे० । यहि विसे ।
६०२. सव्वत्थोवा तस०४ उक्क द्विदि० । यहि विसे । तप्पडिपक्रवाणं उ.हि. विसे । यहि विसे० । सेसाणं णिरयभंगो ।
६०३. मणुसेसु णिरयभंगो । णवरि आयु० अोघं । सव्वत्थोवा आहार० उ० हि० । यहि विसे० । ओरालि० उ०हि० संखेज । यहि विसे० । वेउवि०तेजा०-क० उ.हि. विसे । यहि विसे० । सव्वत्थोवा आहार०अंगो० उ०हि । यहि विसे० । ओरालि अंगो० उ०हि० संखेन्ज । यहि विसे । वेउवि० अंगो० उ० हि० विसे । यहि विसे० । मणुसअपजत्त० पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो।
६०१. मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार आनुपूर्वियोंकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चतुरिन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे त्रीन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे द्वीन्द्रियजातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे एकेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
६०२. त्रसचतुष्कका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे इनको प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है।
६०३. मनुष्यों में नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि आयुओका भङ्ग ओघके समान है। आहारकद्विकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे औदारिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यतागुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष त्रधिक है। इससे वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर और कार्मण शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
आहारक आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे औदारिक आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मनुष्य अपर्याप्तकोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है।
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे ६०४. देवाणं णिरयभंगो। वरि भवण-वाणवेत०--जोदिसिय०-सोधम्मीसाणं सव्वत्थोवा पंचिंदि० उ०हि । यहि० विसे । एइंदि० उ०हि. विसे० । यहि. विसे । एवं तस-थावर० । संघडणाणं तिरिक्खोघं । आणद याव णवगेवज्जा त्ति सव्वत्थोवा पुरिस०-हस्स-रदि० उ० हि । यष्ठि० विसे० । इत्थि० उ०हि विसे० । यहि विसे० । णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु० उ.हि. विसे । यहि विसे० । सोलसक० उ०हि. विसे । यहि विसे० । मिच्छ० उ०ट्ठि• विसे० । [यहि वि.] । अणुदिस याव सव्वहा ति सव्वत्थोवा हस्स-रदि० उक्क हि । यहि विसे । पुरिस०-अरदि-सोग-भय-दुगु उहि विसे० । यहि विसे । वारसक. उ०हि. विसे० । यहि विसे ।
६०५. एइंदि०-विगलिंदि०--पंचिदिय--तसअपज्जा---पंचकायाणं च पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो । ओरालियका० मणुसभंगो। ओरालियमि० सव्वत्थोवा देवगदि० उ०हि०। यहि० विसे । मणुसग उक्क हि० संखेज । यहि विसे।
६०४, देवोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म ऐशान कल्पवासी देवोंमें पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे एकेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थिति विशेष अधिक है। इसी प्रकार त्रस और स्थावर प्रकृतियोंका जानना चाहिए । संहननोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। आनत कल्पसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवों में पुरुषवेद, हास्य और रतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नपुंसकवेद, अरतिशोक, भय और जुगुप्साका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में हास्य
और रतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे बारह कषायका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६०५. एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, प्रसअपर्याप्त और पाँच स्थावर कायिक जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। औदारिककाययोगी जीवोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक
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हिदिअप्पाबहुगपरूवणा तिरिक्खग० उक्क हि विसे०। यहि विसे । सेसाणं अपज्जत्तभंगो । वेउव्वियका. देवोघं । एवं वेवियमि० ।
६०६. आहार-आहारमि० सव्वत्थोवा पंचखोक० उ०हि० । यहि विसे । चदुसंज० उ०हि. विसे । यहि विसे० । सव्वत्थोवा थिर-सुभ-जसगि० उ०हि०। यहि. विसे० । तप्पडिपक्खाणं उ.हि. विसे । यहि. विसे० ।
६०७. कम्मइग० पंचणा-णवदंसणा०--वएण०४-अगु०४-आदाउज्जो-तसथावरादियुगल-णिमि-तित्थय०--पंचंत. सव्वत्थोवा उहि । यहि. विसे । सव्वत्थोवा चदरिं० उ.हि० । यहि. विसे० । तीइंदि० उ०हि० विसे० । यहि विसे । बेइंदि० उ०ट्टि विसे० । गहि. विसे । एइंदि०--पंचिंदि० उ.हि. विसे । यहि विसे० । सेसाणं ओघं । णवरि गदी ओरालियमिस्सभंगो।
६०८. इत्थिवेदे देवोघं । णवरि आहार० उ.हि. थोवा । यहि विसे । चदुएणं सरीराणं उ०हि० संखेंजगु० । यहि विसे० । सव्वत्थोवा आहार० अंगो. उ.हि । यहि विसे० । ओरालि०अंगो० उ०ट्ठि• संखेज । यहि विसे ।
है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिककाययोगी जीवोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए !
६०६. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में पाँच नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे चोर सज्वलनोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। स्थिर, शुभ और यश-कीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है । इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६०७. कार्मणकाययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, वर्णचतुष्क, अगुरुलधुचतुष्क, आतप, उद्योत, त्रस और स्थावर आदि चार युगल, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे त्रीन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे द्वीन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे एकेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकतियोंका भङ्ग पोषके समान है। इतनी विशेषता है कि गतियोंका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है।
६०८. स्त्रीवेदो जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि आहारक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार शरीरोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। आहारक श्राङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे औदारिक प्राङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वेउवि०अंगो० उ.हि. विसे । यहि विसे। संघडणं देवोघं । णवरि रवीलिय-असंपत्त० दोगणं उ.हि. विसे० ।
६०६. गवुसगे ओघं। णवरि सव्वत्थोवा चदुअायु-जादी उ०हि । यहि० विसे । पंचिंदि० उक्क हि० विसे । यहि विसे० । सव्वत्थोवा थावरादि०४उ टि० । यहि० विसे । तस०४ उ.हि. विसे० । यहि विसे० । अवगदवेदे सव्वाणं सव्वत्थोवा उ ट्ठि । यहि विसे ।
६१०. मदि-सुद-विभंग प्रोघं । आभि०-सुद०-प्रोधि० सव्वत्थोवा सादा० उ०हि०। यहि बिसे० । असादा० उ०हि० संखेजगु० । यहि० विसे । एवं परियत्तमाणीणं । सेसाणं सव्वत्थोवा उहि । यहि० विसे । णवरि मोह. सव्वत्थोवा हस्स-रदि० उहि । यहि. विसे० । पंचणोक. उ.हि. विसे । यहि विसे०। वारसक० उ०ट्टि० विसे । यढि० विसे । सव्वत्थोवा मणुसायु० उहि । यहि. विसे० । देवायु. उ.हि. असंखेज्ज । यहि. विसे० । मरणपज्जवल --संजद--सामाइ० ---छेदो--परिहार०--संजदासंजद---अोधिदं०--सुक्कले०
यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। संहननोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि कीलक संहनन और असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन इन दोनोंका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है।
६०९. नपुंसकवेदी जीवों में श्रोघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि चार आयुओं और चार जातियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। स्थावर प्रादिचारका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे त्रस चतुष्कका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। अपगतवेदी जीवों में सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है।
६१०. मत्यज्ञानी, श्रुताशानो और विभङ्गज्ञानी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। आभिनिबोधिकशानी, श्रतज्ञानी, और अवधिज्ञानी जीवों में साता प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे असाता वेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार परावर्तमान प्रकृतियोंका जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे पत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इतनी विशेषता है कि मोहनीय कर्ममें हास्य और रतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्धविशेष अधिक है। इससे वारह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध सवसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष
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टिदिअप्पाबहुगपरूवरणा सम्मादि०-खइग-वंदग०-उवसम-सासण-सम्मामि० आभिणिबोधि०भंगो । णवरि एदेसि मग्गणाणं अप्पप्पणो पगदीश्रो णादृण अप्पाबहुगं साधेदवारो।
६११. सासणे सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० उ०हि० । यहि० विसे । देवावु० उ०ट्टि० संखेज्ज० । यहि विसे० । असंज---अब्भवसि०-मिच्छादि. मदि०भंगो।
६१२. किएणले. सगभंगो० । णील-काऊणं सव्वत्थोवा देवगदि० उ० हि० । यहि विसे । णिरयग० उ०हि. विसे । यहि० विसे । मणुसग० उ० हि० संखेज० । यहि विसे० । तिरिक्खग० उ०हि० विसे । यहि. विसे । सव्वत्थोवा चदुजादि० उ.हि । यहि विसे० । पंचिंदि० उ०हि संखेज्जगुः । [ यहि. विसे० । ] सेसाणं अोघं ।
६१३. तेउ० सोधम्मभंगो। णवरि सव्वत्थोवा आहार० उहि । यहि विसे । वेउवि० उ.हि० संखेज्जगुः । यहि. विसे । ओरालिक-तेजा-क० उक्क द्वि० संखेजगु । यढि० विसे । सव्वत्थोवा देवगदि० उ.हि । यहि
अधिक है। मनःपर्यपज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धि संयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि,
सम्यग्दृषि, उपशमसम्यग्दृधि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओंमें अपनी अपनी प्रकृतियोंको जानकर अल्पवहुत्व साध लेना चाहिए।
६११. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंयतसम्यग्दृष्टि, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है।
६१२. कृष्णलेश्यावाले जीवोंमें नपुंसकवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। नील और कापोत लेश्यावाले जीवों में देवगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार जातियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकतियोंका भङ्ग ओघके समान है।
६१३. पीतलेश्यावाले जीवोंमें सौधर्म कल्पके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है। कि आहारक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे औदारिक शरीर, तैजस शरीर और कार्मण शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। देवगतिका उत्कृष्ट
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
विसे० । मणुसगदि ० उ० हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । तिरिक्खग० उ०वि० विसे० । यहि० विसे० । एवं तिरि० । एवं पम्माए वि । वरि सहस्सारभंगो ।
६१४. सरणी सव्वत्थोवा तिरिक्ख -- मणुसायु० उ०हि० । यहि० विसे० । देवायु० उ०वि० असंखे० । यहि० विसे० | रियायु० उ०वि० असंखे० । [ हि० विसे० । ] सव्वत्थोवा देवगदि० उ०द्वि० । यहि० विसे० । मणुसग० उ० द्वि० विसे० । यहिदि० विसे० । तिरिक्खग० उ०हि० विसे० । यहि० विसे० । गिरयग० उ०हि० विसे० । यहि ० विसे० । सव्वत्थोवा चदुरिंदि० उ०वि० । यद्वि० विसे० । तीइंदि० उ०वि० विसे० । यट्टि० विसे० । बीइंदि० उ० द्वि० विसे० ।
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० विसे० । एइंदि० उ० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । पंचिदि० उ० हि० विसे० । यहि ० विसे० | गदिभंगो आणुपुव्वि० । थावरादि०४ उ० द्वि० थोवा । यहि० विसे० । तस०४ उ० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । सेसा० अपज्जत्तभंगो । अरणाहार० कम्मइगभंगो |
एवं उक्कस्सं समत्तं
स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे ममुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार तीन श्रानुपूर्वियोकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व जानना चाहिए । इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके सहस्रार कल्पके समान भङ्ग जानना चाहिए ।
६१४. संज्ञी जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। देवगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक हैं। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चतुरिन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे त्रीन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे द्वीन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे एकेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार आनुपूर्वियोंका भङ्ग चार गतियोंके समान है । स्थावर आदि चारका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स चतुष्कका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान तथा अनाहारक जीवोंका
भङ्ग कार्मणकाय योगी जीवोंके समान है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
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हिदिअप्पाबहुगपरूवणा ६१५. जहएणए पगदं । दुवि०--अोघे आदे। ओघे० पंचणा०--वएण०४अगु०४--आदाउज्जो०--णिमि०--तित्थय०--पंचंत० सव्वत्थोवा जह• हिदि । यहि० विसे । सव्वत्थोवा चदुदंस. जहि । यहि विसे । पंचदंस० ज०हि० असंखे । यट्टि विसे० । सव्वत्थोवा सादावे० ज०ट्टि । यहि विसे । असादावे० ज०हि. असंखेज.। यहि विसे। सव्वत्थोवा लोभसंज० जहि । यहि विसे । मायासंज० ज०हि संखेज । यहि विसे० । माणसंज० ज०हि० विसे । यहि० विसे । कोधसंज० ज०हि विसे । यहि विसे० । पुरिस० जहि० संखेज० । यहि विसे० । हसस-रदि-भय-दुगु जहि० असंखेज । यहि विसे । अरदिसोग० ज०हि. विसे । यहि विसे० । णवुस जहि० विसे । यहि विसे । वारसक० ज०हि० विसे । यहि विसे । मिच्छ ० ज हि विसे० । यहि विसे ।
६१६. सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० जट्टि । यहि० विसे । णिरयदेवायु० ज०हि० संखेंज । यहि विसे । [ सव्वत्थोवा ] तिरिक्व-मणुसग०
६१५. जघन्यका प्रकरण है उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे पाँच शानावरण, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय इनका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चार दर्शनावरणका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच दर्शनावरणका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। साता वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। लोभ संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे माया संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्थातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति और शोकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वारह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६१६. तिर्यश्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नरकायु और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। तिर्यश्चगति और मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगतिका
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
ज०ट्ठि० । यट्ठि० विसे० । देवग० ज० हि० संखेज्ज० । यहि ० विसे० । रियग० ज० हि० विसे० । यद्वि० विसे० । सव्वत्थोवा पंचिदि० ज० हि० । यद्वि० विसे० । चदुरिं० ज० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । तीइंदि० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । बीइंदि० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । एइंदि० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । ६१७. सव्वत्थोवा ओरालि० तेजा० क० ज० द्वि० । यहि० विसे० । वेजव्वि ० ज० वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० आहार ज०वि० संखेज्जगु० । यहि० विसे० । सव्वत्थोवा ओरालि० अंगो० ज० हि० । यद्वि० विसे० । वेडव्वि० अंगो० ज० द्वि० संखेंज्ज • ० । यहि विसे० । आहार० अंगो० ज० डि० संखेज्ज० । यहि० विसे० | संठा - संघडणं उक्कस्तभंगो |
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६२८. सव्वत्थोवा पसत्थ० ---तस०४ - थिरादिपंच ज० द्वि० । यहि० विसे० । तप्प पिक्खाणं ज० हि० विसे० । यद्वि० विसे० । सव्वत्थोवा जस० -- उच्चा० ज० हि० । यट्टि० विसे० । अजस० - णीचा ० ज० हि० असंखेंज्ज० । यट्टि० विसे० । एवं ओघभंगो कायजोगि ओरालि ० णत्रु' स० कोधादि०४ चक्खु०- भवसि ०० श्राहारए ति । जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । पञ्चेन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चतुरिन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे त्रीन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे द्वीन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे एकेन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
६१७. औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आहारकशरीरको जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्गका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्गका जगन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आहारक प्राङ्गोपाङ्गका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । संस्थान और संहननोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है ।
६१८. प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क और स्थिर आदि पाँचका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । यशःकीर्ति श्रोर उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यशःकीर्ति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, श्रदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
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द्विदिश्रप्पा बहुगपरूवणा
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६१६. रिए उकस्सभंगो । वरि पुरिस ०. ०-- हस्स - रदि-भय- दुगु ० ज० हि० थोवा । यहि० विसे० । अरदि-- सोग० ज० द्वि० विसे० । यट्टि० विसे० । इत्थि० ज० कि० विसे० । यहि ० विसे० | एस० ज० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । सोलसक० ज० हि० विसे० । यद्वि० विसे० | मिच्छ० ज०ट्ठि० विसे० । यट्टि० विसे० | एवं पढमाए ।
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६२०. विदयादि याव छट्टि ति सव्वत्थोवा छदंस० ज०ट्ठि० । यहि० विसे० । श्रीगिद्धि०३ ज० द्वि० संखेज्ज० । यट्टि विसे० । सव्वत्थोवा पुरिस०हस्स -- रदि-भय-दुगु ० ज० हि० । यहि० विसे० । अरदि-सोग० ज० हि० विसे० । यद्वि० विसे० । बारसक० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । श्रताणुबंधि०४ ज० द्विसंखेज्ज० । यट्ठि० विसे० । मिच्छ० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । इत्थि० ज० वि० संखेज्ज० | यट्टि० विसे० । स० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । ६२१. सव्वत्थोवा मणुसग० ज० द्वि० बं० । यहि विसे० । तिरिक्खग० ज० द्वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । एवं आणुपु० । सव्वत्थोवा समचदु० ज० हि० ।
६१९. नारकियोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति और शोकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए ।
६२०. दूसरीसे लेकर छठी तक पृथिवी में छह दर्शनावरणका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अरति और शोकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे
स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे बारह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसक वेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
६२१. मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार अनुपूर्वियोंकी मुख्यताले अल्पबहुत्व जानना
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे यहि विसे । णग्गोद० ज द्वि० संखेज । यहि विसे । सेसाणं उक्स्सभंगो। एवं संघड।
६२२. सव्वत्थोवा पसत्थ०--सुभग-सुस्सर-आदें--उच्चा० ज ढि० । यहि विसे० । तप्पडिपक्खाणं जट्टि संखेंज । यहि विसे । थिर--सुभ-जसगि० जहि. थोवा० । यहि. विसे० । तप्पडिपक्रवाणं जट्टि विसे० । यहि विसे० । एवं सत्तमाए।
६२३. तिरिक्खेसु छगणं कम्माणं णिरयोघं । आयु०४ मूलोघं । णामा० अोघं । णवरि सव्वत्थोवा जस० जहि । यहि विसे । अजस० जहि. विसे । यहि विसे । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएमणिरयोघं ।
६२४. मणुसेसु मूलोघं । गवरि सव्वत्थोवा मणुसग० ज०हि० । यहि विसे० । तिरिक्खग० जहि विसे । यहि विसे । देवगदि० ज०हि० संखेंज । यहि विसे० । पिरयग० ज०हि. संखेज्जा । यहि. विसे० । जादी अोघं । सव्वत्थोवा तिएिणसरीराणं जहि । यहि. विसे०। वेउव्वि०-आहार० ज०हि०
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चाहिए । समचतुरस्रसंस्थानका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे न्यग्रोध परिमंडल संस्थानका जघन्य स्थितिषन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष संस्थानोंकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व उत्कृष्टके समान है। तथा इसी प्रकार संहननोंकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व जानना चाहिए।
२२. प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे इनकी प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति इनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए ।
६२३. तिर्यञ्चोंमें छह कर्मोकी मुख्यतासे अल्पवहुत्व सामान्य नारकियोंके समान है। चार आयुओंकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व मूलोधके समान है। तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि यश-कीर्तिका जघन्य बन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अयशाकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सामान्य नारकियोंके समान जानना चाहिए ।
६२४. मनुष्यों में मूलोघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। पाँच जातियोंकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व अोधके समान है। तीन शरीरोंका जघन्य
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द्विदिप्पा बहुगपरूवणा
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संखेज्ज० । यहि० विसे० । ओरालि० अंगो० ज०ट्ठि० थोवा । यहि० विसे० । वेजव्वि० [० - आहार अंगो० ज० हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । सेसारणं श्रघं । सव्वापज्जत - सव्वविगलिंदिय- पंचकायाणं पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो ।
६२५. देवाणं णिरयभंगो । वरि थोवा पंचिंदि०-तस० ज०वि० । यहि० विसे० । एइंदि० थावर० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० ।
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६२६. एइंदिए तिरिक्खोघं । गवरि गदी रात्थि अप्पा बहुगं । पंचिदयपंचिदियपज्जत्ता० सत्तरणं कम्माणं श्रवं । सव्वत्थोवा देवगदि० ज० द्वि० । यहि० विसे० | मणुसग० ज० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । तिरिक्खग० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । रियग० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । एवं आणुपु० । सेसं
घं । एवं तस-तसपज्जत्ता । वरि विसेसो । सव्वत्थोवा मणुसग० ज० वि० । यद्वि० विसे० । तिरिक्खगदि० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे ० | देवगदि ज० द्वि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । गिरयग० ज०हि० विसे० । यद्वि० विसे० ।
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स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक और आहारक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । औदारिक श्रङ्गोपाङ्गका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे वैक्रियिक और श्राहारक श्राङ्गोपाङ्गका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है तथा शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे श्रल्पबहुत्व श्रोघके समान है । सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावर कायिक जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है ।
६२५. देवोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति और का जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे एकेन्द्रिय जाति और स्थावरका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
६२६. एकेन्द्रियोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान अल्पबहुत्व है । इतनी विशेषता है कि इनमें गतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है । पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकों में सात कमका अल्पबहुत्व श्रधके समान है । देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार चार श्रानुपूर्वियोंकी अपेक्षा श्रल्पबहुत्व जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका श्रल्पबहुत्व
के समान है । इसी प्रकार सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंके जानना चहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है ।
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ६२७. पंचमण-तिएिणवचि० सव्वत्थोवा चदुदंस० जहि । यहि विसे । णिदा-पचला जहि असंखेंज । यहि विसे० । थीणगिद्धि०३ ज०हि० संखेंज। यहि विसे । सव्वत्थोवा लोभसंज. जहि । यट्टि विसे । मायासंज जटि संखेंजः । यट्टि विसे । माणसंज. जहि विसे । यहि विसे० । कोधसंज० जहि० विसे०। यहि विसे । पुरिस० ज०हि० संखेंज । यहि विसे । हस्स--रदि--भय--दुगु० ज०टि० असंखें । यहि विसे । अरदि-सोग. जाहि० संखेज । यहि विसे० । पच्चक्खाणावर०४ ज हि संखेंज० । यहि० विसे । अपच्चक्खाणा०४ जहि० संखेंज०। यहि विसे । अणंताणुवंधि०४ ज०हि० संखेंज । यहि विसे । मिच्छ० ज०हि. विसे । यहि बिसे । इत्थि०-पुरिस० ज०हि विसे । यहि विसे । णवूस० जहि विसे० । यहि विसे । सव्वत्थोवा देवगदि० ज०हि । यहि. विसे० । मणुसग० जट्टि संखेंजगु० । यहि० विसे । तिरिक्खग० जहि० संखेंज । यहि. विसे । णिरयग० जहि संखेजः। यहि विसे० । सव्वत्थोवा पंचिंदि० ज०हि० । यहि.
६२७. पाँची मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में चार दर्शनावरणका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । लोभ संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मायासंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोध संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अरति और शोकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्त्रीवेद और पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्धसंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे नरक
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हिदिश्रप्पा बहुगपरूवणा
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विसे० । चदुरिंदि० ज० वि० संर्खेज्जगु० । यहि० विसे० । उवरिं ओषं । सव्वत्थोवा चदुणं सरीराणं ज० द्वि० । यहि० विसे० | ओरालिय० ज० हि० संखेज्ज० । यहि ० विसे० | संठा संघडणं दोविहा० विदियपुढ विभंगो । अंगोवंग० सरीरभंगो । सव्वत्थोवा तस०४ जट्टि० । यद्वि० विसे० । तप्पडिपक्खाणं ज० वि० संखेज्ज० । यहि ० विसे । सव्वत्थोवा थिरादिपंच० ज० हि० । यहि० विसे० । तप्पडिपक्खाणं ज०० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । सव्वत्थोवा जसगि०--उच्चा० ज०हि० । यहि० विसे० । अजस० - णीचा० ज० डि० संखेंज्ज० । यहि० विसे० । सेसं पंचिदियभंगो । ६२८. वचिजोगि० - सच्च मोस० तसपज्जत्तभंगो । ओरालिया • खवगपगदी घं । सेसं तिरिक्खोवं । ओरालिमि० तिरिक्खोघं । वेउव्वियका० सोधम्मभंगो । एवं उव्वियमि० । आहार० - आहारमि० उकरसभंगो । कम्मइ० - अणाहार० ओरालियमिस्सभंगो । इत्थवेदे ओघं । सेसाणं पंचिदियभंगो | एवं पुरिसवे० । दवेदे ओ । कोधादि ० ४ ओघं । वरि मोह० विसेसो यादव्वो । संजलगा०४
गतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । पञ्चेन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चतुरिन्द्रियजातिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थिति:बन्ध विशेष अधिक है । इससे श्रागेका अल्पबहुत्व श्रोध के समान है । चार शरीरोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे श्रदारिक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । संस्थान, संहनन और दो विहायोगति इनका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है । श्राङ्गोपाङ्गों का भङ्ग शरीरोंके समान है । त्रसचतुष्कका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । स्थिर आदि पाँच प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे श्रयशःकीर्ति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है
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६२८. वचनयोगी और सत्यमृपावचनयोगी जीवोंमें सपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोके समान है। श्रदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चके समान भङ्ग है । वैक्रियिककाययोगी जीवों में सौधर्मकल्पके समान भङ्ग है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिथकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। आहारक काययोगो और आहारकमिश्र काययोगी जीवोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है । कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में श्रदारिकमिश्रकाय योगी जीवोंके समान भङ्ग है । स्त्रीवेदी जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग श्रधके समान है। शेष प्रकृतियों का भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है । इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवों के जानना चाहिए। अपगतवेदी जीवोंमें ओधके समान भङ्ग है । क्रोधादि चार कषाय
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे कोधे माणे०३ मायाए दोगिण लोभे ऍक्क० ।
६२६. मदि०-सुद०--असंज-अब्भव---मिल्लादि० तिरिक्खोघं । विभंगे सव्वत्थोवा देवग० ज.हि० । यहि विसे । तिरिक्ख-मणुसग० ज हि संखेज । यट्टि विस० । णिरयग० जट्टि संखेंज । यहि विसे० । सव्वत्थोवा पंचिंदि० जहि । यहि. विसे० । चदुरिंदि० ज०हि० संखेंज । यहि विसे । तीइंदि० जाहि. विसे०। यहि विसे० । बीइंदि० जट्टि विसे० । यहि विसे । एइंदि० जट्टि विसे० । यहि विसे० । सव्वत्थोवा वेउवि०-तेजा-क. जाहि०। यहि विसे० । ओरालि० ज०हि० संखेंज । यहि० विसे० । सेसं मणजोगिभंगो।
६३०. श्राभि-सुद०-ओधि० सव्वत्थोवा मणुसायु जहि । यहि विसे । देवायु० ज०ट्ठि० असंखेंज ० । यहि . विसे० । सव्वत्थोवा देवग० ज०हि० । यहि० विसे । मणुसग० जहि संखेंजगु०। यहि विसे० । सेसाणं मणजोगिभंगो । एवं ओधिदंसणी-सम्मादि०-खइग०--वेदग०-उवसम । णवरि वेदगे खवगपगदिभंगो एत्थि। वाले जीवोंमें श्रोधके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्ममें विशेषता जाननी चाहिए । क्रोधमें चार संज्वलन, मानमें तीन, मायामें दो और लोभमें एक कहना चाहिए ।
६२६. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सामान्य तिर्योके समान भङ्ग है। विभज्ञान में देवगतिका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। पञ्चेन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चतुरिन्द्रि जातिका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे त्रीन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थिति बन्ध विशेष अधिक है । इससे द्वीन्द्रियजातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे एकेन्द्रियजातिका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे औदारिकशरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है।
६३०. आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपसमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग नहीं है।
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टुिदिअप्पावहुगपरूवणा
२९१ ६३१. मणपज्जव० सव्वत्थोवा सादा०--जसगि० जहि । यहि० विसे० । असादा०-अजस. ज.हि. असंखेंज० । यहि० विसे । मोहणीयं मणजोगिभंगी। एवं दसणावरणीयं । सेसाणं सव्वत्थोवा जहि । यहि विसे । एवं संजदसामाइ०-छेदो०-परिहार०--संजदासंजदा त्ति । एवरि विसेसो णादव्यो । चक्खुदं०तसपज्जत्तभंगो।
६३२. किरण-णील-काऊणं सव्वत्थोवा दोआयु० ज०हि । यहि विसे० । देवायु० ज० डि. संखेंजगु । यहि० विसे । णिरयायु० ज०हि० असंखेंज। यहि विसे । सेसं अपज्जत्तभंगो । णवरि काऊए णिरय-देवायूणं सह भाणिदव्वं ।
६३३. तेऊए मोहणीय-णामं मणजोगिभंगो। णवरि सव्वत्थोवा पुरिस-- हस्स-रदि-भय-दुगु० जहि । यहि विसे । चदुसंज. ज.हि. विसे० । यहि विसे । अरदि-सोग० ज०हि. संखेज.। यहि० विसे । सेसं सोधम्मभंगो । गवरि साद-जस०-उच्चा० सव्वत्थोवा जहि । यहि विसे । असाद०-अजस०णीचा० ज०हि संखेज । यहि विसे । एवं पम्माए। ___ ६३१. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें सातावेदनीय और यशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीय और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका ममनोयोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार दर्शनावरणीयका अल्पबहत्व जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु जहाँ जो विशेषता हो उसे जान लेना चाहिए । चक्षुदर्शनवाले जीवों में त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है।
६३२. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवों में दो अायुओंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि कापीत लेश्यावाले जीवों में नरकायु और देवायुको एक साथ कहना चाहिए ।
६३३. पोतलेश्यावाले जीवों में मोहनीय और नामकर्मका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति और शोकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए ।
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महाबंध द्विदिबंधाहियारे
६३४. सुकाए सव्वत्थोवा मासायु० जह० । यहि० विसे० | देवायुज० द्वि० असंखज्ज० । यहि विसे० । सव्वत्थोवा देवग० ज०हि० । यद्वि० विसे० । मणुसग० ज० वि० संखेज्जगु । यद्वि० विसे० । सेसं ओघं ।
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६३५. सासणे सव्वत्थोवा सादावे० ज० द्वि० । यहि० विसे० । श्रसादा० ज० द्वि० विसे० । यहि विसे० । सव्वत्थोवा तिरिणगदि० ज० हि० । यहि० विसे० । एवं धुविगाणं । सेसाणं सादा० भंगो ।
६३६. सम्मामि० सव्वत्थोवा सादा० ज०हि० । यहि० विसे० । श्रसादा० ज० वि० संखेज | यहि० विसे । एवं पश्यित्तमाणियाणं । सव्वत्थोवा पुरिस०हस्स-रदि-भय-दुगु ज० हि० । यहि० विसे० । बारसक० ज० वि० विसे० । यहि० विसे० । अरदि-- सोग० ज० हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । सेसाणं सव्वत्थोवा ज० हि० । यद्वि० विसे० ।
६३७. सरिण मणुसभंगो । असरिण० तिरिक्खोघं । एवं जहणणयं समत्तं
एवं सत्थाद्विदिप्पाबहुगं समत्तं
६३४. शुल्कलेश्यावाले जीवोंमें मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्य गतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ समान है ।
६३५. सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। तीन गतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीय के समान है ।
६३६. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार परावर्तमान प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे बारह कपायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति और शोकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
६३७. संशियों में मनुष्यों के समान भङ्ग है । तथा असंज्ञियों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है ।
इस प्रकार जघन्य अपबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार स्वस्थान स्थिति अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
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परत्थाणट्ठिदिअप्पाबहुगपरूवणा
२९३ ६३८. परत्थाणहिदिअप्पाबहुगं दुविध---जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि०--ओघे० आदे० । अोघे० सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायूणं उक्कस्सो हिदिवंधो । यहिदिबंधो विसेसाधियो । णिरय-देवायणं उक्कस्सहि० संखेंजः । यहि. विसे । अाहार० उक्क टि संखेंज । यहि विसे । पुरिस -हस्स-रदि-देवगदि०जस०--उच्चा० उक्क हिदि० संखेंज.। यहि० विसे० । सादा०--इत्थि०--मणुसग० उ०हि. विसे० । यहि विसे० । णवुस० अरदि०--सोग--भय-दुगु-णिरयगदि-- तिरिक्वगदि-चदुसरीर-अजस---णीचा. उक्क.हि. विसे० । यट्टि विसे० । पंचणा-णवदंसणा०-असादा-पंचंत० उ.टि. विसे । यहि विसे० । सोलसक० उ०हि. विसे । यहि विसे । मिच्छ० उ.हि. विसे । यहि विसे ।
६३६. णेरइएसु सव्वत्थोवा दोआयु० उ०हि० । यहि. विसे । पुरिस०-- हस्स--रदि--जस--उच्चा० उ०हि. असंखेंज०। यट्टि विसे । सादावे०--इस्थि०मणुसगदि० उ०हि. विसे० । यट्टि विसे० । गर्बुस०-अरदि-सोग--भय-दुगु-- तिरिक्खगदि-तिरिणसरीर-अजसणीचा० उ०हि विसे । यहि विसे० । उवरि अोघं । एवं याव छहि त्ति ।
६३८. परस्थान स्थिति अल्पबहुत्व दो प्रकार का है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आहारकद्विकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे
यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, यशकीर्ति और •उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय, स्त्रीवेद और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, तिर्यञ्चगति, चार शरीर, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६३६. नारकियों में दो अायुओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय, स्त्रीवेद और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, तीन शरीर, अयश कीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगेका अल्पबहुत्व ओघके समान है। इसी प्रकार छठवीं पृथिवी तक जानना चाहिए ।
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
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६४०. सत्तमीए सव्वत्थोवा तिरिक्खायु० उ०द्वि० । यद्वि० विसे० । मगुसग०उच्चा० उक्क०डि० असंखेज ० । यहि विसे० । पुरिस० - हस्स रदि--जस०-- उच्चा० उ०वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । सादा० - इत्थि० उ०हि० विसे० । यहि० विसे० । सगदिपंच-तिरिक्खगदि तिएिग सरीर अजस० णीचा० उक्क० हि० विसे० | यहि० विसे० । उवरि ओघं ।
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६४१. तिरिक्खे सव्वत्थोवा तिरिक्ख मणुसायु० उ० हि० । यट्टि० विसे० । देवायु० उक०हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । गिरयायु० उ० द्वि० बिसे० । यहि० विसं ० ० । पुरिस इस्स-रदि देवगदि जस० उच्चा० उ० द्वि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । सादा० - इत्थि० - मणुस ग० उ० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । तिरिक्खग० ओरालि ० उ० हि० विसे० । यहि० विसे० । एवंसगादिपंच--गिरयगदि -- वेउव्व०- तेजा० क०अजस० णीचा० उ०ट्टि० विसे० । यट्टि० विसे० । उवरि श्रघं । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ ।
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६४२. पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तगेसु सव्वत्थोवा तिरिक्ख मणुसायु० उ० हि० । यहि बिसे० । पुरिस० उच्चा० उ०डि० असंखेज्ज० । यहि० विसे० । इत्थि०
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६४०. सातवीं पृथिवी में तिर्यञ्चायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय और स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेद आदि पाँच, तिर्यञ्चगति, तीन शरीर, यशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगेका अल्पबहुत्व श्रोघके समान है ।
६४१. तिर्यञ्चों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय, स्त्रीवेद और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगति और श्रदारिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नपुंसक वेद आदि पाँच, नरकगति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, यशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यरिस्थतिबन्ध विशेष अधिक है। इससे श्रागेका अल्पबहुत्व श्रोत्रके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए ।
६४२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च श्रपर्याप्तकों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद और उच्च
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परत्थाद्विदिप्पा बहुग परूवणा
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उ० हि० विसे । यद्वि० विसे० । जसगि० उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । मणु सग० उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । सादा०-हस्स - रदि० उक्क० वि० विसे० । यहि विसे० | पंचणोक० - तिरिक्खगदि - तिरिणसरीर -- जस०-- खीचा० उक्क० वि० विसे० । यहि० विसे० | पंचरणा० - रणवदंसणा०-- असादा० - पंचंत० उ० हि० विसे० | यहि० विसे० । सोलसक० उ०वि० विसे० । यट्टि० विसे० । एवं सव्वपज्जत्तगाणं सव्व एइंदिय सव्वविगलिंदिय---पंचकायाणं च । एवरि सव्व एइंदिय - विगलिंदिय० णीचागोदादो सादावे० उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । पच्छा सारणावरणीयं भाणिदव्वं ।
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६४३. मणुसेसु० ३ ओघं । वरि तिरिक्खगदि--ओरालि० तिरिक्खभंगो । देवे या सहस्सार ति रइगभंगो । आपद याव एवगेवज्जा त्ति सव्वत्थोवा मसा० उ०हि० । यहि० विसे० । पुरिस० - हस्स - रदि - जसगि०- उच्चा० उ०हि० असंखेज्ज० । यट्टि० विसे० । सादावे० - इत्थि० उ०हि० विसे० । यहि० विसे० । पंचपोक० ६० मणुसग० - तिरिणसरीर जस० णीचा० उ०हि० विसे० । यद्वि० विसे० उवरि रइगभंगो ।
गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यशःकीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीय, हास्य और रतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, तिर्यञ्चगति, तीन शरीर, यशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार सव अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सब एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में नीचगोत्र से सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। तथा इसके बाद ज्ञानावरणदिक कहने चाहिए ।
६४३. मनुष्यत्रिमें घके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति और दारिक शरीरका भङ्ग तिर्यञ्चोंके समान है। देवों में सहस्रार कल्पतक नारकियों के समान भङ्ग है । यानत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय और स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, मनुष्यगति, तीन यशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे श्रागेका भङ्ग नारकियोंके समान है ।
शरीर
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ६४४. अणुदिस याव सव्वह ति सव्वत्थोवा मणुसायु० उ०हि०। यहि० विसे । हस्स--रदि-जसगि० उहि [अ-] संखेंजः । यहि विसे० । सादा० उ.हि. विसे । यहि विसे । पंचणोक० -मणुसग०-तिएिणसरीर-अजस०-उच्चा० उहि विसे । यहि विसे० । पंचणा--छदसणा--असादा०--पंचंत० उ.हि. विसे । यहि विसे । बारसक० उ०हि. विसे । यहि विसे ।
६४५. पंचिंदिय-तसपज्जत्त-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-इत्थिवे०-पुरिसणस०-कोधादि०४-चक्खुदं०--अचक्खुदं०-भवसि०--सरिण-आहारए त्ति मूलोघं । ओरालियकायजोगि० मणुसिणिभंगो।
६४६. ओरालियमि० सव्वत्थोवा दोआयु० उ०हि० । यहि० विसे० । देवगदिवेउव्विय उहि असंखेज । यहि. विसे । पुरिस०-उच्चा० उ.हि. संखेंज । यट्टि० विसे० । इत्थि. उढि० विसे० । यहि विसे० । [सेसा०] अपज्जत्तभंगो ! वेउव्वियका०-चेउब्धियमि० देवोघं ।
६४७. आहार०--आहारमि० सव्वत्थोवा देवायु० उ०हि । यहि विसे । हस्स--रदि--जसगि० उ.हि. संखेंज । यहि० विसे० । सादा० उ.हि. विसे ।
६४४. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति और यशःकीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, मनुष्यगति, तीन शरीर, अयश-कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानाचरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे बारह कपायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६४५. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, प्रसपर्याप्त, पाँचों, मनोयोगी पाँचों, वचनयोगी, काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंमें मूलोघके समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यिनियोंके समान भङ्ग है।
६४६. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें दो आयुओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवों में सामान्य देवोंके समान भङ्ग है ।।
६४७. आहारक काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति और यशस्कीतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक
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परत्याट्ठिदिअप्पाबहुगपरूवणा
२९७ यहि विसे० । पंचणोक --देवगदि-तिएिणसरीर-अजस०-उच्चा० उ०ट्टि विसे । यहि विसे । पंचणा-छदंसणा०--असादा०-पंचंत० उ.टि. विसे । यहि० विसे० । चदुसंज० उ०हि० विसे । यहि विसे ।
६४८. कम्मइ० सव्वत्थोवा देवगदि-बेउवि० उ०हि । यहि विसे । पुरिस०हस्स--रदि--जसगि० --उच्चा० उ.हि० संखेज । यहि विसे । सादा०--इत्थिवे.मणुसग० उ.हि. विसे० । यहि विसे । पंचपोक०--तिरिक्वग०-तिएिणसरीरअजस०-णीचा० उ०हि. विसे० । यहि विसे० । पंचणा-णवदंसणा-असादापंचंत० उ.हि. विसे । यहि० विसे । सोलसक० उ.हि. विसे०। यहि विसे । मिच्छ० उ०हि. विसे० । यट्टि विसे ।
६४६. अवगदवेदे सव्वत्थोवा चदुसंज० उ०हि । यहि. विसे । पंचणा.. चदुदंस०-पंचंत० उ०हि. संखेंजः । यहि० विसे । जसगि०--उच्चा० उ.टि. 'संखेज । यहि विसे० । सादा० उ.ट्टि० विसे । यहि विसे० ।
है। इससे सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोक पाय, देवगति, तीन शरीर, अयश-कीर्ति और उच्च गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार संज्वलनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६४८. कार्मणकाययोगी जीवोंमें देवगति और वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय, स्त्रीवेद और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, तीन शरीर, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता. वेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिव विशेष अधिक है। इससे सोलह कपायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितियन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
___ ६४९. अपगतवेदी जीवोंमें चार संज्वलनोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
१ मूलप्रती उ०टी० असंखेज० इति पाठः ।
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महाबंधे द्विदिबंधा हियारे
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६५० मदि० - सुंद० सव्वत्थोवा तिरिक्ख मणुसायु० उ०डि० । यहि० विसे० । देवायु० उ०वि० संखेज्ज • । यद्वि० विसे० । गिरयायु० उ०ट्टि० विसे० । यट्टि विसे० | पुरिस० - हस्स-रदि- देवगदि जसगि० उच्चा० उ० द्वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । सादा० - इत्थि० -- मणुस ० उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । उवरि ओघं । एस भंगो विभंगे असं० - किरणले ० -- अब्भवसि० - मिच्छा० । एवरि किरणे णिरयायु० संखेज्जगु० ।
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६५१. भि० -- सुद० -- अधिणा० सव्वत्थोवा मणुसायु० उ०हि० । यहि० विसे० | देवायु० उ० द्वि० [ अ ] संखेज्ज० । यहि० विसे० । आहार० उ०हि० संखेज्ज० । यहि विसे० । हस्स-रदि- जसगि० उ०वि० संखैज्ज० । यहि० विसे० । सादावे० उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । पंचपोक० - दोगदि-चदुसरीर - अजस०उच्चा० उ०हि० संखेज्जगु० । यद्वि० विसे० | पंचणा० छदंसणा ० श्रसादा० -पंचंत० उ० हि० विसे० । यहि० विसे० । बारसक० उ० हि० विसे० । यद्वि० विसे० । एवं एस भंगो धिस ० -सम्मादि० खइग० वेदगस ० -- उवसम० -सम्मामिच्छादिद्विति ।
६५०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय, स्त्रीवेद और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगेका अल्पबहुत्व के समान है । यही अल्पबहुत्व विभङ्गज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कृष्णलेश्यावाले जीवों में नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ।
६५१. श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आहारक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे हास्य, रति और यशःकीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे
स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, दो गति, चार शरीर, अयशः कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे बारह कपायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार यह अल्पबहुत्व अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशे
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परत्थाणहिदियाबहुगपरूवणा णवरि खड्गे पंचणोक०--दोगदि--चदुसरीर-अजसगित्ति--उच्चा० उ हि. विसे । यहि. विसे० ।
६५२. मणपज्जव० सव्वत्थोवा देवायु० उ०ट्टि । यहि विसे० । आहार उ०वि० संखेज्जः । यट्रिविसे० । हस्स-रदि-जसगि उ.हि संखेंज्जा। यटि. विसे । सादा उहि विसे । यहि विसे । पंचणोक०-देवगदि-तिविणसरीरअजस०-उच्चा० उक्क हि. विसे । यहि विसे । अथवा एदाओ संखेंजगुणायो । उवरिं श्रोधिभंगो । एवं संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजदा० ।
६५३. णील-काऊए सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० उ०हि । यहि विसे । देवायु० उ हि० संखेज्ज० । यहि विसे । णिरयायु० उ.हि. संखेज्ज०। यहि विसे० । देवगदि० उ.हि. संखेंज्ज । यहि. विसे । णिरयग०-वेरवि० उ०ट्टि. विसे० । यहि विसे । पुरिस०-हस्स-रदि--जसगि०--उच्चा० उ०हि० संखेज्ज । यट्टि विसे । सादावे०--इत्थि--मणुसग० उ.हि. विसे । यहि विसे । पंचपोक०-तिरिक्खग०-तिरिणसरीर-अजस०-णीचा० उ०हि. विसे । यट्टि० विसे । उवरिं अोघं । पता है कि नायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच नोकपाय, दो गति, चार शरीर, अयशाकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६५२. मनःपर्ययज्ञानी जीवों में देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आहारक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति और यश कीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, देवगति, तीन शरीर, अयशाकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है अथवा इनका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे आगेका अल्पबहुत्व अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए ।
६५३. नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितियन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे देवगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगति और वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यानगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीय, स्त्रीवेद और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, तीन शरीर, अयश-कीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे आगेका अल्पबहुत्व प्रोघके समान है।
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महाबंध टिदिबंधाहियारे
६५४. तेऊए सव्वत्थोवा तिरिक्व-मणुसायु० उ०हि । यहि विसे० । देवायु० उ.हि. असंखेज्ज । यहि विसे । आहार० उ हि० संखेज्जः । यहि. विसे०। देवगदि०-वेउव्वि० उ०हि० संखेंज्ज० । यहि० विसे० । पुरिस०--हस्स-रदि-जसःउच्चा० उ०हि. संखेंज । यहि० विसे० । सादावे०--इत्थि०--मणुस० उ०ट्टि. विसे । यहि विसे० । पंचणोक०--तिरिक्खग--तिएिणसरीर-अजस०--णीचा० उहि० विसे० । यहि० विसे० । उवरिं अोघं । एवं पम्माए त्ति ।।
६५५. सुक्काए सव्वत्थोवा मणुसायु० उ०ट्टि । यहि विसे । देवायु० उ०हि० असंखेंज । यहि विसे० । श्राहार० उ.हि. संखेंज । यहि विसे० । देवगदिवेउव्वि० उ०हि० संखेज०। यहि विसे० । पुरिस--हस्स--रदि-जस--उच्चा० उ.हि. विसे० । यहि विसे० । सादावे-इस्थि उ.हि. विसे० । यहि विसे । पंचपोक-मणुसगदि-तिएिणसरीर-अजस०-णीचा० उ०ढि० विसे । यहि विसे । उवरि णवगेवज्जभंगो।
६५६. सासणे सव्वत्थोवा तिरिक्रख-मणुसायु० उ हि । यहि विसे ।
६५४. पीतलेश्यावाले जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आहारकशरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीय, स्त्रीवेद और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, तीन शरीर, अयश-कीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगेका अल्पबहुत्व ओघके समान है । इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिए।
६५५. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आहारक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय और स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, मनुष्यगति, तीन शरीर, अयश कीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आगेका अल्पवहुत्व नौग्रैवेयकके समान है।
६५६. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थिति
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परत्थापट्टिदिश्रप्पा बहुगपरूवणा
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देवायु० उ०हि० संखज्ज० । यहि० विसे० । पुरिस० [ -हस्स-रदि-] देवगदि०वेडव्वि० - जसगि०-उच्चागो० उ० हि० संखज्ज० । यहि० विसे० । सादावे० - मणुसग०उ०वि० विसे । यद्वि० विसे० | पंचणोक० - तिरिक्खग० - तिरिणसरीर- अजस०णीचा० उहि० विसे० । यद्वि० विसे० | पंचणा० - - गवसणा०-- असादा०-०--पंचंत० उ०वि० विसे० । यहि० विसे० । सोलसक० उ०हि० विसे० । यट्टि० विसे० ।
६५७. असरणीसु सव्वत्थोवा तिरिक्ख- मणुसायु० उ० हि० । यहि० विसे० । देवा० उ०हि० असंखेज्ज० । यहि० विसे० । रियायु० उ०हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । पुरिस० - देवर्गादि -- उच्चागो० उ०हि० असंखेज्ज० । यद्वि० विसे० इत्थि० उ०हि० विसे० । यहि० विसे० । जसगि० उ० हि० विसे० । यहि० विसे० । मणुसग० उ०ट्टि० विसे० । यद्वि० विसे० । हस्स - रदि उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । तिरिक्खगदि-ओरालि० उ०द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । पंचपोक० - रियगदि-तिरिणसरीर अजस- रणीचा० उ०हि० विसे० । यहि विसे० । सादा० उ० हि० विसे० | यहि० विसे० | पंचणा० - वदंसणा० - प्रसादा० पंचंत० उ०वि० विसे० । बन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीय और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच नोकपाय, तिर्यञ्चगति, तीन शरीर, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कपायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
६५७. असंशी जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यागुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है | इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, देवगति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यशःकीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य और रतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक । इससे तिर्यञ्चगति और औदारिकशरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, नरकगति, तीन शरीर, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सतावेदनीयका उत्कृष्ट स्थिति
विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे यहि विसे०। सोलसक० उ०हि० विसे । यहि विसे । मिच्छ० उ.हि. विसे । यहि विसे । अणाहार० कम्मइगभंगो।
एवं उकस्सपरत्थाणहिदिअप्पाबहुगं समत्तं ६५८. जहएणए पगदं । दुवि०--ओघे० आदे० । अोघे० सव्वत्थोवा तिरिक्वमणुसायूणं जहणणो हिदिबंधो। यहि विसे । लोभसंज० ज हि०बं० संखेज्जगु०। यहि विसे० । पंचणा--चदुदंसणा--पंचंत० ज०हि० संखेज्ज० । यहि. विसे० । जस०-उच्चा० जहि० संखेन्ज । यहि विसे । सादा जहि. विसे० । यहि० विसे । मायासंज० ज०हि० संखेज । यहि विसे । माणसंज० ज०हि. विसे । यहि विसे । कोधसंज० ज हि० विसे । यहि विसे । पुरिस० ज हि० संखेज । यहि विसे० । णिरय-देवायु० जाहि० संखेज्जा । यहि० विसे० । हस्स-रदि-भयदुगु-तिरिक्व--मणुसगदि-ओरालि०-तेजा-क०-णीचागो० ज०हि० असंखेज्ज । यहि विसे० । अरदि-सोग-अजस० ज०हि. विसे । यहि. विसे०। इत्थि. जट्टि० विसे० । यहि विसे०। णवूस. ज.हि. विसे । यहि विसे | पंचदंस. इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कपायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
_इस प्रकार उत्कृष्ट परस्थान स्थितिअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ६५८. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ग्रोघसे तिर्यञ्चाय और मनुष्यायका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इ यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे लोभ संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे माया संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुरणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नरकायु और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, औदा. रिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अरति, शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक
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परत्थाणट्ठिदिअप्पाबहुगपरूवणा
३०३ जहि विसे । यहि विसे । असादा० ज०हि. विसे । यहि विसे । बारसक० जहि० विसे० । यहि विसे०। मिच्छ० ज०ट्टि विसे० । यहि विसे । देवगदिवेउवि० ज०हिसंखेज्जः । यहि. विसे० । णिरयग० ज०हि. विसे । यहि० विसे । आहार० ज०हि० संखेंज्ज० । यहि विसे ।
६५६. णिरएसु सव्वत्थोवा दोरणं आयु० जहि । यहि विसे०। पंचणोक०मणुसग --तिएिणसरीर--जसगि०--उच्चा० ज०हि. असंखेज्ज०। यहि विसे० । अरदि-सोग-अजस० ज०हि. विसे । यहि विसे । इस्थि० ज०हि. विसे । यहि विसे । णवुस जहि० विसे । यहि विसे । णीचा० ज०वि० विसे । यहि विसे । तिरिक्खग० ज०हि. विसे० । यहि. विसे । पंचणा-णवदंसणासादावे-पंचंत० ज हि विसे । यहि विसे० । असादा० ज०हि विसे० । यहि विसे० । सोलसक० ज०हि. विसे । यहि. विसे । मिच्छ० जहि. विसे । यहि. विसे । एवं पढमाए।
है । इससे पाँच दर्शनावरणका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे बारह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध
षि अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और वैक्रियिक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आहारक शरीरका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६५९. नारकियोंमें दो आयुओंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच नोकपाय, मनुष्यगति, तीन शरीर, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयश कीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार पहिली पृथिवीमें जानना चाहिए ।
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ६६०. विदियादि याव छहि ति सव्वत्थोवा दोआयु० जाहि० । यहि विसे । पंचणोक०--मणुसग०--तिएिणसरीर--जसगि०--उच्चा० ज०ट्टि० असंखेज्ज० । यहि० विसे । अरदि-सोग-अजस० ज हि विसे । यहि विसे । पंचणा० छदसणासादा० -पंचंत० ज.हि. विसे । यहि विसे० । असादा० ज हि विसे० । यहि० विसे० । बारसक० ज०ट्टि० विसे० । यहि विसे । थीणगिद्धि०३ जलट्ठि० संखेज्ज०। यहि विसे० । अखंताणुबंधि०४ ज.टि. विसे० । यहि विसे० । मिच्छ० जहि विसे० । यहि विसे । इत्थि० ज०ढि० संखेंज । यहि विसे । णवुस० ज०हि. विसे । यहि विसे । णीचा. ज.हि. विसे०। यहि विसे । तिरिक्खग० ज हि० विसे० । यहि० विसे । सत्तमाए पुढवीए एसेव भंगो । णवरि सव्वत्थोवा तिरिक्वायु० ज०हि० । यहि विसे । एवं याव बारसकसा० ज०४ि० विसे । यहि विसे । तिरिक्खगदि-णीचा० ज०ट्टि संखेंज । यहि. विसे० । थीणगिद्धि ३ ज०हि० विसे० । यहि विसे० । अणंताणुबंधि०४ ज.हि. विसे ।
६६०. दूसरीसे लेकर छटवीं तक दो आयुओंका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, मनुष्यगति, तीन शरीर, यशःकोर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशाकोतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शना. वरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे बारह कषायका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अनन्तानुवन्धीचारका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नीचगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सातवीं पृथिवीमें यही भङ्ग है। इननी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार बारह कपाय तक जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यश्चगति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है।
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परत्थाणट्ठिदिअप्पाबहुगपरूवणा यहि विसे । मिच्छ० ज०हि विसे । यहि विसे० । इत्थि० ज०हि० संखेज्ज० । यहि विसे । णवुस० ज०हि० विसे । यहि विसे।
६६१. तिरिक्खेसु सबथोवा दोश्रायु० जहि । यहि विसे० । णिरयदेवायु० ज०हि० संखेंज्ज०। यहि. विसे०। पंचणोक०--दोगदि-तिरिणसरीरजसगि०-णीचागो०-उच्चा० ज०हि० असंखेंज० । यहि. विसे । अरदि-सोग. अजस० ज०ट्टि. विसे । यहि. विसे । इत्थि० ज०हि० विसे । यहि विसे० । णवुस० ज०हि. विसे । यहि० विसे । पंचणा०-णवदंसणा०-सादा०. पंचंत० ज०हि० विसे०। यहि० विसे० । असादा० ज०ट्ठि. विसे । यहि० विसे । सोलसक० ज०ट्रि० विसे० । यहि विसे । मिच्छ. जढि० विसे । यहि विसे । देवगदि-वेउव्वि. जहि संखेंज । यहि विसे । णिरयग० जहि. विसे । यहि. विसे० ।
६६२. पंचिंदिय-तिरिक्ख०३ सव्वत्थोवा तिरिक्ख--मणुसायु० जहि । यदि विसे० । दोश्रायः जहि संखज्ज । यहि विस । पंचणोक -देवगदितिण्णिसरीर--जस०--उच्चा० ज.हि. असंखेंज । यहि. विसे० । अरदि--सोगइससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६६१. तिर्यञ्चों में दो आयुओं का जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायु और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, दो गति, तोन शरीर, यशःकीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र का जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयश-कीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असाता वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और वैकियिक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६६२. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च तीनमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जधन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे दो अायुओंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच नोकषाय, देवगति, तीन शरीर, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है।
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे अजस० ज०ट्टि. विसे० । यहि विसे० । मणुसग -पोरालिय० ज०हि. विसे० । यट्टि० विसे । इत्थि० जट्टि विसे० । यहि विसे । णवूस० ज हि विसे । यहि विसे० । णीचा. जढि० विसे । यहि विसे० । तिरिक्वग० ज०ट्टि. विसे । यहि० विसे । णिरयग० ज०हि. विसे । यहि विसे । पंचणा०णवदंसणा०-सादा-पंचंत० ज.हि. विसे । यहि विसे० । असादा. ज.हि. विसे । यहि विसे० । सोलसक० ज.हि. विसे । यहि विसे० । मिच्छ. जहि विसे । यहि विसे ।
६६३. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु पढमपुढविभंगो । एवं सव्वअप्पजत्तगाणं सव्वविगलिंदिय-पुढवि०--आउ०-वणप्फदि०--बादरवणप्फदिपत्तेय-सव्वणियोदाणं पंचिंदिय-तसअपज्जत्ताणं च । एइंदिएसु तिरिक्खोघं ।
६६४. तेउ०-वाउ० सव्वत्थोवा तिरिक्वायुः जहि । यहि० विसे० । पंचपोक०--तिरिक्खग०--तिएिणसरीर--जस-णीचा. ज.हि. असंखेंज । यहि विसे । अरदि-सोग-अजस० जहि विसे० । यहि विसे० । उवरि अपज्जत्तभंगो। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशःकीर्ति का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगति और औदारिक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकघेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यश्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।।
६६३. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में पहली पृथ्वीके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, बादरवनस्पतिकायिक, सब निगोद, पञ्चन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । एकेन्द्रियोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है।
६६४. अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति,
शरीर. यशःकीर्ति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयश-कीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे ऊपर अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
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परत्थाराडिदिप्पाव हुगपरूवणा
३०७
.
I
६६५. मणुस ० ३ सव्वत्थोवा तिरिक्ख'- मणुसायु० ज० हि० । यहि० विसे० । लोभसंज० ज० हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० | पंचरणा० - चदुदंसणा ० -- पंचंत ० ज० वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । जस० उच्चा० ज०वि० संखेंज्ज० । यट्टि० विसे० । सादावे० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । मायासंज० ज० वि० संखेज्ज० । यहि ० विसे० | माणसंज० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० | कोधसंज० ज०ट्ठि० विसे० । यद्वि० वि० । पुरिस० ज० हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । दोश्रायु० ज० हि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । हस्स--रदि-भय-दुगु० - मणुसगदि -- तिरिणसरीरं ज० डि० संखेज्ज० १० । यहि० विसे० । अरदि-सोग अजस० ज० हि० विसे० । यहि ० विसे० । इत्थि० ज०वि० विसे० । यहि० विसे० | स० ज० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । I 1 . णीचा० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । तिरिक्खग० ज० हि० विसे० । यहि ० विसे० | पंचदंस० ज०ट्टि० विसे० । यहि० विसे० । असादा० ज० द्वि० विसे० । afro विसे० । बारसक० ज०वि० विसे० । यहि० विसे० । मिच्छ० ज० द्वि०
०
६६५. मनुष्यत्रिक में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे लोभ संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे माया संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मान संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे क्रोध संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे दो आयुओं का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति और तीन शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अरति शोक और अयशःकोर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नीच गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँचदर्शनावरणका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक | इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है | इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे बारह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
१ मूलप्रतौ तिरिक्खे मग्गुसायु० इति पाठः ।
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३०८
महापंधे ट्ठिदिबंधाहियारे विसे । यहि विसे । देवगदि-वेउवि०--आहार० ज०हि० संखेज । यहि. विसे । णिरयग० जट्टि संखेंज । यहि. विसे० ।
६६६. देवा भवण --वाणवेत. णिरयोघं । जोदिसिय याव सहस्सार त्ति विदियपुढ विभंगो । आणद याव गवगेवज्जा त्ति सो चेव भंगो। गवरि तिरिक्वायु०तिरिक्खगदी पत्थि । अणुदिस याव सव्वहा त्ति सव्वत्थोवा मणुसायु० ज०ट्टि० । यहि विसे । पंचपोक-मणुसग-तिएिणसरीर-जस-उच्चा० ज.हि. असंखेंज । यहि विसे० । अरदि-सोग--अजस० ज हि विसे० । यहि विसे । पंचणा०छदसणा-सादा०-पंचंत० ज०हि. विसे० । यट्टि. विसे । असादा० ज०टि. विसे । यहि० विसे० । वारसक० जट्ठि० विसे । यहि विसे० ।
६६७. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ता० सव्वत्थोवा तिरिक्ख०-मणुसायुग० जहि । यहि विसे । लोभसंज० ज०हि संखेंज । यहि. विसे । पंचणा०-चदुदंसणापंचंत० ज.हि. संखेज०। यहि विसे० । जस०-उच्चा० ज हि संखेंज। यहि. विसे० । सादा० जहि. विसे० । यहि. विसे । मायासंज. जहि.
इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति, वैक्रियिक शरीर और आहारक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६६६. सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवों में सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। ज्योतिषियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। अानतसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक वही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि यहाँ तिर्यञ्चायु और तिर्यञ्चगति नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, मनुष्यगति, तीन शरीर, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे बारह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६६७. पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे लोभ संज्व लनको जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावारण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे माया
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परत्थाट्ठिदिश्रप्पा बहुगपरूवणा
३०९
संखेज्ज०
० । यहि० विसे० । माणसंज० ज०हि० विसे० । यहि० विसे० । कोधसंज० ज० हि० विसे० | यहि० विसे० । पुरिस० ज०ट्ठि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । दो आयु० ज० द्वि० संखेज्ज० । यहि ० विसे० । चदुणोक० - देवर्गादि- तिरिणसरीर ० ज० हि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । उवरिं पंचिदियतिरिक्खभंगो । ६६८. तस-तसपज्जत्तगेसु सव्वत्थोवा यहि० विसे० । लोभसंज० ज० हि० संखेज्ज० । रिय- देवायु० ज० हि० संखेज्ज० । यट्टि० विसे० सरीर० ज०० असंखेज्ज० । यहि० विसे० । विसे० | यहि० विसे० । इत्थि० ज० द्वि० विसे० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । णीचा० ज० हि० तिरिक्खग० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । पंचदंस० ज० हि० विसे० | यहि० विसे० | असादा० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । बारसक० ज०ट्ठि० विसे०
तिरिक्ख मणुसायु० ज० डिer | यहि ० विसे० । उवरिं श्रघं याव । चदुणोक० मणुसग ० - तिरिपअरदि-सोग - अजस० ज० हि०
।
संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे दो आयुओं का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे चार नोकषाय, देवगति और तीन शरीर का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आगे पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है 1
६६८. त्रस और त्रस पर्याप्त जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे लोभ संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे श्रागे नरका और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इसके प्राप्त होने तक श्रोधके समान भङ्ग है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे चार नोकषाय, मनुष्यगति और तीन शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध प्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अरति शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे
१ मूलप्रतौ ज०
यहि० विसे० । विसे० । यहि०
स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जधन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच दर्शनावरणका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे बारह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थिति
एवं स ० विसे० ।
द्वि० विसे० । यद्वि० इति पाठः ।
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३१.
महाबंधे द्विदिवंधाहियारे यहि विस० । मिच्छ जहि० विसे ० । यहि विसे । देवगदि-वेउन्वि० ज०हि. संखेज । यहि विसे । णिरयग० ज०हि. विसे । यहि. विसे । आहार०ज०हि० संखेंज० : यहि विसे ।
६६६. पंचमण-तिएिणवचि. सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० जाहि० । यट्टि. विसे० । लोभसंज० जटि संखेंज । यहि. विसे । पंचणा०-चदुदंसणा-पंचंत० ज०हि० संखेंज । यहि. विस० । जस०-उच्चा. ज.हि. संग्वेज । यहि विसे० । सादा. ज.हि. विसे । यहि० विसे० । मायासंज. जहि० संखेंज । यहि विसे० । माणसंज० ज०हि. विसे० । यहि. विसे० । कोधसंज. ज.हिविसे० । यहि० विसे० । पुरिस० जहि० संखेज्ज० । यहि विसे० । दो आयु० ज०ट्टि० संखेज्ज०। यहि विसे० । हस्स-रदि-भय-दुगु जहि असंखेज । यहि विसे० । देवगदि-चेउवि०-आहार-तेजा-क० ज.हि. संखेज । यहि विसे । णिदा-पचला. जहि० संखेन्ज । यट्टि विसे० । अरदि-सोग-अजस० ज०ट्टि संखेज । यट्टि ० विसे । असादा० ज०हि विसे । वन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और वैक्रियिक शरीरका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आहारक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६६९. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे लोभ संज्व लनका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे माया संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे पत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे दो आयुओंका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति, वैक्रियिक शरीर, याहारकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिवन्ध संख्तातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे रति, शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष
अधिक है । इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थिति
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परत्थाडिदिपा बहुगपरूवणा
afro विसे० । पञ्चक्खाणा०४
०
ज० हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । अपचक्खा०४ ज ० वि० संखेज्ज० । यहि ० विसे० | मणुसगदि - ओरालि० ज० हि० संखेज्ज० ० । यहि० विसे० । श्रीगिद्धि ०३ ज० द्वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । ता०४ ज०० विसे० । यद्वि० विसे० | मिच्छ० ज०वि० विसे० । यहि ० ० । तिरिक्खगदि-णीचा० ज० वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । इत्थि० ज० वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० | एस० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । रियग० ज० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० ।
विसे०
६७०. वचिजो० सच्चामोस ० तसपज्जत्त भंगो । कायजोगि०-ओरालियका०चक्खुर्द ० भवसि० आहारगति श्रघं । ओरालियमि० तिरिक्खोघ । देवदिउव्व० ज० वि० संखेज्ज० । यहि ० विसे० सव्बुवरिं । एवं कम्म० णा हारगति ।
३१९
६७१. वेउब्वियका० सव्वत्थोवा दो आयु० ज० हि० । यहि विसे । पंचपोक० - मणुसग ० - तिरिणसरीर जस ० उच्चा० ज० द्वि० असंखेज्ज० । यहि ० विसे० | सेसं सत्तमा पुढविभंगो । एवं वेडव्वियमि० आयु वज्ज० । रावरि तिरि
बन्ध विशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगति और दारिक शरीरका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुवन्धी चारका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६७०. वचनयोगी और असत्यमुपावचतयोगी जीवोंमें सपर्यातकों के समान भङ्ग है । काययोगी, औदारिककाययोगी, अचतुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें श्रधके समान भङ्ग है। श्रदारिक मिश्र काययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोके समान भङ्ग है । देवगति और वैक्रियिकशरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । ऐसा सबके अन्त में कहना चाहिए। इसी प्रकार कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
६७१. वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें दो आयुओं का जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, मनुष्यगति, तीन शरीर, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध ग्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष अल्पबहुत्व सातवीं पृथिवीके समान है । इसी प्रकार आयुकर्मको
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३१२.
महाबंधे टिदिबंधाहियारे क्खग०-णीचा० जटि संखेज्ज०। यट्टि विसे० । इत्थि० जट्टि० विसे । यहि विसे० । णबुंस० ज.हि. विसे । यहि. विसे । थीणगिद्धि०३ ज०हि. विसे । यहि. विसे० । अणंताणुबंधि०४ ज.हि. विसे० । यहि विसे । मिच्छ० जट्टि विसे । यहि० विसे ।
६७२. आहार०--आहारमिस्सका. सव्वत्थोवा देवायु० ज०हि । यहि विसे । पंचणोक०-देवगदि-तिएिणसरीर०--जस --उच्चा० जहि संखेंज० । यट्टि. विसे० । अरदि-सोग-अजस० जट्टि विसे०। यहि० विसे। पंचणा०-छदंसणा०सादा०-पंचंत० ज०हि विसे । यहि विसे । असाद० ज०हि. विसे । यहि विसे । चदुसंज० जहि० विसे । यट्टि विसे० ।
६७३. इथिवे. सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० ज०हि० । यहि. विसे० । दोआयु० ज०हि० संखेंजगु । यहि विसे० । पुरिस० ज०हि० संखेंज । यहि० विसे० । चदुसंज० ज०हि० विसे । यहि. विसे। पंचणा --चदुदंस --पंचंत०
छोड़कर वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति
और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६७२. आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवों में देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय देवगति, तीनशरीर, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्धसंख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशःकीर्ति का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६७३. स्त्रीवेदी जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे दो आयुओंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच शानावरण चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य
स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यशःकीर्ति
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परत्यासट्टिदि अप्पा बहुगपरूवणा
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ज० हि० संखेज्ज० | यहि० विसे । जस० - उच्चा० ज० द्वि० असंखेज्ज० । यहि ० विसे० | सादा० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । हस्स-रदि-भय-दुगु ० ज० ट्टि० असंखेज्ज • ० । यहि० विसे० । उवरिं पंचिदियभंगो |
६७४ पुरिसेसु सव्वत्थोवा तिरिक्ख मणुसायु० ज० हि० । यट्टि० विसे० | पुरिस० ज० वि० संखेज्ज० । यहि ० विसे० । चदुसंज० ज० हि० विसे० । यहि ० विसे० ० । दोआयु० ज० द्वि० संखेज्ज० । यहि० त्रिसे० । पंचरणा०-- चदुदंसणा ० -पंचंत० ज० ट्ठि संखेज्ज० । यहि० विसे० । जस० उच्चा० ज० द्वि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० | सादा० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । उवरिं इत्थिभंगो ।
६७५. एस० सव्वत्थोवा तिरिक्ख- मणुसायु० ज० हि० । यहि० विसे० । रिय- देवायु० ज०वि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । पुरिस० ज० हि० संखेज्ज० । यहि० वि० । चदुसं० ज०वि० विसे० । यद्वि० विसे० | पंचरणा० - चदुदंस०पंचत० ज०ट्टि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । जसगि०-उच्चा० ज० वि० संखेज्ज० । ० वि० । सादा० ज०ट्ठि० विसे० । यहि ० विसे० । उवरिं ओघभंगो ।
•
और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यात - गुणा है | इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आगे पञ्चेन्द्रियों के समान भङ्ग 1 है 1
६७४. पुरुषवेदी जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे चार संज्वलन का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे दो आयुओंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगे स्त्रीवेदी जीवोंके समान भङ्ग है ।
• ६७५. नपुंसक वेदी जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायु और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच श्रन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगे श्रोत्रके समान भङ्ग 1
४०
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महाबंधे दिदिबंधाहियारे ६७६. अवगदवे० सव्वत्थोवा लोभसंज० जहि । यहि विसे । पंचणा०चदुदंस --पंचंत. जाहि० संखेंज- । यहि विसे० । जस०--उच्चा० ज.हि. संखेंज। यहि विसे० । सादा० जट्टि विसं० । यहि विसे० । मायसंज. जहि० संखेंज्जः । यहि विसे० । माणसंज० ज०हि विसं० । यट्टि विसे । कोधसंज. जहि० विस० । यहि. विसे० ।
६७७. कोधकसा० सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० जाहि० । यहि विसे । चदुसंज, जहि० संखेज्ज । [यहि विसे०।] पुरिस जहि संखेंज । यहि विसे । दोआयु० ज०हि संखेज्ज० । यहि. विसे० । पंचणा०--चदुदंस-पंचंत० जटि० संखेज०। यहि विसे० । उच्चा० ज हि संखेज्ज । यहि. विसे । एवं जसगित्ति० । सादावे० ज०हि. विसे । यहि विसे । उवरि अोघभंगो ।
६७८. माणकसाइ० सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० ज०हि०। यहि विसे । तिएिणसंज० जहि संखेंजः। यहि विसे । कोधसंज. जट्टि० विसे० । यहि. विसें० । पुरिस० ज०टि संखेज्ज०। यहि विसे० । दोआयु० ज हि०
६७६. अपगतवेदी जीवोंमें लोभ संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्त्रोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे माया संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मान संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोध संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६७७. क्रोधकषायवाले जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे दो आयुओंका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे उञ्चगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार यशःकीर्तिका अल्पबहुत्व है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगे ओघके समान भङ्ग है ।
६७८. मानकषायवाले जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे तीन संज्वलनोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुष वेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे
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परत्थाणहिदिअप्पाबहुगपरूवणा संखेन । यहि विस। पंचणा-चदुदंस०--पंचंत० ज०हि० संखेंजः । यहि० विसे । जस०--उच्चा० ज.हि संखेंज । यहि विसे० । सादा० जट्टि. विसे० । यहि विसे । उवरि ओघभंगो ।
६७६. मायाए सव्वत्थोवा तिरिक्रव--मणुसायु० जहि । यहि. विसे० । दोसंज० ज-हि० संखेंज । यहि विसे० । माणसंज० जहि. विसे । यहि विसे । कोषसंज० ज०हि. विसे० । यहि. विसे० । पुरिस० ज०हि० संखेंज। यहि विसे० । दोआयु० ज०ट्टि संखेज्जः । यहि विसे० । पंचरणा-चदुदंस०पंचंत. जहि• संखेंज । यहि विसे । जसगि-उच्चा० ज०हि० संखेंज्ज.। यहि विसे० । सादा. ज.हि. विसे० । यहि विसे० । हस्स--रदि-भय--दुगुतिरिक्व--मणुसगदि--ओरालिय०--तेजा-क०-णीचा जहि असंखेज्ज० । यहि. विसे । उवरिं ओघभंगो । लोभे मूलोघं ।
६०. मदि०-सुद०-असंज-तिएिणले०-अन्भवसि.-मिच्छादि-असणिण ति तिरिक्खोघं । विभंगे सव्वत्थोवा तिरिक्रव-मणुसायु० जहि । यहि विसे । दो आयुओंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगे ओघके समान भङ्ग है।।
६७९. माया कषायवाले जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे दो संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मानसंज्व. लनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोध संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे दो आयुओंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यश-कीर्ति
और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे आगे ओघके समान भङ्ग है । लोभकषायवाले जीवोंमें श्रोधके समान भङ्ग है ।
६८०. मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंझी जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। विभङ्गलानी जीवों में तिर्यंचायु और
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
दोश्रायु० ज० वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० | पंचणोक० - देवर्गादि -- तिरिणसरीर-जस०-उच्चा० ज०वि० असंखेज्ज० । यहि० विसे० | पंचणा०--णवदंसणा ० -सादा०पंचत० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । सोलसक० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० | मिच्छ० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । तिरिक्खगदि मणुसग दि-ओरालि०णीचा० ज०वि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । अरदि-सोग - अजस० ज०हि० संखेज्ज० । यहि विसे० । असादा० ज०द्वि० विसे० । यहि० विसे० । इत्थि० ज० ट्टि० विसे | यहि० विसे० । एस० ज० द्वि० विसे० । यहि विसे० । गिरयग० ज०ड० विसे० । यद्वि० विसे० ।
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६८१. अभि० - सुद० -योधि० सव्वत्थोवा लोभसंज० ज० द्वि० । यहि० विसे० । पंचरणा०-- चदुदंसणा ० -- पंचंत० ज० हि० संखेज्ज० । यट्ठि० विसे० । जस०-उच्चा० ज०ट्टि० संखेज्ज० | यद्वि० विसे० । सादा० ज० हि० विसे० । यट्टि० विसे० । मायसंज० ज० डि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । माणसंज० ज०वि० विसे० | यहि०
मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे दो श्रायुओं का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, देवगति, तीन शरीर, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सोलह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर और नीच गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नपुंसक वेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
६८१. ग्राभिनिवोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में लोभसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच ग्रन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यशः कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुण है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मायासंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष
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परत्थाणटिदिअाप्पाबहुगपरूवणा विसे । कांधसंज० जट्टि विसे० । यहि विसे । पुरिस० ज हि संखेजः । यहि विसे । मणुसायु. जहि० संखेज०। यहिविसे० । देवायु० जहि. असंखेज । यहि विसे । हस्स-रदि-भय-दुगु नहि संखेंज । यहि विसे । देवगदि--चदुसरीर० ज०हि० संखेज । यहि० विसे । णिदा--पचलाणं जाहि० संखेज्ज० । यहि विसे० । अरदि-सोग-अजस० जहि संखेंज । यहि विसे । असादा० जहि. विसे० । यहि. विसे० । पच्चक्खाणा०४ ज हि संखेज। यहि विसे । अपच्चक्रवाणा०४ जटि संखेजः । यहि विसे । मणुसग०ओरालि जट्टि० संखेज । यहि विसे। एस भंगो ओघिदंस०--सम्मादि. खइग०-उवसम०। .६८२. मणपज्जव० सव्वत्थोवा लोभसंज जहि । यहि विसे । पंचणाचदुदंस-पंचंत० ज०टि संखेज०। यहि विसे । जस०-उच्चा० ज०हि० संखेज्ज। यहि विसे । सादा. ज.हि. विसे । यहि विसे । मायसंज. जाहि० संखेन्ज । यहि. विसे । माणसंज० ज०हि० विसे । यट्टि विसे । कोधसंज. अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और चार शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थिति'बन्ध विशेष अधिक है। इससे निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयश-कीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीय का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगति और औदारिक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। यही भङ्ग अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए।
६८२. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें लोभसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मायासंज्वलनका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोध
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महाबंध धिंधाहियार जहि विसं० । यहि विसं. । पुरिस० जहि० संखेंज । यहि विसं० । देवायु० ज हि असंखेंज । यहि विसं । हस्स-रदि-भय-दुगु० ज हि संखेंज । यहि विसे० । देवगदि--चदुसरीर० ज०हि० संखेज । यहि. विसे । णिदा-- पचलाणं ज हि संखेज्ज ० । यहि विसेअरदि-सोग-अजस० ज०हि० संखेज०। यहि विसे० । असादा० जहि. विसे । यहि विसे० । एवं संजदा० ।
६८३. सामाइ.--वेदोव० सव्वत्थो लोभसंज- जहि । यढि० विसे० । पंचणा०--चदुदंस-पंचंत• जटि संखेंजः । यहि विसे० । मायसंज० ज०हि. संखेज्ज । यहि. विसे । माणसंज० ज०वि० विसे० । यहि विसे० । कोधसंज. ज०हि. विसे० । यट्टि० विसे । जस०--उच्चा० ज०हि० संखेज । यहि विसे० । सादा० ज०हि विसे०। यहि विसे०। पुरिस० ज द्वि० संखेज । यट्टि. विसे० । देवायु० ज०हि असंखेज० । यहि विसे । उवरिं मणवज वभंगो ।
६८४. परिहार० सव्वत्थोवा देवायु० ज हि० विसे० । यहि विसे । पंच
संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुरणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे देवगति और चार शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे अरति, शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसीप्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए ।
६८३. सामायिकसंयत और दोपस्थापनासंयत जीवों में लोभसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है ! इससे मायासंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यश-कीर्ति और उच्च गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुपवेदका जघन्य स्थितियन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे देवायुका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगे मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान अल्पबहुत्व है।
६८४. परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, देवगति, चार शरीर,
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परन्थाद्विदिपाबहुगपरूवणा णोक०-देवगदि-चत्तारिसरीर जम: --उच्चा• जट्टि० संग्वेजः । यहि विस० । पंचणा--दंसणा--सादा०--पंचन : जहि० विते । यहि विसे० । चदुसंज० जट्टि विस० । यहि विसं० । अरदि--सांग-अजय जटि० संखेजः । यहि विस० । असादा० जट्टि विसे । यहि विस० ।
६८५. सुहमसंपरा० सव्वत्थोवा पंचरणा-.-चदुदंस-पंचंत० जहि । यहि विसे । जस--उच्चा० ज०हि० संखेज । यहि. विसे० सादा. ज.हि. [विसे ] । यहि विसे० ।
६८६. संजदासंज. सव्वत्थो वायु- ज-ट्टि । यहि विसे। पंचणोकदेवगदि-तिरिणसरीर-जस०-उच्चा० जहि० संखेंज- । यहि विसे० । पंचणा०छदंस--सादावे०--पंचंत० ज०हि विसे० । यहि विस० । अहकसा० ज.हि. विसे० । यहि विसे० । अरदि--सोग-अजस० ज०हि संखेज । यहि विस० । असादा. ज हि० संखेज । यहि विसे० ।
६८७. तेउले. सव्वत्थो तिरिक्ख--मणुसायु० जट्टि । यहि विसं० । यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे परति, शोक और अयशकीर्तिका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है।
६८५. सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावंदनीयका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिया विशेष अधिक है।
६८६. संयनासंयत जीवों में देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, दवगनि, तीन शरीर, यश-कीर्ति
और उन्नगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे आठ कपायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६८७. पीतलेश्यावाले जीवाम तिर्यवायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यरिस्थतिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
देवायु० ज० कि० असंखेज्ज० । यट्टि० त्रिसे० । पंचणोक० देवगदि चदुसरीर० - जस०उच्चा० ज० द्वि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० | पंचरणा० - छदंसणा ० -सादा० - पंचंतरा० ज० द्वि० [ विसे० । ] यद्वि० विसे० । चदुसंज० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । अरदि-सोग- अजस० ज० द्वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । असादा० ज०ड० विसे० । यद्वि० विसे० । पच्चक्खाणा ० ४ ज० द्वि० संखेज्ज० । यहि ० विसे ० । अप्पच्चक्खाणा ०४ ज० वि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । मणुसगदि-ओरालि० ज० वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० | थी गिद्धितियस्स ज० द्वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । श्रताणुबंधि०४ ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । मिच्छ० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । इत्थि० ज० द्वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । पुंस० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । खीचा० ज० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । तिरिक्खगदि० ज० द्वि० विसे० । यहि ० विसे । एवं पम्माए ।
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६८८. सुकाए सव्वत्थो० लोभसंज० ज० द्वि० । यद्वि० विसे० । सेसं ओघं या को संज ० ज ० ० [ विसे० । ] यद्वि० विसे० । मणुसायु० ज० वि० संखेज्ज० । असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, देवगति, चार शरीर, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे चार संज्वलन का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे श्रप्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मनुष्यगति और श्रदारिक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे
स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे श्रनन्तानुबन्धी चारका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसक वेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नीच गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए ।
६८८. शुक्ललेश्या वाले जीवों में लोभ संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार क्रोध संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है यहाँ तक शेष अल्पबहुत्व ओघ के समान है। इससे मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध
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परत्थाणहिदिअप्पाबहुगपरूवणा
३२१ यट्ठि० विसे० । पुरिस० ज०ट्ठि० संखेज० । यढि० विसे० । देवायु० ज०ट्ठि. असंखेज्ज । यढि० विसे । हस्स-रदि-भय-दुगुं० ज०द्वि० संखेज्ज । यहि. विसे० । देवगदि-चदुसरी० ज०वि० संखेज्ज० । यहि. विसे । णिहा-पचला. ज.हि. संखज्ज० । यढि० विसे० । अरदि-सोग-अजस० ज०ट्ठि० संखेज्ज० । यढि० विसे । असादा० ज०ढि० विसे० । यढि० विसे० । पच्चक्खाणा०४ जट्ठि० संखज्ज। यढि० विसे० । अपचक्खाणा०४ ज०द्वि० संखेज्ज०। यढि० विसे । मणुसग० ओरालि० ज०द्वि० संखेज्ज० । यढि० विसे० । थीणगिद्धितिग० ज०वि० संखेज्ज। यट्ठि० विसे० । अणंताणुबंधि०४ जट्ठि. विसे । यढि० विसे० । मिच्छ० ज० ढि० विसे० । यढि० विसे । इत्थि० ज०वि० संखेज्जः । यढि० विसे० । णस० जट्टि० विसे० । यट्टि विसे० । णीचा० ज० ढि० विसे । यहि विसे ।
६८९. वेदगसम्मा० सम्वत्थो० मणुसायु० ज०वि० । यहि विसे० । देवायु० जट्ठि० असंखेज्जः । यहि. विसे० । पंचणोक०-देवगदि-चदुसरीर-जस०-उच्चा० ज०द्वि० संखज० । यढि० विसे० । पंचणा०-छदसणा०-सादा०-पंचंत० ज०वि० [विसे०] विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति, भय और जगप्साका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगणा है इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और चार शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशः कीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे असाता वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यरिस्थतिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगति और औदारिक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात. गुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
६८६. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, देवगति, चार शरीर, यश कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष
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महाबंधे टिदिबंधाहियारे यढि० विसे० । चदुसंज० ज०वि० विसे० । यढि० विसे० । अरदि-सोग-अजस० ज.. द्वि० संखेज०। यढि० विसे । असादा० ज०ट्ठि. विसे । यढि० विसे । पञ्चक्खाणा०४ ज०ट्ठि० संखेन्ज । यढि० विसे० । अपचक्खाणा०४ ज०टि संखेज्ज । यहि विसे० । मणुसग०-ओरालि जट्ठि० संखेज्ज० । यहि विसे ।
६९०. सासणे सव्वत्थो० तिरिक्ख०-मणुसायु० जट्ठि० । यहि. विसे । देवायुग० ज०ढि० संखेज्ज० । यढि० विसे । पंचणोक-तिण्णिगदि-चदुसरीर-जस०णीचा० उच्चा० ज०वि० असंखेज०। यढि० विसे० । अरदि-सोग-अजस० जट्ठि. विसे० । यहि. विसे । इत्थि० ज०वि० विसे । यहि विसे० । पंचणा०-णवदंसणा०-सादा०-पंचंत० जगढ० विसे० । यहि विसे० । असादा० ज०ट्ठि० विसे० । यट्टि० विसे० ।
६६१. सम्मामिच्छादिहि ति सव्वत्थोवा पंचणोक०-दोगदि-चदुसरीर-जसगित्तिउच्चागो० जहण्णद्विदिबंधो । यहिदिबंधो विसेसाधियो। पंचणाणावरणीयाणं छदसणावरणीयाणं सादावेदणीयं पंचंतराइगं० ज.हि. विसे । यहि विसे० । बारसक० ज०. अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार संज्यलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशाकीतिका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इसमें असातावेदनीयका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विहोप अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थिनिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगति और औदारिक शरीरका जघन्य स्थिनिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यरिस्थ तिवन्ध विशेष अधिक है।
६६०. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, तीन गति, चार शरीर, यशः कीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशःकीतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यरिस्थतिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावदनीय और पाँच अन्तरायका जवन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यतिधनिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है।
६६१. सम्यग्मिथ्याटष्टि जावा में पांच नोकपाय, दो गति, चार शरीर, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध मवसे स्तोक है। इससे यतिम्धतिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, सातावदनीय और पाँच अन्तराय का जवन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे यत्स्थितितन्ध विठोप अधिक है। इससे बारह कपायका जघन्य स्थिनिबन्ध
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परस्थाणद्विदिअप्पाबहुगपरूवणा
३२३ द्वि. विसे । यढि० विसेसाधियो। अरति-सोग-अजसगित्ति० ज०वि० संखेज्ज। यढि० विसे० । असादा० जट्टि विसे० । यहि विसेसाधियो। एवं जहण्णयं परत्थाण. अप्पाबहुगं समत्तं।
एवं अप्पाबहुगं समत्तं
एवं चदुवीसमणियोगद्दाराणि समत्ताणि विशेष अधिक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयश कीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीय का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
इस प्रकार जघन्य परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
इस प्रकार अल्पवहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार चौथीम अनुयोगद्वार समाप्त हुए।
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महाबंधे हिदिधाहियारे
भुजगारबंधो ६६२. एत्तो भुजगारबंधो त्ति । तत्थ इमं अट्ठपदं मूलपगदिद्विदिभंगो कादव्यो । एदेण अद्रुपदेण तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहासमुकित्तणा याव अप्पाबहुगे ति [१३] ।
समुक्त्तिणाणुगमो ६६३. समुक्त्तिणाए दुवि०-ओघे० आदे० । ओषेण पंचणाणावरणीयाणं अत्थि भुजगारबंधगा अप्पदरबंधगा अवडिदबंधगा अवत्तव्वबंधगा य । चदुण्णं आयुगाणं अत्थि अवत्तव्व० अप्पदर० । सेसाणं मदियावरणभंगो। एवं ओघभंगो मणुसा०३-पंचिंदियतस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजागि-ओरालिय०-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-भवसिद्धि० सण्णि-आहारग त्ति ।
६६४. णिरएसु पंधणा०-छदंसणा०-बारसक०-भय-दु०-पंचिंदि० ओरालि०-तेजा.. क०-ओरालि अंगो०-वण्ण०४-अगु०४-तस०४-णिमि०-पंचंत० अत्थि भुज०-अप्पद०अवढि० । सेसं ओघं । एवं सत्तसु पुढवीसु ।
६६५. तिरिक्खेसु पंचणा०-छदसणा०-अट्ठकसा०-भय-दुगुं०-तेजा०-कम्म०-वण्ण०४. अगु०-उप०-णिमि०-पंचत० अत्थि भुज०-अप्पद०-अवढि०। सेसाणं ओघं। एवं
भुजगारवन्धप्ररूपणा ६६२. इससे आगे भुजगारबन्धका प्रकरण है। उसके विषयमें यह अर्थपद भूलप्रकृति स्थितिबन्धके समान करना चाहिए। इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं यथा--समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक १३ ।
समुत्कीर्तनानुगम ६६३. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । आघसे पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतर बन्धक जीव हैं, अवस्थित बन्धक जीव हैं और अवक्तव्य बन्धक जीव हैं । चार आयुओंके अवक्तव्य बन्धक जीव हैं और अल्पतर बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मतिज्ञानावरणके समान है। इसी प्रकार ओघके समान मनुष्य/त्रक, पञ्चन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, चतुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
६६४. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पश्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए।
६६५. तिर्यश्लोंमें पाँच ज्ञानावरण, लह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान
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परत्थाद्विदिप्पा बहुग परूवणा
पंचिंदिय-तिरिक्ख ०३ | पंचिंदियतिरिक्खअपजत्ता० पंचणा० - णवदंसणा ० - मिच्छ०-सोलसक० -भय-दुगुं ० -ओरालि० - तेजा ० क ० वण्ण०४ - अगु० - उप० - णिमि० - पंचंत ० अत्थि भुज ० -अप्पद ० - अवट्ठि० । सेस ओघं । एस भंगो सव्वअपजत्तगाणं एइंदिय-विगलिंदियपंचकायाणं च । णवरि तेउ०- वाउ० तिरिक्खगदितियस्स अवत्तव्यं णत्थि ।
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६६६. देवेसु पंचणा ० छदंसणा ० चारसक० -भय-दुगुं०-ओरालिय० -तेजा० क० वण्ण०४अगु०४ - बादर-पञ्जत्त-पत्तेग०- णिमि० - तित्थय ०. पंचतरा० अस्थि भुज ० - अप्पद ० - अवडि० । सेसं ओवं । एवं भणादि याव सोघम्मीसाण त्ति | सणकुमार याव सहस्सार ति णिरयोघो । आणद याव णवगेवजा त्ति पंचणा० छदंसणा ० - बारसक०-भय-दुगुं०-मणुसग०- पंचिंदि ० - ओरालि ० – तेजा ० - क ० - ओरालि० अंगो-व -वण्ण ०४ - मणुसाणुपु० - अगु०४तस -४ - णिमि० - तित्थय० - पंचंत० अस्थि भुज ० यप्पद ० अवट्टि० । सेसाणं ओघो । अणुदिस याव सवट्ठा त्ति पंचणा ० छदंस० बारसक० पुरिसवे ०-भय-दु० मणुसग०-पंचिंदि०ओरालि० - तेजा० क० - समचदु० ओरालि० अंगो० - वजरि० - मणुसाणु ० - वण्ण ०४- अगु०४पसत्थ० -तस०४ - सुभग- सुस्सर - आदेंज ० - णिमि० - तिथय० - पंचंत ० अत्थि भुज० - अप्पद०अट्टि० । सेसं ओघं ।
हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पयप्तिकों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान है । यही भङ्ग सब अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए | इतनी विशेषता हैं कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें तिर्यञ्चगतित्रिकका अवक्तव्य भङ्ग नहीं है ।
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६६६. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अंगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थंकर और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थिनबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान है। इसी प्रकार भवनवासी देवोंसे लेकर सौधर्म और ऐशान कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवों में सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग हैं। आनत कल्पसे लेकर नौग्रैवेयक तकके देवोंम पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसरीर, कार्मणशरीर, औदारिक अङ्गोपाङ्ग, चार वर्ण, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चार, त्रस चार, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, श्रदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान है ।
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महाबंध द्विदिबंधाहिया रे
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६६७. ओरालियमिस्से पंचणा०-णवदंसणा० सोलसक०-भय-दुगुं० - देवर्गादि-ओरालि ०. उन्त्रिय० - तेजा० क० वेउच्चि ०अंगो० - वण्ण०४ - देवाणुपु० - अगु० - उप० - णिमि०वित्थय० पंचत० अस्थि भुज० - अप्पद० अवडि० । सेसाणं ओवं । वेउब्विय० देवोघं । raft त्रिस्स अवत्तव्वं अस्थि । वेउव्वियमि० पंचणा० णवदंसणा० - सोलसक० -भयदुगुं०-ओरालि०-तेजा० क० वण्ण ०४ - अगु०४ - बादर - पजत्त - पत्तेय० - णिमि० - तित्थय ०पंचत० अस्थि भुज० - अप्पद ० अवडि० । सेसाणं ओघं । आहार० - आहारमिस्से धुविगाणं अत्थि भुज- अप्पद० - अवट्टि । सेसं ओघं । कम्मइगे० अणाहारगे० पंचणा०-णवदंसणा ०सोलसक य - दुर्गु० - देवर्गादि-ओरालि ० वेउब्विय ० तेजा ० क ० - वेउच्चि ० अंगो० वण्ण०४ देवाणु० - अगु० - उप० णिमि० - तित्थय० पंचंत० अस्थि भुज० अप्पद० अवट्ठि० । सेसं ओघं । ६६८. इत्थि - पुरिस० णवुंस० पंचणा० चदुदंस ० चदुसंज० पंचत० अत्थि अप्पद ० - अव०ि । सेसं ओघं । अवगद० सव्वाणं अस्थि भुज० - अप्पद ० - अवट्ठि ०-अव्वतव्वं । एवं सुहुमसंप० । णवरि अवत्तव्यं णत्थि ।
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1०-भय
६६६. कोधे पंचणा० - चदुदंस ० चदुसंज० - पंचंत • अस्थि भुज० - अप्पद ० - अवट्ठि ० ।
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६६७. श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका मन के समान है। वैक्रियिककायोगी जीवोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान हैं । इतनी विशेपता है कि इनमें तीर्थंङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्य पद है । वैक्रियिकमिश्र काय योगी जीवों में पाँच ज्ञानाचरण, नौ दर्शनावरण, सोलहकपाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, चारवर्ण, अगुरलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव है, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियों का भङ्ग ओके समान है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंक भुजगरबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेप प्रकृतियोंका भङ्ग के समान हैं । कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थित बन्धक जीव हैं शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान हैं ।
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६६८. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय के भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघ के समान है। अपगतवेदी जीवों में सब प्रकृतियोंके भुजगार बन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं, अवस्थितबन्धक जीव हैं और अवक्तव्यवन्धक जीव हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म सीपरायसंयत जीवों में जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें वक्तव्य पद नहीं है ।
६६६. कोयकपायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और
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परत्थाणट्टिदिपाबहुगपरूवणा
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सेसं ओघं । माणे तं चैव । णवरि तिण्णि संज० । मायाए दोणि संज० । सेसं तं चैव । लोभे पंचणा० - चदुदंस० पंचंत० अत्थि भुज० - अप्पद ० अवट्ठि० | सेसं ओघं ।
७००, मदि०- सुद० पंचणा० - णवदंसणा० - सोलसक० भय- दुर्गु० -तेजा० क० वण्ण० ४- अगु० - उप० - णिमि० - पंचंत० अत्थि भुज० - अप्पद ० अवडि० । सेसं ओघं । एस भंगो विभंगे । एवं चैव अन्भवसि ० - मिच्छादि ० - असणि ति । णवरि मिच्छत्त० अवत्तव्यं णत्थि । ७०१. आभि० सुद० - ओधि० - मणपजव ०- -संजद - ओधिदं ० - सुक्कले ० सम्मादि० खइग०-उवसम - ओघं । सामाइ० छेदो० पंचणा० चदुदंस० - लोभसंज-उच्चा० - पंचत० अस्थि भुज ० - अप्पद ० - अवट्टि० । सेसं ओघं । परिहार • आहारकायजोगिभंगो । संजदासंजद ० पंचणा० - छदंसणा ० - अदुकसा० - पुरिसवे ०-भय-दुर्गु० -देव गदि पंचिंदि ० ति ण्णिसरीर-समचदु० - वेडव्त्रियअंगो० - वण्ण ०४ - देवाणु ० - अगु०४ - पसत्थ० तस०४ - मुभग - सुस्सर-आदेंज० - णिमि० उच्चा० पंचंत० अस्थि भुज० - अप्पद० अवद्वि० । सेसं ओघं ।
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७०२. असंजदे० पंचणा०-छदंसणा ०-बार सक०-भय-दुगुं० तेजा० क० वण ०४अगु० - उप० - णिमि० पंचंत० अत्थि भुज० अप्पद० - अवट्टि ० । सेस ओघं । तिण्णि लेस्साणं पाँच अन्तराय के भुजगार बन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग श्रवके समान हैं। मानकषायवाले जीवोंमें वही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि यहाँ तीन संज्वलन कहना चाहिये । मायामें दो संज्वलन कहने चाहिये । शेष भङ्ग उसी प्रकार हैं । लोभकपायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके भुजगार बन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघ के समान हैं ।
७००. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय भुजगार बन्धक जीव हैं, अल्पतर बन्धक जीव हैं और अवस्थित बन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघके समान हैं । यही भङ्ग विभङ्गज्ञानी जीवोंमें जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार भव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें मिध्यात्वका अवक्तव्य पद नहीं है ।
७०१. आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी, संयत, अवधि दर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में ओघ के समान भङ्ग है। सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संगत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्च गोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थित वन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघ के समान हैं। परिहारविशुद्धि संगत जीवों में आहारक काययोगी जीवोंके समान भङ्ग हैं। संयतासंयत जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनवरण, आठ कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, तीनशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगारबन्धक जीव हैं, 'अल्पतर बन्धक जीव हैं और अवस्थितवन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओके समान है ।
७०२. असंयत जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण बारह कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय भुजगारबन्धक जीव हैं. अल्पतर बन्धक जीव हैं और अवस्थित बन्धक जीव हैं। शेप भङ्ग ओघ के समान हैं ।
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३२८
महाबँधे दिधाद्दियारे
एवं चैव । णवरि किण्ण-गीलाणं तित्थय० अवत्तव्वं णत्थि ।
७०३. तेऊ ए पंचणा० - छदंस० - चदुसंज०-भय- दुगुं० तेजा०क० वण्ण ०४ - अगु० ४ - बादर पजत्त - पत्तेय० - णिमि० पंचंत० अस्थि भुज० - अप्पद० अवट्ठि ० । सेसं ओघं । एवं पम्माए वि । णवरि पंचिंदिय० तस० धुवं कादव्वं ।
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७०४, वेदगसम्मा० पंचणा० छदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस०-भय-दुगुं ० - तेजा० क०पंचिंदि० - समचदु० - वण्ण ०४ - अगु०४ - पसत्थ० -तस०४ - सुभग - सुस्सर - आदे ० - णिमि०उच्चा० - पंचत० अत्थि भुज० - अप्पद० - अवट्टि ० । सेसं ओघं ।
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७०५. सासणे पंचणा०-णवदंसणा० - सोलसक० - भय - दुर्गु० - पंचिंदि०-तेजा० - क०वण्ण०४ - अनु०४-तस०४ - णिमि० पंचंत० अत्थि भुज ० - अप्पद ० -अवट्टि ० । सेसं ओघं । ७०६. सम्मामि० दोवेदणीय - चदुणोक० - थिराथिर - सुभासुभ-जस० - अजस ० अस्थि भुज ० - अप्पद ० - अवट्टि ० - अवत्तव्वं० । सेसाणं अस्थि भुज- अप्पद०-३ -अवडि० । एवं समुत्तिणा समत्ता सामित्ताणुगमो
७०७. सामित्ताणुगमेण दुवि० - ओघे० आदे० । ओघेण पंचणा० छदंसणा० चदुतीनलेश्यावाले जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नीललेश्या वाले जीवों में तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्य पद नहीं है ।
७०३. पतिलेश्यावाले जीवों में पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावण, चार संज्वलच, भय, जुगुप्सा, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रयेक, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतर बन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है । इस प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें पञ्चेन्द्रिय जाति और त्रस प्रकृतिको ध्रुव कहना चाहिये ।
७०४. वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुष वेद, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं । शेष भाग ओघ के समान है ।
७०५. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघ के समान है ।
७०६. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें दो वेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति के भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं, अवस्थितबन्धक जीव हैं और अवक्तव्यबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं।
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इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई ।
स्वामित्वानुगम
७०७. स्वाभित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - प्रोध और आदेश
श्रधसे
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भजगारबंधे सामित्तागमो
संज ०-भय- दुगुं ० -तेजा० - क ० - वण्ण ०४ - अगु० -उप० णिमि० पंचंत०
भुजगा० - अप्पद ०दबंध कस्स १ अण्णदरस्स । अवत्तव्वबंधो कस्स ? अण्णदरस्स उवसमगस्स परिमाणस्स मणुसस्स वा मणुसिणीए वा पढमसमए देवस्स वा । थीण गिद्धि० ३- अणंताणुबंधि०४ भुज ० - अप्पद ० - अवडि० कस्स १ अण्णद० । अवत० कस्स १ संजमादो संजमासंजमादो सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तादो वा परिवदमाणस्स पढमसमयमिच्छादिट्ठिस्स वा सासणसम्मदिट्ठस्स वा । मिच्छत्त० भुज० अप्प ० अवट्ठि ० कस्स : अण्णदरस्स । अवत्तव्व० कस्स ! अण्णद० संजमादो वा संजमासंज० समत्त० सम्मामि० सासण० वा परिवदमाणस्स पढमसमयमिच्छादिट्ठिस्स । अप्पचक्खाणा०४ तिण्णि पद० कस्स १ अण्णद ० | अवत्त • कस्स ० १ संजमादो वा संजमासंज० परिवदमाणस्स पढमसमय-मिच्छादिट्ठ० सासण० सम्मा मि० असंजद सं० । पच्चक्खाणा ०४ भुज० अप्पद ० - अवट्टि ० कस्स ० ? अण्ण० | अवत्त ० कस्स ० १ अण्णद० संजमादो परिवदमाण ० पढमसमय-मिच्छादि० सासण० सम्मामि० असंजदसं० संजदासंजद० । चदुण्णं आयुगाणं अवत्त० कस्स० ? अण्ण० पढमसमय- आयुगबंध ० । तेण परं अप्पदरबं० । आहार० - आहार० अंगो० पर ० - उस्सास ०आदाउजो० - तित्थय० तिष्णिपद० कस्स० ? अण्ण० । अवत्तव्व० कस्स० ? अण्ण० पढम
पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय इनके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित बन्धकका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उनका स्वामी है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर गिरनेवाला उपशामक मनुष्य और मनुष्यनी या प्रथम समयवर्ती देव वक्तव्यबन्धका स्वामी है । स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चारके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उनका स्वामी है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? संयमसे, संयमासंयमसे, संम्यक्त्व से और सम्यग्मिथ्यात्वसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टि या सासादन सम्यग्दृष्टि जीव श्रवक्तव्यबन्धका स्वामी है । मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त बन्धका स्वामी है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? संयमसे संयमासंयम से, सम्यक्त्वसे, सम्यग्मिथ्यात्वसे या सासादनसम्यक्त्वसे गिरनेवाला प्रथम समयवाला मिथ्यादृष्टि जीव वक्तव्यबन्धका स्वामी है । अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? संयमसे या संयमासंयमसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और
संयत सम्यग्दृष्टि जीव अवक्तव्य पदका स्वामी है । प्रत्याख्यानावरण चारके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त बन्धका स्वामी है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? संयमसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत अन्यतर जीव अवक्तव्यबन्धका स्वामी है । चार आयुओं के अवक्तव्यवन्धका स्वामी कौन है ? प्रथम समयवर्ती आयुकर्मका बन्ध करनेवाला अन्यतर जीव अवक्तव्यबन्धका स्वामी है। इससे आगे वह अल्पतर बन्धका स्वामी है । आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्रास, आतप, उद्योत और तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । अवक्तव्य पदका स्वामी कौन है ? प्रथम समय में
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महादिधाहियारे
समयबं० 1 सेसाणं तिण्णिपद० कस्स० १ अण्ण० । अवत्तव्व० कस्स० ? अण्ण० परियत्तमाणपढमसमयबंध० ।
७०८. णिरएसु धुविगाणं तिण्णिपदा० कस्स० १ अण्ण० । सेसाणं ओघादो साधेदव्वं । वरि सत्तमा तिरिक्खग-तिरिक्खाणु०-णीचा० धोणगिद्धि० भंगो । मणुसग०मणुसाणु० उच्चा० तिष्णिपदा० कस्स० ? अण्ण० । अवत्त० कस्स० ? अण्ण० मिच्छ तादो परिवद पढमसमय सम्मामि० सम्मादिट्ठि० ।
७०६. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिण्णिपदा कस्स० १ अण्ण० । सेसाणं ओघादो साधेदव्वं । एवं पंचिंदियतिरिक्ख ०३ | पंचिदियतिरिक्खअपजत्त० धुविगाणं तिष्णिपदा० कस्स० अण्ण० | सेसाणं ओघं । एवं सव्वअपजत्तगाणं एइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं च ।
७१०. मणुसा० ३ ओघं । णवरि अवत्त० देवो त्तिण भाणिदव्वं ।
७११. देवाणं णिरयोघो याव उवरिमगेवज्जा त्ति । णवरि विसेसो णादव्वो । उवरि पज्जत्तभंगो ।
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७१२. पंचिंदि०० -तस०२ - पंचमण० - पंचवचि०- कायजोगि ओरालि०-आभि० - सुद०बन्ध करनेवाला अन्यतर जीव अवक्तव्य पदका स्वामी है । शेष कर्मोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । अवक्तव्य पदका स्वामी कौन है । परिवर्तमान प्रथम समय में बन्ध करनेवाला अन्यतर जीव अवक्तव्यपदका स्वामी है ।
•
७०८. नारकियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदोंका 'स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी । शेष प्रकृतियों के यथासम्भव पदोंका स्वामित्व ओघसे साध लेना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग स्त्यानुगृद्धित्रिकके समान है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके तीन पदों का स्वामी कौन
? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी | अवक्तव्यपदका स्वामी कौन है ? मिध्यात्वसे ऊपर चढ़नेवाला प्रथम समयवर्ती सम्यग्मिध्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि अन्यतर जीव अवक्तव्य पदका स्वामी है ।
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७०९. तिर्यञ्चों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंके पदोंका स्वामित्व ओघ के अनुसार साध लेना चाहिये । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके जानना चाहिये । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पयप्तिकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग के समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्तक, एकेन्द्रिय, विकलत्रय और पाँच स्थावरकायिक जीवों के जानना चाहिये ।
७१०. मनुष्यत्रिक्रमें ओोधके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदका स्वामी देव है यह नहीं कहना चाहिये ।
७११. देवोंमें उपरिम ग्रैवेयक तक नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि वहाँ जो विशेष हो उसे जानकर कहना चाहिये । इससे आगे पर्याप्तके समान भङ्ग है ।
७१२. पचेन्द्रियकि, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिक
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भुजगारबंधे सामित्तानुगमो
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ओधि० चक्खुदं० - अचक्खुदं० - ओधिदं ० - सुकले ० भवसि ० सम्मादि ० - खइगस ०- उवसम०सण- आहारगति ओघो। णवरि पंचमण ० पंचवचि ० - ओरालिय० मणुसभंगी ।
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७१३. ओरालियमि० धुविगाणं भुज० अप्पद० अवट्ठि० कस्स० ? अण्ण० | सेसाणं ओघं । देवगदि ०४ - तित्थय० तिष्णिपदा० कस्स० १ अण्ण० । मिच्छ० तिष्णिपदा कस्स ? अण्ण० । अवत्त ० कस्स ० १ सासण० परिवदमाण ० पढमसमयमिच्छादिट्ठिस्स । ७१४. वेउव्वियका० देव - णेरहगभंगो । वेडन्नियमि० धुविगाणं तिष्णिपदा कस्स० १ अण्ण० देवस्स वा णेरइय० । मिच्छत्तस्स ओरालियमिस्तभंगो । सेसाणं ओघो । आहार - आहारमि० धुविगाणं तिष्णिपदा कस्स० १ अण्ण० । सेसं ओघं । कम्मइय० धुविगाणं तिण्णि पदा० कस्स० ? अण्ण० । सेसाणं तिण्णि पदा० कस्स० १ अण्ण० । अवत्त० कस्स० १ अण्ण० परियत्तमा० पढमसमयबं० । मिच्छ० - देवर्गादि०४तित्थय • ओरालियमस्तभंगो । एवं अणाहार० ।
०
७१५. इत्थि० पंचणा० चदुदंस० - चदुसंज० - पंचत तिष्णिपदा कस्स० १ अण्ण० । णिद्दा - पचला - भय - दुगुं० - तेजा० - क० याव णिमिण त्ति तिण्णि पदा
कस्स० १ काययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुः दर्शनी, अचतुदर्शनी, अवधि - दर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी और दारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग है ।
७१३. औदारिकमिश्र काययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। शेष प्रकृतियों के पदोंका स्वामी ओघके समान है । देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । मिध्यात्वके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । अवक्तव्य पदका स्वामी कौन है ? सासादन सम्यक्त्वसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टि जीव अवक्तव्य पदका स्वामी है ।
७१४. वैक्रियिककाययोगी जीवों में देवों और नारकियोंके समान भङ्ग है । वैक्रियिकमिश्रकायोगी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जीव उक्त पदोंका स्वामी है । मिध्यात्वका भङ्ग श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवों के समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदों का स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । कार्मणकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ! अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। अवक्तव्य पदका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान प्रथम समयमें बन्ध करनेवाला जीव अवक्तव्य पदका स्वामी है । मिथ्यात्व, देवगति चार और तीर्थङ्करका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
७१५. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव तीन पदोंका स्वामी है। निद्रा, प्रचला, भय,
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे अण्ण. तिगदियस्स। अवत्त० कस्स० ? अण्ण. उवसम० परिवदमा० मणुस० मणुसिणीए वा । सेसाणं ओघादो साधेदव्वं । णवरि तिगदियस्स । एवं पुरिस० । णवरि णिदा-पचलादंडयस्स ओघो । सेसाणं वि ओघो । णqसगे इत्थिभंगो । अवगदवे० भुज० अवत्त० कस्स० ? अण्ण० उनसम० परिवदमा० पढमसमय० । अप्पद०-अवढि कस्स० ? अण्ण उवसम० खवग० । एवं सव्वाणं ।
७१६. कोधे३ पंचणा०-चदुदंस०-पंचंत० तिण्णिपदा कस्स० ? अण्ण । कोधे चदुसंज. माणे तिणि संज० मायाए दो संज० णिदा-पवला-भय-दुगु० तेजइगादिणव० ओघो। सेसाणं ओघं । लोभे [१४] कोधभंगो । सेसं ओघं ।
७१७. मदि०-सुद० धुविगाणं तिण्णिपदा कस्स० ? अण्ण० । मिच्छ० अवत्त० ओरालियमिस्सभंगो । सेसाणं ओघेण साधेदव्वं । एवं विभंग०-अब्भवसि०-मिच्छादि० । णवरि दोसु मिच्छत्तस्स अवत्त० णत्थि । __७१८. मणपज्जव० संजदे धुविगाणं मणुसभंगो। एवं सेसाणं पि। सामाइ०
जुगुप्सा, तैजसशरीर और कार्मणशरीरसे लेकर निर्माण तक प्रकृतियोंके तीन पदाका स्वामी कौन है ? अन्यतर तीन गतिका जीव उक्त पदोंका स्वामी है। अवक्तव्य पदका स्वामी कौन है ? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला अन्यतर मनुष्य या मनुष्यनी अवक्तव्य पदका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके पदोंका स्वामित्व अोधसे साध लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तीन गतिके जीवके स्वामित्व कहना चाहिए। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके निद्रा और प्रचला दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके पदोंका स्वामित्व भी ओषके समान हैं। नपुंसकवेदी जीवोंमें स्त्रीवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। अपगतवेदी जीवोंमें भुजगार और अवक्तव्य पदका स्वामी कौन है ? उपक्षमश्रेणिसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। अल्पतर और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशामक या क्षपक अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंका स्वामित्व जानना चाहिए।
७१६. क्रोध, मान और माया कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव तीन पदोंका स्वामी है। क्रोधकषायवाले जीवोंमें चार संज्वलन, मान कषायवाले जीवोंमें तीन संज्वलन और मायाकषायवाले जीवोंमें दो संज्वलन तथा निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौ प्रकृतियोंका भङ्ग
ओघके समान है। तथा शष प्रकृतियोंके पदोंका स्वामित्व ओघके समान है। लोभ कषायवाले जीवोंमें चौदह प्रकृतियोंका भङ्ग क्रोध कपायवाले जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके पदोंका स्वामित्व ओघके समान है।
७१७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव तीन पदोंका स्वामी है । मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदका स्वामित्व औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों के समान है। शेष प्रकृतियों के पदोंका स्वामित्व ओघसे साध लेना चाहिए। इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अभव्य और मिथ्याइष्टि इन दो मार्गणाओंमें मिथ्यात्वका अवक्तव्य पद नहीं है।
७१८. मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंमें धवनन्धवाली प्रतियोंका भङ्ग मनुष्योके समान
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भुजगारधंधे कालाणुगमो छेदो० धुविगाणं तिण्णिपदा कस्स० ? अण्ण । णिद्दा-पचला-तिण्णिसंज०-पुरिस०-भयदुगुं० देवगदि-पंचिंदि०-तिण्णिसरीर-समचदु०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस० ४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि०-तित्थय० तिण्णिपदा कस्स ? अण्ण । अवत्तव्व० कस्स ? अण्ण. उवसम० परिवद० पढमसमय मणुस० मणुसिणीए वा। सेसाणं ओषो । परिहार० आहारकायजोगिभंगो। [सुहुमे भुज० कस्स० १ अण्ण० उवसम परिवद । वेपदा कस्स० १ अण्ण० उवस० खवग० ।]
७१६, संजदासंज०-सम्मामि०-[ सासाद० ] अणुदिसभंगो। णवरि संजदासंजदस्स तित्थयरस्स अवत्तव्वं ओघेण साधेदव्यो । असंजदा०तिरिक्खोघं। एवं तिण्णिलेस्साणं । णवरि किण्ण-णीलाणं तित्थयरस्स अवत्तव्वं णत्थि । तेउए धुविगाणं तिण्णिपदा कस्स० १ अण्ण । सेसाणं ओघादो साधेदव्वं । एवं पम्माए। वेदगे धुविगाणं तिण्णि पदा कस्स० १ अण्ण । सेसं ओघं । असण्णीसु धुविगाणं तिण्णि पदा कस्स० ? अण्णदरस्स । सेसाणं ओषादो साधेदव्वं । एवं सामित्तं समत्तं ।
कालाणुगमो ७२०. कालाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदंसणा०-दोवेदहै। इसी प्रकार शंप प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिए। सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। निद्रा, प्रचला; तीन संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पश्चेन्द्रिय जाति, तीन शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूवी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति । सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर इनके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। अवक्तव्यपदका स्वामी कौन है ? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती अन्यतर मनुष्य या मनुष्यिनी अवक्तव्यपदका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंके पदोंका भङ्ग अोधके समान है । परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें आहारककाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें भुजगारपदका स्वामी कौन है ? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला अन्यतर जीव भुजगारपदका स्वामी है। अल्पतर और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशामक और क्षपक उक्त दो पदोंका स्वामी है।
७१६. संयतासंयत, सम्यग्मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका भङ्ग अनुदिशके समान है। इतनी विशेषता है कि संयतासंयत जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद ओघसे साध लेना चाहिए। असंयतोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है । इसीप्रकार तीन लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्यावाले जीवोंमें तीर्थङ्करका अवक्तव्य पद नहीं है । पीत लेश्यावाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंके पदोंका स्वामित्व ओघसे साध लेना चाहिए। इसीप्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्र वबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है।शेषके प्रकृतियोंके पदोंका स्वामित्व ओघके समान है। असंज्ञी जीवोंमें ध्रव प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके पदोंका स्वामित्व ओवसे साध लेना चाहिए । इसप्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ ?
कालानुगम ७५०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-आध और आदेश। ओघसे पाँच
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महाबंध हिदिबंधाहियारे
णी० - मिच्छ०. सोलसक० णवणोक० तिरिक्खग०-पंचिंदि० ओरालि० -तेजा० क०- - छस्संठा०ओरालि० अंगो० . छस्संघ० वण्ण०४ - अगु०४ - तिरिक्खाणु० उज्जो ० - दोविहा० -तस - बादरपज्जत - अपज्जत - पत्तेय ० - थिरादिछयुगल णिमि० णीचा० - पंचंत० भुज० केवचिरं कालादो होदि ? जह० एग०, उक्क० चत्तारि समया । अप्पद ० के ० १ जह० एग०, उक्क० तिष्णि सम० । अवद्वि० जह० एग, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० एग०, उक्क० एग० । चदुष्णं आयु. गाणं अवत्तव्व० जह० उक्क० एग० । अप्पद० जह० उक्क० अंतो० । वेउव्वियछ० - आहा
दुग - तित्थय० भुज० - अप्पद० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त • जहण्णु० एस० । मणुसग० मणुसाणु० उच्चा० भुज० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । अप्पद० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० एग० । एइंदिय आदाव थावर- सुहुम-साधार० भुज० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अप्पद० जह० एग०, उक्क० तिष्णिसम० । अवत्त० - अवट्टि० देवदिभंगो | बीइंदि० तीइंदि० चदुरिं० भुज० अप्पद० जह० एग०, उक्क० तिष्णि सम० । अवट्ठि ० -अवत्त० देवगदिभंगो । सेसाणं पगदीणं भुज० जह० एग०, चत्तारि सम० । अप्पद० जह० एग०, उक्क० तिण्णिसम० । अवट्ठि जह० एग०, उक्क ०
उक्क०
ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कपाय, नौ नोकषाय, तिर्यंचगति, पलेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, उद्योत, दो विहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि छह युगल, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल चार समय है । अल्पतरबन्धका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अवस्थित पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यपदका जघन्यकाल एक समय है. और उत्कृष्टकाल एक समय है । चार आयुश्रोंके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । अल्पतरपदका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थकरके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय हैं । अव - स्थितपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके भुजगारपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल चार समय है । अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है । अवस्थित पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण के भुजगारपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है । अल्पतरपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अवक्तव्य और अवस्थित पदका भङ्ग देवगतिके समान है । द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाते और चतुरिन्द्रियजातिके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अवस्थित और अवक्तव्यपदका
पदका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । एकेन्द्रियजाति,
देवगतिके समान है। शेष प्रकृतियोंके भुजगारपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल चार समय है । अल्पतरपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अवस्थित पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट
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भुजगारबंधे कालाणुगमो
३६५ अंतो० । अवत्त० जहण्णु० एगस० । एवं ओघभंगो कायजोगि-कोधादि०४-मदि०सुद०-असंज०-अचक्खुदं०-तिण्णिले०-भवसि० अब्भवसि०-मिच्छादि० ।
७२१. णिरएसु धुविगाणं भुज० अप्प० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं सेसाणं पि । णवरि अवत्तव्वगो यस्स अत्थि तस्स एय. समयं । एवं सव्वणिरयाणं ।।
७२२. तिरिक्खेसु ओघो। णवरि धुविगाणं अवसव्वं णत्थि । मणुसग०-मणुसाणु०. उच्चा० देवगदिभंगो। पंचिंदियतिरिक्खसु मणुसग०-चदुजादि-मणुसाणु०-थावर-आदावसुहुम-साधार०-उच्चा० देवगदिभंगो । सेसाणं भुज --अप्पद० जह० एग०, उक्क० तिणि सम० । सेसं ओघं । पंचिंदियपज्जत्त-जोणिणीसु एवं चेव। णवरि अपज्जत्तणाम देवगदिभंगो। पंचिंदिय०अपज्ज० धुविगाणं भुज०-अप्पद० जह० एग०, उक्क० तिण्णि सम० । अवढि० जह० एग०, उक्क. अंतो० । सादासाद०-पंचणोक०-तिरिक्खग०पंचिंदि०-इंडसं०-ओरालि.अंगो०-असंप०-तिरिक्खाणु०-तस०-बादर-अपज्ज०-पत्ते०-अथिरादिपंच-णीचा. भुज०-अप्पद० जह० एग०, उक० तिण्णि सम० । अवढि० ओघं । सेसं णिरयभंगो। काल एक समय है। इसीप्रकार ओघके समान काययोगी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य और मिथ्यादष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
७२१. नारकियोंमें ध्र ववन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है । अवस्थितपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार शेष प्रकृतियोंके पदोंका काल जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि जिस प्रकृतिका अवक्तव्यपद है उसका जघन्य और. उत्कृष्टकाल एक समय है। इसीप्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिये।
७२२. तिर्यञ्चोंमें ओघके समान काल है। इतनी विशेषता है कि ध्र वबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं हैं। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग देवगतिके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंमें मनुष्यगति, चार जाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, साधारण
और उच्चगोत्रका भङ्ग देवगतिके समान है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य काल एक मय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। शेष भङ्ग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यश्च और योनिनी जीवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें अपर्याप्त नामका भङ्ग देवगतिके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें ध्र वबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है। सातावेदनीय, असातावेदनीय पाँच नोकपाय, तिर्यश्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति; हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन,
विगत्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, अपयोप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और नीचगोत्रके भजागार और अल्पतरपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अवस्थितपदका काल ओघके समान है । शेप भङ्ग नरकियोके समान हैं।
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महाबंधे डिदिबंधाहियारे ७२३. मणुसा०३ सव्वाणं भुज-अप्प० जह० एग०,उक्क०बेसम०। अवढि०-अवसव्वं ओघं। एवं मणुसभंगो पंचमण-पंचवचि०-ओरालि०-वेउवि० वेउव्वियमि०-आहारआहारमि० विभंग-आमि० सुद०-ओधि०-मणपज्ज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०संजदासंजद-ओधिदं०-तेउ०-पम्म०-सुकले०-सम्मादि०-खइग०-वेदगस०-उवसम०सासण-सम्मामि-सण्णि त्ति । मणुसअपज्ज० पोरइगभंगो । एवं देवाणं एइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं च।।
७२४. पंचिंदिय०२ चदुआयु० ओघं । वेउन्वियछक्क-आहारदुग-तित्थय० चदुजादिआदाव-थावर सुहुम-साधार० भुज० अप्पद० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अवट्टि०-अवत्तव्वं ओघं। सेसाणं भुज०-अप्प० जह० एग०, उक० तिण्णिसम० । अवढि० अवत्त० ओघं । मणुसग०-मणुसाणु० उच्चा० भुज० जह० एग०, उक० तिण्णिसम० । अप्पद० जह० एग०, उक्क० वेसम । अवढि०-अवत्त० ओघं। पज्जत्त० अपज्जत्तणामाणं देवगदिभंगो। पंचिंदियअपज्ज० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। णवरि मणुसग०-मणुसाणु० भुज. जह० एग०, उक्क० तिण्णिसम० । अप्पद० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अवढि०-अवत्त० ओघ ।
७२३. मनुष्यत्रिकमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है । अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है। इसीप्रकार मनुष्योंके समान पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिकयोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, विभङ्गज्ञानी आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत,सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत,अवधिदर्शनी,पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले,शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि; सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इसीप्रकार देव, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थारकायिक जीवोंके जानना चाहिये ।
७२४. पश्चेन्द्रियद्विकमें चार आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। वैक्रियिक छह, अहारकद्विक, तीर्थङ्कर, चार जाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका काल
ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके भुजगारपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है । पर्याप्त और अपर्याप्त नामका भङ्ग देवगतिके समान है। पञ्चेन्द्रिय अप्तिकोंमें तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके भुजगार पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अल्पतरपदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान हैं।
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भुजगारबंधे कालाणुगमो
३३० ७२५. तस-तसपज्जत्त० वेउब्बियछक्क-एइंदि०-आहारदुग-आदाव-थावर-सुहुमसाधार तित्थय० भुज०-अप्पढ़. जह० एग०, उक्क० वेसम० । अवढि०-अवत्त० ओषं । वेइंदि० भुज० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अप्पद० जह० एग०, उक० तिण्णिसम । अवढि० अवत्त० सेसाणं ओघं । पज्जत्ताणं अपज्जत्तणामाणं च देवगदिभंगो।
७२६. तसअपज्ज० धुविगाणं भुज० जह० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अप्पद० जह० एग०, उक्क० तिण्णिसम० । अवडि. ओधं । दोवेदणीय०-पंचणोक०-तिरिक्खग०पंचिंदि०-हुंडसं०-ओरालि अंगो०-असंपत्त-तिरिक्खाणु०-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेय० अथिरादिपंच-णीचा० भुज० जह० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अप्पद० जह० एग, उक. तिण्णिसम० । अवढि० अवत्त० ओघं । मणुसग०-मणुसाणु० भुज० जह० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अप्पद० जह० एग०, उक्क० बेसम० । [अवढि०-अवत्त०] तिण्णिविगलिंदि०. तसणामाणं च ओघं । णवरि बेइंदि० भुज० वेसम० । सेसाणं भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क०-वेसम० । अवढि०-अवत्त० ओघं ।
७२७. ओरालियमि० मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० भुज०-अप्पद० जह० एग०,उक. तिण्णिसम० बेसम० । अवढि०-अवत्त० ओघं । देवगदि०४-तित्थय० भुज-अप्पद०
७२५. बस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें वैक्रियिक छह, एकेन्द्रियजाति, आहारकद्विक, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और तीथङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है । अवस्थित और अवक्तव्य पदका भङ्ग ओधके समान है। द्वीन्द्रिय जातिके भुजगार पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है । अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अवस्थित और अवक्तव्य पदका नथा शेप प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । पर्याप्त और अपर्याप्तका भङ्ग देवगतिके समान है ।
__७२६. बस अपर्याप्तकोंमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके भजगार पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल चार समय है । अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अवस्थित पदका भङ्ग ओघके समान है। दो वेदनीय, पांच नोकषाय, तियेश्वगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पांच और नीचगोत्रके भुजगार पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल चार समय है। अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अवस्थित और अवक्तव्यपदकाभङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी के भुजगार पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल चार समय है। अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका तथा तीन विकलेन्द्रिय और त्रस नामकर्मका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि द्वीन्द्रियजाति के भुजगार पदका उत्कृष्टकाल दो समय है। शेष प्रकृतियों के भुजगार और अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है।
७२७. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके भुजगार और अल्पतरपद का जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल क्रमसे तीन समय और दो समय है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है । देवगति चार और नीर्थ
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे जह० एग०, उक्क०, बेसम०।सेसाणं ओघं । णवरि जेसिं चत्तारि समयं तेसिं तिण्णि समयं ।
७२८. कम्मइ० धुविगाणं थावरपगदीणं च अवढि० जह० एग०, उक्क० तिण्णि सम० । अवत्त० [जहण्णु०] एगस० । सेसाणं अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त० जहण्णु० एग० । देवगदिपंचग० अवढि० जह० एग०. उक० बेसम० ।
७२६. इत्थिवेदे पंचणा-चदुदंस०-चदुसंज. पंचंतरा० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। पंचदंस०-दोवेदणी०-मिच्छ०-बारसक०-इत्थिवे०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुं०-तिरिक्खग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-छस्संठाणं-ओरालि.अंगो०-छस्संघ०-वण्ण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-उज्जो दोविहा०-तस०४-थिरादिछयुगल-णिमि०-णीचा० भुज०-अप्प० जह० एम०, उक० तिण्णिसम० । अवढि०-अवत्त० ओघं । मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० भुज० जह० एग०, उक० तिण्णिस० । अप्प०-अवढि०-अवत्त० ओघ । सेसाणं भुज०अप्प० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अवढि०-अवत्त० ओघं । पुरिसवेदे सो चेव भंगो। णवरि पुरिस०दोपदा जह० एग०, उक्क० तिण्णिस० । अवढि०-अवत्त० ओघं । णqसगे ओघं । णवरि इत्थि०-पुरिस० देवगदिभंगो । अवगदवे. सधपगदीणं भुज-अप्प०. ङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। शेष प्रकृतियोंके पदोंका काल ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि जिनका ओघसे चार समय काल है उनका काल यहाँ तीन समय है।।
__७२८. कार्मणकाययोगी जीवोंमें ध्रुव और स्थावर प्रकृतियोंके अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । शेष प्रकृतियों के अवस्थित पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। देवगतिपञ्चकके अवस्थित पदका काल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है।
__७२६. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तियञ्चोंके समान है । पाँच दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारि आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, दो विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह युगल, निर्माण और नीचगोत्रके भजगार और अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका काल ओघके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके भुजगार पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य पदका काल ओघके समान है। शेष प्रकृतियों के भुजगार और अल्पतर पदका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अवस्थित और प्रवक्तव्य पदका काल अोधके समान है। पुरुषवेदी जीवोंमें वही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके दो पदोंका जघन्यकाल एक समय हैं और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका काल ओधके समान है । नपुंसकवेदी जीवोंमें ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भङ्ग देवगतिके समान है । अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
३३६ अवत्त० एग० । अबढि० ओघं ।।
७३०. सुहुमसंप० सव्वाणं भुज०-अप्प० एग०। अवढि० जह. एग०, उक्क० अंतो० । [चक्खुदं० तसपजत्तभंगो। णवरि तेइंदि०चदुरि० भुज० जह० एग० उक्क० वे०]
७३१. असण्णीसु वेउन्वियछ०-मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० भुज०-अप्प० जह. एग०, उक्क० बेसम० । अवढि०-अवत्त ओघं । सेसाणं भुज-अप्प० जह० एग०, उक० तिण्णिसम० । णवरि इत्थिवेदादिपंचिंदियसंजुत्ताणं पगदीणं उक्कस्सं अप्पदरं बेसमयं । अवढि०-अवत्त० ओघं । एइंदिय-आदाव-थावर-सुहुम-साधारणाणं ओघं ।
७३२. आहारगेसु चदुआयु०-वेउब्वियछ आहारदुग-तित्थय० ओघो। मणुसग०मणुसाणु०-उच्चा० भुज० जह० एग०, उक्क० तिण्णिसम० । अप्प० जह० एग०, उक० वेसम० । अवढि०-अवत्त० ओघं । एइंदिय-आदाव-थावर-हुम-साधारणं च ओघं । सेसाणं भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० तिण्णिस० । अवढि०-अवत्त० ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं कालं समत्तं ।
अंतराणुगमो ७३३. अंतराणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-छदसणा०-चदुसंज०पदका काल अोधक समान है।
७३०. सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्तकों के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिके भुजगार पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है।
७३१. असंज्ञी जीवोंमें वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अवस्थित
और अवक्तव्य पदका काल ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद आदि पश्चेन्द्रियसंयुक्त प्रकृतियोंके अल्पतर पदका उत्कृष्ट काल दो समय है। अवस्थित और अवकव्य पदका काल ओघके समान है। एकेन्द्रियजाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका भड़ ओघके समान है।
७३२. आहारक जीवोंमें चार आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओधके समान है। मनुष्यगति; मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके भुजगार पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय है
और उत्कृष्ट काल दो समय है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका काल ओघके समान है। एकेन्द्रियजाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार
और अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका काल ओघके समान है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ।
अन्तरानुगम. ७३३. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघने पाँच
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३४०
महाधे द्विधाहियारे
उक०
०
भय- दुगुं ० . तेजा० क० वण्ण०४ - अगु० - उप० - णिमि० पंचंत० भुज ० - अप्पद ० - अवट्ठि० बंधंवरं केव • जह० एग०, उक्क० अंगे० । अवत० जह० अंतो०, उक्क० अद्धपोंगल ० । थी गिद्ध ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ भुज० - अप्प० - अवट्ठि० जह० एग०, बेछावट्टि • देसू० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अद्धपोंगल ० । सादासाद ० चदुणोक०थिराथिर - सुभासुभ-जस०-अजस० तिष्णिपदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक० अंतो० । एवमेदाणं याव अणाहारग त्ति एस भंगो । अट्ठक० तिष्णिपदा जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी दे० । अवत्त ० णाणावरणभंगो | इत्थि० तिष्णिपदा जह० एग०, छाago देसू० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क ० बेछा ० सू० । पुरिस तिष्णिपदा० णाणा० भंगो । अवत्त० जह०: • अंतो०, उक्क ० • बेछावद्वि० सादिरे० | णवुंस०पंचसंठा ० पंच संघ० - अप्पसत्थ० - दूभग दुस्सर- अणादें० तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० छाडि • सादि० तिष्णि पलिदो ० देसू० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावट्टि ० सादि० तिष्णिपलिदो० सू० । तिण्णिआयु० अवत्त० अप्पद० जह० अंतो, उक्क० अणंतका० । तिरिक्खायु० अवत्त० अप्पद० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं ० । उव्वियछ० तिष्णिपदा० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अनंतका० ।
उक्क०
०
ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशः कीर्ति और अयशःकीर्तिके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । इसीप्रकार इन प्रकृतियोंका अनाहारक मार्गणातक यही भङ्ग हैं। आठ कषायों के तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अवक्तव्यपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। स्त्रीवेदके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो घासठ सागर है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो घासठ सागर हैं । पुरुषवेदके तीन पदोंका अन्तर ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर हैं। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहमन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर, और कुछ कम तीन पल्य है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासागर और कुछ कम तीन पल्य है। तीन श्रयुक्तव्य और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । तिर्यखायुके अवक्तव्य और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्व है। वैक्रियिक छहके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका
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भुजगारबंधे अंतराणुगमा
३४१ तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु० तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० तेवद्विसागरोवमसद० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० असंखेजा लोगा। मणुसगदितिगं तिण्णिप० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० असंखजा लोगा। चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ तिण्णिपदा० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं। पंचिंदि०. पर०-उ०-तस०४ तिण्णिप० जह० एग०, उक० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक० पंचासीदिसाग०सदं । ओरालि० तिण्णिप० जह० एग०, उक्क० तिणिपलिदो० सादि। अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० अणंतका० । आहारदुगं० तिष्णिप० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो, उक्क० अद्धपोग्गल | समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदज० तिण्णिप० जह० एग०, उक० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावहि. सादि० तिण्णि पलिदो० देसू० । ओरालि अंगो०-वज्जरिस० तिण्णिप० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादि० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादिरे । उज्जो० तिण्णिपदा० तिरिक्खगदिभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेवद्विसागरोवमसदं । णीचागो तिष्णिपद० णqसगभंगो । अवत्त० जह० उक्क तिरिक्खगदिभंगो। तित्थय० तिण्णिप० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि०। जघन्य अन्तर अन्तमुहूत हे और उत्कृष्ट अन्तर सवका अनन्त काल है । तिर्यश्चगति और तियश्चगत्यानुपूर्वीके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उस्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है। मनुष्यगतित्रिकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्महतें है और उत्कट अन्तर एक सौ पचासी सागर है। पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छास और त्रसचतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर है । औदारिक शरीरके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्ट है
और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। आहारक द्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूते हैं और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्समुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है। औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराच संहननके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक ततीस सागर है। उद्योतके तीन पदोंका अन्तर तिर्यश्चगतिके समान है। अवक्तव्य पढ़का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष् अन्तर एक सौ बेसठ सागर है। नीचगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग नपंसकवेदक समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर तिर्यश्चगतिक समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्नर साधिक तेतीस सागर है।
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રૂપર
महाबंध द्विदिवेधाहियारे
७३४. णिरएसु धुविगाणं भुज० अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्टि • जह० एग०, उक्क० वेसम० । पुरिस० समचदु० वज्जरिस० पसत्थ०- सुभग-सुस्सर-आदेज्ज० तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सू० | धुवभंगो तित्थयरं । णवरि अवत्तव्वं णत्थि अंतरं । सेसाणं पि पगदीणं तिण्णि पदा० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं साग० दे० | दोआयु० दो पदा० जह० अंतो०, उक्क० छम्मासं देणं । एवं सत्तमाए । सेसाणं पि तं चैव पुढवि० । वरि मणुसग०- मणुसाणु० - उच्चा० पुरिसवेदेण समं कादव्वं ।
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७३५. तिरिक्खेसु धुविगाणं भुज० अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवडि० जह० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । श्रीणगिद्वि०३ - मिच्छ० अनंताणुबंधि०४ तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० तिष्णिपलिदो० दे० । अवत्तव्वं श्रघं । अपचक्खाणा ०४तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क ० पुव्व कोडी ० सू० | अवत्त० ओघं । इत्थवे तिष्णिपदा० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिष्णिपलिदो० देसू० । नपुंस०तिरिक्खग ० चदुजादि-ओरालि०- पंचसंठा०-ओरालि० अंगो० छस्संघ० - तिरिक्खाणु० -आदाउज्जो० - अप्पसत्थ० थावरादि ०४ - दूर्भाग- दुस्सर-अणादें ०-णीचा० तिष्णिपदा० जह० एग०,
७३४. नारकियोंम ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंक भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयक तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के समान है। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य पदका अन्तर नहीं है । शेष प्रकृतियोंके भी तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय हैं, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो आयुओं के दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवी में जानना चाहिए। शेष पृथिवियों में भी यही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके पदोंका अन्तर पुरुषवेदके साथ कहना चाहिए।
७३५. तिर्यञ्चमं ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य हैं । अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघ के समान हैं । अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अवक्तव्य पदका अन्तर के समान है । स्त्रीवेदके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय हैं, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सबका कुछ कम तीन पल्य है । नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीच गोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
३४३ अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी० देसू० । णवरि तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु०. ओरालि०-णीचा० अवत्त० ओघं । पुरिस०-समचदु०-पंचिंदि०-परघा०-उस्सा०-पसत्थ०तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें. तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडी० देसू० । णवरि पुरिसवे० अवत्त० जह० अंतो०, उक० तिण्णिपलिदो० देसू । तिण्णिआयुगाणं दो पदा० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसूर्ण० । तिरिक्खायु० दो पदा० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी सादिरे । वेउव्वियछकं-मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० ओघं ।
७३६. पंचिंदियतिरिक्ख०३ धुविगाणं भुज-अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० तिण्णिसम० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ ० अणंताणुबंधि०४तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० तिण्णिपलिदो० देसू० । अवत्त० जह० अंतो०, उक० तिग्णपलिदो० पुचकोडिपुध० । अपञ्चक्खाणा०४ तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० पुन्वकोडी देसू० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडिपुध० । इथि तिण्णिपदा० मिच्छ त्तभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिणिपलिदो० देस० । णवुस०-तिण्णिगदिचदुजादि-ओरालि०-पंचसंठा०-ओरालि० अंगो०-छस्संघ०-तिण्णिआणु०-आदाउज्जो० अप्पहै, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सबका कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और नीचगोत्रके अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है। पुरुषवेद, समचतुरस्त्रसंस्थान, पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्षकोटि है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। तीन आयओंके दो पदांका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण है। तिर्यञ्चायुके दो पदोंका जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है। वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघके समान है।
७३६. पश्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदका अघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानन्धी चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। अप्रत्याख्यानावरण चारक तीन पदाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । स्त्रीवेद के तीन पदोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। नपंसकवेद, तीन गति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशम्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंका जघन्य
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महाधे दिधाहियारे
सत्थ० - थावरादि ०४ - दूभग दुस्सर -अणादे० - णीचा० तिण्णिपदा० जह० एग०, अवत० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देख० । पुरिस० तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिष्णि पलिदो० दे० । चदुआयु० तिरिक्खोघं । देवगदिपंचिंदि ० - वेउच्चि ० - समचदु० - वेउन्त्रि ० अंगो० देवाणुपु० परघा० उस्सा० पसत्थ० -तस०४सुभग-सुस्सर-आदेज्ज ० उच्चा० तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० पुव्वकोडी देसू०
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अंतो"
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७३७. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगे धुविगाणं दो पदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्टि ० जह० एग०, उक्क० तिष्णिसम० । सेसाणं तिष्णिपदा जह० एग०, उक्क० अंतो०, अवत्त० जह० उक्क० अंतो । दोआयु० दोपदा० जह० उक्क० अंतो० । एवं सव्वअपज्जत्ताणं एइंदिय - विगलिंदिय-पंचकायाणं च । णवरि यो जस्स भुजगारकालो सो अवट्टि - दस्स अंतरं होदि । यो अवट्ठिदकालो सो भुज० - अप्पद० अंतरं होदि । आयुगाणं दोष्णं पदाणं पगदिअंतरं कादव्वं । किंचि विसेसो |
७३८. मणुसेसु पंचणा० छदंसणा ० - चंदु संज ०-भय-दुर्गु० - णामणव- पंचंत० तिणिपदा० ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्विकोडिपुध० । आहारदुगं तिष्णिपदा० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्विकोडि धत्तं । तित्थय० तिष्णिपदा
अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सबका कुछ कम एक पूर्वकोटि है । पुरुषवेदके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है | अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। चार आयुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, समचतुर संस्थान, वैयिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । अवक्तव्य पढ़का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है।
७३७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोमं ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है. और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जधन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो आयुओंके दो पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सब अपर्याप्तक, एकेन्द्रिय, विकलत्रय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जो जिसका भुजगारबन्धका काल है वह उसके अवस्थितबन्धका अन्तरकाल होता है तथा जो अवस्थितबन्धका काल है वह भुजगार और अल्पतरबन्धका अन्तर काल होता है। तथा आयुओं दोनों पदोंका प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान अन्तर करना चाहिए । कुछ विशेषता है ।
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७३८. मनुष्यों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्मा, नामकी नो प्रकृतियाँ और पाँच अन्तरायके तीन पढ़ोंका भङ्ग ओघ के समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । आहारकद्विकके तीन पदोंका
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भुजगारबंधे अंतरानुगमो
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णाणावरणमंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देख० । सेसाणं पंचिदियतिरिक्खभंगो | मणुसायु ० तिरिक्खायुभंगी ।
७३६. देवेसु धुविगाणं णिरयभंगो । श्रीणगिद्धि ० ३ - मिच्छ० - अणंताणुबंधि ०४इत्थि ० - ण स ० - पंचसंठा० - पंच संघ० - अप्पसत्थ० दूभग दुस्सर - अणादें ० -- णीचा० चदुष्णं पदाणं जह० एग०, उक्क० ऍकत्तीसं० देसू० । णवरि अवत्त० जह० अंतो ० | पुरिस०समचदु० वज्जरिस० पसत्थ० - सुभग-सुस्सर - आदेंज्ज० उच्चा० तिण्णिपदा सादभंगो । अवतव्वं इत्थवेदभंगो । दोआयु० णिरयभंगो । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० -उज्जो० तिष्णिपदा० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, चदुष्णं पि अट्ठारस साग० सादि० । मणुसग०- मणुसाणु ० - तिष्णिपदा सादभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठारस सा० सादि० । एइंदिय - आदाव थावर० तिष्णिपदा० जह० एस० अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० वेसागरोव० सादि० | पंचिंदि ० -ओरालि० अंगो० -तस० तिष्णिपदा० सादभंगो अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० वेसाग० सादि० । तित्थय ० णः णावरणमंगो । एदेण कमेण सव्वदेवाणं अंतरं कादव्वं ।
७४०. पंचिंदिय-पंचिंदियपञ्जत्ता० तस० तसपजत्ता० पंचणा० छदंसणा ० चदुसंज०भय-दुर्गु० - तेजइगादिणवणाम० पंचं तराइ० तिष्णिप० ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सबका पूर्वकोटिप्रथक्त्व प्रमाण है। तीर्थङ्कर प्रकृति के तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्दर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान है । मनुष्यायुका भङ्ग तिर्यञ्चायुके समान है ।
७३६. देवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके चार पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षंभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । दो आयुओंका भङ्ग नारकियों के समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रसके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। तीर्थंङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इसी क्रमसे सब देवोंमें अन्तर प्राप्त करना चाहिए ।
७४०. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और बस पर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार मंज्वलन, भय, जुगुप्सा, नैजम आदि नौ नामकर्म और पाँच अन्तरायके तीन
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे उक्क० सगढिदी । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ तिण्णिपदा० ओघं । अवत्त. णाणावरणभंगो। एवं इथि० । णवरि अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावद्विसाग० देसू० । अट्ठक० तिण्णिपदा० ओघं । अवत्त० णाणावरणभंगो । णवुस०-पंचसंठा०-पंचसंघ० अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें-णीचा० तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० बेछा. वहि. सादि० तिण्णि पलिदो० देसू । अवत्तव्वं तं चेव । णकार जह० अंतो० । पुरिस० तिण्णिपदा० णाणावरणभंगो। अवत्त० ओघं । तिण्णिआयु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । मणुसायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क. सगहिदी० । पज्जत्तगेसु चदुण्णं आयुगाणं दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । णवरि तसपजते मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० बेसागरोवमसहस्सा० देसू० । णिरयगदिणिरयाणु०-चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं। अवत्त० तं चेव । णवरि जह० अंतो। तिरिक्खग-तिरिक्खाणु०. उज्जो० तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं । अवत्तव्वं तं चेव । णवरि जह० अंतो० । मणुस०-देवगदि-वेउब्विय०-वेउन्वि० अंगो०-दोआणु० तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । अवत्तव्वं तं चेव । णवरि जह० अंतो० । पंचिंदि०
पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थिति प्रमाण है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंका भङ्ग ओघके समान है । अवक्तव्य पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । इसी प्रकार स्त्रीवेदके पदोंका अन्तरकाल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। आठ कषायोंके तीन पदोंका अन्तर । आपके समान है। अवक्तव्य पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है। अवक्तव्य पदका वही अन्तर है। इतनी विशेषता है कि जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेदके तीन पदोंका ज्ञानावरणके समान भङ्ग है । अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है। तीन आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्व है । मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थिति प्रमाण है। पर्याप्तकों में चार आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि त्रसपर्याप्तकोंमें मनुष्यायुका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागर है । नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर है। अवक्तव्य पदका वही अन्तर है । इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और उद्योतके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर है । अवक्तव्य पदका वही अन्तर है। इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगति, देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और दो
तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तैतीस सागर है।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो पर० उस्सा०-तस०४ तिष्णिपदा० णाणावरणभंगो । अवत्तव्वं ओधं । ओरालि०-ओरालि० अंगो० - वजरिस० तिष्णिपदा० ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । आहारदुगं तिष्णिपदा० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० कायट्ठिदी० | समचदु० - पसत्थ० - सुभग-सुस्सर-आदें• तिष्णिपदा० णाणावरणभंगो । अवत्त ० ओघं । तित्थय० ओघं । उच्चा० तिष्णिपदा देवगदिभंगो । अवत्त० समचदु० भंगो ।
७४१. पंचमण० - पंचवचि० पंचणा० णवदंसणा ० - मिच्छ० सोलसक० -भय-दुगुं०तेजगादिणव- आहारदुग - तित्थय०- पंचंत० भुज० अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० | अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अवत्त० णत्थि अंतरं । चदुआयु० दोपदा० णत्थि अंतरं । सेसाणं पगदीणं तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । एस भंगो ओरालि० वेउच्चि ० - आहार० । णवरि ओरालिए ओरालि० - वेड व्वियछक्कं व परियत्तीणं अवत्त० जहण्णु० अंतो० । दोआयु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० पग दिअंतरं ० ।
७४२. कायजोगीसु पंचणा० छदंसणा० चदुसंज० भय-दुर्गु० - तेजइगादिणव- वेउव्विय
अवक्तव्य पदका वही अन्तर है । इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छास और त्रसचतुष्कके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है । औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वर्षभ नाराच संहननके तीन पदोंका भङ्ग ओघके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थिति प्रमाण है । समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघ के समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिवा भङ्ग ओघ के समान है । उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग देवगतिके समान है । अवक्तव्य पदका भङ्ग समचतुरस्र संस्थानके समान है ।
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७४१. पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर आदि नौ, आहारकद्विक, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। चार आयुओंके दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंका जधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । यही भङ्ग औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और आहारककाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि श्रदारिककाययोगी जीवों में औदारिक शरीर और वैक्रियिक छहको छोड़कर परिवर्तमान प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और
अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है ।
७४२, काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा,
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महाबँधे द्विदिबंधाहियारे
उक्क०
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छक्क - ओरालि० - तित्थय० - पंचंत० तिणिपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । थीणगिद्धि०३-मिच्छ० - बारसक० - आहारदुगं भुज० - अप्प० जह० एग०, अंतो० । अवट्टि ० जह० एग०, उक्क० चत्तारिस० । णवरि आहारदुग० अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अवत्तव्व० णत्थि अंतरं दोआयु० दोपदा० णत्थि अंतरं । तिरिक्खायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० बावीसं वाससहस्साणि - सादि० | मणुसायु०मणुसग ०-मणुसाणु ०-उच्चा० ओघं । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु ० णीचा० तिष्णिपदा सादभंगो । अवत्तव्वं ओघं । दोवेदणी० सत्तणोक ० - पंचजादि - छस्संठा ० - ओरालि० अंगो०छस्संघ० - पर० - उस्सा० आदाउजो० दोविहा० -तस थावरादिदसयुगलं तिष्णिप० जह० एग०, उक्क० अंतो ० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० ।
७४३. ओरालियमि० धुविगाणं दोपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० तिण्णिसम० । दोआयु० अपजत्तभंगो। देवगदि ०४ - तित्थय० दोपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि ० जह० एग०, उक्क० बेसम० । सेसाणं तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो ० | अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । णवरि मिच्छत्तस्स अवत्त० णत्थि अंतरं । ७४४. वेउव्विय मिस्सका० धुविगाणं दीपदा० जह० एम०, उक्क० अंतो० । अवद्वि०
तैजसशरीर आदि नौ, वैक्रियिकषट्क, औदारिकशरीर, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, बारह कषाय और आहारद्विकके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकके अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। दो के दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है । तिर्यवायु के दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है। मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्या - नुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघ के समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र के तीन पदों का भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघ के समान है । दो वेदनीय, सात नोकपाय, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, परघात, उच्छ्वास, तप, उद्योत, दो विहायोगति और बस स्थावर दस युगलके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । ७४३. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें धवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । दो आयुओं का भङ्ग अपर्याप्तकों के समान है । देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । शेष प्रकृतियोंके तीन पदों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व के अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। ७४४. वैकिकिसिकाययोगी जीवोंमें वाली प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
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जह० एग०, उक्क० बेसम० । एवं तित्थय० । सेसाणं तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक० अंतो० । एवं आहारमि० । कम्मइग० सव्वाणं अवट्ठि०अवत्त० णत्थि अंतरं ।
उक०
७४५. इत्थिवे ० पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचंत० दोपदा० जह० एग०, तो ० | अवडि० जह० एग०, उक्क० तिण्णि सम० | थीण गिद्धि ० - मिच्छ० - अनंताणुबंधि४ तिणि पदा० जह० एग०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० देसू० । अवत्त० जह० तो ०, उक्क० पलिदो० सदपुधत्तं । णिद्दा- पयला-भय-दुगुं० तेजइगादिणव तिण्णि पदा णाणावरणभंगो । अवत्त० णत्थि अंतरं । सादादिवारसण्णं ओघं । अट्ठक० तिष्णि पदा ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं ० । इत्थि० - णत्रुस० - तिरिक्खगदिएइंदि०-पंचसंठा०-पंच संघ० - तिरिक्खाणु० - आदाउज्जो ० - अप्पसत्थ० - थावर-दूर्भाग- दुस्सरअणादें - णीचा० तिण्णि पदा० जह० एग०, उक्क० पणवण्णं पलिदो ० देसू० । एवं अवत्त० । णवरि जह० अंतो० । पुरिस० पंचिंदि० - समचदु० पसत्थ० तस-सुभग- सुस्सरआदे० उच्चा० तिष्णि पदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० तो ०, उक्क ० पणवण्णं पलिदो० देसू० । णिरयायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क ० पुव्वको डितिभागं एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय हैं। इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिके पदोंका अन्तरकाल जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिये । कार्मणकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके अवस्थित और अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है।
७४५. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्यपृथक्त्व है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौ प्रकृतियोंके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण सम है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । साता वंदनीय आदि बारह प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। आठ कपायोंके तीन पदोंका भङ्ग ओके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्यपृथक्त्व है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है । इसी प्रकार अवक्तव्य पदका अन्तरकाल है । इतनी विशेता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त विहायांगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है। नरकायुके दो पदोंका जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
देसू० । तिरिक्खायु- मणुसायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । देवायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक० अट्ठावण्णं पलिदो० पुव्वकोडिपुधत्तेणन्भहियाणि । वेउव्वियछ०–तिण्णिजादि- सुहुम- अपजत्त - साधार० तिष्णि पदा० जह० एग०, उक्क० पणवण्णं पलिदो ० सादिरे । एवं अवत्त० । णवरि जह० अंतो० । मणुसगदिपंचग० तिण्णि पदा० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० दे० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० देसू० । णवरि ओरालि० अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० सादि० । आहारदुग० तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० सगट्ठिदी ० । एवं अवत्त० । णवरि जह० अंतो० । पर० - उस्सा ० - बादर - पज्जत्त पत्तेय० तिष्णि पदा० जह० उक० तो ० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० सादि० । तित्थय ० भुज ०- अप्प ० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त० णत्थि अंतरं ।
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७४६. पुरिसवे० अट्ठारसण्णं इत्थिभंगो | थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० बेछावडि० देसू० । अवत० जह० अंतो०, उक्क० सगट्टिदी० । णिद्दा- पचला-भय-दुगुंछ- तेजइगादिणव तिष्णि पदा ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० कायद्विदी० । अट्ठक० ओघं । णवरि अवत्त० जह० अंतो ० ; उक्क० काय
एक पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्यपृथक्त्व प्रमाण है । देवायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक अट्ठावन पल्य है। वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचवन पल्य है। इसी प्रकार अवक्तव्य पदका अन्तरकाल है । इतनी विशेषता है कि उसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगतिपञ्चकके तीन पदोंक। जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है । इतनी विशेषता है कि औदारिक शरीरके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचवन पल्य है । आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थिति प्रमाण है । इसी प्रकार अवक्तव्य पदका अन्तरकाल है । इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके तीन पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचवन पल्य है। तीर्थंकर प्रकृति के भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । ७४६. पुरुषवेदी जीवोंमें अठारह प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थिति प्रमाण है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजस शरीर आदि नौ प्रकृतियों के तीन पदोंका भङ्ग श्रोध के समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
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ट्ठिदी० । इत्थि० स० पंचसंठा० पंचसंघ० अप्पसत्थ० दूमग दुस्सर- अणादे० णीचा० पंचिंदियपज्जत्तभंगो । पुरिस० तिणि पदा णाणावरणभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० वेछावट्ठि ० सादि० | समचदु० - पसत्थ० सुभग-सुस्सर - आदे० - उच्चा० पुरिस ० भंगो | णि 'रय-तिरिक्ख मसाणं इत्थिभंगो । णवरि सागारोव ० सदपुधत्तं । देवायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । णिरय तिरिक्खग० चदुजादि - दोआणु०आदा० उज्जो ० - थावरादि०४ तिष्णि पदा० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क०
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सागरो० सदं । देवगदि ०४ - आहारदुगं पंचिंदियपज्जत्तभंगो । मणुस ० दुग०-ओरालि०ओरालि · अंगो० - वज्जरिस० तिण्णि पदा० जह० एग०, उक्क० तिष्णि पलिदो० सादि० । श्रवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सासादि० । पंचिंदि० पर० - उस्सा० -तस०४ तिणि पदा० तेजइगभंगो । अवत्त० णिरयगदिभंगो । तित्थय० तिष्णिप० जह० एग०, उक्क० तो ० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्त्रकोडी देसू० ।
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७४७ णवंसगे धुविगाणं अट्ठारसण्णं दो पदा० जह० एग०, उक्क० श्रंतो० । अवडि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० | थीण गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४इत्थि - णिव स पंचसंठा० - पंच संघ ० उज्जो ० - अप्पसत्थ - दूभग दुस्सर - अणादे० तिष्णिपदा०
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अन्तर काय स्थितिप्रमाण है । आठ कषायोंका भङ्ग ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर काय स्थितिप्रमाण है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है । पुरुषवेद के तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर है । समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आय और उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवेदके समान है । नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है । देवा के दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । नरकगति, तिर्यञ्चगति, चार जाति, दो आनुपूर्वी, आतप, उद्योत और स्थावर आदि चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ त्रेसठ सागर है। देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकका भङ्ग पचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है । मनुष्यगतिद्विक, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभ नाराचसंहननके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । पश्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास और सचतुष्कके तीन पदोंका भङ्ग तैजस शरीर के समान है । अवक्तव्य पदका भङ्ग नरकगतिके समान है | तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है | अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है ।
७४७. नपुंसकवेदी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली अठारह प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुवन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, उद्योत, अप्रशस्त बिहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके तीन
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महाबंध हिदिबंधाहियारे जह० एग०, उक० तेत्तीसं० देसू० । एवं अवत्त । णवरि जह० अंतो० । णवरि थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ ओघं। पुरिस-समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर आदे० तिण्णिपदा सादभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस देसू० । णिहापचला-भय दुगुं०-तेजइगादिणव तिण्णिप० णाणावरणभंगो। अवत्तव्य. णत्थि अंतरं । तिण्णिआयु०-वेउव्वियछ०-मणुस०३-आहारदुगं ओघं । देवायु० दो पदा० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडितिभागं देसू० । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु०-णीचागो० तिण्णि पदा० इत्थिभंगो । अवत्त० ओघं । चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ तिण्णि पदा० जह० एग०, उ० तेत्तीसं सा० सादि० । एवं अवत्त । णवरि जह० अंतो० । पंचिंदि०-पर०-उस्सा०. तस०४ तिण्णि पदा सादभंगो। अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । ओरालि०-ओरालि अंगो० वज्जरिस० तिण्णिप० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी दे० । ओरालि० अवत्त० ओघ । ओरालि०अंगो० अवत्त० जह० अंतो०, उक० तेत्तीसं० सादि० । वज्जरिस० अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । तित्थय० तिण्णिप० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक० पुवकोडितिभागं देसू० ।
पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार अवक्तव्य पदका अन्तरकाल है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी और विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका भङ्ग ओषके समान है । पुरुषवेद, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजस शरीर आदि नौके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। तीन आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यत्रिक और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। देवायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके तीन पदोका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है।अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । इसी प्रकार अवक्तव्य पदका अन्तरकाल है। इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छवास और सचतुष्कके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है।
औदारिक शरीरके अवक्तव्य पदका अन्तर ओघके समान है। औदारिक आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। वज्रर्षभनाराच संहननके प्रवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है । अपगतवेदवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य और
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
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अवगदवे० सव्वाणं भुज० अप्प० जह० उक्क० अंतो० । अर्वाड० जह० एग०, उक्क० तो ० | अवत्त० णत्थि अंतरं ।
७४८. कोधे धुविगाणं अट्ठारसहं दोपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि ० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । थीणगिद्धि०३ - मिच्छ०-बारसक० दोपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । अवत्त० णत्थि अंतरं । णिद्दा-पचला-भय-दुगुं ० -तेजइगादिणव- तित्थय० तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क०
तो० । अवत्त • णत्थि अंतरं । चदुआयु० दोषदा० णत्थि अंतरं । सेसाणं तिष्णि पदा० जह० एग०, उक्कं० अंतो० । अवत्त० जह० उक० अंतो० । एवं माणे । णवरि धुविया सत्तारणं । कोधसंज० णिद्दाए भंगो। एवं मायाए वि । णवरि दोसंज० णिद्दाए भंगो | एवं चैव लोभे । णवरि चत्तारि संजय णिद्दाए भंगो । आहारदुगं मणजोगिभंगो । से को भंगो ।
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७४९. मदि० - सुद० धुविगाणं दो पदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । सादासाद० छण्णोक० ओघं सादभंगो | मिच्छ० णाणावरण भंगो । णवरि अवत्त० णत्थि अंतरं । णवु स० पंचसंठा० - पंचसंघ ० - अप्पसत्थ०
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उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है ।
७४. क्रोधकषायवाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली अठारह प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और बारह कषायके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तेजस शरीर आदि नौ और तीर्थंकर प्रकृतिके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। चार आयुओं के दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है । शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मानकषायवाले जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके ध्रुवबन्धवाली सत्रह प्रकृतियोंका "अन्तरकाल कहना चाहिए । क्रोधसंज्वलनका भङ्ग निद्राके समान है। इसी प्रकार मायाकषायवाले जीवोंके भी करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके दो संज्वलनका भङ्ग निद्राके समान है। इसी प्रकार लोभकषायवाले जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके चार संज्वलनका भङ्ग निद्रा के समान है । आहारकद्विकका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग क्रोधके समान है
७४६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और छह नोकषायका भङ्ग ओघके सातावेदनीयके समान है | मिध्यात्वका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और
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महाबँधे द्विदिबंधाहियारे
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दूर्भाग- दुस्सर- अणादे० तिष्णिप० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० दे० । एवं अवत्त ० । णवरि जह० अंतो० । चदुआयु० - वेडव्वियछ० - मणुसगदितिगं ओघं । तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० तिष्णि पदा० जह० एग०, उक० एकतीसं० सादिरे ० । अवत्त ० ओघं० । चदुजादि -आदाव थावरादि ०४ तिष्णिपदा० जह० एग०, अवत्त० ज०
तो०, उक्क० तेत्तीस सादि० । पंचिंदि० पर ० - उस्सा०-तस०४ तिण्णि पदा० सादभंगो । अवत० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । ओरालि० तिष्णिप० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० दे० । अवत० ओघं । समचदु० -पसत्थ० - सुभग सुस्सर-आदें ० तिणिप० सादभंगो | अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिष्णि पलिदो० देसू० | ओरालि० अंगो० - [ वज्जरिस० ] ओरालियभंगो । णवरि अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । उज्जो० तिण्णि पदा० तिरिक्खगदिभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क एकतीसं सा० सादि० । णीचा० तिणिप० णत्रु सगभंगो । अवत्तव्वं ओघं ।
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७५०. विभंगे धुविगाणं दोपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । एवं मिच्छ० । णवरि अवत्त० णत्थि अंतरं । णिरय-देवायूर्ण दोपदा० णत्थि अंतरं । तिरिक्ख मणुसायूगं दोपदा० जह० तो ०, उक० छम्मासं अनादेयके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । इसी प्रकार अवक्तव्य पदका अन्तरकाल है । इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। चार आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग ओघके समान है । तिर्यग और तिर्यगत्यानुपूर्वीके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । अवक्तव्य पदका अन्तर प्रोघके समान है। चार जाति आतप और स्थावर आदि चारके तीन पदोंका अन्तर एक समय है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास और त्रस चतुष्कके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । औदारिक शरीरके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवक्तव्य पदका अन्तर ओघके समान है । समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। वक्त पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है | दारिक अङ्गोपाङ्ग और वज्रऋषभनाराच संहननका भङ्ग श्रदारिक शरीर के समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सागर है। उद्योतके तीन पदोंका भङ्ग तिर्यवगतिके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । नीचगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग नपुं वेदके समान है । अवक्तव्यपदका अन्तर धके समान है ।
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७५०. विभङ्गज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । इसी प्रकार मिध्यात्व प्रकृतिका जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य पदका अन्तर काल नहीं है। नरकायु और देवायुके दो पदोंका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम
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गारबंध अंतरागमा
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देसू० | सेसाणं ओरालि० भंगो । णवरि तिण्णिजा० - सुहुम-अपज्जत-साधारण० तिण्णि
पदा० जह० एग०, उ० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । ७५१. आभि - सुद० - ओधि० पंचणा० - छंदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस० -भय-दुर्गु० - पंचिंदि ० . तेजा ० क ० - समचदु० - वण्ण ०४ - अगु०४ - पसत्थ० - तस ०४ - सुभग-सुस्सर-आदें ०. णिमि० उच्चा० तिष्णिपदा ओघं । अवत्त ० जह० तो ०, उक्क० छावट्ठि सा० सादि० । अट्ठक० तिणिप० ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । दोआयु० दो पदा० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । मणुसगदिपंचग० तिण्णि पदा० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडि० सादि ० | अवत्त० जह० पलिदो० सादि०, उक० तेत्तीस सा० सादि० । देवगदि०४ तिष्णि प० जह० एग०, उक्क० तेतीसं सा० सादि० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस सा० सादि० । आहारदुगं देवगदिभंगो । तित्थय० चत्तारि पदा ओघं । एवं अधिदंस० - सम्मादि० ।
७५२. मणपज्जव० पंचणा० - उदंसणा ० - चदुसंज० - पुरिस०-भय- दुगुं ० – देवगदिपंचिदि० - तिण्णिसरीर० - समचदु० - वेउव्वि० अंगो० - वण्ण०४ - देवाणु ० - अगु०४ - पसत्थ०तस ०४ - सुभग- सुस्सर-आदेज्ज० - णिमि० - तित्थय ० - उच्चा० - पंचत० तिण्णि प० जह० एग०,
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छह महीना है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग श्रदारिक शरीरके समान है । इतनी विशेषता है कि तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तर काल नहीं है ।
७५१. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पचंन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेश, निर्माण और उच्चगोत्रके तीन पदोंका अन्तरकाल ओघ के समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है । आठ कषायके तीन पदोंका अन्तर ओघ के समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। दो आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । मनुष्यगतिपञ्चकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधक तेतीस सागर है । देवगति चतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधक तीस सागर है । आहारकद्विकका भङ्ग देवगतिके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके चार पदोंका भङ्ग ओघके समान है । इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
७२. मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पचेद्रियजाति, तीन शरीर, समचतुस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । देवायु० दोपदा० पगदिअंतरं । सेसाणं तिण्णि पदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । एवं संजदा०।
७५३. सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंसणा०-लोभसंज०-उच्चा०-पंचंत० दोपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । आहारदुग० सादभंगो। णिद्दा-पचला-तिण्णिसंज०-पुरिस-भय-दु०-देवगदि-पसत्थपणुबीस-तित्थय० दो पदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्टि. जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त. णत्थि अंतरं । सेसाणं संजदभंगो।
७५४. परिहार धुविगाणं दो पदा० जह० एग०, उक्क० अंतो०।अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । आहारदुगं चत्तारि पदा० जह० अंतो०, उक्क० अंतो० । तित्थय० तिण्णि पदा०णाणावरणभंगो। अवत्त० णत्थि अंतरं । सुहुमसंप० सव्वाणं० भुज०-अप्प० जह० उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० एग० । संजदासंजदा० परिहारभंगो।
७५५. असंजदे धुविगाणं दो पदा ओघं । अवढि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ ०-अणंताणुबंधि०४-णवुस-पंचसंठा०-पंचसंघ० उज्जो०अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। देवायुके दो पदोंका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिये।
७५३. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। आहारक द्विकका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। निद्रा, प्रचला, तीन संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त पच्चीस प्रकृतियाँ और तीर्थङ्कर इनके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। प्रवक्तव्य पदका अन्तर काल नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग संयतोंके समान है।
७५४. परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तम हर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । आहारकद्विकके चार पदोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य पदका अन्तर काल नहीं है। सूक्ष्मसांपराय संयत जीवोंमें सब प्रकृतियों के भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संयतासंयत जीवोंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके समान है।
७५५. असंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। स्त्यानगद्धि तीन. मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायो
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
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अप्पसत्थ० दूर्भाग- दुस्सर-अणादें ० णकुंसंगभंगो । पुरिस०- समचदु० - पसत्थ० - सुभग-सुस्सरआदे० तिण्णि पदा सादभंगो । अवत्त० जह० तो, उक० तेत्तीसं सा० देसू० । ओरालि० - ओरालि ० अंगो० - वज्जरिस० तिण्णि पदा ओघं । अवत्त० णवु सगभंगो । सेसं मदिभंगो । चक्खु ० तसपज्जतभंगो। अचक्खुदं० ओघं ।
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७५६. किण्ण - णील- काउलेस्सा० धुविगाणं दो पदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि ० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० | थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४इत्थि - ण स ० - दोगदि - पंचसंठा - पंच संघ ० - दोआणु ० - उज्जो ० - अप्पसत्थ ०० दूभग दुस्सर अणादें - णीचुच्चागो० तिण्णि प० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क ० तेत्तीसं सा० सत्तारस० सत्त साग० देसू० । पुरिस० समचदु ० वज्जरिसभ० पसत्थ० - सुभग- सुस्सरआदे० तिणि पदा सादभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तैंतीस ० सत्तारस० सत्तसाग० सू० । णिरय देवायु० दोपदा० णत्थि अंतरं । तिरिक्ख- मणुसायु० णिरयगदिभंगो । णिरय - देवदि- पंचजादि-ओरालि ०-ओरालि ०अंगो० - दोआणु ० - पर० - उस्सा ० - तस - थावरचदुयुगलं तिष्णि पदा० जह० एग०, उक्क० अंतो ० । अवत्त० णत्थि अंतरं । वेउव्वि०वेडन्वि ० अंगो० तिण्णि पदा जह० एग०, उक० बावीसं सत्तारस० सत्त साग० गति, दुर्भाग, दुस्वर और अनादेयका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है । पुरुषवेद, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दा रिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रऋषभनाराचसंहननके तीन पदोंका भङ्ग ओघके समान है । अवक्तव्य पदका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । चतुदर्शनवाले जीवों में सपर्याप्तकों के समान भङ्ग है । श्रचतुःदर्शनवाले जीवोंमें श्रोघ के समान भङ्ग है ।
७५६. कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भाग दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्र और उच्चगोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सत्तरह सागर और कुछ कम सात सागर है । पुरुषवेद समचतुरस्र संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सत्तरह सागर और कुछ कम सात सागर है। नरकायु और देवायुके दो पदोंका अन्तर काल नहीं है । तिर्यवायु और मनुष्यायुका भङ्ग नरकगतिके समान है। नरकगति, देवगति, पाँच जाति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, दो आनुपूर्वी, परघात, उछूवास, त्रस स्थावर बार युगल के तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तर काल नहीं है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक बाईस सागर, साधिक सत्तरह सागर और साधिक
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सादि० । अवत्त० किण्णाए जह० सत्तारस० सादि०, उक्क० वावीसं० सादि । णीलाए जह० सत्तसाग० [सादि०, उक्क.] सत्तारस. सादिरे । काऊए जह. दसवस्ससहस्साणि सादि०, उक्क० सत्त साग० सादिः । तित्थय० धुवभंगो। णवरि अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । काऊए तित्थय० णिरयभंगो । णील-काऊए मणुस.. मणुसाणु०-उच्चा० पुरिसवेदभंगो।।
७५७. तेउले० धुविगाणं दो पदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह. एग०, उक्क० बेसम० । थोणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०-णस०-तिरिक्खग०-एइंदि०-पंचसंठा०-पंचसंघ० तिरिक्खाणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थवि०-थावरदूभग-दुस्सर-अणादें० णीचा० तिण्णिप० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेसाग० सादि० । पुरिस०-मणुसग०-पंचिंदि० समचदु०-ओरालि० अंगो०-वज्जरिस.. मणुसाणु०-पसत्थवि०-तस-सुभग-सुस्सर-आर्दै०-उच्चा० सोधम्मभंगो। अट्ठक० [ओरालि०-] आहारदुग-तित्थय० दोपदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त० णत्थि अंतरं । देवायुग० दोपदा णत्थि अंतरं णिरंतरं । दोआयु० देवभंगो । देवगदिचदुक० तिण्णिपदा० जह० एग०, उक० बेसाग० सादि० । अवत्त० सात सागर है । अवक्तव्य पदका कृष्णलेश्याम जघन्य अन्तर साधिक सत्रह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस सागर है। नीललेश्यामें जघन्य अन्तर सांधिक सात सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सत्रह सागर है। कापोतलेश्यामें जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। कपोतलेश्या तीर्थङ्कर प्रकृतिका नारकियोंके समान भङ्ग है। नील और कपोतलेश्यामें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूवी और उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवदके समान है।
७५७. पीतलेश्यावाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक . समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सबका साधिक दो सागर है । पुरुषवेद, मनुष्य ।ति, पश्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका भङ्ग सौधर्मकल्पके समान है । आठ कषाय, औदारिक शरीर, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। देवा. युके दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। दो आयुओंका भङ्ग देवोंके समान है। देवगति चतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिए। इतनी
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भुजगारबंधे अंतराणुरामो
રૂપણ पत्थि अंतरं । एवं पम्माए वि । णवरि ओरालि०-आहारदुग-'ओरालि अंगो०-अट्ठक०तित्थय० दोपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक० बेसम० । अवत्त० णत्थि अंतरं । देवगदि०४ तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० अट्ठारस साग० सादि० । अवत्त० णत्थि अंतरं० ।
७५८. सुक्काए पंचणा०-छदसणा०-चदुसंज०-भय-दुगुं०-पंचिंदि०-तेजा-कवण्ण० ४-अगु०४-णिमि०-तित्थय०-पंचंत० तिण्णिप० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त णत्थि अंतरंथीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि-णवंसगवेदादि० णवगेवज. भंगो। दोवेदणीय चदुणोक०-आहारदुग-थिरादितिण्णियुगलं तिण्णिपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । अट्ठक०-मणुसगदिपंचगं दोपदा जह० एग०, उक्क० अंतो०। अवट्टि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त० णस्थि अंतरं । पुरिस०-समचदु०-वज्जरिस०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर आदें०-उच्चा० तिण्णिपदा सादभंगो । अवत्तव्वं देवभंगो । देवगदि०४ तिण्णिप० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि। अवत्तव्व० जह० अट्ठारस साग० सादि०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । भवसिद्धि०
ओघं । अब्भवसि० मिच्छादि० मदि० भंगो । __ ७५६. खइगे आधिभंगो । णवरि तेत्तीसं साग० सादि० । आयुग० पगदि अंतरं । विशेषता है कि औदारिक शरीर, आहारकद्विक, औदारिक अाङ्गोपाङ्ग, आठ कषाय और तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। देवगति चतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है।
७५८. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तै स शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, निर्माण, तीर्थंकर और पाँच अन्तरायके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद आदिका भङ्ग नौवेयकके समान है। दो वेदनीय, चार नोकषाय, आहारकद्विक और स्थिर आदि तीन युगलके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आठ कषाय और मनुष्यगतिपञ्चकके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्य पदका भङ्ग देवोंके समान है। देवगति चतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तैतीस सागर है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अठारह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । भव्यजीवोंकाभङ्ग ओघके समान है। अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है।
७५६. क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है
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महाधे द्विदधाहियारे
मणुसगदिपंचग० दोण्णिप० जह० एग० उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त० णत्थि अंतरं । देवगदि ० ४ - आहारदुगं तिष्णिपदा जह० एग०, अवत्त ० जह० अंतो०, उक्क० तैंतीसं साग० सादि० । तित्थय • ओघं ।
३६०
७६०. वेदगे धुविगाणं तिष्णिपदा परिहार०भंगो । अट्ठक० मणुसगदिपंचग० ओधिभंगो | देवगदिचदुक्क० तिष्णिप० अधिभंगो । अवत्त ० जह० पलिदो ० सादि०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० | दोआयु ० - आहारदुगं ओधिभंगो । तित्थय ० दोपदा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त० णत्थि अंतरं ।
७६१. उवसम० पंचणा० छदंसणा० बारसक० - पुरिस०-भय-दु० देवगदि ०४ - पंचिंदि० - तेजा० क० - वण्ण०४ - अगु०४ - पसत्थ० - तस ०४ - सुभग - सुस्सर - आदेंज ० - णिमि ०. तित्थय ०[० उच्चा० - पंचंत० तिण्णिप० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं० । मणुगदिपंचग० दोपदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवडि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त ० णत्थि अंतरं । सादादिबारस ओघं । एवं आहारदुगं ।
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७६२. सासणे - धुविगाणं णिरयोघं । तिण्णिआयु० दोपदा० णत्थि अंतरं । सेसाणं
कि यहाँ साधिक तेतीस सागर कहना चाहिए। आयुकर्मका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है | मनुष्यगतिपञ्चकके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओके समान है ।
७६०. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके समान है। आठ कषाय और मनुष्यगतिपञ्चकका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । देवगतिचतुष्कके तीन पदोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। दो आयु और आहारकद्विकका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है ।
७६१. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगतिचतुष्क, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर; कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । मनुष्यगतिपञ्चकके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । साता आदि बारह प्रकृतियोंका भङ्ग ओके समान है । इसी प्रकार आहारकद्विकका भङ्ग है ।
७६२, सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके
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भुजगारबंध णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो
३६१ सादादीणं भुज-अप्प. जह० एग०. उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक. बेसम० । अवत्त० णत्थि अंतरं । सम्मामि० सादासाद०-चदुणोक०-थिरादितिण्णियुग० ओघं। सेसाणं धुविगाणं भुज० अप्प. जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि. जह. एग०, उक्क० बेसम० ।
७६३. सण्णि. पंचिंदियपज्जत्तभंगो। असण्णी० धुबिगाणं भुज०-अप्प० जह. एग०, उक्क, अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० तिण्णि सम । तिण्णिआयु० दो पदा० जह० अंतो०, उक० पुवकोडितिभागं देसू० । तिरिक्खायु० दो पदा जह. अंतो०, उक्क० पुवकोडी सादि०। वेउब्विय०२०-मणुसतिग० ओघं । तिरिक्खगदि दुग-णीचा० तिण्णिपदा सादभंगो । अवत्तव्वं ओघं। ओरालि. तिष्णिपदा सादभंगो । अवत्तव्वं ओघं। सेसाणं सादभंगो। आहार० मूलोघं । णवरि जम्हि अणंतका० अद्धपोग्गलपरि० तम्हि अंगुलस्स असंखेज्ज० । अणाहार० कम्गइगभंगो । एवं अंतरं समत्तं ।
भंगविचयाणुगमो ७६४. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुवि०-ओषे० आदे० । ओषे० पंचणा०
समान है। तीन आयुओंके दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है। शेष साता आदि प्रकृतियोंके भुजगार
और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलका भङ्ग ओघके समान है। शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है।
७६३. संज्ञी जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है। असंज्ञी जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। तीन आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण है । तिर्यश्चायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । वैक्रियिक छह और मनुष्यगति त्रिकका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यञ्चगतिद्विक
और नीचगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है। औदारिक शरीरके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका भङ्ग ओषके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। आहारक जीवोंका भङ्ग मूलोषके समान है। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर अनन्तकाल और अर्धपुद्गल परिवर्तन काल कहा है,वहाँ पर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहना चाहिए। अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान कहना चाहिए । इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ।
भङ्गविचयानुगम ७६४. नाना जीवोंका आलम्बन लेकर भङ्ग-विचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है
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३६२
महाबँधे दिबंधाहियारे
णवदंसणा ० - मिच्छ० - सोलसक० -भय-दु० - ओरालि० तेजा ० १० क० - वण्ण ०४ - अगु० - उप०णिमि० पंचंत० भुज ० - अप्प ० - अवट्ठि० णियमा अस्थि । सिया एदे य अवत्तगे य | सिया एदेय अवत्तगा । तिण्णिआयुगाणं दो पदा भयणिज्जा । तिरिक्खायु० दो पदा णियमा अत्थि । वेउव्त्रियछ ० - आहारदुग- तित्थय ० अवट्टि० णियमा अत्थि । सेसाणि पदाणि भयणिज्जाणि । सेसाणं सव्वपगदीणं भुज ०- अप्प ० -अवष्टि ०. ० अवत्त ० णियमा अत्थि । एवं ओघभंगो तिरिक्खोधं कायजोगि - ओरालियका ० णवस ० - कोधादि ०४ मदि० १०- सुद० - असंज० - अचक्खुर्द ० - तिण्णिले ० भवसि ० - अब्भवसि ० - मिच्छा० - असण्णि आहारगति ।
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७६५. मणुसअपज्जत्त-वेउव्वियमि ० - आहार ०-- आहारमि० - अवगद वे ० - सुहुमसंप ०उवसम० - सासण० -सम्मामि० सव्वाणं पगदीणं सव्वपदा भयणिज्जा |
०.
७६६. एइंदिए धुविगाणं तिण्णि पदा सेसाणं चत्तारि पदा तिरिक्खायु० दो पदा नियमा अत्थि । मणुसायु० दो पदा भयणिज्जा । एवं पुढवि० - आउ० तेउ वाउ ०-वादरवणष्फदिपत्तेय० एदेर्सि बादराणं तेसिं चेव वादरअपज्ज० तेसिं सव्वसुहुम ० वफादि - णियोद एइंदियभंगो |
७६७. ओरालियम ० कम्मइग० - अणाहारगेसु देवगदि ०४ - तित्थय तिष्णि पदा
ओघ और आदेश | ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके बन्धक जीव नियमसे हैं । कदाचित् इन पदोंके बन्धक जीव हैं और अवक्तव्य पदका बन्धक एक जीव है । कदाचित् इन पदोंके बन्धक जीव हैं और अवक्तव्य पदके बन्धक नाना जीव हैं। तीन आयुओं के दो पदवाले जीव भजनीय हैं । तिर्याके दो पदवाले जीव नियमसे हैं । वैक्रियिक छह, आहारक द्विक, और तीर्थङ्कर प्रकृति अवस्थित पदवाले जीव नियमसे हैं। शेष पदवाले जीव भजनीय हैं। शेष सब प्रकृतियों के भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य पदवाले जीव नियमसे हैं । इस प्रकार ओघ के समान सामान्य तिर्यश्व, काययोगी, दारिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुः दर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
७६५. मनुष्य पर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्पराय संयत, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में सब पद भजनीय हैं।
७६६. एकेन्द्रियों में ध्रुवमन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पद, शेष प्रकृतियोंके चार पद और तिर्यखायुक्रे दो पदवाले जीव नियमसे हैं । मनुष्यायुके दो पदवाले जीव नियमसे भजनीय हैं। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, जलकायिक, अभिकायिक, वायुकायिक, वादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, इनके बाहर तथा इन्हींके बादर अपर्याप्त और इन्हीं के सब सूक्ष्म, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके एकेन्द्रियोंके समान भङ्ग हैं ।
७६७.
दारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में देवगति चतुष्क
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भुजगारबंधे भागाभागाणुगमो
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भयणिज्जा | सेसाणं ओघं । णिरयादि याव सण्णि त्ति संखेज्ज- असंखेज्जरासीणं अवडि० freमा अत्थि । सेाणि पदाणि भयणिज्जाणि । एवं भंगविचयं समत्तं ।
भागाभागागमो
७६८. भागाभागं दुवि० - ओघे० दे० । ओघे० पंचणा० णवदंसणा०-मिच्छ०सोलसक०-भय- दुर्गु० - ओरालिय० - तेजा० क० वण्ण ०४- अगु० उप० णिमि० पंचंत० भुज ०अप्प ० केवडियो भागो | असंखेजदिभागो ? अवट्ठि ० के ० १ असंखेज्जा भागा । अवत्त ० सव्व० के० ? अनंतभागो । चदुष्णं आयु० अवत्त० सव्वजी० के० १ असंखज्ज० | अप्प० सव्व ० के ० १ असंखेज्जा भा० । आहारदुगं भुज ० अप्प ० - अवत्त० सव्व० केव० ? संखेज्जदि ० । अवट्टि • सव्त्र ० के ० १ संखेज्जा भा० । सेसाणं सव्वपग० भुज ० -अप्प ०. अवत्त० सव्व० केव० १ असंखेज्ज० । अवट्ठि० सव्व० केव० १ असंखेज्जा भागा । एवं ओघमंगो तिरिक्खोघं कायजोगि ओरालियका ०-ओरालियमि० कम्मइ० णवस ०कोधादि०४-मदि० सुद० - असंज० अचक्खुर्द ० तिण्णिले ० भवसि ० - अब्भवसि ० -मिच्छादि ०असण्णि-आहार०-अणाहारग ति । णवरि ओरालियमि० - कम्मह० - अणाहारगेसु
और तीर्थङ्कर प्रकृति के तीन पदवाले जीव भजनीय हैं। शेष प्रकृतियों का भङ्ग ओघ के समान है। नरक गति से लेकर संज्ञी मार्गणातक संख्यात और असंख्यात राशिवाली मार्गणाओं में अवस्थित पदवाले जीव नियम से हैं। शेष पदवाले जीव भजनीय हैं। इस प्रकार भङ्गविचय समाप्त हुआ ।
भागाभागानुगम
७६८. भागाभाग दो प्रकार का है - ओ और आदेश । ओघ से पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, गुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतर पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थित पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । अवक्तव्य पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं । अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। चार आयुओं के अवक्तव्य पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ? अल्पतर पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । आहारकद्विकके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थितपदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। शेष सब प्रकृतियों के भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदवाले जीव सब जीवों के कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अवस्थितपदवाले जीव सब जीवों के कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इस प्रकार ओधके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, दारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, नपुंसक वेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि दारिक मिश्र काययोगी, कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगति पञ्चकके भुजगार
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३६४
महाबंधे डिदिबंधाहियारे देवगदिपंचग० भुज० अप्प० सव्व० केव० ? संखेंजदिभा० । अवट्ठि० सव्व० केव० ? संखेज्जा भा०।
७६९. अवगदवे. सव्वाणं भुज-अप्पद०-अवत्त० सव्व० केव० १ संखेज्जः । अवढि० सन्व. केव० ? संखेज्जा भा० । सेसाणं णिरयादि याव सण्णि त्ति सम्वेसिं असंखज्जरासीणं ओघं सादभंगो कादव्यो। एसिं संखेज्जरासिं तेसिं ओघं आहारसरीरभंगो कादव्यो । एवं भागाभागं समत्तं ।
परिमाणाणुगमो ७७०. पारिमाणाणुगमेण दुवि०-ओषे० आदे० । ओघे० पंचणा-छदसणा०अट्ठक०-भय-दुगुं०-तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० भुज०-अप०-अवढि० केसिया ? अणंता। अवत्त० केत्तिया ? संखेंज्जा। थीणगिद्धि०३-मिच्छ० अढक०.
ओरालि. तिण्णिपदा केत्तिया ? अणंता । अवत्त० केत्तिया ? असंखेज्जा । तिणि आयु० दो पदा केत्तिया ? असंखेज्जा । तिरिक्खायु० दो पदा केत्तिया ? अणंता । वेउव्वियछ० चत्तारि पदा केत्ति० १ असंखेज्जा। आहारदुगं चत्तारि पदा केत्तिया ? संखेज्जा । तित्थय तिण्णिपदा केत्तिया ? असंखेज्जा । अवत्त० केत्ति ? संखेज्जा । सेसाणं सव्वपगदीणं चत्तारि पदा केत्तिया ? अणंता । एवं ओघमंगो तिरिक्खोघो कायजोगि-ओरालि
और अल्पतर पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अव. स्थित पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं।
७६६. अपगत वेदवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार,अल्पतर और अवक्तव्य पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अवस्थित पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। शेष नरक गतिसे लेकर संज्ञी मार्गणा तक सब असंख्यात राशिवाली मार्गणाओं में ओघसे सातावेदनीयके समान भङ्ग जानना चाहिये। तथा जिन मार्गणाओंकी संख्यात राशि है, उन मार्गणाओंमें ओघसे आहारक शरीरके समान भङ्ग जानना चाहिये । इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ।
परिमाणानुगम ७७०. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हे-आप और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निमाण और पाँच अन्तरायके भुजागार, अल्पतर और अवस्थित पदवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। अवक्तव्य पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिक शरीरके तीन पवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । अवक्तव्य पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तीन आयुओं के दो पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । तिर्यश्चायुके दो पदवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। वैक्रियिक छहके चार पदवाले जीव कितने है ? असंख्यात हैं । आहारकद्विक चार पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तीर्थंकर प्रकृतिके तीन पवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अवक्तव्यपद वाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष सब प्रकृतियोंक चार पदवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यन
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भुजगारबंधे खेत्ताणुगमो
३६५ यका०-णवुस० कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज-अचक्खुदं०-तिण्णिले०. भवसि० अब्भवसि०-मिच्छादि० सण्णि-आहारग त्ति एदे सव्वे असरिसा ओघेण साधेदव्वं । केसिं च धुविगाणं अवत्तव्वं अत्थि केसिं च णस्थि ।
७७१. ओरालियमि०-कम्मइ०-अणाहार० देवगदि०४-तित्थय० तिण्णिपदा के० ? संखेंज्जा। सेसं ओघ । ओरालिय०-वेउब्वियमि०-इत्थिवेद-संजदासंजद-किण्ण-णीलासु उवसमसम्मादिट्ठीसु तित्थय० चत्तारि पदा के० १ संखेज्जा। णवरि किण्ण-णीलासु अवत्त. णत्थि। सेसाणं णिरयादि याव सण्णि ति संखज्ज-असंखेज्जरासीणं अणंतरासीणं च ओघेण साधेदव्वं । एवं परिमाणं समत्तं।
खेत्ताणुगमो ७७२. खेत्ताणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदंसणा० मिच्छ०सोलसक०-भय-दु०-ओरालि०-तेजइगादिणव-पंचंत० भुज० अप्प०-अवढि० केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । अवत्त० केवडि खेत्ते ? ला० असंखें । वेउब्विय-आहारदुग. तित्थय० चत्तारि पदा केव० खेत्ते ? लो० असंखें । तिण्णिआयुगाणं [दोपदा०] केव० खेत्ते ? लो० असंखें । सेसाणं सव्वपग० सव्वपदा केव० खेत्ते ? सव्वलोगे । एवं तिरिक्खोघं काययोगी, औदारिक काययोगी, नपुंसक वेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवों तक ये सब असदृश पदबाले जीव ओघके अनुसार साध लेना. चाहिये। इनमेंसे किन्हींके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्य पद है और किन्हींके नहीं है।
७७१. औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगति चतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिके तीन पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, संयतासंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृतिके चार पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्यावाले जीवोंमें अवक्तव्य पद नहीं है। शेष नरकगतिसे लेकर संज्ञी तक संख्यात, असंख्यात और अनन्त राशिवाली मार्गणाओंमें ओघके समान साध लेना चाहिये । इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ
क्षेत्रानुगम ७७२. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तेजसशरीर श्रादि नौ और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। वैक्रियिकद्विक, आहारकद्विक और तीर्थङ्करके चार पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। तीन आयुओंके दो पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्च, काययोगी,
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महाबंधे दिदिबंधाहियारे कायजोगि-ओरालि०-ओरालियमि०-कम्मइ०-णवूस०-कोधादि०४ - मदि० सुद०-असंज०. अचक्खुदं०-तिण्णिले०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि-आहार-अणाहारग त्ति । णवरि ओरालियमि० कम्मइ० अणाहार० देवगदि०४ तित्थय० सव्वपदा लोग० असंखें ।
७७३. एइंदिएसु मणुसायु० ओघं । सेसाणं पगदीणं सव्वपदा सव्वलोगे। एवं मुहुम० । बादरपज्जत्त-अपज्जत्त० धुविगाणं सादादौणं च दसपगदीणं सव्वपदा सव्वलोगे। इत्थि०-पुरिस०-चदुजादि-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-आदाउज्जो०दोविहा०-तस-बादर-सुभग-दोसर०-आदे० जसगि० चत्तारिपदा लोग० संखेंजः । एवं तिरिक्खायु० दोपदा० । मणुसायु०-मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० सव्वपदा लो० असंखें । णवंस०-एइंदि० हुंडसं०-पर-उस्सा०-थावर सुहुम०-पज्जत्तापज्जत्त-पत्ते साधार०-दूभगअणादें-अजस० तिण्णिप० सव्वलोगे। अवत्त० लो० संखेज्ज० । तिरिक्खग-तिरिक्खाणु०-णीचा० तिण्णिप० सव्वलो० । अवत० लोग० असंखें ।
७७४. पुढवि०-आउ० तेउ० वाउ० सव्वसुहमाणं च एइंदियभंगो। बादरपुढविआउ० तेउ०-वाउ०-तेसिं अपज० धुविगाणं तिण्णि प० सव्वलो० । सादादीणं दसण्हं पगदीणं
औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययागी, नपुंसकवंदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेण्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी. आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवाम देवगति चार और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
७७३. एकेन्द्रियोंमें मनुष्यायुका भङ्ग आपके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके जानना चाहिए। बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंमें ध्रुषवन्धवाली और साता आदि दस प्रकृतियोंके सब पदों के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। स्त्रीवेद, पुरुषवंद, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गापाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, बस, चादर, सुभग, दो स्वर, आदेय और यशःकीर्ति के चार पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकक संख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र जानना चाहिए। मनुप्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रक सय पदाक बन्धक जीवांका क्षेत्र लोकके असंख्यात भागप्रमाण है। नपंसकवंद. एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, परघात, उच्छास, स्थावर, सूक्ष्म, पयाप्त, अपयाप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और अयशःीति के तीन पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकक संख्यातवें भागप्रमाण है। नियंञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सव लोक है। अवक्तव्य पदकं बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
७४. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक तथा इनके सब सूक्ष्म जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान भङ्ग है। बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक तथा उनके अपर्याप्त जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदों के बन्धक
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भुजगारबंधे फोसणाणुगमो
३६७ चत्तारि पदा सव्वलो। णस०-तिरिक्खग०-एइंदि० हुंडसं०-तिरिक्खाणु०-पर-उस्सा०थावर-सुहुम-पजत्तापज्जत्त-साधार०-दूभग०-अणादें०-अजस०-णीचा तिण्णिप०सव्वलो। अवत्त० लो० असंखें । सेसाणं सव्वपदा लोग० असंखेजः। एवं बादरवण-णियोदपजत्तापज० । णवरि वाऊणं जम्हि लोगस्स असंखज० तम्हि लोगस्स संखज० कादव्यो। बादरवणप्फदिपत्तेय० तस्सेव अपञ्ज० बादरपुढवि०अपजत्तभंगो। सेसाणं णिरयादि याव सण्णि त्ति संखेंज-असंखजरासीणं सव्वभंगो लोग० असंखें । एवं खेत्तं समत्तं ।
फोसणाणुगमो ७७५. फोसणाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा-छदसणा०-अट्ठक.. भय-दु०-तेजइगादिणव-पंचंत० भुज०-अप्प०अवढि०बंधगेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलो० । अवत्त० खेत्तं । थीणगिद्धि०३-अणंताणुबंधि०४ तिण्णिपदा णाणावरणभंगो। अवत्त० अट्ठों । मिच्छ० तिण्णिपदा णाणा भंगो। अवत्त० अट्ठ-बारह० । अपचक्खाणा०४ तिण्णपदा णाणाभंगो । अवत्त० छच्चोंद० । णिरयु देवायु०-आहारदुगं सव्वजीवोंका क्षेत्र सब लोक है। सातावेदनीय आदि दस प्रवृतियोंके चार पदों के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीति और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद और इनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वायुकायिक जीवोंके, जहाँ लोकका असंख्यातवाँ भागप्रमाण क्षेत्र कहा है, वहाँ लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहना चाहिए। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और उनके अपर्याप्त जीवोंमें बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। शेष नरकगतिसे लेकर संज्ञी मार्गणातक संख्यात और असंख्यात संख्यावाली राशियोंमें सब पदोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ।
__ स्पर्शानानुगम ७७५. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर आदि नव और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदका भंग क्षेत्रके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदों के बन्धक जीवोंका भंग ज्ञानावरण के समान है। अवक्तव्य पदके वन्धक जीवोंने कुछ कम पाठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका भंग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम बारहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका भंग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कल कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु और आहारक द्विकके सब पदोंके बन्धक जीवोंका म्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार आहारक मार्गणा तक इन प्रकृतियोंके सब पदोंका स्पर्शन
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे पदा खेत्तमंगो । एवमेदाणं याव आहारग ति। [तिरिक्खायु० दोपदा सव्वलो०।] मणुसायु० दोपदा अट्ठचौद्द० सबलोगो० । णिरयगदि-देवगदि-दोआणुपु० तिण्णि प० छच्चोंद्द० । अवत्त० खेत्तभंगो। ओरालिय० तिण्णिपदा सव्वलोगो । अवत्त० बारहचाँद्दस० । वेउबि०-वेउन्चि० अंगो० तिण्णिपदा बारहचौदस । अवत्त० खेतभंगो । तित्थय. तिण्णिप० अट्ठचों । अवत्त० खेत्त । सेसाणं कम्माणं सव्वपदा सव्वलोगो।
७७६. णिरएसु धुविगाणं तिण्णिपदा सादादीणं बारसण्णं चत्तारिपदा० छच्चोंदस०। दोआयु०-मणुसग०-मणुसाणु तित्थय०-उच्चा० सव्वप० खेत्तभंगो । सेसाणं तिण्णिप० छच्चोंद० । अवत्त० खेत्तभंगो। एवं सव्वणिरयाणं अप्पप्पणो फोसणं कादच्वं । णवरि मिच्छ० अवत्त० पंचचोद०।। ____७७७. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिण्णिपदा० सबलोगो। थीणगिद्धि०३-मिच्छ.. अट्ठक०-ओरालि० तिण्णिप० सव्वलो० । अवत्त० लो० असंखेज० । णवरि मिच्छ० अवत्त० सत्तचों । सेसाणं ओघे० । जानना चाहिए। तिर्यश्च आयुके दो पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्य आयुके दो पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति, देवगति और दो आनुपूर्वी के तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। औदारिक शरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आंगोपांगके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष कर्मोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
___ ७७६. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने और साता आदि बारह प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, तीर्थंकर प्रकृति और उच्चगोत्रके सब प्रदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंके अपना-अपना स्पर्शन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछकम पाँचवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।।
७७७. तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिक शरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके श्रवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ओघके समान है ।
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भुजगारबंधे फोसणाणुगमो ७७८. पंचिंदियतिरिक्ख०३ धुविगाणं तिण्णिपदा सादादिदसण्णं पगदीणं चत्तारि पदा० लोग० असंखें सव्वलो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अट्ठक० णवंस०-तिरिक्खग०[ दुग-] एइंदि०-ओरालि०-हुंडसं० - पर०-उस्सा०-थावर-सुहुम०-पजत्तापजत्त-पत्तेय०-साधार०भग०-अणादें अजस०-णीचा तिण्णिप० लोग० असंखें. सव्वलो० । अवत्त० लो. असंखे । णवरि मिच्छ०-अजस० अवत्त० सत्तचों० । इस्थिवे० तिण्णिप० दिवड्डचोद्द० । अवत्त० खेत० । पुरिस-णिरयगदि-देवगदि-समचदु० दोआणु०-दोविहा०-सुभग-दोसरआदेज०-उच्चा० तिण्णिप० छच्चों । अवत्त० खेत्तः । पंचिंदि०-वेउन्वि०- वेउन्वि०अंगो०-तस० तिण्णिप० बारहचों । अवत्त० खेत्तः । उज्जो० जसगि० चत्तारिप० सत्तचो। चदुआयु०-मणुसग०-तिण्णिजादि-चदुसंठा०-ओरालि अंगो०-छस्संघ०मणुसाणु०-आदावं खेत्तभंगो । बादर०तिण्णिप० तेरह । अवत्त० खेत। ___७७६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु धुविगाणं तिण्णिपदा सादादीणं चत्तारिप० लो० असंखें सबलो० । णवूस०-तिरिक्ख०-हुंडसं०-एइंदि-तिरिक्खाणु पर०-उस्सास-थावरसुहुम-पजत्तापज०-पत्तेय. साधार०-दूभग०-अणादें-णीचा० तिष्णिपदा लो० असंखें
____७७८. पंचेन्द्रियतिर्यश्च त्रिकम ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने तथा साता आदि दस प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, आठ कषाय, नपुंसक वेद, तिथंचगतिद्विक, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, हुंडसंस्थान, परघात, उच्छवास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति और नीच गोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मि
और अयश:कीर्तिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेदके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़बटे चौदहाराजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पुरुपवेद, नरकगति, देवगति, समचतुरस्त्र संस्थान, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर, श्रादेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंक बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आंगोपांग और त्रस प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उद्योत और यशःकीर्तिके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । चार आयु, मनुष्यगति, तीन जाति, चार संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और आतपके सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। बादर प्रकृतिके तीन पदोंके क्धक जीवोंने कुछ कम तेरहयटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
७७९. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके और सातादि प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सवलोक स्पर्शन किया है। नपुंसक वेद, तियंचगति, हुण्ड संस्थान, एकेन्द्रिय जाति, नियंचगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छवास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीच
क्षेत्रका
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महाधे द्विदिबंधाहिया रे
सव्वलो० । अवत्त० खेत्त० । उज्जो० - जसगि० चत्तारिप० सत्तचों६० । बादर० तिण्णिप० सत्तचोंο ० । अवत्त० त० । अजस० तिण्णिप० सादभंगो । अवत्त० सत्तचों । सेसाणं इत्थवेदादीणं चत्तारिप० खेत्तभंगो । एस भंगो सव्वअपजत्तगाणं विगलिंदियाणं बादर-पुढवि०. ० आउ० तेउ० - वाउ०- बादरवण प्फदिपत्तेय ० पञ्जत्ताणं च ।
७८०. मणुस ०३ पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो | णवरि विसेसो णादव्वो । मिच्छ०अवत्त० सत्तचोद्द० । दोआयु० - वेउव्वियछ० - आहारदुग-तित्थय० सव्त्रपदा खेत ० ।
७८१. देवेषु धुविगाणं तिष्णिपदा० अट्ठ-णवचद्द० । सादादीणं बारसण्णं मिच्छ०उज्जो० चत्तारिपदा० अदु-णवचों । एइंदिय थावरसंजुत्त० [तिष्णिपदा ] अट्ठ-णवचोद० | [ अवत्त० ] सेसाणं [सव्वपदा ] अडचों० । एदेण बीजेण णेदव्वं । सव्वदेवाणं अप्पणी फोसणं दव्वं ।
७८२. एइंदि० - सन्वसुहुम ० - पुढवि० ० आउ० तेउ० - वाउ०- वणप्फदि-नियोद० मणुसायुगं मत्तूणधुविगाणं तिष्णिप० सेसाणं चत्तारिप० सव्वलो० | मणुसायु० दोपदा०
गोत्र के तीन पदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सवलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । उद्योत और यशःकीर्तिके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातवटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अयशः कीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सातावेदनीय के समान है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष स्त्रीवेद आदि प्रकृतियों के चार पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । यही भंग सब अपर्याप्तक, विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक, वादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, वादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और इनके पर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिए ।
७८०, मनुष्यत्रिक में पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है । किन्तु यहाँ जो विशेष हो, वह जान लेना चाहिए । मिध्यात्व के अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, वैक्रियिक छह, आहारक द्विक और तीर्थंकर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
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७८१. देवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ टे चौदह राजू और कुछ कम नौवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । साता आदिक बारह प्रकृतियाँ, मिध्यात्व और उद्योतके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्थावर सहित एकेन्द्रिय जातिके तीन पदों के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बढे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है | इनके अवक्तव्य पदके तथा शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी बीजपदके अनुसार शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन भी जानना चाहिए। तथा सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शेन जानना चाहिए ।
७८२. एकेन्द्रिय, सब सूक्ष्म, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें मनुष्यायुको छोड़कर ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदों के
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भुजेगारवंधे फासणाणुगमा लो० असं सव्वलो० । बादरएइंदिय-पजत्तापजत्त० धुविगाणं तिण्णिप० सादादीणं दसण्णं चत्तारिप० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस०-चदुजादि-पंचसंठा-ओरालि अंगो०-छस्संघ.. आदा०-दोविहा०-तस सुभग-दोसर-आदें। चत्तारिपदालो० संखेंज० । णवुसएइंदि०हुंडसं० पर०-उस्सा०-थावर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय० साधार०-दृभग० अणादें तिण्णिप० सव्वलो० । अवत्त० लोग० संखज० । मणुसायु० दोपदा० लोग० असंखेजः। तिरिक्वायु० दोप० लोकसंखेज।तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-णीचा तिण्णिप० सव्वलो। अवत्त० लोग० असंखें । मणुस-मणुसाणु०-उच्चा० चत्तारिप० लोग० असंखें । उज्जो०-जसगि० चत्तारिप० सत्तचों । बादर० तिण्णिप० सत्तचों । अवत्त० खत्तः । अजस० तिण्णिप० सबलो० । अवत्त० सत्तचोद्द० । एस भंगो बादरपुढवि०-आउ० तेउ०वाउ० तेसिं च अपज्ज । वादरवणप्फदि-णियोदाणं च पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय० तस्सेव अपज्ज० । वरि विसेसो णादवो । जम्हि बादरएइंदि० लोग० संखेज. तम्हि वाउ० वजाणं लोग० असंखे० कादव्वं । बन्धक जीवोंने तथा शेष प्रकृतियोंके चार पदोंके वन्धक जावीने सब लोक क्षेत्रका स्पशन किया है। मनुष्यायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंक तीन पदोंके और सातादि दस प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंने सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक प्रांगोपांग, छह संहनन, आतप, दो विहायोगति, प्रस, सुभग,दोस्वर और आदेयके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यात-भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नपुंसकवेद, एकेन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, परघात, उच्छवास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुभंग और अनादेयके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तियेच आयुके दो पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तिर्यंचगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योत और यशः कीर्तिके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछकम सातबटे चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है। बादर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अयशःकीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । यही भंग बादर पृथिवीकायिक, बादरजलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक
और उनके अपर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिए । बादरवनस्पतिकायिक और निगोदजीव तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा उनके अपर्याप्त जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इनमें जो विशेष हो, यह जानना चाहिए। जिन बादर एकेन्द्रियों में लोकके संख्यात भाग स्पर्शन कहा है, उनमें वायुकायिक जीवोंको छोड़कर लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए ।
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महाधे द्विबंधायारे
७८३. पंचिंदिय तस ०२ पंचणा० छदंसणा० अट्ठक०-भय-दुगुं० तेजा० क० वण्ण ०४- अगु०४-पजत - पत्तेय० - णिमि० पंचंत० तिष्णिप० लो० असंख० अट्ठचों६० सव्व लो० । अवत्त० खेत. ० । श्रीणगिद्धि ०३ - अनंताणुबंधि ०४ - णवंस ० एइंदि० - तिरिक्ख ०- हुंडसं ०तिरिक्खाणु० - थावर - दूभग- अणादेंज ० णीचा० तिण्णिप० लोग० असंखेंज्ज० अट्ठचोईस ० सव्वलो० । अवत्त० अट्ठचोद्द० । सादादीणं दसण्णं चत्तारिप० लोग ० असंखें अट्ठचों सव्वलो ० । मिच्छ० तिणिप० सादभंगो । अवत्त० अट्ठ-बारह० । अपच्चक्खाणा ०४ तिणिप० अट्ठचों सव्वलो ० । अवत्त० छच्चों६० । इत्थि० - पुरिस० पंचिदि० पंचसंठा०ओरालि० अंगो०- छस्संघ० - दोविहा० तस- सुभग- दोसर० आदें० तिष्णिप० अट्ठ बारह ० । अवत्त • अडचों० । णिरय- देवायु- तिण्णिजा ० - आहारदुगं खेत्तभंगो । दोआयु- मणुसग०मणुसाणु०-'आदाउच्चा० चत्तारिप० अट्ठच । उज्जो० - जसगि० चत्तारिप० अट्ठ-तेरह० । बादर० तिष्णिप० अट्ठ-तेरह ० । अवत० त० । ओरालि० तिण्णिप० अट्ठचोंο
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७८३. पंचेन्द्रियद्विक और सद्विक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, एकेन्द्रियजाति, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुभंग, अनादेय, और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । साता आदि दस प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तीन पदों के बन्धक जीवोंका स्पर्शन सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पश्चेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, दो विहायो - गति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवों कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु, तीन जाति और आहा
द्विके सब पढ़ोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्रके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवढे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत और यशः कीर्तिके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठचौदह राजू और कुछ कम तेरहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम तेरहबटे चौदह राजू क्षेत्रका
१ मूलप्रतौ प्रादाउज्जो० इति पाठः ।
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भुजगारबंधे फोसणाणुगमो सवलो० । अवत्त० बारह । सुहुम-अपज०-साधार० तिण्णिप० लोग० असंखें सबलो० । अवत्त० खेत० । अजस० तिण्णिप० सादभंगो। अवत्त० अट्ठ-तेरह । वेउब्बियछक्क-तित्थय० ओघं । एस भंगो पंचमण-पंचवचि०-विभंग०-चक्खुदं०-सण्णि त्ति । णवरि जोगेसु ओरालि० अवत्त० खेत । विभंग० देवगदि-देवाणुपु० तिण्णिप० पंचचौ । अवत्त० खेत । ओरालि०-वेउवि०-वेउव्वि० अंगो०तिण्णिप० ऍकारह० । अवत्त० खेत्त। ___७८४. कायजोगि०-ओरालि०-अचक्खु०-भवसि०-आहारग त्ति मूलोघं । णवरि किंचि विसेसो। ओरालिय० तिरिक्खोघं । वेउब्बिय० धुविगाणं साददीणं वारसणं उज्जो० सव्वप० अट्ठ-तेरह० । थीणगिद्धि०३-अणंताणुबंधि०४-णवंस-तिरिक्खग० हुंड०तिरिक्खाणु०-दूभग-अणादें-णीचा. तिण्णिप० अट्ठ-तेरह० । अवत्त० अट्टचों । एवं मिच्छ० । णवरि अवत्त० अट्ठ-बारह । इत्थि०-पुरिस०-पंचिंदि०-पंचसंठा०-ओरालि. स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। औदारिक शरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अयशःकीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियक छह और तीर्थंकर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ओघके समान है । यही भंग पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि योगोंमें औदारिक शरीरके अवक्तव्य पदका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विभंगज्ञानी जीवोंमें देवगति और देवगत्यानुपूर्वी के तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँचबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक प्रांगोपांगके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारहबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
७८४. काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें मूल ओघके समान भङ्ग है। किन्तु यहाँ पर कुछ विशेषता है। औदारिक काययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है।वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ, साता आदि बारह प्रकृतियाँ और उद्योतके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार मिथ्यात्वका स्पर्शन जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
अंगो० संघ० दोविहा० तस सुभग-दोसर ०-आदें० तिणिप० अट्ठ-बारह ० । अवत्त० अचोह ० | दो आयु दोपदा मणुसग० मणुसाणु० - आदा० उच्चा० सव्वप० अट्ठचोह ० । एइंदि० (०-यावर० तिणिप० अट्ठ-णव ० | अवत्त० अट्ठचौ० । तित्थय० ओघं ।
७८५, ओरालियमि० - वेडव्वियमि० आहार० - आहारमि० कम्मइ० अणाहार० खेतभंगो। णवर ओरालियमि० मणुसायु० दोप० लोग० असंखें० सव्वलो० । कम्मइ०अणाहार • मिच्छत्तं अवत्त० ऍक्कारह० |
७८६. इत्थवेदे धुविगाणं तिष्णिप० सादादीणं दसणं चत्तारिपदा अट्ठचों ο सव्वलो० । थी गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि ०४ - बुंस - तिरिक्ख ० हुंड० - तिरिक्खाणु० - दूर्भाग- अणादे०-णीचा० तिष्णिप० अट्ठचों० सव्वलो० । अवत्त० अट्ठचों० । वरि -मिच्छ० अ० अड्ड-णवचो० । णिद्दा-पचला अट्ठक० -भय- दुगुं-ओरालि०-तेजा० क०वण्ण०४- अगु०४-पजत- पत्ते० - णिमि० तिणिप० अट्ठचों० सव्वलो० । अवत्त० खेत्त० ।
है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पचेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयुओंके दो पदोंके बन्धक जीवों तथा मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रातप और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । एकेन्द्रियजाति और स्थावर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीर्थकर प्रकृति सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ओधके समान है ।
७८५ औदारिकमिश्र काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रका योगी, कार्मणकाययोगी, और अनाहारक जीवोंमें अपनी-अपनी सब प्रकृतियोंके सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में मनुष्या के दो पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक है । कर्मयोगी और अनाहारक जीवों में मिध्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
७८६. स्त्रीवेदी जीवोंमें ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके और साता आदि दस प्रकृतियों के चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है ! स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसक वेद, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठव चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवडे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व के अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम नौवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । निद्रा, प्रचला, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवडे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवों का
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भुजगारबंधे फोसणाणुगमो
३७५ [णवरि ओरालि० अवत्त० दिवड्डचोद० । इथि०-पुरिसवे०-पंचसंठा-ओरालि० अंगो०छस्संघ०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें. चत्तारिपदा अट्टचों । दो आयु० तिण्णिजादिआहारदुग-तित्थय खेत० । दोआयुगस्स दोपदा मणुसग०-मणुसाणु०-आदाव-उच्चा० चत्तारिप० अट्ठचों । एइंदि०-थावर० तिण्णिप० अट्ठचों सबलो० । अवत्त० अट्ठचों । उज्जो०-जसगि० चत्तारिप० अट्ठ-णवचो । बादर तिण्णिप० अट्ठ-तेरहचोद्द० । अवत्त. खेत्त । सुहुम-अपज्ज०-साधार० तिण्णिप० लो० असंखें सव्वलो० । अवत्त० खेत्तभंगो। बेउब्विय० ओघं । अजस० तिण्णिप० अट्ठचोद० सव्वलो० । अवत्त० अट्ठ-णवचोद्द० । एवं पुरिस० वि । [ णवरि ] अपञ्चक्खाणा०४-ओरालि० अवत्त० छचोद० । तित्थय० ओघं।
७८७. णवंसगे अट्ठारसण्णं तिण्णि पदा सव्वलोगो। पंचदंस० मिच्छत्तबारसक०भय-दुगुं०-ओरालि-तेजा० क०-वण्ण०४-अगु०-उप०.[णिमि० ] तिण्णिप० सव्वलो० ।
स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि औदारिकके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पाँच संस्थान, औदारिक
आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेयके चारपदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, तीन जाति, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दो आयुओंके दो पदोंके
और मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्रके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत और यशःकीतिके चार पदोक बन्धक जीवान कुछ कम आठबटे चादह राजू आर कुछ कम नबिटे चादह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू
और कुछ कम तेरहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यात भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । वैक्रियिक शरीरके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ओघके समान है। अयशःकीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजु और सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदक बन्धक जीवान कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम नौबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके भी जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अप्रत्याख्यानावरण चार और औदारिकशरीरके अवक्तव्य पदके वन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थकर प्रकृतिके सब पदोंके वन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
___ ७८७. नपुंसकवेदी जीवोंमें अठारह प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके तीन पदोंके बन्धक
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे अवत्त० खेत । णवरि मिच्छत्त० अवत्त० बारहचो० । ओरालिय० अवत्तव्वं छचोंद० । दोआयु०-वेउव्वियछक्कं [ आहारदुग] तित्थय० ओरालियकायजोगिभंगो। सेसाणं चत्तारि पदा सव्वलो।
७८८. कोधादि०४-मदि० सुद० ओघं । णवरि मदि०-सुद० देवगदि-देवाणुपु० तिण्णिप० पंचचों । अवत्त० खेत्तभंगो। वेउवि०-वेउवि अंगोतिण्णि पदा ओरालि. [अवत्त०] ऍकारह० । [ वेउवि०दुग० ] अवत्त० खेतभंगो।
७८६. आभि०-सुद०-ओधि० पंचणा०-छदंसणा०-अट्ठक-पुरिस०-भय-दुगुं०मणुसगदिपंचग०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-वण्ण०४ अगु०४-पसत्थ०-तस०४. सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थय०-उच्चा०-पंचंत. तिण्णि पदा अट्टचो० । अवत्त० खेत्तभंगो। णवरि मणुसगदिपंचग० अवत्त छच्चो० । सादादीणं चारस० चत्तारि पदा अट्ठ० । मणुसायु० दो पदा अट्टचोद्द० । देवायु-आहारदुगं खेत्तभंगो। अपञ्चक्खाणा०४ तिण्णि पदा अट्ठों । अवत्त० छच्चोंद० । देवगदि०४ तिण्णि पदा छचों। जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पशेन किया है। औदारिक शरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आय, वैक्रियिक छह, आहारक दो और तीर्थकर प्रकृतिके सब पदोंका भंग औदारिककाययोगी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
७८. क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, और ताज्ञानी जीवोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें देवगति और देवगत्यानुपूर्वी के तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँचबटे चौदहराजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकांगोपांगके तीन पदोंके तथा
औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकद्विकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन तंत्रके समान है।
७६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छहदर्शनावरण, आठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति पंचक, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदहराजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका पनि क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति पंचकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । साता आदि बारह प्रकृतियों के चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु
और आहारकद्विकके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षत्रके समान है । अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंक बन्धक जीवोंने कुछ कम पाठबटे चौदह राजू सत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षत्रका स्पर्शन किया है। देवगति चारके तीन पदों के
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भुजगारबंधे फोसणाणुगमो अवत्त० खेत० । मणपजवादि याव सुहुमसंपराइगा ति खेत्तभंगो।
७९०. संजदासंजदा० देवायु-तित्थय० खेतः । धुविगाणं तिण्णि पदा वि सेसाणं चत्तारि पदा छच्चों । असंजदे ओघं । ओधिदं०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम० आभिणिभंगो। णवारे खइगे उवसम० देवगदि०४ चत्तारिपदा मणुसगदिपंचग० अवत्त० खेत। ___७६१. किण्ण०-णील०-काउसु धुविगाणं तिण्णि पदा सव्वलो० । थीणगिद्धि०३मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ तिण्णि पदा सव्वलो० । अवत्त० खेत्त० । णवरि मिच्छ. अवत्त० पंच-चत्तारि-बेचौद्द० । णिरय-देवायु-देवगदिदुगं खेत० । णिरयगदि-वेउवि०वेउवि अंगो०-णिरयाणु० तिण्णिपदा छ-चत्तारि-बेचो० । अवत्त० खेत। सेसाणं चत्तारि पदा सव्वलो० । तित्थय० चत्तारिपदा खेत।। ___७६२. तेऊए धुविगाणं तिण्णि पदा अट्ठ-णवचौद्द० । थीणगिद्धि०३-अणंताणुबंधि०४-णस०-तिरिक्खग०-एइंदि०-हुंड०-तिरिक्खाणु०-थावर-दूभग-अणादेंबन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्श न क्षेत्रके समान है। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवों तक स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
७६०. संयतासंयत जीवोंमें देवायु और तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने और शेष प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंयत जीवोंमें स्पर्शन ओघके समान है। अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें देवगति चतुष्कके चार पदोंके और मनुष्यगति पंचकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
७६१. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें ध्रुववना बाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने क्रमसे कुछ कम पाँचपटे चौदह राजू, कुछ कम चारबटे चौदह राजू और कुछ कम दोबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु और देवगतिद्विकके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। नरकगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अांगोपांग और नरकगत्यानुपूर्वीके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम छहबटे चौदह राजू, कुछ कम चारबटे चौदह राजू और कुछ कम दोबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदका भङ्ग क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके चार पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
७६२. पीतलेश्यावाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम नौ वटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चार, नपुसकवेद, तिथंचगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आटवटे
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे णीचा०तिण्णिप० अङ्क-णवचौ। अवत्त० अट्टचों । सादादिवारह-मिच्छत्त-उज्जो० चत्तारि पदा अट्ठ-णवचों । अपचक्खाणा०४-ओरालि० तिण्णि प० अट्ठ-णवचोद० । अवत्त० दिवड्डचो । इत्थिवे० चत्तारि पदा अट्ठचौद्द० । एवं पुरिस० । मणुसगदिपंचिंदि०-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०-आदाव-दोविहा०-[तस०] सुभग-दोसर आदें०-उच्चा०-देवगदि०४ तिग्णि पदा दिवड्चोंद ० । अवत्त० खत्त । णवरि मणुसदुग०-वज्जरिस०-ओरालि अंगो० दिवड्डचों । पचक्खाणा०४-आहारदुगतित्थय० ओघं । पम्माए तेउभंगो । णवरि याणि पदाणि दिवढं तेसिं पंचचों । सेसाणं अट्ठचों । एवं सुक्काए वि । णवरि छच्चो० । __७६३. सासणे धुगिगाणं तिण्णि पदा अट्ठ-बारह । इथि०-पुरिस-पंचसंठा-पंचसंघ०-दोविहा०-सुभग-दोसर-आदें. तिण्णि पदा अट्ट-एकारह० । अवत्त० अट्ठचों । तिरिक्खगदिदुग दूभग अणादेंणीचागो० तिण्णिपदा अट्ठ-बारह । अवत्त० अट्ठचो । चौदह राजू और कुछ कम नौ वटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। साता आदि बारह प्रकृतियाँ, मिथ्यात्व और उद्योतके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम नौवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अप्रत्याख्यानावरण चार और औदारिक शरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राज और कुछ कम नौ घटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेदके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पुरुषवेदके चार पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन जानना चाहिए। मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आंगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगल्यानुपूर्वी, आतप, दो विहा. योगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय, उच्चगोत्र और देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिद्विक, वज्रर्षभनाराचसंहनन और औदारिक आंगोपांगके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदहराज क्षेत्रका स्पर्शन
। प्रत्याख्यानावरण चार. आहारकद्रिक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। पद्मलेश्यावाले जीवोंमें पीतलेश्यावाले जीवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि जिन पदोंका कुछ कम डेढ़बटे चौदह राजू स्पर्शन कहा है,उनका कुछ कम पाँचबटे चौदह राजू क्षेत्र प्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए। शेष पदोका कुछ कम आटबटे चौदह राजू क्षेत्र प्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवों में भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँपर कुछ कम छहबटे चौदहराजू क्षेत्र प्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए।
७६३. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम बारहबटे चौदहराजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर और आदेयके तीन पदोंके वन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तिर्यञ्चगतिद्विक, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबेटे
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जगबंधे कालागमो
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सादादीणं परियत्तमाणियाणं उजो० चत्तारिप० अट्ठ-बारह० । दोआयु० - मणुसग ०मणुसाणु०-उच्चा० चत्तारिपदा अडचोहस० । [ देवायु० खतभंगो ] देवगदि ० ४ तिष्णिपदा पंचचद्दस० । अवत्त० खेत० । ओरालि० तिष्णिपदा अट्ठ-बारह० । अवत्त० पंचच६ ० ।
७६४. सम्मामि० धुविगाणं तिष्णिपदा अट्ठचों० । सादादीणं चत्तारिपदा अडचों० । [ णवरि देवगदि४ लोग असंखे० । ] असण्णीसु णिरय देवायु० - वेउब्विय ० [ छ ] ओरालि • खेत्तभंगो । सेसाणं एइंदियभंगो । एवं फोसणं समत्तं ।
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कालागमो
७६५. कालानुगमेण दुवि० ओघे० आदे० । ओघे० भुज० अप्पद ० - अवत्त० एसिं परिमाणे अनंता असंखेजा लोगरासीणं तेसिं सव्वद्धा । असंखेजरासिं जहणणेण एयस०, उक्क० आवलियाए असंखेज० । जेसिं संखजजीवा तेसिं जह० एग०, उक्क० संखेन समय० । अवट्टि ० सव्वेसिं सव्वद्धा० । णवरि जेसिं भयणिञ्जरासिं तेसिं अवदि
चौदह राजू और कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । साता आदि परिवर्तमान प्रकृतियाँ और उद्योत प्रकृतिके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके चार पदके बन्धक जीवोंने कुल कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायुके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । देवगति चतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवांने कुछकम पाँच बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । औदारिकशरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँचबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
७६४. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । साता आदि प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि देवगति चतुष्कके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अज्ञी जीवों में नरका, देवायु, वैक्रियिक छह और औदारिक शरीरके सब पदके बन्धक जीवांका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन एकेन्द्रिय जीवोंके समान है। इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ ।
कालानुगम
७६५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे जिन मार्गणाओं में भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका परिमाण अनन्त और असंख्यात लोक प्रमाण है, उनका काल सर्वदा है। जिनका परिमाण असंख्यात है, उनका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। जिनका परिमाण संख्यात है, उनका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । अवस्थितपदवाले सब जीवोंका काल
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे कालो अप्पप्पणो पगदिकालो कादव्यो । णवरि जह० एग० । तिण्णिआयुगाणं अवत्तव्वगा जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखे । अप्पद० ज० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखें । तिरिक्खायु० दोपदा सव्वद्धा । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्वं ।
एवं कालं समत्तं ।
अंतराणुगमो ७९६. अंतराणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०सोलसक०-भय-दुगुं०-ओरालि०-तेजा०-क०-वण्ण०४- अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. भुज०-अप्पद०-अवढि० णत्थि अंतरं। अवत्त० ज० एग०, उक्कस्सेण थीणगिद्धि०३. मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ सत्त रादिदियाणि । अपञ्चक्खाणा०४ चौदस रादिदियाणि । पञ्चक्खाणा०४ पण्णारस रादिदियाणि । ओरालि० अंतो० । सेसाणं वासपुधत्तं०, । वेउनियछ०-आहारदुगं भुजा-अप्पद०-अवत्त० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० णत्थि अंतरं । तिण्णि आयुगाणं अवत्त०-अप्पद० जह० एग०, उक्क० चदुवीस मुहु० । तिरिक्खायुगस्स दोपदा० णत्थि अंतरं । तित्थय० दो पदा जह० एग०, उक्क० अंतो०। सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि जिन मार्गणाओंकी राशि भजनीय है, उनके अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका काल अपने-अपने प्रकृतिबन्धके कालके समान कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जघन्यकाल एक समय है । तीन आयुओंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवीका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तियेच आयुके दो पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
इस प्रकार काल समाप्त हुआ।
अन्तरानुगम ७६६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण; नै दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर
और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका सात दिनरात है। अप्रत्याख्यानवरण चारका चौदह दिनरात है । प्रत्याख्यानावरण चारका पन्द्रह दिनरात है, औदारिकशरीरका अन्तर्मुहूर्त है और शेष प्रकृतियोंका वर्षपृथक्त्व है। वैक्रियिकछह, आहारकद्विकके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। तीन आयु. ओंके अवक्तव्य और अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है । तिर्यंच आयुके दो पदोंके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो अव०ि णत्थि अंतरं । अवत्त० जह० एग०, उक० पदा णत्थि अंतरं ।
७६७, णिरसु धुविगाणं दो पदा जह० एग०, उक्क० तो ० । अवट्ठि० णत्थि अंतरं । थी गिद्ध ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ तिष्णिपदा णाणावरणभंगो | अवत्त • जह० एग०, उक्क० सत्त रादिंदियाणि । तित्थय० दो पदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि • णत्थि अंतरं । अवत्त० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असं० भागो । अथवा जह० एग०, उक्क० वासपुधत्तं । दो आयु० पगदिअंतरं । सेसाणं तिष्णिपदा जह० एग० उक्क अंतो । अवट्टि० णत्थि अंतरं । एवं सव्वणिरयाणं । णवरि सत्तमाए दोगदिदोआणु ० - दोगोदं थीणगिद्धिभंगो ।
७६८. तिरिक्खे ओघं । पंचिंदिय तिरिक्ख ०३ धुविगाणं तिष्णिपदा णिरय गदिभंगो । थीणगि ०३ - मिच्छ० - अट्ठक० ओघं । सेसाणं णिरयगदिभंगो । आयुगाणं पगदिअंतरं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० णिरयोघं । एवं सव्वअपज्ज० - विगलिंदि० - बादर पुढवि ०आउ०- तेउ०- वाउ०- वणष्फ दिपत्तेय० पज्जत्ता । णवरि मणुस अपज्ज० धुविगाणं
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वासपुधत्तं । सेसाणं चत्तारि
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समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व हैं। शेष प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंका अन्तरकल नहीं है।
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७६७. नारकियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं हैं। स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका भंग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिनरात है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, अथवा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । दो आयुओंके दो पदोंके बन्धक जीवों का अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकाल के समान है। शेष प्रकृतियों के तीन पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवी में दो गति, दो आनुपूर्वी और दो गोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धि प्रकृतिके समान है ।
७६८. तिर्यश्नोंमें ओघके समान भङ्ग है । पश्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग नरकगतिके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और आठ कषायका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नरकगतिके समान है। आयुका भङ्ग प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों में सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार सब अपर्याप्तक, विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर कायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदों के बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।
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महावं ट्ठिदिबंधाहियारे तिणि पदा ज० ए०, उ. पलिदो० असंखें । सेसाणं चत्तारि प० ज० ए०, उ० पलिदो० असंखे।
७६६. मणुस०३ धुविगाणं दो पदा ज० ए०, उ० अंतो० । अवढि णत्थि अंतरं । अवत्त० ओघं । सेसाणं तिणि प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवढि० णत्थि अंतरं । [ आउगाणं पगदिअंतरं । ] एवं पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०पुरिस०-चक्खुदं० । देवेसु विभंगे णिरयभंगो। कायजोगि-ओरालिय०-णस०कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अब्भवसि०मिच्छादि०-आहार० ओघं । णवरि धुविगाणं विसेसो णादव्यो।
८००. ओरालियमिस्से देवगदि०४ तिणि प० ज० ए०, उ० मासपुध० । तित्थय० तिण्णिप० ज० ए०, उ० वासपुध० । मिच्छ० अवत्त० ज० ए०, उ० पलिदो० असंखे। सेसाणं सवपदा णत्थि अंतरं । एवं कम्मइ० । वेउब्वियका णिरयभंगो। वेउन्वियमि० तित्थय० तिण्णिपदा जह० एग०, उक्क. वासपुध० । सेसाणं सवपदा जह• एग०, उक्क० बारस मुहु० । एइंदियतिगस्स चदुवीस मुहु। मिच्छ० अवत्त० जह० एग०,
शेष प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
७६६. मनुष्यत्रिकमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। आयुओंका भङ्ग प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। इसी प्रकार पश्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और चक्षुःदर्शनी जीवोंके जानना चाहिये । देवोंमें और विभङ्गज्ञानी जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। काययोगी, औदारिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुःदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारकोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका विशेष जानना चाहिये।
८००. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगति चतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मास पृथक्त्व है। तीर्थंकर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है। एकेन्द्रियत्रिकका चौबीस मुहूर्त है। मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें
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भुजगारबंधे अंतरानुगमो
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उक्क० पलिदो० असंखे । आहार० - आहारमि० सव्वाणं सव्वे भंगा जह० एग०,
उक्क • वासपुध० । ८०१. अवगदे० सच्वकम्मा० अप्पद ० - श्रवट्टि० जह० एग०, णत्थि अंतरं ।
८०२. आभि० - सुद० - ओधिणाणी० धुविगाणं तित्थय० मणुसभंगो । दोगदिदोसरीर - दो अंगो०- वञ्ज रिस० [ दो आणु० ] दोणि पदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० एग०, उक० मासपुध ० । सेसाणं तिष्णि प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सव्वाणं अवट्टि० णत्थि अंतरं । एवं ओधिदंस० - सम्मादि० - वेदगसम्मा० । मणपज० धुविगाणं मणुसि० भंगो । सेसाणं ओधिभंगो । एवं संजदा संजदासजदा ।
८०३. सामाइ० - छेदो० धुविगाणं विसेसो णादव्वो । परिहारे धुविगाणं भुज०अप्प० ज० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० णत्थि अंतरं । सेसाणं पि एस भंगो० । णवरि अवत्त० विसेसो ।
८०४. ते देवगदि०४ भुज० - अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवडि०
भुज० - अवत्त० जह० एग०, उक्क० वासपुध० । उक्क० छम्मासं० ० । एवं सुहुमसंप० । णवरि अवत्तव्वं
भाग प्रमाण हैं । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में सब प्रकृतियों के सब पदोंके बन्धक जीवोंका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षथक्त्व है ।
८०१. अपगतवेदी जीवोंमें सब कर्मों के भुजगार और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । अल्पतर और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । इसीप्रकार सूक्ष्म साम्परायिक संयत जीवों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है ।
८०२. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ और तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक जीवोंका भङ्ग मनुष्यों के समान है । दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, चज्रऋषभनाराचसंह्नन और दो आनुपूर्वीके दो पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मास पृथक्त्व है । शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सब प्रकृतियोंके अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मन:पर्ययज्ञानी जीवों में ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार संगत और संयतासंयत जीवों के जानना चाहिये ।
८०३. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका विशेष जानना चाहिये । परिहारविशुद्धि संगत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । शेष प्रकृतियों के बन्धक जीवोंका भी यही भङ्ग है । किन्तु वक्तव्य पदमें कुछ विशेषता है ।
८०४. पीतलेश्यावाले जीवोंमें देवगति चतुष्क के भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे णत्थि अंतरं । अवत्त० जह० एग०, उक्क० मासपुध० । ओरोलिय. अवत्त० जह० एग०, उक्क. अडदालीसं मुहु० । मिच्छ० अवत्त० जह० एग०, उक्क. सत्त रादिदियाणि । सेसाणं मणुसोघो। विसेसो णादव्वो। पम्माए देवगदि०४ तेउभंगो ।
ओरालि०-ओरालि अंगो. अवत्त० जह. एग०, उक्क० दिवसपुध० । सेसाणं च तेउभंगो। सुक्काए मणुसगदि-देवगदि-दोसरीर-दोअंगो०-दोआणु० ओधिभंगो। सेसाणं मणुसि०भंगो।
८०५. खइगे धुविगाणं मणुसगदि-देवगदिन्दोसरीर-दोअंगो०-वज्जरिस०-दो आणु० अवत्त० जह० एग०, उक्क वासपुध० । सेसाणं ओधिभंगो। उवसम० पंचणाणावरणा० तिण्णि पदा जह० एग०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । एवं सव्वाणं । णवरि आहार-आहार अंगो०-तित्थय० भुज०-अप्पद०-अवढि०-अवत्त० जह० एग०, उक्क० वासपुध० । सेसाणं अवत्त० ओघं ।
८०६. सासणे धुविगाणं तिण्णिप० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखें। सेसाणं चत्तारि प० ज० एग०, उक्क पलिदो० असंखे । एवं सम्मामि० । सण्णि जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्व है। औदारिक शरीरके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अड़तालीस मुहूर्त है। मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य मनुष्यों के समान है। यहाँ पर जो विशेष हो वह जानना चाहिये । पद्मलेश्यावाले जीवोंमें देवगति चतुष्कका भङ्ग पीत लेश्याके समान है। औदारिक शरीर और औदारिक आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दिवस पृथक्त्व है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पीतलेश्याके समान है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें मनुष्यगति, देवगति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और दो अानुपूर्वी का भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है।।
०५. क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों, मनुष्यगति, देवगति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वनऋषभनाराचसंहनन और दो आनुपूर्वीके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंका जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल ओघके समान है।
८०६. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। शेप प्रकृतियों के
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भुजगारबंधे अप्पाबहुआणुगमो
३८५ पंचिंदियभंगो। असण्णीसु वेउव्वियछ०-ओरालि० तिरिक्खोघं । सेसाणं ओषं । अणाहार० कम्मइगमंगो । एवं अंतरं समत्तं ।
भावाणगमो ८०७. भावाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओषे० पंचणा० चत्तारिपदा बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। एवं सव्वपगदीणं सव्वत्थ णेदव्वं याव अणाहारग त्ति ।
एवं भावं समत्तं
अप्पाबहुआणुगमो ८०८. अप्पाबहुगं दुवि०-ओषे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छ०सोलसक०-भय-दु०-ओरालि०-तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. सव्वत्थोवा अवत्तव्वबंधगा। अप्पद० अणंतगु० । भुजागारबंध० विसे० । अवडि. असंखे । दोवेदणी०-सत्तणोक०-दोगदि-पंचिंदि०-छस्संठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०. दोआणु०-पर०-उस्सा०-उज्जो०-दोविहा ०-तस-बादर-पज्जत्तापज्जत्त-पत्ते०-थिरादिछयुग०-दोगोद० सव्वत्थोवा अवत्त । अप्पद० संखेजः। भुज. विसे० । अवढि० असंखेज्ज । चदुआयु० सव्वत्थोवा अवत्त० । अप्पद० असंखें । वेउव्वियछ० सव्वचार पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। संज्ञियोंमें पञ्चन्द्रियोंके समान भङ्ग है। असंज्ञियोंमें वैक्रियिक छह और औदारिक शरीरका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ।
भावानुगम ८०७. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । भोघसे पाँच ज्ञानावरणके चार पदोंके बन्धक जीवोंका कौनसा भाव है ? औदयिक भाव है। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंका सर्वत्र अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । इसप्रकार भावानुगम समाप्त हुआ।
__ अल्पबहुत्वानुगम ८०८. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय, जगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दो वेदनीय, सात नोकषाय, दो गति, पञ्चेन्द्रियजाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रके प्रवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यात गुणे हैं । इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव
असंख्यातगुणे हैं। चार आयुओंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अल्पतर Jain Education InternatiPE
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८६
महाबंधे द्विदिबंधाहियारे त्योमा अवतः । भुज०-अप्पद० दो वि सस्सिा संखेज्ज० । अवष्टि० असंखें । तिष्णिजादी देवगदिभंगो। एइंदि०-आदाव-थावर-सुहुम-साधार० सव्वत्थो० अवत्त । भुज० संखेज्ज० । अप्पद० विसे० । अवहि. असंखज्ज० । [ आहार०] आहार०अंगो० सम्वत्थो० अवत्त । दोपदा० संखज्ज० । अवहि० संखज्ज । तित्थय० सव्वत्थो० अवत्त । दोपदा असंखेन । अवढि० असंखज्ज।
८०६. णिरए धुविगाणं सव्वत्थोवा भुज-अप्पद० । अवढि० असंखे । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अर्णताणुबंधि०४-तित्थय० सव्वत्थोवा अवत्त । भुज०-अप्पद. असंखज्ज । अवडि० असंखे । सेसाणं सव्वत्योवा अवत्त । भुज-अप्पद० संखेज। अवडि० असंखेज्जः । तिरिक्खायु० ओघं । मणुसायु० सव्वत्थो० अवत्त । अप्पद० संखेज्जः। एवं सत्तसु पुढवीसु। णवरि सत्तमाए दोगदी-दोआणु०-दोगोद. थीणगिद्धिभंगो।
८१०. तिरिक्खेसु धुविगाणं सव्वत्थो० अप्पद० । भुज० विसे० । अवढि० असं. खेज्जः । सेसाणं ओघं। पंचिंदियतिरिक्खेसु धुविगाणं पिरयभंगो । थीणगिद्धि०३पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक छहके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तीन जातियोंका भङ्ग देवगतिके समान है। एकेन्द्रिय जाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण प्रकृतिके श्रवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आहारकशरीर और
आहारक आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे दो पदोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तीर्थङ्कर प्रकृति के प्रवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे दो पदोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
८०६. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और तीर्थंकर प्रकृतिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यञ्चायुका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें दो गति, दो नुपूर्वी और दो गोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है।
८१०. तिर्यश्चोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अल्पतर पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंका
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भुजगारबंधे अप्पा बहुआणुगमो
३८७
मिच्छ 5० - अडक० - ओरालि० सव्वत्थो० अवत्त० । भुज० - अप्पद ० असंखेज्ज० । अवट्ठि ० असंखज्ज • ० | सेसाणं सव्वत्थो० अवत्त० । दोपदा संखेज्जगु० । अवट्ठि० असंखेज्ज० । पंचिंदियतिरिक्खपज्ज० - पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु धुविगाणं पंचिदियतिरिक्खोघं । वरि ओरालि० सादभंगो । सेसाणं पि सादभंगो । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु धुविगाणं सेसाणं च णिरयोघं ।
1
८११. मणुसेसु धुविगाणं ओरालि० सव्वत्थो० अवत्त० । भुज० - अप्पद ० असंखज्ज० ज० । अवट्ठि० असंखेज्ज० । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । वेडव्वियछ०आहारदुग - तित्थय० संखज्जगुणं कादव्वं । मणुसपज्जच - मणुसिणीसु तं चैव । वरि संखेज्ज० । मणुस अपज्ज० - सव्व एइंदि ० - सव्वविगलिंदि ० - पंचकायाणं पंचिंदि ० अपज्ज० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । देवाणं णिरयभंगो ।
८१२. पंचिदिए धुविगाणं ओरालि० सव्वत्यो० अवत्त० । भुज० - अप्प ० दोपदा असंख● | अवट्ठि • असंखे । मणुसग ० - मणुसाणु ० - उच्चा० ओघं । सेसं पंचिंदियतिरिक्खभंगो | पंचिंदियपज्जत्तगेसु ओरालि० सादभंगो। सेसं तं चैव ।
०
नारकियों के समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, आठ कषाय और औदारिक शरीरके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे दो पदोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । पचेन्द्रिय तिर्यञ्जपर्याप्तक और पचेन्द्रिय तिर्यनयोनिनी जीवोंमें ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामन्य पञ्चेन्द्रिय तिर्योंके समान है । इतनी विशेषता है कि औदारिक शरीरका भङ्ग साता वेदनीयके समान है । शेष प्रकृतियोंका भी भङ्ग साता वेदनीयके समान है | पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली और शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियों के समान है ।
८११. मनुष्यों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और औदारिक शरीरके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पचेन्द्रिय तिर्योंके समान है । किन्तु वैक्रिथिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्करके पदोंको संख्यातगुणा करना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में इसी प्रकारसे ही जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहाँ संख्यात
कहना चाहिये | मनुष्य अपर्याप्तक, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पाँच स्थावरकाय और पन्द्रिय अपर्याप्तकों का भङ्ग तिर्यच अपर्याप्तकों के समान है। देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है ।
८१२. पवेन्द्रियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और औदारिक शरीरके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर इन दो पदोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र का भङ्ग ओधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पचेन्द्रिय तिर्योंके समान है । पनेन्द्रिय पर्याप्तकों में औदारिक शरीरका भङ्ग साता वेदनीयके समान है । शेष भंग उसी प्रकार हैं।.
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महाबँधे द्विदिबंधाहियारें
८१३. तसेसु वेउब्वियछ ० - आहारदुगं [ मणुसभंगो। ] आदाव - थावर - सुहुमसाधार० देवगदिभंगो । सेसाणं ओघं । णवरि यम्हि अनंतगुणं तम्हि असंखेज्ज० । एवं पत्त० । णवरि ओरालि० सादभंगो ।
८१४. तस अपजत्त० धुविगाणं सव्वत्थो० भुज० । अप्प० विसे० । अवट्ठि० असंखेज्ज० । सादासादा० पंचणोक० - तिरिक्खग०-पंचिंदि० - हुंडसं ०-ओरालि • अंगो०असंपत्त० - तिरिक्खाणु ० -तस० - बादर - पज्जत - पत्ते ०- अथिरादिपंच - णीचा० सव्वत्थो ० अवन्त । अप्पद ० संखेज्ज० । भुज० विसे० । अवट्ठि ० असंखें । मणुसगदि- मणुसाणु ० ओघं । बीइंदि० सव्वत्थो० अवत्त० । भुज० संखेज्ज० । अप्पद ० विसे० । अवट्ठि ० असंखेज्ज० । सेसं तिरिक्खभंगो ।
- ८१५. पंचमण० - तिण्णिवचि ० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक० -भय-दुगुं०देवगदि-ओरालि० - वेउव्वि ० तेजा ० क ० - वेड व्वि ० अंगो० वण्ण० ४- देवाणु ० अगु० - [ उप०-] बादर - पज्जत - पत्तेय० - णिमि० - तित्थय० - पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त० । भुज० - अप्पद० असंखेन्ज • । अवट्टि • असंखेज्ज० । चदुआयु० - आहारदुगं ओघं । सेसाणं सव्वत्थो ०
०
I
Q
३८८
८१३. सोमं वैक्रियिक छह और आहारक द्विकका भङ्ग मनुष्योंके समान है। आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण प्रकृतिका भङ्ग देवगतिके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि जहाँ पर अनन्तगुणा कहा है, वहाँ पर असंख्यातगुणा कहना चाहिये । इसी प्रकार पर्याप्त त्रसोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि औदारिक शरीरका भङ्ग सातावेदनीयके समान है |
I
= १४. अपर्याप्तकों में ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार पदके बन्धक जीव सबसे स्तीक हैं । इनसे अल्पर पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । सातावेदनीय, असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, तिर्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, तिर्यगत्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और नीचगोत्रके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्य गति और मनुष्य त्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघ के समान है । द्वीन्द्रिय जातिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियों का भङ्ग तिर्यों के समान है।
1
८१५. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपांग, वर्णचतुष्क, देवगध्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थंकर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । चार आयु और आहारकद्विकका भंग ओघ के समान है। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित
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भुजगारबंधे अप्पाबहुअाणुगमो
३८६ अवत्त० । भुज अप्पद० संखेंज० । अवढि० असंखेंज० । दोवचि० तसपज्जत्तभंगो। णवरि भुजगार-अप्पदरं समं कादव्वं ।
८१६. कायजोगि० ओघं । ओरालिय. तिरिक्खोघं । णवरि भुज-अप्पद० सरिसं० । णवरि तित्थय० मणुसिभंगो । ओरालियमि० धुविगाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। एइंदि० आदाव-थावर-सुहुम-साधार० सव्वत्थो० अवत्त । भुज० संखेंज्ज० । अप्पद० विसे । अवढि० असंखें । मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० ओघं० । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि देवगदि०४ सव्वत्थोवा भुजः । अप्पद०-अववि० संखेज्जः । एवं तित्थय० । अवत्त० णत्थि।
८१७. वेउवि०-वेउव्वियमिस्स० देवोघं । णवरि थीणगिद्धि०३-अणंताणुबंधि०४ अवत्त० णत्थि । आहार-आहारमि० सव्वट्ठभंगो। कम्मइ० ओरालियमिस्सभंगो। णवरि अत्थदो विसेसो०।
८१८. इत्थिवे० धुवि० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचदंस-मिच्छ०-चारसक०-भयदुगुं०-तेजा०क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि० सव्वत्थोवा अवत्त०-भुज० । अप्पद० पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दो वचनयोगी जीवोंका भंग त्रस पर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें भजगार और अल्पतरपदकी मुख्यतासे अल्पबहत्व एक समान कहना चाहिए।
१६. काययोगी जीवोंमें अल्पबहुत्व ओघके समान है। औदारिक काययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्योंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगार और अल्पतर पदकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व एक समान कहना चाहिए। उसमें भी इतनी विशेषता और है कि तीर्थंकर प्रकृतिका भंग मनुष्यिनियोंके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। एकेन्द्रिय जाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार पदके, बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कके भुजगार पदके बन्धक जीव सबके स्तोक हैं । इनसे अल्पतर और अवस्थित पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार तीर्थंकर प्रकृतिकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसका प्रवक्तव्य पद नहीं है।
८१७. वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अल्पबहुत्व सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धी चारका प्रवक्तव्य पद नहीं है । आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके देवोंके समान अल्पबहुत्व त्व है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान अल्पबहत्त्व है। इतनी विशेषता है कि इस विषयमें वस्तुतः जो विशेषता हो वह जान लेनी चाहिये।
१८. स्त्रीवेदी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके अवक्तव्य और भुजगार पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे
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३६०
महाबँधे द्विदिबंधाहियारे
०
असंखे | अवट्टि • असंखज्ज० । आहार दुग-तित्थय • मणुसभंगो। सेसाणं पंचिदियभंगो। एवं पुरिसवेदे वि । णवरि तित्थयरस्स ओघं ।
८१९. सगे धुविगाणं सव्वत्थो ० अप्प० । भ्रुज ० विसे० | अवट्ठि० असंखे | पंचदंस० - मिच्छ० बारसक० -भय-दुगुं०- ओरालि० तेजा० क० वण्ण ०४ अगु० - उप०प० - णिमि० सव्वत्थो० अवत० । अप्पद अनंतगु० । भुज० विसे० । अवद्वि० असंखेज्ज० । इत्थवे ० - पुरिस० णिरयभंगो । सेसाणं ओघं । अवगद वे० सम्बपगदीणं सव्वत्थो० अवत्त० । भुज • संखेज्ज० । अप्पद० संखेज्ज० । अवट्टि० संखज्ज० ।
I
८२० कोधकसाए धुविगाणं णवुंसगभंगो । सेसाणं ओघं । एवं माणमाया- लोभाणं ।
८२१. मदि० - सुद० धुविगाणं तिरिक्खोघं । मिच्छ० ओरालि • सव्वत्थो० अवत्त० । अप्पद ० अनंतगु० । भुज० विसे० । अवद्वि० असंखेज्ज० । सेसाणं ओघं । विभंगे धुविगाणं देवोषं । मिच्छ० - देवर्गादि० - ओरालि० - वेउच्त्रि ० - वेउव्विअंगो० -देवाणु० - पर०उस्सा०-बादर- पज्जत - पत्तेय० सव्वत्थो० अवत्त० । भुज० - अप्प० असंखेज्जगु० | [ अवट्ठिο "हैं। आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्योंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियों के समान है । इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंमें भी जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग घके समान है ।
८१६. नपुंसकवेदी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अल्पतर पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । पाँच दर्शनावरण, मिध्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके अवक्तव्य पदके बन्धक जीब सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे भुजगार पदके बन्धक ata विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भङ्ग नारकियों के समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान है । अपगतवेदी जीवों में सब प्रकृतियोंके वक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ।
२०. क्रोध कषायवाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग नपुंसकोंके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार मान, माया और लोभ कषायवाले जीवोंके जानना चाहिये ।
२१. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यों के समान है । मिथ्यात्व और औदारिक शरीरके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पर पदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओधके समान है । विभङ्गज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । मिथ्यात्व, देवगति,
दारिक शरीर, वैककि शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक वक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष
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भुजगारबंधे अप्पा बहु आणुगमो
श्रसंखे | सेसाणं पंचिंदियभंगो ।
१०- भय०
८२२. आभि० सुद० - ओधि० पंचणा० छदंसणा ० - बारसक० - पुरिस ०. दोगदि - पंचिंदि ० - चत्तारिसरीर-समचदु० - दोअंगो० वज्जरि० - वण्ण ०४ - दोआणु ० - अगु०४ पसत्थ० -तस०४- सुभग-सुस्सर-आदें ० - णिमि ० - तित्थय ० उच्चा० पंचंत० सम्वत्थो० अवत्त० । ज० - अप्पद० असंखे० । अवट्टि० असंखै० । सादादिबारस० मणुसभंगो । मणुसायु०देवायुग- आहारदुगं ओघं ।
३६१
८२३. मणपज्जव ० सव्वकम्माणं सव्वत्थो ० अवत्त० । दोपदा० संखेज्ज० । अवट्टि • संखेज्ज० | दो आयु० मणुसि० भंगो । एवं संजद० ।
०
०
८२४. सामाह • छेदोव० धुविगाणं सव्वत्थो० भुज० अप्पद० । अवट्ठि० संखेज ० । सेसाणं मणपञ्जवभंगो । परिहार० [ आहार - ] कायजोगिभंगो । णवरि आहारदुगं अत्थि । सुहुमसंप० सव्वाणं सव्वत्थो ० ज ० । अप्प० संखज्ज० । अवट्ठि ० संखज्ज० । संजदासंजद० धुविगाणं सव्वत्थो भुज० अप्पद० । अवट्टि • असंखेज्ज० । सेसाणं ओधिभंगो । rai तित्य • मणुसि० भंगो । असंजद० सव्वपगदीणं ओघं ।
०
- 02-01
प्रकृतियोंका भङ्ग पचेन्द्रियोंके समान है ।
८२२. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रऋषभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव
संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। साता आदि बारह प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। मनुष्यायु, देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है।
८२३. मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें सब कमके वक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे दो पदोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । दो श्रायुओंका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिये ।
८२४. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। परिहारविशुद्धि संयत जीवोंका भङ्ग आहारक काययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें आहारकद्विक है। सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । संयतासंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। असंयतों में सब प्रकृतियों का भङ्ग श्रोघ के समान है ।
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे ___ ८२५. दक्खुदंस० तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदं० ओघं। ओधिदं० ओधिणाणिभंगो।
८२६. किण्ण णील-काऊसु तिरिक्खोघं । णवरि किण्ण-णीलासु तित्थय० मणुसिभंगो । काऊए णिरयभंगो।
८२७. तेऊए धुविगाणं सव्वत्थो० भुज०-अप्प० । अवट्ठि० असंखेज्ज । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-बारसक०-देवगदि०४-ओरालि०-तित्थय० सव्वत्थो० अवत्त । भुज० अप्प० असंखें । अवढि० असंखें। सेसाणं सव्वत्थोवा अवत्त० । भुज०अप्प० संखेज्ज० । अवट्ठि० असंखेज्ज । आहारदुगं ओघं । तिरिक्ख-देवायु० विभंगमंगो । मणुसायु० देवभंगो । एवं पम्माए वि । णवरि ओरालि०अंगो देवगदिभंगो।।
८२८. सुकाए पंचणा०-णवदंस मिच्छत्त ०-सोलसक०-भय-दुगुं०-दोगदि-पंचिंदि०चदुसरीर-दोअंगो०-वण्ण०४-दोआणु०-अगु०४-णिमि० तित्थय-पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त । भुज-अप्पद० असंखेन्ज । अवट्ठि० असंखेज। सेसाणं पम्माए भंगो। दोआयु. मणुसि०भंगो।
२५. चतुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। अचक्षुःदर्शनवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अवधिदर्शनवाले जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है।
८२६. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्यावाले जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । कापोत लेश्यावाले जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है।
८२७. पीत लेश्यावाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। स्त्यानगृद्धि तीन. मिथ्यात्व. बारह कपाय, देवगति चतुष्क, औदारिक शरीर और तीर्थंकर प्रक्रतिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है । तिर्यश्चायु
और देवायुका भङ्ग विभङ्गज्ञानियोके समान है । मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि औदारिक आङ्गोपाङ्गका भङ्ग देवगतिके समान है।
२८. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, चार शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, निर्माण, तीर्थंकर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेप प्रकृतियोंका भङ्ग पद्म लेश्याके समान है । दो आयुओंका भङ्ग मनुष्यिनियों के समान है।
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भुजगारबंधे श्रप्पा हुआ णुगमो
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८२६. भवसि० ओघं । अन्भवसि • मदि ० भंगो । णवरि मिच्छ० अवत्तव्वं णत्थि ।
८३० सम्माइ० - खइगस० ओधिभंगो। णवरि खड्गे देवायु ० मणुसि० भंगो । वेदगे धुविगाणं सव्वत्थो० भुज० - अप्पद० । अवट्टि० असंखेज्ज० । सेसं ओभिभंगो । उवसम ० ओधिभंगो । णवरि तित्थय० मणुसि० भंगो । सासणे धुविगाणं देवभंगो । सेसाणं सादभंगो | णवरि ओरालि ०-ओरालि ० अंगो० सव्वत्थो ० अवत्त० । भुज०-अप्पद ० असंखेज ० । अवडि• असंखेज्ज ० | सम्मामि ० सासण० भंगो । किंचि विसेसो । मिच्छादिट्ठि० मदि० मंगो ।
I
८३१. सणि० मणजो गिभंगो । असण्णीसु ओरालि०-ओरालि० अंगो० ओघं । सेसं मदि० भंगो । आहार० ओघं । अणहार० कम्मइगभंगो ।
एवं अप्पाबहुगं समत्तं । एवं भुजगारबंध समत्तो ।
८२६. भव्य जीवोंके ओके समान भङ्ग हैं | अभव्य जीवों में मत्यज्ञानियोंके समान भङ्ग हैं । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वका अवक्तव्य पद नहीं है ।
३०. सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें देवायुका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों में भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग हैं । इतनी विशेषता है कि तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग देवोंके समान है । शेष प्रकृतियोंका भंग साता वेदनीयके समान है । इतनी विशेषता है कि औदारिक शरीर और औदारिक आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान भङ्ग है । किन्तु यहाँ कुछ विशेषता है । मिध्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है ।
८३१. संज्ञी जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग हैं । असंज्ञी जीवों में औदारिक शरीर और दारिक आङ्गोपाङ्ग का भङ्ग ओधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । आहारक जीवों में ओघके समान भङ्ग है । अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है ।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार भुजगारबन्ध समाप्त हुआ ।
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे
पदणिक्खेवो ८३२. पदणिक्खेवे तिण्णि अणियोगद्दाराणि । तत्थ इमाणि समुकित्तणा सामित्तं अप्पाबहुगे त्ति ।
समुक्कित्तणा ८३३. समुक्तित्तणाए दुविधं-जहण्णयं उक्स्स यं च। उकस्सए पगदं । दुवि०-ओषे० आदे० । ओघे० सव्वाणं पगदीणं अत्थि उक्कस्सिया वड्डी उक्कस्सिया हाणी उक्कस्सयमवट्ठाणं । एवं अणाहारग त्ति ।
८३४. जहण्णए पगदं। दुवि०-ओषे० आदे० । ओषे० सव्वाणं पगदीणं अस्थि जहणिया वड्डी जहणिया हाणी जहण्णयमवट्ठाणं । एवं याव अणाहारग ति ।
एवं समुक्त्तिणा समत्ता।
सामित्तं ८३५. सामित्तं दुविधं-जहण्णयं उकस्सयं च । उकस्सए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवंस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०तिरिक्खगदि-एइंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-हुंडसं०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४आदाउजो०-थावर-बादर पजत्त-पत्ते-अथिरादिपंच०-णिमि०-णीचा०-पंचंत उक्क०वड्डी कस्स होदि? यो चदुट्ठाणिययवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोड़ी द्विदिबंधमाणो तप्पाओग्गउक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्सयं दाहं गदो तत्तो उक्कस्सयं द्विदिबंधो तस्स उक्कस्सिया वड्डी ।
पदनिक्षेप ___८३२. पदनिक्षेपमें तीन अनुयोग द्वार हैं जो ये हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व।
समुत्कीतना ८३३. समुत्कीर्तना दो प्रकारका है-जधन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
८३४. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई।
स्वामित्व ८३५. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति. औदारिक शरीर. तैजस शरीर. कार्मण शरीर, हण्डसंस्थान. वर्णचतुष्क. तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी. अगुरुलघु चतुष्क, पातप, उद्योत, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोडाकोडी स्थितिका बन्ध करनेवाला तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट दाहको प्राप्त
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पदणिक्खेवे सामित्त उकस्सिया हाणी कस्स० ? यो उक्कस्सयं द्विदिबंधमाणो मदो एइंदिए जादो तप्पाओग्गजहण्णए पडिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी । उकस्सयमवट्ठाणं कस्स० १ यो उकस्सयं द्विदिबंधमाणो सागारक्खयेण पडिभग्गो तप्पाओग्गजहण्णाए पडिदो तस्स उकस्सयमवट्ठाणं । सादावे०-हस्स-रदि-थिर सुम-जसगि एदाणं णाणावरणभंगो। णवरि तप्पाओग्गसंकिलिट्ठा त्ति माणिदव्वं । इत्थि०-पुरिस-मणुस० देवगदि-तिण्णिजादि ओरालियसरीरअंगोवंगपंचसंठा०-पंचसंघ०-दोआणु०-पसत्थ०-सुहुम [ अ.] पञ्जत-साधार०-सुभग सुस्सर-आदेउच्चा० उक्कस्सिया वड्डी कस्स० ? यो यवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडी ढिदिवंधमाणो तप्पाओग्गसंकिलेसेण तप्पाओग्गउकस्सदाहं गदो तप्पाओग्गउक्कस्सद्विदिबंधो तस्स उकस्सिया वड्डी । उक्कस्सिया हाणी कस्स० १ यो उक्कस्सहिदिबंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पाओग्गजहण्णए पडिदो तस्स उकस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । णिरयगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-वेउव्विअंगो०-असंपत्त-णिरयाणु०-अप्पसत्य०तस-दुस्सर० उक्कस्सिया वड्डी कस्स० १ यो चदुट्ठाणिययवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडी द्विदिबंधमाणो उक्कस्सयं दाहं गदो तदो उकस्सयं द्विदिबंधो तस्स उक० वड्डी । उक० हाणी० कस्स होदि ? यो उक्कस्सयं हिदिबंधमाणो सागारक्खयेण पडिभग्गो तप्पाओग्नजहण्णए पडिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । आहार
होकर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है,वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला मरकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करने लगता है ,वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभन्न होकर तस्त्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है.वह उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। सातावेदनीय. हास्य. रति. स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इनका ज्ञानावरणके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि यहाँ तत्प्रा. योग्य संक्लिष्ट जीव स्वामी होता है,ऐसा कहना चाहिए। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यगति, देवगति, सीन जाति, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो नुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो यवमध्यके ऊपर अन्तःकोडाकोटी स्थितिका बन्ध करनेवाला तत्प्रायोग्य संक्लेशके कारण तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट दाहको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कोन है? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है,वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । तथा वही तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। नरकगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, वस और दुःस्वरकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है? जो चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोडाकोडी स्थितिका बन्ध करनेवाला उत्कृष्ट दाहको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है,वह उस्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है, यह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । तथा वही तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । आहारक
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महाबंध द्विदिबंधाहियारे
आहार • अंगो० - तित्थय० उक्क० वड्डी कस्स० ? यो तप्पाओग्गजहण्णयं द्विदिबंधमाणो तप्पा ओग्गजहण्णियादो संकिलेसादो तप्पा ओग्गउकस्सयं संकिलेस गदो तप्पाओग्गउक्क ० द्विदि० १० तस्स उक्कस्सिया बड्डी । उक० हाणी कस्स० ? यो तप्पओग्ग उकस्सयं द्विदिबंध - माणो सागारक्खयेण पडिभग्गो तप्पाओग्गजहण्णए पडिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी | तस्सेव से काले उक्कस्सयमवड्डाणं । एवं ओघभंगो कायजोगि - कोधादि ०४-मदि ० -सुद०असंज ० - अचक्खुर्द ० - भवसि ० - अब्भवसि ०-मिच्छादि ० - आहारगति ।
O
८३६. णिरएस पंचणाणावरणादीणं उक्कस्तयं संकिलिट्ठाणं ओघं णिरयगदिणामभंगो । सादादीणं तप्पा ओग्गसंकिलिद्वाणं ओघं इत्थिवेदभंगो । तित्थय० ओघभंगो । एवं सव्वणिरयाणं । णवरि सत्तमाए मणुसग ० - मणुसाणु ० - उच्चा० तित्थयरभंगो |
८३७. तिरिक्खेसु णिरयोघभंगो । मणुस ०३ - पंचिंदि०२ - तस ०२ - पंचमण०-पंचवचि ० - ओरालि० - इत्थि ० - पुरिस ० णवुंस० विभंग ० - चक्खु दं ० - पम्मले ०-सण्णि त्ति एदाणं उक्कस्ससंकि लिट्ठाणं ओघं णिरयगदिभंगो | तप्पा ओग्गसं किलिट्ठाणं ओघं इत्थि० भंगो ।
०
८३८. सव्व अपज्जत • पंचणा० णवदंसणा ० असादा०-मिच्छ०-सोलसक० -णस ०अरदि-सोग-भय-दुगुं ० - तिरिक्खग० एइंदि० - ओरालि ० तेजा० क०- -हुंडसं ० १० वण्ण०४ तिरिक्खाणु ०-अगु० - उप०-थावरादि ०४-अथिरादिपंच- णिमि० णीचा० - पंचत० उक० वड्डी०
शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेश से तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है, वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है
तथा
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ही तदनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी हैं । इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, कोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंगत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
८३६. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि उत्कृष्ट संक्लेश से बँधनेवाली प्रकृतियोंका भङ्ग घमें कही गयी नरकगति नामकर्मकी प्रकृति के समान है । तत्प्रायोग्य संक्लेश से बँधनेवाली साताआदि प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के अनुसार कहे गये स्त्रीवेदके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग ओघ के समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवी में मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग तीर्थङ्कर प्रकृति के समान हैं ।
= ३७ तिर्यों में सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, औदारिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुपवेदी, नपुंसकवेदी, विभङ्गज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी इनमें उत्कृष्ट संक्लेश से बँधनेवाली प्रकृतियों का भङ्ग घमं कही गई नरकगतिके समान है । तत्प्रयोग्य संक्लेश से बँधनेवाली प्रकृतियोंका भङ्ग में कहे गये वेद समान है।
८३८. सब अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व सोलह कपाय, नपुंसकवेद, अरति, शांक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात,
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पणिक्खवे सामित्तं कस्स० १ यो जहण्णगादो संकिलेसादो उक्कस्सयं संकिलेसं गदो उक्तस्सयं हिदि पि बंधो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स होदि ? यो उक्कस्सयं द्विदिवं० सागारक्खएण. पडिभग्गो तप्पाअोग्गजहण्णए पडिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । सेसाणं सादादीणं तं चेव । णवरि तप्पाओग्ग ति भाणिदव्वं । एवं आणदादि याव सव्वट्ठा त्ति सव्वएइंदि०-विगलिंदि०' पंचकायाणं च। देवा याव सहस्सार त्ति णिरयभंगो। ओरालिय०-वेउब्वियमि०-आहारमि० अपज्जत्तभंगो। वेउव्विय०-आहारका० देवभंगो । कम्मइगा० ओरालियमिस्सभंगो। णवरि अवट्ठाणं बादरएइंदियस्स कादव्वं ।
८३६. अवगदवे० पंचणा०-चदुदंसणा० सादा०-चदुसंज-जसगि०-उच्चा०-पंचंत० उक० वड्डी कस्स० ? अण्णद० उवसामगस्स अणियट्टीवादरसांपराइगस्स दुचरिमादो द्विदिबंधादो चरिमे हिदिबंधे वट्टमाणगस्स तस्स उक्क० षड्डी । उक्क० हाणी कस्स० ? अण्णदरस्स खवगस्स अणियट्टि पढमादो द्विदिबंधादो विदिए द्विदिबंधे वट्टमाण. तस्स० उक्क ० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवठ्ठाणं ।
८४०. आभि०-सुद०-ओधि० पंचणा०-छदसणा०-असादा० बारसक०-पुरिस०अरदि-सोग-भय दुगुं०-दोगदि-पंचिंदि०-चदुसरी०-समचदु०-[ दो ] अंगो०-बजरिस०
स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य बन्ध कर रहा है, वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । तथा वह तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। शेष सातादि प्रकृतियोंका यही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्यके कहना चाहिए। इसी प्रकार आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों के तथा सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके कहना चाहिए । सामान्य देव और सहस्रार कल्पतकके देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । वैक्रियिक काययोगी और आहारक काययोगी जीवोंमें देवोंके समान भङ्ग है । कार्मणकाय. योगी जीवोंमें औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अवस्थान यादर एकेन्द्रियके कहना चाहिए।
८३६. अपगतवंदी जीवोंम पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर उपशामक अनिवृत्तिवादरसाम्परायिक जीव द्विचरम स्थितिबन्धसे अन्तिम स्थितिवन्धमें अवस्थित है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर क्षपक अनिवृत्तिकरण जीव प्रथम स्थितिबन्धसे द्वितीय स्थितिवन्धमें विद्यमान है.वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है तथा वही तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है।
८४०. आभिनिवाधिकज्ञानी. श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण. छह दर्शनावरण, असाता वंदनीय, बारह कपाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चे
१ मलप्रती-लिदि० पाँचदि-तसपजत्त पंच-इति पाठः ।
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३६८
महाबंधे हिदिबंधाहियारे वण्ण०४-दोआणु०-अगु०४-पसत्थवि० -तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेंअज०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० उक० वड्डी कस्स० ? यो जहण्णयं द्विदिबंधमाणो तप्पाओग्गजहण्णगादो संकिलेसादो उक्कस्सयं संकिलेसं गदो उक्कस्सयं द्विदिबंधो तस्स मिच्छत्ताभिमुहस्स चरिमे उक्कस्सए द्विदिबंधे वट्टमाण० तस्स उक्क० वड्डी। उक० हाणी कस्स० १ उकस्सयं द्विदिबंधमाणो सागारक्खयेण पडिभग्गो तप्पाओग्ग० जह० द्विदी० तस्स उक्क० हाणी । वड्डीए चेव उकस्सयं अवट्टायं । सादावे०-हस्स-रदि-आहारदुग-थिरसुभ०-जसगि० आहार भंगो। एवं मणपज्जव-संजद-सामाइयच्छेदो०-परिहार०-संजदासंज०-ओघिदं०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम-सम्मामिच्छा० । णवरि खड़गे उक्कस्सयं संकिलेसं कादव्यं । सुहुमसंप० अवगद भंगो। [ किण्ण० णील काउ० णिरयभंगो। तेउए सोधम्मभंगो । सुक्काए ] गवगेवज्जभंगो । सासणे णेरइगभंगो। असण्णि तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो।
__ एवं उक्कस्ससामित्वं समत्तं ८४१. जहण्णए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे०। ओघे० पंचणा०-णवदसणाoमिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुं०-तिरिक्खंदुग-पंचिंदि०-ओरालि०-वेउवि०-तेजा०-क०-दोअंगो०-वण्ण०४ अगु०४-उज्जोव-तस०४-णिमि०–णीचा०-पंचंत० जह० कस्स० १ न्द्रिय जाति, चार शरीर, समचतुरस्र संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है और जो मिथ्यात्वके अभिमुख होकर अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें विद्यमान है, वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है, वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। और वृद्धिके होनेपर ही उत्कृष्ट अवस्थान होता है । सातावेदनीय, हास्य, रति, आहारकद्विक, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिका भङ्ग आहारककाययोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी,संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धि सेयत,संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट संक्लेश करना चाहिये। सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। पीतलेश्यावाले जीवोंमें सौधर्म कल्पके समान भङ्ग है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें नौवेयकके समान भङ्ग है । सासाद न सम्यग्दृष्टिजीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । असंज्ञी जीवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ८४१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चद्विक, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरु
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पदणिक्खेवे सामित्तं
३६६
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अण्ण• जो समयूर्ण उकस्सट्ठिदिं बंधमाणो पुण्णाए हिदिबंधगद्धाए उक्कस्सए संकिलेसं गदो तदो उकस्यं द्विदिं पबद्धो तस्स जह० वड्डी । जहण्णिया हाणी कस्स० ? यो समजुत्तरं सव्वजह० द्विदि० पुण्णाए द्विदिबंधगद्धाए उक्कस्सयं विसोधिं गदो तदो दाह० हिदि० तस्स जहण्णिया हाणी । एकदरत्थमवट्ठाणं । सादावे० पुरिस० - हस्स - रदि-दोगदि - समचदु० - वञ्जरिस :- दोआणु ० - पसत्थ० - थिरादिछ० - उच्चा० जह० वड्डी कस्स १ यो समयूणं तप्पा ओग्गउकस्सयं द्विदिं बंध० तप्पा ओग्गउक० संकिले० तदो उक्क० द्विदिबंध० तस्स जहण्णिया वड्डी । जह० हाणी कस्स० १ यो समजुत्तरं तप्पा ओग्गजह० माणो उकस्सं विसोधिं गदो तदो सव्व जह० तस्स जह० हाणी । एकदरत्थमवट्ठाणं । असादा० - बुंस० - अरदि - सोग - णिरयगदि - एइंदि० - हुंड० - असंपत्त० णिरयाणु० - अप्पसत्थवि० - आदाव - थावर - अथिरादिछ० जह० वड्डी कस्स० १ यो समयूर्ण उकस्सयं द्विदि बंध० पुण्णाए द्विदि बंध० उक्कस्सियं संकिलेसं गदो तदो उक्क० हिदि० तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी० कस्स० यो तप्पा ओग्गजह० समजुत्तरं द्विदि० तप्पाओग्ग विसोधिं गदो तदो जह० द्विदि० तस्स जह० हाणी । एगदरत्थमवट्ठाणं । इत्थवे ०तिण्णजादि - चदुसंठा० - चदुसंघ० - सुहुम- अपज्ज० - साधार० जह० वड्डी कस्स ! यो समयुणं तप्पा ओग्गउक्क० द्विदि०माणो पुष्णाए ट्ठदिबंधगद्धाए तप्पा ओग्गउक० लघुचतुष्क, उद्योत, त्रस चतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र, और पाँच अन्तरायकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध काल पूर्ण हो जानेपर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो एक समय अधिक सबसे जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाला स्थितिबन्धके कालके पूर्ण होनेपर उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर जघन्य स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमेंसे किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, दो गति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रऋपभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो एक समय कम तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो एक समय अधिक तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाला जीव उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर सबसे जघन्य स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमेंसे किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है । असातावेदनीय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, असम्प्रप्तासृपाटिका संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, तप, स्थावर और अस्थिर आदि छहकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव स्थितिबन्ध कालके पूर्ण हो जानेपर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, वह जन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है? जो एक समय अधिक तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाला जीव तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त होकर जघन्य स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य हानिका स्वामी है। तथा इनमेंसे किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है ।
वेद, तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो एक समय कम तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीव स्थितिबन्ध
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
४००
द्विदि० तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स ० १ समजुसरं तप्पा ओग्गज ० द्विदि० पुण्णाए द्विदिवं तप्पा ओग्गउक्क० विसोधिं गदो तप्पा ओग्गजह० द्विदि० तस्स जह० हाणी । एक्कदरत्थमवद्वाणं । आहार० - आहार • अंगो० - तित्थय० जह० वड्डी कस्स० १ यो समजुत्तरं तप्पा ओग्गउक्क० ट्ठिदी० पुण्णाए द्विदिबं० तप्पाओ० उकस्ससंकिले० तदो तप्पा० उ० द्विदि० तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स० ? यो समजुत्तरं सव्व जह० द्विदि० पुण्णाए द्विदिबंधगद्धाए उक्कस्सिया विसोधिं गदो तदो सव्व जह० बंधो तस्स जह० हाणी । एकदरत्थमवद्वाणं । एवं ओघभंगो पंचिंदिय-तस०२ - पंचमण०पंचवचि ० - कायजोगि - कोधादि ०४ - मदि ० - सुद० - असंज० चक्खुर्द ० - अचक्खुदं० - भवसि ०अब्भवसि ० - मिच्छा०-सण्णि-आहारग ति ।
८४२. रइस पंचणा० - णवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक० -भय- दुगुं ० - पंचिंदि०ओरालि० - तेजा० क०. ओरालि ० अंगो० वण्ण०४ - अगु०४-तस०४ - णिमि० पंचंत० जह० वड्डी-हाणी-अवट्ठाणं ओघं णाणावरणीयभंगो | साद० - पुरिस० - हस्स-रदि मणुसग ०- समचदु०वजरिस०- मणुसाणु ० - पसत्थ० - थिरादिछ० उच्चा० जह० वड्डि-हाणि अवट्ठाणं ओघं । असादा० स ० - अरदि-सोग - तिरिक्खंग० - हुंड० - असंपत्त० - तिरिक्खाणु ० - उज्जो०० अप्प
कालके पूर्ण हो जानेपर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो एक समय अधिक तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाला जीव स्थितिबन्ध कालके पूर्ण हो जानपर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमें से किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है । आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो एक समय अधिक तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीब स्थितिवन्ध कालके पूर्ण हो जानेपर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो एक समय अधिक सबसे अधिक जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाला जीब स्थितिबन्ध कालके पूर्ण हो जानेपर उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर जघन्य स्थितिबन्ध करता है, वह जवन्य हानिका स्वामी है. तथा इनमें से किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है । इसी प्रकार ओघ के समान पञ्चेन्द्रिय, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचतुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
८४२. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका स्वामी ओघ में कहे गये ज्ञानावरणीयके समान है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रपंभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त
योगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका स्वामी ओधके समान है । असातावेदनीय, नपुंसकवेद, अरति, शांक, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असस्प्राप्तापादिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और
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पदणिक्खेवे सामित्तं
४०१ सत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा० ओघं असादभंगो। इत्थिवे० चदुसंठाचदुसंघ० ओघं इत्थिभंगो । तित्थय० ओघं । एवं सव्वणिरयाणं । णवरि सत्तमाए मणुस०-मणुसाणु०उच्चा० तित्थयभंगो।
८४३. तिरिक्खेसु ओघेण साधेदव्वं । पंचिंदियतिरिक्खअपजत्त० पंचणा०-णवदंसणा०-सोलसक०-मिच्छ ०-भय- दुगुं०-ओरालि०-तेजा०क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०. पंचंत०जहण्णि० तिण्णि वि ओघभंगो। साद० पुरिस हस्स-रदि-मणुसगदि-पंचिंदि०. समचदु०-ओरालि० अंगो०-वजरिस-मणुसाणु०-पर०-उस्सा-०पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-उच्चा० ओघं आहारसरीरभंगो । असादा०-णवुस०-अरदि-सोग-तिरिक्खगदिएइंदि०-हुंडसं०-तिरिक्खाणु०-थावरादि०४-अथिरादिछ०-णीचा० ओघं असादभंगो । इत्थिवे०-तिण्णिजादि-चदुसंठा-चदुसंघ०-आदाउजो०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० ओघं इत्थिभंगो । एवं सव्वअपज्जत्तगाणं आणद याव उवरिमाणं देवाणं । हेट्ठाणं णिरयभंगो।
८४४. मणुस०३ तिरिक्खभंगो। एइंदिय-पंचकायाणं विगलिंदियाणं च अपजत्तभंगो। ओरालियका०-ओरालियमि० तिरिक्खोघं । वेउब्विय० वेउव्वियमि० देवोधं । णवरि मिस्से आणदभंगो। आहार-आहारमिस्स० णिरयभंगो। कम्मइग० अवट्ठाणं
नीचगोत्रका भङ्ग ओघमें कहे गये असातावेदनीयके समान है। स्त्रीवेद, चार संस्थान और चार संहननका भङ्ग ओध के अनुसार कहे गये स्त्रीवेदके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भंग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान है।
८४३. तिर्यञ्चोंमें अोधके अनुसार साध लेना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य तीनों ही ओषके समान हैं । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पश्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वन्नषभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघमें कहे गये आहारक शरीरके समान है । असातावेदनीय, नपुंसकवंद, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्रका भङ्ग ओघमें कहे गये असातावेदनीयके समान है । स्त्रीवेद, तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति और दःस्वरका भङ्ग ओघमें कहे गये स्त्रीवेदके समान है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तकोंके तथा आनत कल्पसे लेकर उपरिम |वेयक तकके देवोंके जानना चाहिए। नीचेके देवोंके नारकियोंके समान भङ्ग है।
८४४. मनुष्यत्रिकमें तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग हैं। एकेन्द्रिय, पाँच स्थावरकायिक और विकलेन्द्रियोंमें अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग हैं। औदारिक काययोगी और औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें समान्य तिर्यञ्चों के समान भङ्ग हैं । वैक्रियक काययोगी और वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग हैं। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें आनत कल्पके समान भङ्ग हैं। आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें नारकियोंके
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४०२
महाबंधे हिदिबंधाहियारे एइंदियमंगो । सेसाणि णत्थि ।
८४५. इत्थि०-पुरिस० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णqसगे तिरिक्खोघं । अवगदवे. सव्वकम्माणजह० वड्डी कस्स० १ अण्णदरस्स उवसमग० परिवद० पढमहिदिबंधादो विदिए हिदिबंधे वट्टमा० तस्स जहणिया वड्डी । जह० हाणी कस्स० १ अण्णद० खवग० सुहुमसंप० दुचरिमादो द्विदिवंधादो चरिमे द्विदिबंधे वट्टमा० तस्स जह• हाणी । तस्सेव से काले जह• अवट्ठाणं । चदुसंज० अवडिदस्स कादव्वं । एवं सुहुमसंप० । [ विभंगे मिरयमंगो]
८४६. आमि०-सुद०-ओधि० मणपज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार-संजदासंजद-ओधिदंस०-सम्मादि०-खइग-वेदगस०-उवसम०-सासण-सम्मामि० णाणावरणादि-सादासाद-आहारदुग-तित्थय० एदे अप्पप्पणो द्विदिबंधेण ओघेण साधेदव्वं । किण्ण-णील-काउ० णिरयोघं । तेउ० सोधम्मभंगो। पम्माए सहस्सारभंगो। सुक्काए णवगेवजमंगो। असण्णि० तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो।
एवं जहण्णसामित्तं समत्तं । ८४७. एत्तो जहण्णुक्कस्ससामित्तसाधणटुं जहण्णुकस्समद्धच्छेदादो उकस्ससंकिलिटुं तप्पाओग्गसंकिलिटुं उक्कस्सविसोधि-तप्पाओग्गविसोधीहि जहण्णुक्कस्ससमान भङ्ग हैं। कार्मण काययोगी जीवोंमें अवस्थानका भङ्घ एकेन्द्रियों के समान है। शेष पद नहीं हैं।
४५. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समानभन है। नपुंकसवेदी जीवोंमें समान्य तिर्यच्चोंके समान भंग है। अपगतवेदी जीवोंमें सब कर्मोकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है जो गिरनेवाला अन्यतर उपशामक प्रथम स्थितिबन्धसे आकर द्वितीय स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर क्षपक सूक्ष्म-साम्परायिक जीव द्विचरम स्थितिबन्धसे अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित है,वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा वही तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । चार संज्वलनका भंग अवस्थितके कहना चाहिए। इसी प्रकार सूक्ष्म साम्परायिक संयत जीवोंके जानना चाहिए। विभंगज्ञानी जीवोंमें नारकियोंके समान भंग है।
८४६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ज्ञानावरणादि, सातावेदनीय, असातावेदनीय, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इन प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धिबन्ध आदिका स्वामित्व अपने-अपने स्थिनिबन्धको ध्यानमें रखकर ओघके अनुसार साध लेना चाहिए। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। पीतलेश्यावाले जीवोंमें सौधर्म कल्पके समान भङ्ग है। पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सहस्रार कल्पके समान भङ्ग है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें नौग्रैवेयकके देवोंके समान भङ्ग है। असंज्ञी जीवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। ४७. इसके आगे जघन्योत्कृष्ट स्वामित्वकी सिद्धि करनेके लिए जघन्य उत्कृष्ट अद्धाच्छेदके अनुसार उत्कृष्ट संक्लिष्ट, तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट, उत्कृष्ट विशुद्धि और तत्प्रायोग्य विशुद्धिको जहाँ जो
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पदणिक्खेवे अप्पाबहुगं सामित्तं साधेदव्वं ।
एवं सामित्तं समत्तं ।
अप्पाबहगं ८४८. अप्पाबहुगं दुविधं-जहण्णयं उक्कस्सयं च । उकस्सए पगदं । दुविधं-ओषे० आदे० ओ० पंचणा०-णवदंसणा०-दोवेदणी० मिच्छ० सोलसक०-णस०-चदुणोक०-भयदु०-तिरिक्खग०-एइंदि०-ओरालि०-तेजाक० हुंडसं०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४. आदाउजो०-थावर-बादर-पजत्त-पत्तेय०-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादें-जस०-अजस०. णिमि०-णीचा०-पंचंत० सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी । उक्क० अवट्ठाणं विसे० । उक० हाणी विसे । आहारदुगं सव्वत्थोवा उक्क. हाणी अवट्ठाणं च । वड्डी संखेंजगु० । तित्थय० सव्वत्थोवा उक० हाणी अवट्ठाणं च । उ० वड्डी संखेंजगु०। सेसाणं सम्वत्थोवा उक० वड्डी। हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसे० । एवं ओघभंगो कायजोगि-कोधादि०४मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खुदं०-भवसि०-अब्मवसि०-मिच्छादि०-आहारग ति । ___८४६. अवगदवे-सुहुमसंप० सव्वाणं सव्वत्थोवा उक्क० हाणी अवठ्ठाणं च दो वि तुल्ला। उक्क० वड्डी संखेंजगु० । आभि०-सुद०-ओधि०-मणपजव-संजद-सामाइ.. छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-ओधिदं०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम-सम्मामि० सम्भव हो,ध्यानमें रखकर जघन्योत्कृष्ट स्वामित्व साध लेना चाहिए।
इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ।
___ अल्पबहुत्व ८४८. अल्पवहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, चार नोकषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, आतप, उद्योत, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। आहारकद्विककी उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है । तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है । इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट हानि
और उत्कृष्ट अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
४६. अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धि संयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि,
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्ला । उ० वड्डी संखेंजगु० । सादादीणं एसिं सत्थाणं उक्कस्सियं तेसिं सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी। उक्क हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्ला विसे । सेसाणं णिरयादि याव असण्णि ति सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्ला विसे० । णवरि कम्मइग-अणाहारगेसु सव्वत्थोवा उक्क० अवट्ठाणं । वड्डी संखेंजगु० । उ० हाणी विसेसाहिया।
एवं उक्कस्सयं समत्तं ८५०, जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वकम्माणं जह० वड्डि. हाणि-अवट्ठाणं च तिण्णि वि तुल्ला। एवं णेरइगादि याव अणाहारग त्ति णेदव्वं । णवरि अवगदवे० सव्वत्थोवा जह० हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्ला। जह० वड्डी संखेंज्जगु० । एवं सुहुमसंप० ।
एवं अप्पाबहुगं समत्तं। पदणिक्खेवे त्ति समत्तं।
वडिबंधो ८५१. वडिबंधे ति तत्थ इमाणि तेरसेव अणियोगद्दाराणि । तं यथा-समुक्त्तिणा याव अप्पाबहुगे ति।
वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंमें उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। सातादिमेसे जिनका स्वस्थान उत्कृष्ट होता है, उनकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। शेष नारकियोंसे लेकर असंज्ञी तककी मार्गणाओंमें उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ८५०. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है-ओघ और आदेश । ओघसे सब कर्मोकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं । इसी प्रकार नारकियोंसे लेकर अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपगतवंदी जीवोंमें जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान दोनों ही तुल्य हो कर सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य वृद्धि संख्यातगुणी है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके जानना चाहिए।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ।
वृद्धिबन्ध ८५१. अब वृद्धिधन्धका प्रकरण है । वहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार हैं । यथा-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक।
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बंधे समुत्तिणा
समुत्तिणा
८५२. समुकितणाए दुवि० ओघे० आदे० | ओघे० खवगपगदीणं अत्थि चत्तारि बड्डी चत्तारिहाणी अवट्ठिद - अवत्तव्वबंधगा य । चदुष्णं आयुगाणं मूलपगदिभंगो । सेमाणं पगदीणं अत्थि तिष्णिवड्डि- हाणि-अवट्ठि० अवत्तव्वबंधगा य । एवं ओघमंगो मणुस ०३ - पंचिदिय-तस०२ - पंचमण० - पंचवचि ० - कायजोगि ओरालि ० - चक्खुदं०-अचक्खुदं० - भवसि ० - सण्णि आहारगति ।
८५३. रहसु धुवियाणं अस्थि तिण्णिवड्डि-हाणि अवट्ठिद बंधगा य । सेसाणं तित्थयरेण सह अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठिद अवत्तव्व-बंधगा य । दो आयु० अत्थि असंखेज्जभागहाणि-अवत्तव्वबंधगा य । एवं सव्वणिरय सव्वतिरिक्ख मणुस अपज ०- सव्वदेव० पंचिंदिय-तस अपजत्तगाणं च ।
४०५
८५४. एइंदिय-पंचकासु धुविगाणं अत्थि एकवड्डि- हाणि-अवद्विद-बंधगा य । साणं अत्थि एक वड्डि- हाणि अवद्विदअवत्तव्वबंधगा य। विगलिंदिय-पज्जत्त - अपजत्तेसु विगाणं अथ बेड- हाणि अवदिबंधगा य । सेसाणं अत्थि बे-वड्डि- हाणि-अवदिअवत्तव्वबंधगा य ।
८५५, ओरालियमि०
पंचणा० - णवदंसणा ० - सोलसक० -भय- दुगुं० - देवर्गादिओरालि ० - वेउव्वि ० तेजा० क०- वेउव्वि ० अंगो० - वण्ण०४ - देवाणु ० - अगु० - उप० - णिमि०समुत्कीर्तना
८५२. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- आंध और आदेश । ओघसे क्षपक प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। चार आयुओंका भङ्ग मूल प्रकृतिबन्धके समान है। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार ओघ के समान मनुष्यत्रिक, पचेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
८५३. नारकी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं । तीर्थङ्कर प्रकृतिके साथ शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। दो आयुओंकी असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं । इसीप्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए ।
५४. एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। विकलेन्द्रिय और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में धवबन्धवाली प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, दो हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं ।
८५. दारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक
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महाबधे द्विदिबंधांहियारे
तित्थय ० - पंचत० अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि अवडिद० । सादादीणं मिच्छत्तस्स च सव्व पगदी अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि० अवत्तव्वयं ० ।
८५६. वेउव्वि० देवोघं । वेउव्त्रियमि० पंचणा० णवदंसणा० - सोलसक० भय-दु०ओरालि०-तेजा० क० वण्ण०४- अगु०४- बादर - पजत्त- पत्तेय० - णिमि० - तित्थय० - पंचंत ० अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० । सेसाणं० तिण्णिवड्डि- हाणि-अवट्ठिद-श्रवत्तव्यबंधगा य ।
८५७, आहार०-आहारमि० धुविगाणं अत्थि तिण्णिवड्ढि हाणि अवट्ठिदबं० । सेसाणं अस्थि तिण्णवड्डि-हाणि अवट्ठिद अवत्तव्ववं । कम्मर० धुविगाणं देवगदि ०४ - तित्थय ० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि ०बं० | सेसाणं अत्थि तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठिद अवत्त ० ।
O
८५८. इत्थि - पुरिस - सगेसु अट्ठारसणं अस्थि चत्तारिखड्डि-हाणि-अवट्ठिदबं० । सादावे ० - पुरिस० - जस० उच्चा० अत्थि चत्तारिखड्डि- हाणि अवट्ठि ० - अवत्त० । सेसाणं तिणिर्वाड्ड- हाणि अव०ि -अवत्त० । अवगदवे० पंचणा० चदुदंसणा ० पंचत० अत्थि संखेज भागवड्डि-हाणि-संखेजगुणवड्डि-हाणि अवट्ठि ० - अवत्त० । सादावे० - जसगि० उच्चा० अत्थि संखेजभागवड्डिहा०- संखेज्जगुणवड्डि- हाणि असंखेज्जगुणवड्ढि - हाणि अवट्ठि ० - अवत्त ० । ङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पांच अन्तराय की तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं । साता आदि और मिध्यात्वसे लेकर सब प्रकृतियां की तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं ॥
८५६. वैक्रियिककाययोगी जीवों में सामान्य देवोंके समान भङ्ग है । वैक्रियिकमित्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, दारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं ।
८५७. आहाककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीनहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। कार्मणकाययोगी जीवोंमें ध्रुष बन्धवाली प्रकृतियाँ, देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं ।
५. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें अठारह प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशः कीर्ति, और उच्चगोत्रकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं । अपगतवेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं ।
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मु
चदुसंज • अस्थि संखेज भागवड्डि- हाणि अवट्ठि ० - अवत० ।
८५६. कोघे पंचणा० चदुदंसणा ० चदुसंज ० पंचंत० श्रत्थि चत्तारिखड्डि-हाणिअव०ि । सादावे० - पुरिस० [० - जस० उच्चा० अत्थि चत्तारिवड्डि- हाणि अवट्ठि ० - अवत्त० । सेसाणं ओघं । माणे पंचना० चदुस० तिणिसंज० - पंचत० अस्थि चत्ताविड्डि-हाणिअवट्टि ० | कोधसंजलण० सादभंगो । सेसं ओघं । मायाए पंचणा० चदुदंस - दोसंज ०पंचत० अत्थि चत्तारिखड्डि- हाणि अवट्ठि ० | सेसाणं ओघं । लोभे ओघं । गर्वा चौदस ० अत्तव्वं णत्थि |
I
2
८६०. मदि० - सुद० धुविगाणं अस्थि तिण्णिवड्ढि हाणि - अवट्टि । चदुआयु० ओघं। मिच्छ० सेसाणं अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि-अवट्ठि ० अवत्त ० । एवं विभंग ० - अब्भवसि ०मिच्छादि ० । णवरि अन्भवसि ० -मिच्छादि० मिच्छत्तस्स अवत्त० जत्थि |
४०७
८६१, आभिणि० - सुद०-अधि० पंचणा० चदुदंसणा ० -सादा ० चदुसंज० - पुरिस०जस गि० उच्चा० - पंचंत० अत्थि चत्तारिवड्डि- हाणि अवट्ठि ० अवत्त० । सेसाणं अस्थि तिष्णिवड्डि- हाणि - अवट्टि० ० - अवत्त० । एवं मणपज० - संजद - अधिदं ० - सम्मादि ० - खड्ग ०
उवसम० ।
चार संज्वलनकी संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं।
८५६. क्रोध कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, और उच्चगोत्रकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। मान कषायवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण चार दर्शनावरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। क्रोध संज्वलनका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग औघके समान हैं | माया कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, दो संज्वलन और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग के समान है। लोभ कषायवाले जीवोंमें ओघ के समान है। इतनी विशेषता है कि चौदह प्रकृतियों का अवक्तव्य पद नहीं है ।
८६०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। चार आयुओं का भङ्ग ओघके समान है । मिथ्यात्व और शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मिध्यात्वका अवक्तव्य पद नहीं है ।
८६१. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी, संयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
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महाबँधे द्विदिबंधाहिया रे
८६२. सामाइ ० - वेदो० पंचणा० - चदुदंस०-- लोभसंज० - उच्चा० - पंचंत० अत्थि चत्तारिखड्डि- हाणि - अवट्ठि ० । सेसाणं ओघं । परिहार० - संजदासंजदा० आहारकायजोगिभंगो | सुहुमसंप० पंचणा० - चदुदंस० - सादावे ० - जस ० - उच्चा० - पंचंत० अत्थि संखेंभागवड्डि- हाणि अव०ि । असंजदे पंचणा० छदंसणा ० - बारसक० - भय ० - दु० - तेजा ० क० - वण्ण ०४ - अगु० - उप० - णिमि० पंचंत० अत्थि तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्टि० । सेसाणं अस्थि तिण्णिवड्डि-हाणि - अवट्ठि ० - अवत्त० । एवं किण्ण-णील-काऊणं । णवरि किण्णणीलाणं तित्थय० अवत्त० णत्थि
01
0
४०८
८६३. तेऊए पंचणा० - छदंसणा ० - चदुसंज० - भय - दु० - तेजासरीरादि- पंचतरा ० अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० । सेसाणं अत्थि तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० - अवत्त ० । पम्माए पंचणा० - छदंसणा ० - चदुसंज ०. ० - भय० - दु० - पंचिंदियादिपण्णरस - पंचत० अत्थि - तिण्णवड्डि-हाणी०-अवडि० । सेसाणं तिण्णिवड्डि-हाणि अवट्टि० अवत्त ० | सुक्काए ओघं ।
८६४. वेदगस ० धुविगाणं अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० । सेसाणं अत्थि तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि ० - अवत्त० । सासणे धुविगाणं अस्थि तिष्णिवड्डि-हाणि - अवट्ठि० । सेसाणं० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० - अवत्त० । सम्मामिच्छा० पंचणा० - छदसणा०
८६२. सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि, और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । परिहारविशुद्धि संयत और संयतासंयत जीवों में आहारककाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं । असंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं 1 इसी प्रकार कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नीललेश्यावाले जीवोंके तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्य पद नहीं है ।
८६३. पीतलेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर आदि और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। पद्मलेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, पचेन्द्रिय जाति आदि पन्द्रह और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं । शुक्लेश्यावाले जीव में ओघके समान भङ्ग है ।
८६४. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अब - क्तव्य पदके बन्धक जीव हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियों की तीन वृद्धि, तीन हानि, अब
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धे सामित्तं बारसक० - पुरिस०- भय ० दु० - दोगदि पंचिंदि ० - चदुसरीर - समचदु ० - दोअंगो० - वजरिस ०. वण्ण ०४ - दो आणु ० - अगु०४ - पसत्थवि ० -तस० ४ - सुभग सुस्सर - आदें ० - णिमि० - पंचंत ० अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्टि० | सेसाणं अत्थि तिण्णिवड्डि- हाणि - अवडि० - अवत्त० ।
0
८६५. असण्णी धुविगाणं अत्थि तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० । सेसाणं अत्थि तिण्णवड्ढि - हाणि अवट्ठि ० ० - अवत्त० । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं समुक्कित्तणा समत्ता । सामित्तं
८६६, सामित्ताणुगमेण दुवि० - ओघे० आदे० | ओघे० पंचणा० - चदुदंस ०. चदुसंज० - पंचंत० असंखेखभाग- वड्ढि - हाणि - अवट्टि० कस्स ० १ अण्णद० एइंदियस्स वा बीइंदियस्स वा तीइंदि० चदुरिंदि० पंचिंदि० सण्णि० असण्णि० बादर० सुहुम० पत्ता अपजत्त० । संर्खेजभागवड्डि- हाणिबंधो कस्स० ? अण्ण० बेइंदि० तीइंदि० चदुरिंदि० पंचिदि० सण्णि० असण्णि ० पञ्जत्त • अपज्ज० | संखेजगुणवड्डि- हाणि० कस्स० १ अण्ण० पंचिंदि० सण्णि० असण्णि० पञ्जत० अपञ्जत्त० । असंर्खेज गुणवड्डिबंधी कस्स● अणियट्टिबादर • उवसमणादो परिवमाणस्स मणुसस्स वा मणुसिएणी वा पढमसमय देवस्स वा । असंखेजगुणहाणिबंधो कस्स० १ अण्ण उवसामगस्स वा खवगस्स वा
अण्ण०
स्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, चार शरीर, समचतुरस्र संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और वक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं !
८६५. असंज्ञी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं । अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग I
I
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त दुई । स्वामित्व
८६६. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघ से पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्या भागहानि और अवस्थित पदका स्वामी कौन है ? अन्यतर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पच ेन्द्रिय, संज्ञी, असंज्ञी, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त या पर्याप्त जीव स्वामी है । संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त या अपर्याप्त जीव स्वामी है । संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर पचेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञी पर्याप्त या अपर्याप्त जीव स्वामी है । श्रसंख्यात गुणवृद्धिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला अनिवृत्तिबादरसाम्परायिक मनुष्य या मनुष्यनी अथवा प्रथम समयवर्ती देव स्वामी है । असंख्यातगुणहानिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशामक या क्षपक अनिवृत्तिवादरसाम्परायिक जीव स्वामी है । अवक्तव्य
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महाधे द्विदिर्बंधाहियारे
अणियट्टिबादरसांपराइगस्स । अवत्त० कस्स होदि ९ उवसमणादो परिवदमाणस्स माणुस वा मणुसिणीए वा पढमसमयदेवस्स वा । थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि ०४ तिण्णिवड्डि- हाणि-अवट्ठि० णाणावरणभंगो । अवत्त० कस्स० १ अण्ण० संजमादो वा संजमा संजमादो वा सम्मत्तादो वा सम्मामिच्छादो वा परिवदमाणगस्स पढमसमयमिच्छादिस्सि वा सासणसम्मादिट्ठिस्स वा । गवरि मिच्छत्तस्स सासणादो वा पढम समयमिच्छादिट्ठिस्स वा । साद० - पुरिस०० - जस० - उच्चा० चत्ताविड्ढि हाणि - अवढि ० णाणावरण भंगो | अवत्त० कस्स० : अण्ण० परियत्त० । णिद्दा पचला-भय ०- -दु०० - तेजा०
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-04-01
वण्ण०४- अगु० - उप० णिमि० तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि० अवत्त० णाणावरणभंगो | असाद०इत्थि ० ० - बुंस० - चदुणोक० - तिरिक्ख - मणुसग ० - पंचजादि - छस्संठा ० - छस्संघ ० - दोश्राणु०दोविहा० -तस थावरादिणवयुगल अजस०-णीचा० तिण्णिवड्डि- हाणि-अवडि० णाणावरणमंगो | अवत० सादभंगो | अपच्चक्खाणा०४ - तिण्णिवड्डि-हाणि अवट्ठि ० णाणावरणभंगो । अवत्त० संजमादो वा संजमासंजमादो वा परिवदमा० पढमस० मिच्छादि० सासण० सम्मामिच्छादिट्ठिस्स वा असंजद० वा । पच्चक्खाणा०४ - तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि० णाणावरणभंगो । अवत्त० संजमादो परिवदमा० पढम० मिच्छा० सासण० सम्मामि० असंज• संजदासंजदस्स वा । चदुआयु० अवत्त कस्स० १ अण्ण० पढमसमय- आयुग० बंधमा
बन्धका स्वामी कौन है ? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला मनुष्य या मनुष्यिती अथवा प्रथम समयवर्ती देव स्वामी है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, और अनन्तानुबन्धी चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संयम से संयमासंयम से, सम्यक्त्वसे या सम्यग्मिथ्यात्व से गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व प्रकृतिकी अपेक्षा अवक्तव्य बन्धका स्वामी संयमादि चार स्थानोंसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव तो है ही । साथ ही सासादनसम्यक्त्व से गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टि भी है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान जीव स्वामी है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य बन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार नोकषाय, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस और स्थावर आदि नौ युगल, अयशः कीर्ति और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अप्रत्याख्यानावरण चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी संयम या संयमासंयमसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि या असंयत सम्यग्दृष्टि जीव है । प्रत्याख्यानावरण चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान है ।
वक्तव्य बन्धका स्वामी संयमसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि या संयतासंयत जीव है। चार आयुओंके अवक्तव्यबन्धका
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बंधे सामित्तं णस्स । तेण परं असंखेखभागहाणी । वेउव्वियछ० तिण्णिवड्डि-हाणि अवडि० कस्स० १ अण्ण० सण्णि० असण्णि० । णवरि संखेजगुणवड्डि-हाणि० सण्णिपञ्जत० । अवत्तव्व० सादभंगो । आहारदुग - पर० - उस्सा ० - आदाउज्जो ० - तित्थय० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि ० कस्स० १ अण्ण० । अवत्त० कस्स० १ अण्णद० पढमसमयबंधमा० । ओरालि०-ओरालि ०अंगो० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० णाणावरणभंगो । अवत० कस्स० १ अण्ण० पढमसमयबंध० । एवं ओघभंगो कायजोगि - अचक्खु ० - भवसि ० - आहारग ति ।
८६७. रइसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० कस्स० १ अण्ण० । सेसं ओघादो साधेदव्वं । वरि सत्तमाए तिरिक्खग० - तिरिक्खाणु० णीचा० थीणगिभिंगो । मणुस ० - मणुस ाणु० - उच्चा० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्टि० णाणावरणभंगो । अवत्त० कस्स ० १ अण्ण० मिच्छत्तादो परिवद० पढम० असंज० सम्मामि० ।
८६८. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि कस्स ० ? अण्ण० । सेसाणं ओघं । एवं पंचिदियतिरिक्ख ०३ | पंचिंदि० तिरिक्खअपजत्त • धुविगाणं तिण्णिवड्डि- हाणि अवडि० कस्स० १ अण्ण० । सेसं ओघं । एवं सव्वअपअ० अणुदिसदेवाणं च । मणुसेसु
०
1
स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रथम समय में आयुकर्मका बन्ध करनेवाला जीव स्वामी है। उसके बाद असंख्यात भागहानि होती है । वैक्रियिक छहकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संज्ञी और असंज्ञी जीव स्वामी है । इतनी विशेषता है कि संख्यात
वृद्धि और संख्यातगुणहानिका स्वामी संज्ञी पर्याप्त जीव है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी सातावेदनीयके समान है । श्राहारकद्विक, परघात, उच्छ्रास, आतप, उद्योत और तीर्थंकरकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर प्रथम समय में बन्ध करनेवाला जीव स्वामी है । औदारिकशरीर और औदारिकाङ्गोपाङ्गकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रथम समय में बन्ध करनेवाला जीव स्वामी है । इसी प्रकार के समान काययोगी, अचक्षुचर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ८६७. नारकियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष ओघ के अनुसार साध लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवी में तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है | मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिध्यात्वसे असंयत सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाला प्रथम समयवर्ती नारकी जीव स्वामी है ।
८६८. तिर्यञ्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओधके समान है । इसी प्रकार पश्र्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके आनना चाहिए। पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त और अनुदिश देवोंके जानना चाहिए । मनुष्यों में प्रोघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य बन्धका स्वामी प्रथम समय
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महाबँधे द्विदिबंधाहियारे
ओघं । णवरि अवत्त ० देवो त्ति ण भाणिदव्वं । एवं पंचमण० - पंचवचि० | देवेसु णिरयभंगो ।
८६६. एइंदिय - पंचकासु धुविगाणं एकवड्डि- हाणि - अवडि० कस्स ० १ अण्ाद० । साणं एकवड्डी- हाणि अवट्ठि० कस्स ० १ अण्ण० । अवत्त० कस्स० ? अण्ण० परियत्त० पढम० । विगलिदिएसु धुविगाणं दोवड्डि-हाणि-अवट्ठि० बंधो कस्स ० १ अण्ण० | सेसाणं दोण्णिवढि हाणि अव०ि णाणावरणभंगो । अवत्त० कस्स ० १ अण्ण० परियत्त० पढम० । पंचिदि० तस्सेव पत्ता ओघं । णवरि पंचिंदि० सण्णि० असण्णि० - पजत्त० - अपजत्त चि भाणिदव्वं । तस-तसपजत्ता ओघं । णवरि बीइंदि० तीइंदि० चदुरिंदि० पंचिंदि० सण्णि असण्णि० [० पत्ता अपजत्ता त्ति भाणिदव्वं ।
C
८७०. ओरालिका० ओवं । णवरि देवो त्ति ण भाणिदव्वं । ओरालियमि० तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छ० कस्स० अण्ण० सासण: परिवद० पढम० मिच्छादिट्टि० । देवगदि ०४ - तित्थय० अवत्त णत्थि । वेउब्विय ० उब्वियमि० देवोघं । आहार०आहार मि० धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० कस्स ० १ अण्णद० । सेसाणं तिण्णिवड्डिहाणि - अवट्टि • णाणावरणभंगो । अवत्त० ओघं सादभंगो । कम्मइग० धुविगाणं देवगदि
०
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वर्ती देव होता है, यह नहीं कहना चाहिए। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंके जानना चाहिए। देवों में नारकियोंके समान भङ्ग है ।
६६. एकेन्द्रियों में और पाँच स्थावर कायिक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियों की एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान प्रथम समयवर्ती जीव स्वामी है । विकलेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्ध-' वाली प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । शेष प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान प्रथम समयवर्ती जीव स्वामी है । पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय संज्ञी - श्रसंज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसा कहना चाहिए। त्रस और सपर्याप्त जीवों में ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पचेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञी पर्याप्त व अपर्याप्त ऐसा कहना चाहिए ।
I
८७०. औदारिक काययोगी जीवों में ओघ के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका स्वामी प्रथम समयवर्ती देव होता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों में सामान्य तिर्यञ्चों के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य वन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सासादन सम्यक्त्वसे गिरकर प्रथम समय में मिध्यादृष्टि हुआ जीव स्वामी है । देवगति चतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिका अवक्तव्य बन्ध नहीं है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक
गोपांगका भंग सामान्य देवोंके समान है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में धवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन हैं ? अन्यतर जीव स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी ओघ में कहे गये सातावेदनीयके समान है ।
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वड्डिबंधे सामित्तं
४१३ पंचगस्स च अवढि० कस्स० १ अण्ण० । सेसाणं अव४ि०-अवत्त० कस्स० १ अण्ण० । एवं अणाहार० ।
८७१. इत्थि० पंचणा०-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंत० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० कस्स० १ अण्ण० । णवरि असंखेंजगुणवड्डि-हाणि० अणियट्टि । णिहादंडस्स अवत्त० देवो ति ण भाणिदव्वं । सेसाणं ओघं । पुरिसेसु ओघं । णबुंसगे धुविगाणं इत्थिभंगो । सेसाणं ओघं । अवगदवे० पंचणा०-चदुदंसणा०-पंचंत० संखेंजभागवड्डि-संखेंजगुणवड्डिअवत्त० कस्स० ? अण्णद० उवसम परिवद० । तेसिं हाणि-अवढि० कस्स० ? अण्ण. उवसम० खवग । सादावे०-जस०-उच्चा० संखेंजभागवड्डि-संखेंजगुणवड्डि-असंखेंजगु०अवत्त० कस्स० १ अण्ण० उवसम० परिवद० । तेसिं हाणि-अवट्टि. कस्स० १ अण्ण० उवसम० खवग० । चदुसंज. संखेंजभाग०-अवत्त० कस्स० ? अण्ण० उवसाम० परिवद० । संखेंजभागहाणि-अवढि० कस्स० १ अण्ण० उवसाम० खवग० ।
८७२. कोधेसु पंचणा०-चदुदंसणा० चदुसंज०-पंचंत० तिण्णिवडि-हाणि-असंखेंजगुणवड्डि-हाणि-अवट्ठि० ओघं । अवत्त० णत्थि । सेसाणं च ओघं । माणे तिण्णिसंजलणं, कार्मणकाययोगी जीवोंमें ध्रुववन्धवाली और देवगतिपञ्चकके अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । शेष प्रकृतियोंके अवस्थित और अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए।
८७१. स्त्रीवेदी जीवोमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका स्वामी अनिवृत्तिकरण जीव है। निद्रादण्डकके अवक्तव्य बन्धका स्वामी देव है,ऐसा नहीं कहना चाहिए । शेष प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है । पुरुषवेदी जीवोंमें ओघके समान भंग है । नपुंसकवेदी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भंग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । शेष प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, और अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर गिरनेवाला उपशामक जीव स्वामी है। उनकी हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशामक और क्षपक जीव स्वामी है। सातावेदनीय, यश कीर्ति और उच्चगोत्रकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर गिरनेवाला उपशामक जीव स्वामी है। उनकी हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशामक और क्षपक जीव स्वामी है । चार संज्वलनोंकी संख्यातभागवृद्धि और अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर गिरनेवाला उपशामक जीव स्वामी है । संख्यातभागहानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशामक और क्षपक जीव स्वामी है।
८७२. क्रोधकपायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवस्थित बन्धका भैग आवके समान है। यहाँ अवक्तव्य बन्ध नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। मानमें तीन संज्वलन और मायामें दो संज्वलनोंके तीन पद कहने चाहिय । शेष भङ्ग आपके समान
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे मायाए दोसंज० तिण्णि भाणिदव्वं । सेसं ओघं। लोमे पंचणा०-चदुदंस०-पंचंत. अवत्तव्वं णत्थि । सेसाणं ओधं ।
८७३. मदि०-सुद० धुविगाणं अत्थि तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० तिरिक्खोघं । सेसाणं ओघं । एवं विभंग०-अब्भवसि०-मिच्छा० । णवरि अब्भवसि०-मिच्छादि० मिच्छत्त० अवत्त० णत्थि ।
८७४. आमि०-सुद० ओघि० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज-पुरिस०-उच्चा०-पंचंत० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० कस्स० १ अण्ण० । असंखेंजगुणवड्डि-हाणि-अवत्त. ओघं । मणुसगदिपंचगस्स तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० कस्स० ? अण्ण । अवत्त० कस्स० ? अण्ण० पढमस० देवस्स वा णेरइगस्स वा । सादावे०-जस० असंखेंजगुणवड्डि-हाणिक ओघ । सेसाणं णाणावरणभंगो । णिद्दा पचलादीणं अवत्त० ओघं । सेसाणं णाणावरणभंगो। णवरि अवत्त० कस्स० १ अण्ण. परियत्तमा० । णवरि देवगदि०४-तिण्णिवड्डि-हाणिअवढि०-अवत्त० कस्स० १ अण्णः । एवं ओधिदंस-सम्मादि० -खइग०-वेदग०-उवसम० । णवरि वेदगे किंचि विसेसो। उषसमे वि असंखेंजगुणवड्डि० कस्स० १ अण्ण० उवसामगस्स परिवदमा० पढमस० देवस्स वा। असंखेंजगुणहाणि कस्स० १ अण्ण उवसाम०
हैं। लोभ कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका प्रवक्तव्य बन्ध नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है।
५७३. मत्यज्ञानी और अताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मिथ्यात्क्का अवक्तव्यबन्ध नहीं है।
८.४. श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यबन्धका स्वामी ओघके समान है। मनुष्यगतिपञ्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रथम समयवर्ती देव और नारकी जीव स्वामी है। सातावेदनीय और यशः कीर्तिकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका स्वामी ओषके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। निद्रा और प्रचला आदिकके अवक्तव्यबन्धका स्वामी ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान जीव स्वामी है। इतनी विशेषता है कि देवगति चतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यक्त्वमें कुछ विशेषता है। उपशमसम्यक्त्व में भी असंख्यातगुणवृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशमश्रेणीसे गिरकर प्रथम समयमें देव हुआ जीव स्वामी है। असंख्यातगुणहानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशामक अनिवृत्तिकरण
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बहिबंधे सामित्त अणियट्टि० । मणपजव-संजदे ओधिभंगो। णवरि खइगाणं पगदीणं असंखेंजगुणवडिहाणि-अवत्त० मणुसिभंगो।
८७५. सामाई०-छेदोव० पंचणा०-चदुदंस०-लोभसंज०-उच्चा०-पंचंत० अवत्त० णत्थि । सेसाणं मणवजवभंगो। परिहार० आहारकायजोगिभंगो। सुहमसंप० पंचणा०चदुदंस०-सादावे०-जस०-उच्चा०-पंचंत० संखेंजभागवड्डि० कस्स० १ अण्णदरस्स उवसाम० परिवद० । संखेंजभोगहा०-अवट्ठि० कस्स० ? अण्णद० उवसाम० वा खवगस्स वा। संजदासंजदेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० कस्स० ? अण्ण | सेसाणं परिहारमंगो। असंजदे धुविगाणं तिण्णिवड्वि-हाणि-अवट्टिदं कस्स० ? अण्ण। सेसाणं तिरिखोघं । णवरि तित्थयरं ओघं । एवं किण्ण-णील-काउ० ।।
८७६. चक्खुदं० तसपजत्तभंगो। किंचि विसेसो। तेऊए पंचणा० छदसणा०. चदुसंजल०-भय०-दु०-तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्तय०-णिमि०. पंचंत० तिण्णिवाड्डि-हाणि-अवढि० कस्स० ? अण्ण० । थीणगिद्धितिग-मिच्छत्त-बारसक० अवतव्वं ओघं । सेसं णाणावरणभंगो। सेसाणं पगदीणं तिण्णिवड्ढि हाणि-अवढि० जीव स्वामी है । मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि क्षायिक प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यबन्धका स्वामी मनुष्यनियोंके समान है।
८७५. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका अवक्तव्यबन्ध नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनःपययज्ञानी जीवोंके समान है । परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें आहारककाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायकी संख्यातभागवृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर गिरनेवाला उपशामक जीव स्वामी है ? संख्यातभागहानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशामक और क्षपक जीव स्वामी है। संयतासंयत जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है। असंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ! अन्यतर जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके सभान है। इसी प्रकार कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये।
८७६. चक्षदर्शनी जीवोंमें त्रसपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। कुछ विशेषता है। पीतलेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुल घुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि तीन हानि
और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और बारह कषायके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी ओघके समान है। शेष ज्ञानावरणके समान भङ्ग है। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी ओघके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिये।
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४१६
महाबँधे हिदिबंधाहियारे
कस्स० १ अण्ण० । अवत्तव्वं ओघं । एवं पम्माए । सुक्काए खवगपगदीणं असंखेज्जगुणवड्डि- हाणि - अवत्तव्यं ओघं । साणं तेउभंगो ।
८७७. सासणे धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० कस्स ० १ अण्ण० । सेसाणं तिण्णवड्डि- हाणि - अवट्टि ·हु० - अवत्त० विभंगभंगो । सम्मामि० धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि - अवट्टि ० कस्स ० १ अण्ण० । सेसाणं तिष्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि० कस्स ० १ अण्ण० । अवत्त ० कस्स ० १ बंधगस्स पढमसम० ।
८७८. सण्णी पंचिदियभंगो । णवरि सण्णि त्ति भाणिदव्वं । असण्णीसु धुविगाणं दोवड्डि- हाणि - अट्ठि०. कस्स ० १ अण्ण० । सेसाणं दोवड्डि- हाणि अवट्ठिदं कस्स ० १ अण्ण० । अवत्वं कस्स० ? परिय० । मणुसगदिदुग - वेडव्विगछ० - उच्चागोद वजित्ता सेसाणंसंजगु० कस्स ० १ अण्ण० एइंदि० विगलिंदियस्स वा विगलिंदिएस अस णिपंचिदिएस उवव० पढमसम० । संर्खेजगुणहाणी कस्स० ? अण्ण० विगलिंदि० असणिपंचिदि० एदिए वा विगलिदिएसु उवव० पढम० । णवरि एइंदि० आदाव थावर- सुहुम-साधार० वड्डी थि ।
एवं सामित्तं समत्तं
शुक्लेश्यावाले जीवों में क्षपक प्रकृतियोंकी असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यबन्धका स्वामी ओधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पीतलेश्यावाले जीवों के समान है।
८७७. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका स्वामी विभङ्गज्ञानी जीवोंके समान है । सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? प्रथम समयमें बन्ध करनेवाला जीव स्वामी है ।
७. संज़ी जीवोंमें पञ्चेन्द्रियोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि संज्ञी ऐसा कहना चाहिए। असंज्ञी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान प्रथम समवर्ती जीव स्वामी है । मनुष्यगतिद्विक, वैक्रियिक छह और उच्चगोत्रको छोड़कर शेष प्रकृतियों की संख्यातगुणवृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव मरकर जब विकलेन्द्रियों और असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है, तो ऐसा जीव पहले समय में स्वामी है । संख्यातगुणहानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पचेन्द्रिय जीव जब मरकर एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, तब उत्पन्न होनेके प्रथम समय में वह स्वामी है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियों में तप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण प्रकृति की वृद्धि नहीं है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ ।
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कालो
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कालो
८७६. कालानुगमेण दुवि० ओघे० आदे० । ओषेण खवगपगदीणं 'चचारिवड्डितिण्णिहाणिबंध ० केवचि ० १ जह० एग०, उक्क० बेसमयं । असंर्खेज्जगुण * हाणि - अवत्तव्वं केव ० १ एग० | अवदि० जह० एग०, उक्क ० तो ० । चदुष्णं आयुगाणं अवत्तव्वं एग० । असंर्खेज्जभागहाणी जहण्णुकस्सेण अंतो० । सेसाणं तिण्णिवड्डि-हाणी जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्तवं एग० । एवं ओघभंगो पंचिंदिय-तस०२- कायजोगि पुरिस० - कोधादि ०४ श्रभि० सुद० - ओधि० - चक्खु ० -अचक्खु ० अधिदं० - सुक्कले ० - भवसि ० - सम्मादि ० - खड्ग ० - उवसम० - सण्णि आहारग ति । मणुसतिण्णि- पंचमण० - पंचवचि० - ओरालिय० ओघं । णवरि असंर्खेज्जगुणवड्डी बे समयं लभदि । एगसमयं भवदि । मणपजत्रसंजद - सामाइ ०-छेदोवट्ठावण० मणुसभंगो ।
८८०. अवगदवेदे पंचणा० - चदुदंस ० चदुसंज० सव्वत्थ संखज्जभागवड्डि-हाणी संखेज्जगुणवड्डि-हाणी अवत्त० एग० । अवट्टिदं ओघं । सादावे० जस० उच्चा० संखज्जभागड-हाणी संखेज्जगुणवड्डि-हाणि असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी अवत्तव्वं एग० । अवट्ठि०
काल
८७६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -- ओघ और आदेश | ओघसे क्षपक प्रकृतियोंके चार वृद्धिवन्ध और तीन हानिबन्धों का कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यबन्धका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थितबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । चारों आयुओं के अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । असंख्यातभागहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अवस्थितबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । इसी प्रकार के समान पश्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचतुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुद्धलेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। मनुष्यत्रिक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी और औदारिक काययोगी जीवों में
के समान काल है । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओंमें असंख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल उपलब्ध नहीं होता; किन्तु जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । मन:पर्ययज्ञानी, संयत सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग I
८८०. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और चार संज्वलनकी सर्वत्र संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थित बन्धका काल ओघ के समान है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल १ मूलप्रतौ चत्तारितिष्णिवट्टिहाणि इति पाठः । १ मूलप्रतौ गुणवडिहाणि० इति पाठः ।
५३
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महाबँधे द्विदिबंधाहियारे
०
बं० ओघं । सुहुमसंप० सव्वपग० संखेज्जभागवड्डि-हाणी एगस० । अवट्टि • ओघं । ८८१. णिरसु धुविगाणं सेसाणं च सव्वे भंगा ओघं णिरयगदीणामभंगो | णवरि पगदिविसेसं णादव्वं । एवं याव अणाहारग त्ति दव्वं । णवरि कम्मइ० - अणाहा० धुविगाणं अवदिं जह० एग०, उक्क० तिण्णिसमयं । देवगदिपंचगस्स अवद्विदं जह० एग०, उक्क० समयं । सेसाणं थावरपगदीणं अवट्ठिदं जह० एग०, उक्क० तिण्णिसमयं । इत्थ० - पुरिस० - मणुसग ० - चदुजादि - पंचसंठाण - ओरालि० अंगो०- छस्संघडण - मणुसाणु० दो विहा०-तस - सुभग- दोसर आदेंज्ज० उच्चागो० अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसम० ।
अवत्त० एग० ।
एवं कालं समत्तं । अंतरं
८८२, अंतरानुगमेण दुवि० - श्रघे० आदे० । ओघे० पंचणा० - चदुदंसणा ०चदुसंज० - पंचतरा ० असंखज्जभागवड्डि- हाणि-अवडि० अंतरं केव० १ जह० एग०, उक्क ० तो ० | बेवड-हाणीबंध० जह० एग०, उक्क० अनंतकालं । असंखेज्जगुणवड्डिहाणि - अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अद्धपोंगल० । णवरि असंखेज्जगुणव० जह०
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एक समय है । तथा अवस्थितबन्धका काल के समान है। सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थितबन्धका काल ओवके समान है ।
१. नारकियों में ध्रुवबन्धवाली तथा शेष प्रकृतियोंके सब भङ्ग ओके अनुसार नरकगति नामकर्मके समान है । इतनी विशेषता है कि प्रकृतिविशेष जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के अवस्थितबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । देवगति पञ्चक अवस्थितबन्धका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । शेष स्थावर प्रकृतियों के अवस्थितबन्धका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायेगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्र के अवस्थित बन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ ।
अन्तर
८२. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय है ओर उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो वृद्धि और दो हानिबन्धोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य बन्धका
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बंधे अंतरं
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एग० । थीणगि०३-मिच्छ० अणंताणु०४ असंखेज्जभागवड्डि-हाणि अवट्ठि ० जह० एग०, उक० बेछाago सू० | बेवड्डि- हाणि अवत्तव्यं णाणावरणभंगो । णिद्दा- पचला-भय ०दुर्गु० - तेजइगादिणव तिण्णिवड्डि- हाणि - अवडि०० - अवत्त ० णाणावरणभंगो । सादावेदणीयजसग० चत्तारिवड्डि-हाणि-अवट्ठिदं णाणावरणभंगो । अवत्तव्वं जहण्णु० अंतो० | असाद०चदुणोकसाय थिराथिर-सुभासुभ-अजस० तिष्णिवड्डि- हाणि - अवट्टिद-अवत्तव्यं सादभंगो । अट्ठकसा० असंखे० भागवड्डि-हाणि-अवडि० जह० एग०, उक्क० पुव्त्रको० देस्र० । बेवड्डिहाणि अवत्तव्वं णाणावरणभंगो । इत्थवे ० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० थीणगिद्धिभंगो । अवतव्वं जह० अंतो०, उक्क० बेछावट्टिसाग० सादि० । पुरिसवेदं चत्तारिखड्डि- हाणिअवट्ठिदं णाणावरणभंगो । अवत्तव्वं अह० अंतो०, उक्क० बेछावट्टिसाग० सादिरे० । वुंस० पंचसंठा० - पंच संघ० - अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर- अणादें० असंखेज्ज० वड्डि-हाणि-अवि जह० एग०, उक ० बेछा हिसागरो० सादि० तिष्णिपलिदोवमाणि देसू० । बेवड्डिहाणि० णाणावरणभंगो । अवत्तव्वं जहणणेण अंतो०, उक० बेछावट्ठि ० सादि० तिण्णिपलिदो० देसू० | णिरय-मणुस - देवायूर्ण असंखेज्जभागहाणि अवत्तन्वं जह० अंतो०, उक्क ०
O
जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर है । दो वृद्धि, दो हानि और श्रवक्तव्यबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौतन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । सातावेदनीय और यशःकीर्तिकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशः कीर्तिकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और श्रवक्तव्यबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । आठ कषायों की असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भाग हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है। स्त्रीवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है । अवक्तव्य बन्धक जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागर है । पुरुषवेदकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागर है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दोछियासठ सागर और कुछ कम तीन पल्ष है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है । नरकायु, मनुष्यायु और देवायुके असंख्यातभाग हानि और श्रवकव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
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अणतका असं० । तिरिक्खायु० असंखेज्जभागहाणि अवत्तन्वं जह० अंतो०, उक० सागरो० सदपुधत्तं । वेउन्नियछकं तिण्णिवड्डि-हाणि अवडि० जह० एग०, उक्क० अणंतका० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अनंतका० असंखे० परि० । तिरिक्खग ० - तिरिक्खाणुपु० असंखेज्जभागवड्डि-हाणि अवट्ठि ० जह० एग०, उक्क० तेवट्टिसागरो० सर्द ० ' । बेवड हाणि ० णाणावर णभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० असंखज्जा लोगा । मणुसगदि- मणुसाणु ० असंखेज्जभागवड्डि- हाणि-अवट्ठिदं जह० अंतो०, अवत्त० जह० अंतो०, उक० असंखज्जा० । बेवड्डि • बेहाणि० णाणावरणभंगो । चदुजादि आदाव - थावरादि ०४ असंखेज्जभागवड्डि- हाणि-अवट्ठिदं जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं । बेवड्ड-हाणी० णाणावरणभंगो। पंचिंदि० पर० उस्सा० -तस०४ तिण्णिवड्डिहाणि - अवट्टि ० णाणावरणभंगो । अवत्तव्वं जह० अंतो०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं । ओरालि० असंखेज्जभागवड्डि- हाणि-अवट्ठिदं जह० एग०, उक्क० तिष्णिपलिदोवमाणि सादि० | बेवड्ड० - हाणि० णाणावरणभंगो । अवत्तवं जह० अंतो०, उक्क० अतकालमसं० । आहारदुगं तिण्णिवड्डि- हाणि-अवडि० जह० एग०, अवत० जह० अंतो०,
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पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । तिर्यवायुकी असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। वैक्रियिक छहकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी की असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर है। दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर इन सबका एक सौ पचासी सागर है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । पचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्रास और त्रस चतुष्कके तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर है । औदारिकशरीर की असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अव स्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल हैं जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण हैं । आहारकद्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है । अवक्तव्य बन्धका
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१ मूलप्रतौ साग० सत्त बे इति पाठः ।
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वडिबंधे अंतरं
४२१ उक्क ० अद्धपोग्गल । समचदु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदें तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० णाणावरणभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावढि० सादि० तिण्णिपलिदो० देसू० । ओरालि०अंगो०-वज्जरि० तिण्णिवडि-हाणि-अवढि० ओरालियसरीरभंगो। अवत्तव्वं जह० अंतो०, उक० तेत्तीसं साग० सादि०। उज्जो० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० तिरिक्खगदिभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेवहिसागरो सदं। तित्थयरं तिण्णिवड्डि. हाणि-अवढि० जह० एग०, उक. अंतो० । अवत्तव्वं जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । उच्चागो० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० मणुसगदिभंगो। अवत्तव्वं तं चेव । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणि० णाणावरणभंगो। णीचागो० असंखेज्जभागवड्वि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क • बेछावद्विसाग० सादि० तिण्णिपलिदोवमाणि देसू० । बेवड्डि-हाणी० णाणावरणभंगो । अवत्तव्वं जहण्णेण अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा।
८८३. णिरएसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणी. जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि. जह० एग०, उक्क० बेसम | थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०-णस०. दोगदि०-पंचसंठा-पंचसंघ०-'दोआणु०-उज्जो०-अप्पसत्थवि०- भग-दुस्सर-अणादें णीचुचागोदं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर इन सबका अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी, तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है
और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दोछियासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है। औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग औदारिक शरीरके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। उद्योतकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। अवक्तव्य बन्धका वही भङ्ग है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। नीचगोत्रकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है। दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है।
८८३. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । स्स्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर,अनादेय,
१ मूलप्रतौ दोअंगो० उज्जो० इति पाठः ।
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४२२
महाधे द्विदिबंधाहियारे
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तेत्तीस साग० दे० | सादादिवारस० तिण्णिवड्डि-हाणि अवट्ठिदं जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । पुरिस० समचदु० वज्जरि ० पसत्थ० - सुभगसुस्सर-आदें• तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि ० सादभंगो । अवत्तव्वं इत्थिभंगो । दोआयु० दोपदा जह० अंतो०, उक्क० छम्मासं देख० । तित्थय० तिष्णिवड्डि-हाणि० ज० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अवत्त ० णत्थि अंतरं । एवं ती पुढवी तित्थक० । णवरि पढमाए अवत्त० णत्थि । छसु उवरिमासु मणुस ० -मणुसाणुपुव्वीणं उच्चा० पुरिसभंगो । सेसाणं अध्पप्पणो अंतरं भाणिदव्वं । सत्तमाए णिरयोघं ।
८८४. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि० ओघं । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । थीण गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ असंखेज्ज ० वड्डि- हाणिअवट्ठि ० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सू० । बेत्रड्डि-हाणि अवत्त० ओघं । सादादिबारस ओघं । इत्थवे० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवडि० थीणगिभिंगो । अवत्त • जह० तो ०, उक्क० तिष्णि पलिदो० देसू० । अपचक्खाणा०४ - णवुंस० पंचसंठा
नीचगोत्र और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर इन सबका कुछ कम तेतीस सागर है । साता आदि बारह प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । दो आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । तीर्थंकर प्रकृतिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है । इसी प्रकार तीन पृथिवियों में तीर्थंकर प्रकृतिका अन्तर काल है । इतनी विशेषता है कि पहली पृथिवीमें अवक्तव्यपद नहीं है । आगेकी छह पृथिवियोंमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवेदके समान है । शेष प्रकृतियोंका अपना-अपना अन्तर काल कहना चाहिये । सातवीं पृथिवीमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है ।
४ तिर्यों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग घ समान है । अवस्थितबन्धको जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानवृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्यबन्धका अन्तर काल के समान है । साता आदि वारह प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान है | स्त्रीवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अप्रत्याख्यानावरण चार, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप,
१ मूलप्रतौ जह० पुग० उ० इति पाठः ।
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वडिबंधे अंतरं ओरालिअंगो०-छस्संघडण-आदाउज्जो०-अप्पसत्यवि०-दूभग-दुस्सर-अणादें. असंखेन्जभागवड्डि-हाणि-अवट्टिदं जह० एग०,उक० पुचकोडी देसू०। बेवड्डि-हाणी० ओघ । अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० पुनकोडि० । णवरि अपचक्खाणा० अवत्त० उक० अद्धपोग्ग० लपरि० । पुरिस० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० णाणावरणभंगो। अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसू० । तिण्णिआयुगाणं दोपदा जह० अंतो०, उक० पुवको. डितिभागं देसूणं । तिरिक्खायुगस्स दोपदा जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडी० सादि। वेउव्वियछक्क-मणुसगदि-मणुसाणु० उच्चागो० ओघ । पंचिंदि० समचदु०-पर-उस्सा०पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आर्दै० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्टि पुरिसवेदभंगो । अवत्तव्वं जह० अंतो०, उक्क० पुन्वकोडी देसूणं । तिरिक्खग०-चदुजादि-ओरालि०-तिरिक्खाणु०. थावरादि०४-णीचागो० णवुसगभंगो। णवरि तिरिक्खगदि-ओरालि०-तिरिक्खाणु०. णीचा० अवत्तव्वं ओघं।
८८५. पंचिंदि०तिरिक्ख०३ धुविगाणं बेवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक्क० अंतो०। संखेजगुणवडिव-हाणी० जह० एग०, उक० पुरकोडिपुधत्तं । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० तिण्णिसम० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ तिण्णिवाड्डि-हाणि-अवडिदं जह.
उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ओघके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इतनी विशेषता है कि अप्रत्याख्यानावरण चारके श्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। पुरुषवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहते है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। तीन आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। तिर्यश्चायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है। वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छास, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर और आदेयकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग पुरुषवेदके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। तिर्यञ्चगति, चार जाति औदारिकशरीर, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार और नीचगोत्रका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ओघके समान है।
५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है
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महाबंध ट्ठिदिबंधाहियारे
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एग०, उक्क० तिष्णिपलिदो० देसू० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिष्णिपलिदो० देसू० पुव्वको डिपुध ० | अपच्चक्खाणा ०४ णसंगभंगो। णवरि अवत्तव्यं जह० अंतो०, उक्क ० पुव्वकोsिyati | सादादिवारस बेवड्डि- हाणि अवट्टि - अवत्त० णिरयभंगो । संखेज्जगुणवड्डि- हाणिजह० एग०, उक्क० पुत्रको डिपुध ० । इत्थिवे० तिण्णिवड्डि-हा० अवडि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिण्णिपलिदो० सू० । पुरिसवे० तिण्णिवड्डि-हाणिअट्टि • सादभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिणिपलि० देसू० । णवुंसकवे ० तिण्णिगदि-चदुजादि-ओरालि० पंचसंठा० ओरालि० अंगो० - छस्संघ० तिण्णिआणु ० -आदाउज्जो०- अप्पसत्थवि०-थावरादि०४- दूभग- दुस्सर- अणादें ०-णीचागो० बेवड्डि-हाणि-अवट्ठि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुन्चकोडी० देसू० | संखें गुणवड्डि- हाणि ० णाणावरणभंगो। चदुष्णं आयुगाणं तिरिक्खोघो । देवगदि ० ४ - पंचिंदि० समचदु० पर०उस्सास- पत्थवि०-तस०४ - सुभग सुस्सर आर्दे ० -उच्चा० तिण्णवड्डि- हाणि-अवडि० सादभंगो | अवत्त • सगभंगो ।
८८६. पंचिदियतिरिक्खअपजत्तगेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि० जह० एग०,
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और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पत्य है । अवक्तव्य बन्धका जन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक कुछकम तीन पल्य है । अप्रत्याख्यानावरण चारका भङ्ग नपुंसक वेदके समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बंधका जघन्य अन्तर अन्तमूहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । साता आदि बारह प्रकृतियों की दो वृद्धि, दो हानि, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग नारकियों के समान है । संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है स्त्रीवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । पुरुषवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । नपुंसकवेद, तीन गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिकङ्गोपांग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यवन्धका जन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर इन सबका कुछ कम एक पूर्वकोटि है । संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका भंग ज्ञानावरणके समान है। चार आयुत्रों का भङ्ग सामान्य तिर्यों के समान है । देवगतिचतुष्क, पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है ।
६. पचेन्द्रियतिर्यच अपर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त । अवस्थितबन्धका
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afgबंधे अंतर
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उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० तिण्णिसमयं । सेसाणं णिरयसादभंगो । एवं सव्वजत्ताणं ।
८८७, मणुस ०३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि संखेज्जगुणवड्डि-हाणि० उक्क० अंतो॰ । खवियाणं असंखेंज्जगुणवड्डि- हाणि अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वको डिपुधत्तं । मणुसअप ० धुवियाणं तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। णवरि अवट्ठि० जह० एग०, उक० बेसम० । सेसाणं सादभंगो ।
८८८. देवसु धुविगाणं णिरयभंगो । थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अणंताणुबंधि०४इत्थि० स० पंचमंठा० पंचसंघ०० अप्पसत्थ० दूभग दुस्सर- अणार्दे० णीचा० तिष्णिवड्डिहाणि अवट्ठि ० जह० एग०, अवत्त ० जह० अंतो०, उक्क० ऍकत्ती साग० देख० । सादादिवारस० गिरयभंगो । पुरिस० समचदु० वज्जरि० - पसत्य० सुभग-सुस्सर- आर्देज्ज १०-उच्चा० तिण्णवड्डि हाणि अवडि० सादभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० ऍक्कत्तीस सा० देसू० | दोआयु० णिरयभंगो । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणुपु० उज्जीवं तिण्णिवड्डि-दाणिअवट्ठि ० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठारस सागरोवमाणि सादि० । मणुसग दि- मणुसाणु तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्टि० सादभंगो | अवत्त० तिरिक्खग दिभंगो । एइंदिय-आदाव थावर० तिष्णिवड्डि-हाणि अवट्टि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०,
जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियों में सातावेदनीयके समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये ।
मनुष्यत्रिक पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । क्षपक प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरपूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । मनुष्य अपर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यखअपर्याप्तोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है ।
देवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भाग, दुस्वर, अनादेव और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। साता आदि बारह प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । पुरुषवेद, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रऋषभनाराच संहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यवन्धका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। दो आयुओं का भङ्ग नारकियों के समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। मनुष्यगति, और मनुष्यत्यानुपूर्वीकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । श्रव'क्तव्यबन्धका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरकी तीन वृद्धि, तीन
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महाबधे द्विदिबंधाहियारे उक० सागरो मादि । पंचिंदि०-ओरालि अंगो-तस० तिष्णिवति हाणि-अवहिः सादभंगो। अवत्त० एइंदियभंगो। तित्थय० धुवभंगो। एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो अंतरं कादन्वं
८८९, एईदिएसु धुवियाणं एकवड्डि-हाणी जह० एग०, उक० अंतो० । अवढि० जह• एग०, उक्क० बेसम० । एवं सव्वएइंदियाणं णादव्वं । णवरि तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु०-णीचा० अवत्त० जह० अंतो०, उक. असंखज्जलोगा। बादरे कम्मद्विदी। पज्जत्ते संचज्जाणि वाससहस्साणि ।. सुहुमे असंखेंज्जा लोगा। मणुसगदिदुग-उच्चागो० एकवाड्डि-हाणि-अवहि० जह० एग०, अवत्त० अह० अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। बादरे कम्महिदी । पज्जत्ते संखेंजाणि वाससहस्साणि । सुहुमे असंखज्जा लोगा । सेसाणं अपज्जत्तमंगो। णवरि दोआयुगं पगदिअंतरं । विगलिंदि० दोआयु० पगदिअंतरं । सेसाणं मणुसअपज्जत्तभंगो।
८६०. पंचिंदिय०२ पंचणा० चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंतरा० बेवड्वि-हाणि-अवढि० जह० एग०. उक० अंतो० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक० पुचकोडिपुधत्तं । असंखज्जगुणवड्डि-हाणि-अप्रत्तव्वं जह० अंतो०, उक० कायहिदी० । णवरि
हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिक श्राजोपाङ्ग और त्रसकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्य बन्धका भङ्ग एकेन्द्रियके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रघबन्धवाली प्रकृतियों के समान है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना अन्तर काल जान लेना चाहिये।
८८६. एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, और एक हानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रियोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उस्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। बादर एकेन्द्रियोंमें कर्मस्थिति प्रमाण है। पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है । सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है। मनुष्यगति द्विक और उच्चगोत्रकी एक वृद्धि , एक हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। बादर एकेन्द्रियोंमें कर्मस्थिति प्रमाण है। पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि दो आयुओंका भङ्ग प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। विकलेन्द्रियोंमें दो आयुओंका भङ्ग प्रकृति बन्धके अन्तरके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है।
८६०. पञ्चेन्द्रियद्विकमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व
कोटि पृथक्त्व प्रमाण है । असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानिऔर अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर 'अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवद्धिका
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वडिबंधे अंतरं
४२७ असंखेज्जगुणवड्ढि० जह० एग० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ तिण्णिवड्डिहाणि-अवट्ठि० जह० एग०, उक. बेछावहिसाग० देसू० । अवत्त० णाणावरणभंगो। सादा जस० चतारिवाड्डि-हाणि-अवढि णाणावरणभंगो । अवत्त० जह० उक० अंतो। णिद्दा-पचला-भय० दुगुं०-तेजा०-कम्मइगादिणव० तिण्णिबड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्तव्वं च णाणावरणभंगो। असादादिदस० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सादावेभंगो। अट्ठक० दोवड्डि-दोहाणि अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी देसू ०।संखेज्जगुणवड्डि-हा०अवत्तव्वं० णाणावरणभंगो। इत्थिवे० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क • बेछावट्ठि० देस०। पुरिस०४वड्डि-हाणि-अवढि णाणावरणभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावट्ठि० सादि० दोहि पुव्वकोडीहि । णवूस-पंचसंठा०पंचसंघ०-अप्पसत्य०-दूभग दुस्सर-अणादे तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावट्टि० सादिरे० तिण्णिपलिदो देसू० । तिण्णिआयु० दोपदा० जह• अंतो०, उक्क० सागरो०सदपुध०। मणुसायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसहस्सा० पुवकोडिपुधत्तं । पज्जत्तगे चदुण्णंआयुगाणं दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० सागरो०सदपु० । णिरयगदि-चदुजादि-णिरयाणु०-आदाव-थावरादि०४ तिण्णिवड्डि-हाणि-अबढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पंचासीदिसागरो०जघन्य अन्तर एक समय है । स्त्यानगृद्धि तीन मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठसागर है। अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीय और यश:कीर्तिकी चार वद्धि, चार हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर और कार्मणशरीरादि नौ प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । असाता आदि दस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि. अवस्थित और अवक्तव्यवन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। आठ कषायोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवक्तव्यवन्धकाभंग ज्ञानावरणके समान है। स्त्रीवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यवन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुंहूते है और इन सवका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। पुरुषवेदकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितबन्धका भंग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर दो पूर्वकोटि अधिक दो छयासठ सागर है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुस्वर और अनादेयकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है । तीन आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है । मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागर है। पर्याप्तकोंमें चारों आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। नरकगति, चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप और स्थावर आदि चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सद। तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु०-उज्जो० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि• जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेवढिसाग०सदं० । मणुसग०-देवग०-वउवि०-वेउवि०अंगो०-बेआणु० तिण्णिवड्डि-हा०-अवढि० जह० एग०, अबत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि०। पंचिंदि०-पर-उस्सास-तस०४ तिण्णिवड्डि-हा०-अबढि णाणावरणभंगो। अवत्त० जह• अंतो०, उक्क. पंचासीदिसाग०सद०। ओरालि०ओरालि० अंगो०-वअरिस० तिण्णिववि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० तिणिपलिदो० सादि० । अवत्त० जह० अंतो०, उक० तेत्तीसं सा० सादि० । आहारदुगं तिण्णिव ड्डिहा० अवढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो, उक्क० कायट्ठिदी० । समचदु०-पसत्य० सुभग-सुस्सर-आर्दै० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० णाणावरणभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावहिसाग० सादि० तिण्णिपलिदो० देसू० । तित्थय० ओघं । णीचा० णदुसगभंगो। उच्चा० तिण्णिवडि-हाणि-अवट्टि० देवगदिभंगो। असंखेंजगुणवड्डि-हाणी० सादभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावहि. सादि० तिणिपलिदो० देसू० । एवं तस-तसपजत्तगे । णवरि सगहिदी भाणिदव्वा ।
८६१. तसअपज्जत्तगेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डिहाणी० जह० एग०, उक० अंतो० । समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर है । तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर
सौ त्रेसठ सागर है। मनुष्यगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकांगोपाङ्ग, और दो आनुपूर्वीकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तरअन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास और सचतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौपचासी सागर है। औदारिकशरीर, औदारिांगोपांग और वनऋषभनाराच संहननकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूते है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है। तीर्थंकर प्रकृतिका भंग ओघके समान है। नीचगोत्रका भंग नपुंसकवेदके समान है। उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग देवगतिके समान है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है। इसी प्रकार त्रस और सपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिये।
११. त्रस अपर्याप्तकोंमें ध्रव बन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य
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वडिवंधे अंतर
४२६ अवढि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि स० । सेसाणं तिरिक्खअपञ्जत्तभंगो।।
८९२. पंचमण-पंचवचि० पंचणा०अट्ठारस० तिण्णिवड्डि-हा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसमयं। असंखेंज्जगुणवड्डि हाणि० जहण्णु० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । पंचदंस० मिच्छ० बारसक०-भय दुगु०-तेजइगादिणवआहारदुग-तित्थयर० तिग्णिवड्वि-हा०-अवढि० अवत्त० णाणावरणभंगो। सादा०पुरिस०-जस०-उच्चा० तिण्णिवडि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असंखेंज्जगुणवड्डि-हा० जह० उक० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । इत्थि०-णवुसहस्स-रदि-अरदि-सोग-चदुगदि-पंचजादि-ओरालि०-वेउन्वि० छस्संठाण-दोअंगो०-छस्संघ०चदुआणु०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तस-थावरादिणवयुगल-अजस०-णीचा० तिण्णिवड्डि-हा०-अवट्टि. जह० एग०, उक० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं। चदुण्णं आयुगाणं दोपदा० णत्थि अंतरं । एवं ओरालि० वेउवि०-आहार० । णवरि ओरालि. काईसु० विसेसो । परियत्तमाणिगाणं अवत्त० जहण्णु० अंतो० ।
८९३. कायजोईसु पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० तिण्णिवड्डि-हा०-अवट्टि. ओघं । असंखज्जगुणवड्वि-हा० जह० उक्क० अंतो०। णवरि वड्डि० जह० एग०। अवत्त० अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल चार समय है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकों के समान है।
८९२. पाँच मनोयोगी और पाँच बचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि अठारह प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर आदि नौ, आहारकहि तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, चारगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, बस और स्थावर आदि नौ युगल, अयशःकीति और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। चार आयुओंके दो पदोंका अन्तर काल नहीं है। इसीप्रकार औदारिक काययोगी, वैक्रियिक काययोगी और आहारककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी जीवोंमें परिवर्तमान प्रकृतियोंके अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है।
८६३. काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ओघके समान है। असंख्यातगुणवृद्धि
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे णत्थि अंतरं। थीणगिद्धितिग-मिच्छ०-बारसक० तिण्णिवड्डि-हा० णाणावरणभंगो । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० चत्तारिसम० | णिद्दा-पचला-भय-दु० ओरालि०-तेजइगादिणव असंखेंज्जभागवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । बेवड्डि-हा० जह. एग०, उक्क० अणंतकालं असंखें । अवत्त० णत्थि अंतरं । साद०-पुरिस०-जस० चत्तारिवड्डि-हा०-अवढि णाणावरणभंगो। अवत्त० जह० उक० अंतो। आसाद०-छण्णोकसाय-पंचजादि-छस्संठा-ओरालियंगो०-छस्संघ०-पर-उस्सा० आदाउज्जो०-दोविहा०. तस-थावरादिणवयुगल-अजस० तिण्णिवड्डि-हाणि णाणावरणभंगो । अवत्त० जह० उक० अंतो०। णिरय-देवायुगस्स दोपदा० णत्थि अंतरं । तिरक्खायु० दोपदा० ज० अंतो०, उक्क० बावीसं वाससहस्सा० सादि०।मणुसायु० दो वि पदा ओघं । मणुसग०-मणुसाणु० ओघं । वेउव्वियछक्क-आहारदुग-तित्थयरं तिण्णि-वड्वि-हाणि-अवडि० जह० एग०, उक० अंतो० अवत्त० णत्थि अंतरं । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-णीचा० संखेजभागवड्डिहाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो०) बेवड्डि हाणि-अवत्त० मणुसगदिभंगो। उच्चा० मणुसगदिभंगो। णवरि असंखज्जगुणवड्डि० जह० एग०, उक० अंतो० । असं
और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर काल एक समय है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। सत्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और बारह कषायकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर और तैजसशरीरादि नौ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवद्धि, असंख्यातभागहानि और अस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। सातावदनीय, पुरुषवद और यश:कातिको चार वद्धि, चार हानि और अवास
ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। असाता वेदनीय, छह नोकषाय, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस और स्थावर आदि नौ युगल और अयशःकीर्तिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । नरकायु और देवायुके दो पदोंका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है। मनुष्यायुके दोनों ही पदोंका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघके समान है। वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत है। दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। उच्चगोत्रका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक
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बिंधे अतरं
खेज्जगुणहा० जह० उक्क० तो ० । एवं सव्वाणं असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी० ।
८६४. ओरालिय मिस्सका० धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हा० जह० एग०, उक्क • अंतो० | अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० तिणि सम० । देवगदि ०४ - तित्थय० तिण्णिव ड्डि-हा० णाणावरणभंगो | अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । दोआयु० दोपदा० अपज्जतभंगो | सेसाणं परियत्तमाणियाणं तिण्णिवड्डि-हाणि अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त • जहण्णु अंतो० ।
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८६५. वेडव्वियमि० वेउब्वियकायजोगिभंगो। णवरि परियत्तमाणियाणं अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । एवं आहारमि० । कम्मइ० सव्वाणं णत्थि अंतरं । अथवा वेउव्वियमि० - ओरालियम ० - कम्मइ० अवत्त० णत्थि अंतरं ।
८९६. इत्थिवे० पंचणा० चदुदंस ० चदुसंज० - पंचत• बेवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक्क० अंतो० | संखेज्जगुणवड्डि-हा० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडियुध । असंखेज्जगुणवड्डि-हा० जह० उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग० उक्क० तिण्णि समयं । थीणगिद्धि०३ मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ तिण्णिवड्डि-हा० अवट्ठि० जह० एग०, उक्क ० पणवण्णं पलिदो० देसू० | अवत० जह० अंतो०, उक्क० पलिदोवमसदपुध० । णिद्दा
समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सब जीवोंके असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका अन्तर काल जानना चाहिये ।
८६४. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । देवगति चार और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । दो आयुत्रोंके दो पदोंका भङ्ग अपर्याप्तकों के समान है । शेष परिवर्तमान प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित वन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर मुहूर्त है।
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८५. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका भङ्ग वैक्रियिककाययोगी जीवों के समान है । इतनी विशेषता है कि परिवर्तमान प्रकृतियों के अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्ते है । इसीप्रकार आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । कार्मणकाययोगी जीवोंमें सब कर्मोंका अन्तर काल नहीं है । अथवा वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी और कार्मकाययोगी जीवों में अवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है ।
८६६. स्त्रीवेदी जीवांमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरपूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित
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महापंधे हिदिबंधाहियारे पचला-भय-दुगुं०-तेजइगादिणव० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि णाणावरणभंगो। अवत्त०णत्थि अंतरं । सादा० जसगि० तिण्णि-वड्डि-हा० णाणावरणभंगो। असंखेंजगुणवड्डि-हा.. अवत्त० जह० उक० अंतो० । अवट्टि० जह० एग०, उक्क अंतो० । असादादिदस० पंचिंदियभंगो। अट्ठकसा० बेवड्डि हा०-अवढि० जह० एग०, उक० पुचकोडी देसू० । संखेज्जगुणहाणी० णाणावरणभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक० पलिदोवमसदपुधतं । इत्थि०-णवुस० तिरिक्खग०-एइंदि०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-तिरिक्खाणु०-आदाउज्जो०अप्पसत्थ०-थावर-दूभग-दुस्सर-अणादें णीचा तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्टि• जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक० पणवण्णं पलिदो० देसू० । णिरयायु० दोपदा० जह अंतो०, उक्क० पुवकोडितिभागं देसू० । तिरिक्ख-मणुसायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क पलिदो० सदपुध० । [देवायु०] दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठावण्णं पलिदो० पुनकोडिपुध० । मणुसगदिपंचगं तिण्णिवड्डि-हाणि अवढि० जह० एग०, उक्क० [तिण्णि] पलिदो० देसू । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क. पणवण्णं पलिदो० देसू० । णवरि ओरालियसरीर० पणवण्णं पलिदो० सादि०। वेउव्वियछ० तिण्णिजादि-मुहुम-अपज्ज०साधार० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवणं
बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। अवक्तव्य बन्धका जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरसौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौ प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ जानवरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। सातावेदनीय और यश:कीर्तिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। असंख्यातगुणवृद्धि, असं. ख्यातगुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असाता आदि दस प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। आठ कषायोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। संख्यातगुणहानिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ.पल्य पृथक्त्व प्रमाण है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन. तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर. दर्भग, दस्वर. अनादेय
और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अबक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। नरकायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्व कोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तरर्मुहूर्त है। और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है। देवायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक अट्ठावन पल्य है । मनुष्यगतिपञ्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एकसमय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीरका साधिक पचपन पल्य है। वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी
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वडिबंधे अंतरं पलिदो० सादि० । पुरिस०-उच्चा० चतारिवाड्डि-हाणि-अवढि णाणावरणभंगो। अवस० जह० अंतो०, उक० पणवण्णं पलिदो० देसू०' । [पंचिंदि-समच०-पसत्थ०-तस०सुभग० सुस्सर०-आदें] तिण्णिवड्डि-हाणि-अवाहि. 'सादभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवणं पलिदो० देस० । आहारदुगं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह०एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० सगहिदी० । पर०-उस्सा०-बादर-पज्जत-पत्ते. तिण्णिवडिव-हाणि-अवढि० सादभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० सादि० । तित्थय० तिण्णिवड्डि-हा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एस०, उक्क० बेसम । अवत्त० णत्थि अंतरं ।। ___८६७. पुरिस० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० चत्तारिवड्डि-हाणि-अवढि० पंचिंदियपज्जत्तभंगो । णवरि अवढि० जह० एग०, उक्क तिण्णि सम । अवत्त० णत्थि अंतरं। सेसाणं सव्वाणं पंचिंदियपज्जत्तभंगो। यो विसेसो तं भणिस्सामो। पुरिसे अवत्त० जह० अंतो०, उक० बेछावहिसाग० सादि० । णिरयायु. दोपदा० जह०अंतो०, उक्क० पुवकोडितिभागं देस० । देवायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। अवक्तव्य न्धका जघन्य अन्तर अन्तहित है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य है। पुरुषवेद और उच्चगोत्रकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, स, सुभग, सुस्वर और आदेयकी तीनवृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर छ कम पचपन पल्य है। आहारकद्विककी तीनवृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थिति प्रमाण है। परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य है। तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। अवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है।
८६७. पुरुपवेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितबन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। अवक्तव्यवन्धका अन्तर काल नहीं है। शेप सब प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके समान है। जो विशेषता है उसे कहते हैं-पुरुषवेदके अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दोछियासठ सागर है। नरकायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है । देवायुके दो
१ मूलप्रतौ देसू० । सेसाणं ओघ । ओरालि.अंगो० तिणि० इति पाठः। २ मूलप्रतौ भवहि. मणुसगदिभंगो इति पाठः ।
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महाबँधे द्विदिबंधाहियारे
साग० सादि० । मणुसगदिपंचगस्स तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्टि ० जह० एम०, उक्क० तिष्णि पलिदो ० सादि० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेतीसं साग० सादि० । समचदु० - पत्थ० - सुभग सुस्सर-आदें० तिण्णिवड्डि- हाणि अवद्वि० सादभंगो । अवत्त० जह० तो ०, उक्क० बेछावट्ठि सा० सादि० तिण्णि पलिदो० देसू० । उच्चा० चत्तारि-हाण - अ० सादभंगो । अवत्त० समचदु०भंगो । एसिं० असंखेज्जगुणहाणि - बंधंतरं कायट्ठी • तेसिं तेतीसं सा० सादि० पुव्वकोडी सादिरे ० ।
०
८६८. स० पंचणा० - चदुदंसणा ० - चदुसंजल० - पंचत० तिण्णवड्डि-हाणी० ओघं । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी० जह० उक० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० | थीण गिद्धि ३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ असंखज्जभागबड्डि-हाणिअट्ठ० जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० दे० । बेवड्डि-हाणि - अवत्त० ओघं । णिद्दापचला - भय - दुगुं ० - तेजइगादिणव० तिण्णिवड्डि-हाणि अवडि० णाणावरण भंगो० । अवत्त ० णत्थि अंतरं । सादावे ० - जसगि० तिष्णिवड्डि-हाणि - अवट्ठि० अत्त० ओघं । असंखेज्ज - गुण-हाणी. ० जह० उक्क० अंतो० । असादादिदस - अडकसा० - तिणिआयु० - वेउव्वियछ० - मणुसगदिदुग० - आहारदुग० ओघं । देवायु० तिरिक्खभंगो | इत्थि० - णवस ०पंचसंठा-पंच संघ० - उज्जो० - अप्पसत्थ- दूभग- दुस्सर - अणादें० असंखेज्जभागवड्डि
पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । मनुष्यगति पञ्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधितेतीस सागर है। समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आयकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य हैं | उच्चगोत्रकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है | अवक्तव्यबन्धका भङ्ग समचतुरस्त्र संस्थान के समान है। जिनके असंख्यात गुणहानिबन्धका अन्तर कार्यस्थिति प्रमाण है, उनके वह पूर्वकोटि अधिक साधिक तेतीस सागर है ।
६. नपुंसक वेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग श्रोघ के समान है । असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ओधके समान है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौ प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है । सातावेदनीय और यशःकीर्तिकी तीन वृद्धि, तीन हानि अवस्थित और अवक्तव्युबन्धका अन्तरकाल के समान है । असंख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असातावेदनीय आदि दस, आठ कषाय, तीन आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगतिद्विक और आहारकद्विकका भङ्ग शोधके समान है । देवायुका भङ्ग तिर्यञ्चों के समान है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच
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वडिबंधे अंतरं
४३५ हाणि-अवद्वि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देस० । वेवड़ि-हाणी. ओघं । अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । पुरि०-समच०-पसत्थ०-सुभग०-सुस्सर०आदें तिण्णिववि-हाणि० सादभं० । अवत्त० जह० अंतो, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-णीचा० असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवढि० इत्थिवेदभंगो। बेवाड्डि-हाणी-अवत्त० ओघं। चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ ऍकववि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । बेवड्डि-हा० ओघं । अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । पंचिंदि०-पर०-उस्सा०-तस०४ तिण्णिवड्डि-हाणिअवढि० सादभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । ओरालि०ओरालि.अंगो०-वज्जरिस० असंखेज्जभागवड्वि-हाणि-अवट्टि. जह० एग०, उक्क० पुष्वकोडी० देसू० । बेवड्डि-हा. ओघं । ओरालि० अवत्त० ओघं। ओरालि अंगो० अवत्त० जह० अंतो०,उक्क० तेत्तीसं० सा० सादि० वज्जरिस० देसू० । तित्थय० तिण्णिवड्डिहाणि-अवढि० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसू०। उच्चा० मणुसगदिभंगो । णवरि असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी० इत्थिभंगो। संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ओघके समान है अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। पुरुषवेद, सगचतुरस्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग आघक समान है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ओघके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । पश्चेन्द्रियजाति, परघात, उच्छास और त्रस चतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वऋषभनाराच संहननकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितबन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ओघके समान है । औदारिक शरीरका भङ्ग ओघके समान है।
औदारिक अाङ्गोपाङ्गके अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । तथा वऋषभनाराच संहननका कुछ कम तेतीस सागर है । तीर्थंकर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्खर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुंहतं है। प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभाग प्रमाण है। उच्चगोत्रका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है।
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महाधे द्विदिबंधाहियारे
८६६. अवगदवे० सव्वपगदीणं वड्डि-हाणी० जह० उक्क० अंतो० । अवट्ठि ० जह० उक्क० अंतो० ० । अवत्त ० णत्थि अंतरं । एवं सुहुमसंपराइ० । णवरि अवडि० जह० उक्क० एग० । अवत्त० णत्थि अंतरं ।
एग०,
०
९००. कोघे पंचणाणावरणादिअट्ठारसण्णं तिण्णिवड्डि-हाणि ०-असंखेज्जगुणवड्डी जह० एग०, उक्क अंतो० । असंखेज्जगुणहाणी' जह० 'उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ तिण्णिवड्डि-हाणि० अवट्टि • णाणावरणभंगो । अवत्त० णत्थि अंतरं । चदुआयु - आहारदुगं मणजीगिभंगो | साणं तिण्णिव हाणि अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । एसिं असंखेज्जगुणवड्डि-हाणि-अवट्ठि ० तेसिं० णाणावरणभंगो | एवं माण- माया लोभाणं । वर माणे को संज • अवत्त० भाणिदव्वं । मायाए दो संज० अवत्त० । लोभे चदुसंज० अवत्त० भाणिदव्वं ।
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६०१. मदि० - सुद० धुविगाणं तिरिक्खोघं । सादादिवारस० - इत्थि० - पुरिस ० तिण्णिवड्डि- हाणि-अवडि० ओघं सादभंगो । अवत्त० जह० उक्त० तो ० । पुंस०पंचसंठा०-छस्संघ०-अप्पसत्थ० - दूभग - दुस्सर - अणादें• असंखेज भागवड्डि-हाणि अवट्ठि ०
८६६. अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यबन्धका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अवस्थितबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय हैं । अवक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है ।
६००. क्रोधकषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि अठारह प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और असंख्यात गुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यबन्धका अन्तरकाल नहीं है । चार आयु और आहारकद्विकका भंग मनोयोगी जीवोंके समान है । शेष प्रकृतियों की तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यबन्धका अन्तरकाल नहीं है । जिनका असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणदान और अवस्थित बन्ध होता है, उनका ज्ञानावरणके समान भङ्ग है । इसी प्रकार मान, माया और लोभ कषायवाले जीवों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानकषायवाले जीवोंमें क्रोध संज्वलनका अवक्तव्य कहना चाहिये । माया कषायवाले जीवों में दो संज्वलनोंका अवक्तव्य कहना चाहिये और लोभ कषायवाले जीवों में चार संज्वलनोंका अवक्तव्य कहना चाहिये ।
६०१. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यखोंके समान है | साता आदि बारह प्रकृतियाँ, स्त्रीवेद और पुरुपवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग श्रोध के अनुसार सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य १ मूलप्रतौ-गुणवद्धिहाणी इति पाठः । २ मूलप्रतौ जह० एग० अवट्टि० इति पाठः ।
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बंधे अंतरं जह० एग०, उक्क० तिणिपलिदो० देसू० । बेवड्डि-हाणी० णाणाव० भंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिष्णि पलिदो० देसू० । चदुआयु - वे उव्त्रियछ० - मणुसगदिदुग- उच्चा० ओघं ।' तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु० असंखैज्जभागवड्ढि - हाणि - अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० ऍक्कत्तीस सा० सादि० । बेवड्डि-हाणी अवत्त० ओघं । चदुजादि - आदाव - थावरादि०४ णव सगभंगो । पंचिंदि० - पर० उस्सा ० -तस०४ णवंसगभंगो । ओरालि०ओरालि०अंगो० ऍकबड्डि-हाणि-अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० तिष्णि पलिदो० दे० । सेसं ओघं । समचदु० - [ पसत्थ० - ] सुभग- सुस्सर-आ० अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिष्णिपलिदो० दे० | सेसं सादभंगो । उज्जो० ऍक्वड्डि-हाणि-अवडि० जह० एग०, उक्क० ऍक्कत्तीस सा० सादि० । बेवड्डि-हाणी० ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क ० ऍक्कत्तीसं सा० सादि? | णीचा० ऍक्कवड्डि-हाणि अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० तिष्णि पलिदो० सू० । बेवड्डि-हाणि अवत्त० ओघं । विभंगे भुजगारभंगो ।
९०२. आभि० - सुद० ओधि० पंचणा० चदुदंस ० चदुसंज० - पुरिस०[० उच्चा० पंचंत० तिण्णवड्डि- हाणि अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असंखेजगुणबड्डी जह० एग०,
और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । दो वृद्धि और दो हानियों का भङ्ग ज्ञानावरण के समान हैं । अवक्तव्य बन्धका जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघके समान है । तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्य बन्धका अन्तर ओघ के समान है । चार जाति आतप और स्थावर आदि चारका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छवास और स चतुष्कका भङ्ग नपुंसकत्रेदके समान है । औदारिकशरीर और औदारिक आङ्गोपाङ्गकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ तीन पल्य है । शेष भङ्ग श्रोघके समान है । समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और अदेयके वक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य हैं । शेष भङ्ग सातावेदनीयके समान है । उद्योतकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ओघ के समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । नीचगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग ओघ के समान है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगार बन्धके समान है।
६०२. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । श्रसंख्यातगुण
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महाबँधे द्विदिबंधाहियारे
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हाणी - अवत्त० जह० श्रंतो ०, उक्क० छावट्ठि० साग० सादि० । सादावे० जसगि० चत्तारिवड्डि- हाणि अव०ि णाणाव • भंगो । अवत्त० जह० उक० अंतो । असादादिदस० सादभंगो | कसा० तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि ० मणुसभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तैंतीसं सा० सादि ० | दोआयु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस सा० सादि० । मणुस - दिपंचगस्स तिण्णिवड्डि-हाणि अवट्ठि० नह० एग०, उक्क० पुत्र कोडी सादि० | अवत्त ० जह० पलिदो ० सादि० । उक० तेत्तीस सा० सादि ० | देवगदि ०४ - आहारदुर्गं तिण्णिवड्डिहाणि अवट्ठि ० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस साग० सादि० । [तेजइगादिवि०तिष्णिव- हाणि - अवद्वि० - अवत्त० णाणावरणभंगो।] तित्थय० ओघं । एवं अधिदं०सम्मादि ० - खड्ग ० | गवरि खड्ग ० ' मणुसायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० छम्मासं० देसू० | देवायु० दोपदा जह० अंतो०, उक्क ० पुव्वकोडितिभागं देसू० । मणुसगदिपंचसतिण्णवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसम० | अवत्त ० णत्थि अंतरं । सेसाणं जम्हि छावट्टि • तम्हि तेत्तीस सा० कादव्वं । ९०३. मणपञ्ज० पंचणा ० चदुदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस०[० - उच्चा० - पंचंत० तिण्णिवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है । सातावेदनीय और यशः कीर्तिकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असाता आदि दस प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । आठ कषायों की तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग मनुष्यों के समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। दो आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । मनुष्यगति पञ्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । देवगति चतुष्क और आहारक द्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर इन सबका साधिक तेतीस सागर है । तैजसशरीर आदि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों की तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अवधि दर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । देवायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है । मनुष्यगति पञ्चककी तीन वृद्धि और तीन हानियों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है । शेष प्रकृतियोंका जहाँ छियासठ सागर अन्तर काल कहा है, वहाँ तेतीस सागर कहना चाहिये ।
६०३. मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्ञलन, पुरुषवेद, १ मूलप्रतौ मणुसाणु० दो - इति पाठः । २ मूलप्रतौ कादव्वं मणुसपजते पंच-इति पाठः ।
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वडिबंधे अंतरं
४३६ वडि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असंखेजगुणवड्डि-हाणि-अवत्त० जह. अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । सादावे०-जस० णाणावरणभंगो। णवरि अवत्त० जह• उक्क० अंतो०। णिद्दा-पचला-भय-दुगुं०-देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा० क०-समचदु०-वेउव्वि०अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४ - सुभगसुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थय० तिण्णिवाड्ढि०-हाणि-अवढि०-जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । असादा०-चदुणोक०-थिराथिरसुभासुभ-अजस तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । देवायु मणुसिभंगो । एवं संजदा० ।
६०४. सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंस०-लोभसंज०-उच्चा०-पंचंत० तिण्णिवड्डिहा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असंखेंजगुणवड्डि हा० जह० उक्क० अंतो० । अवट्ठि. जह० एग०, उक्क० बेसम०। णिद्दा-पचला तिण्णिसंज०-पुरिस०-भय-दुगुं०-देवगदिपंचिंदि०-वेउवि तेजा०-क०-समचदु० वेउवि० अंगो०-वण्ण०४-देवाणु ०-अगु०४ पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थय० तिण्णिवडि-हाणि० जह० एग०, उक० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । णवरि तिण्णिसंज-पुरिस०
उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । सातावेदनीय और यशःकीर्तिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, देवगति, पश्चैन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्करकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहर्त है। प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । असातावेदनीय, चार नोकपाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःकीर्तिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूर्त है। प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। देवायुका भङ्ग मनुष्य नियोंके समान है । इसीप्रकार संयत जीवों के जानना चाहिये ।
६०४. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र, और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहूर्त है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। निद्रा, प्रचला, तीन संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरासंस्थान, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, बस चतुष्वः, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण और तीर्थङ्करकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे असंखेजगुणवडि-हाणी० णाणावर भंगो। सांदावे०-जस० णाणावभंगो। णवरि अवत्त० ज. उक्क० अंतो० । सेसाणं णिद्दादीणं अवत्त० णत्थि अंतरं । असादादिदस-आहारदुगं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० ज० ए०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । परिहारे धुविगाणं सेसाणं च भुजगारभंगो । एवं संजदासंजदे।।
९०५. असंजदे धुविगाणं मदि०भंगो। थीणगिद्धि०३-मिच्छ० अणंताणुबंधि०४इत्थि०-णवुस-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्य-दृभग-दुस्सर-अणार्दै० णqसगभंगो। सादादिवारस मदिभंगो। पुरिस०-समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें. अवत्स० ज० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । सेसाणं सादभंगो। चदुआयु०-वेउब्वियछ०मणुसगदिदुग-उच्चा० ओधं । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-उज्जो०-णीचा० णवूस०भंगो। ओरालि०-ओरालि० अंगो०-वञ्जरिस० ओघं । णवरि वञ्जरि० अवत्त० उक० तेत्तीसं सा० देसू ० । चदुजादिदंडओ पंचिंदियदंडओ णqसगभंगो । तित्थय० णवूस भंगो।
१०६. तिण्णिले० धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक. अंतो० । अवढि० ज० ए०, उ. चत्तारि सम । णिस्य-देवायु० दोपदा० णत्थि अंतरं । तिरिक्खअन्तर्महूर्त है । अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इतनी विशेषता है कि तीनसंज्वलन और पुरुषवेदकी असंख्यातगणवृद्धि और असंख्यातगणहानिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीय और यशःकीर्तिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। शेष निद्रा आदिकके अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। असाता आदि दस और आहारकद्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूर्त है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें ध्वबन्धवाली और शेष प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगारवन्धके समान है। इसी प्रकार संयसासंयत जीवोंके जानना चाहिये।
०५. असंयत जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुभंग, दुस्वर और अनादेयका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। साताआदिक वारह प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। पुरुषवेद, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघ के समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्या
उद्योत और नीचगोत्रकामगनपुंसकवेदी जीवोंके समान है। औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गो पाङ्ग और वज्रऋषभनाराचसंहननका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि वनऋषभनाराच संहननके अवक्तव्य बन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । चार जातिदण्डक
और पञ्चेन्द्रियदण्डकका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। तीर्थङ्कर प्रकतिका भङ्ग नपुसंकवेदके समान है।
१०६. तीन लेश्यावाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है. 'और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर
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वविबंधे अंतरं
४४२ मणुसायु० णिरयभंगो। दोगदि-पंचिंदि०-ओरालि०-ओरालि अंगो०-दोआणु०-पर०. उस्सा०-आदाव-तस-थावरादिचदुयुगलं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एगछ, उक० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । वेउवि०-वेउबि०अंगो० तिण्णिवड्डि-हाणि- अवढि० जह० एग०, उक्क० बावीसं सत्तारस सत्त सागरो० सादि० । अवत्त० किण्णाए जह० सत्तारससा० सादि०, उक्क० बावीसं सा० सादि० । णीलाए जह० सत्त साग० सादि०, उक्क० सत्तारस साग० सादि० । काऊए जह० दसवस्ससहस्सा० सादि०, उक्क० सत्तसाग० सादि० । तित्थय० तिण्णिवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसमयं । सेसाणं णिरयोघं । णवरि णील-काऊए मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० पुरिसभंगो' । काऊए० तित्थय० अवत्त० णत्थि अंतरं ।।
१०७. तेऊए धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणी० जह० एग० उक्क० अंतो० । अवहि. जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अट्ठक०-ओरालि-आहारदुग-तित्थय० धुविगाण भंगो। णवरि अवत्त० णत्थि अंतरं । देवायु० दोपदा णत्थि अंतरं । देवगदि०४ तिण्णिवड्डिहाणि-अवट्टि० जह० एग०, उक० बेसाग० सादि० । अवत्त० णत्थि अंतरं । थीणएक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। नरकायु और देवायुके दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है। तिर्यश्चायु और गनुष्यायुका भङ्ग नारकियोंके समान है। दो गति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, त्रस और स्थावर आदि चार युगलकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक बाईस सागर, साधिक सत्तरह सागर और साधिक सात सागर है। अवक्तव्य बन्धका कृष्णलेश्यामें जघन्य अन्तर साधिक सतरह सागर और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस सागर है । नीललेश्यामें जघन्य अन्तर साधिक सात सागर और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सतरह सागर है। कापोतलेश्यामें जघन्य अन्तर साधिक दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर दो समय है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि नील और कापोत लेश्यामें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवेदके समान है । कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है।
६०७. पीतलेश्यावाले जीवोंमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूर्त है। अवस्थित वन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । पाठ कपाय, औदारिक शरीर, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। देवायुके दो पदोंका अन्तर काल नहीं है। देवगति चतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक
१ मूलप्रतौ-भंगो तित्थय. अवत्त० णत्थि अंतरं । काऊए० तेऊए इति पाठः ।
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे गिद्धि०३दंडओ साददंडओ इत्थिदंडओ पुरिसदंडोतिरिक्ख-मणुसायुग० सोधम्मभंगो। एवं पम्माए वि। णवरि ओरालि०-ओरालि० अंगो० अट्ठक० भंगो । सेसाणं सहस्सारभंगो।
६०८. सुक्काए पंचणा०अट्ठारसण्णं चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवट्टि० जह० एग०, उक० अंतो० । असंखेंगुणहाणी० जह० उक्क० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं। थीणगिद्धि०३ दंडओ णवगेवजवभंगो। णिद्दा-पचला-भय-दु०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-वण्ण०४अगु०४-तस०४-णिमि०-तित्थय० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० जह• एग०, उक० अंतो० । अवत्त० णत्थि अतरं । साद०-जस० णाणावरणभंगो । णवरि अवत्त० जह० उन० अंतो० । असादादिदस-आहारदुगं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सादभंगो। णवारि आहारदुर्ग अवत्त० णत्थि अंतरं । अट्ठकसा०-मणुसग०-ओरालि०-ओरालि. अंगो०-वजरिस०-मणुसाणु० सादभंगो। णवरि अवढि० जह० एग०, उक० वेसम० । श्रवत्त० णत्थि अंतरं। पुरिस०-उच्चा० अवत्त० जह. अंतो०, उक्क० ऍक्कत्तीसं साल देसू० । सेसाणं णाणावरणभंगो। देवगदि०४ तिण्णियड्डि-हाणी-अवढि० जह० एग०,
दो सागर है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिकदण्डक, सातावेदनीयदण्डक, स्त्रीवेदण्डक, पुरुषवेददण्डक, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग सौर्धमकल्पके समान है। इसीप्रकार पद्मलेश्यावाले जीवों के भी जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीर और
औदारिक अङ्गोपाङ्गका भङ्ग आठ कषायके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सहस्रारकल्पके समान है।
६०८. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि अठारह प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ठ अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिकदण्डकका भङ्ग नौ ग्रैवेयिकके समान है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, पश्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तमहर्त है। प्रवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय और यशःकीर्तिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूत है। असातावेदनीय आदि दस और आहारकद्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। इतनी विशेषता कि आहारकद्विकके अवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है। आठ कपाय, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वनऋषभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का भङ्ग सातावेदनीयके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थित बन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। अबक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। पुरुषवद और उच्चगात्रके अवक्तव्य बन्धका जघन्य अनार अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । शेप प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । देवगति चतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर साधिक
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बड्डिबंधे अंतरं उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । अवत्त० जह० अट्ठारस साग० सादि०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । सेसाणं भुजगारभंगो। भवसि० ओघं । अब्भवसि मदिभंगो।
१०६. वेदगे धुविगाणं सादादिवारस० परिहारभंगो। अट्ठक०-दोआयु०-मणुसगदिपंचग-आहारदुर्ग ओधिभंगो। देवगदि०४ तिण्णिवाड्डि-हाणि-अवढि० ओधिभंगो । अवत्त० जह० पलिदो० सादि०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । तित्थय० तेउभंगो।
१०. उवसम० पंचणा०अट्ठारस० चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक० अंतो० । णवरि असंखेंज्जगुणहाणी जह० उक० अंतो० | अवत्त० णत्थि अंतरं। णिद्दा-पचला-भय-दुगुं०-देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा०-०-समचदु०-वेउब्बिय० अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आर्दै-णिमि० तित्थय० णाणावरणभंगो। सादावे०-जस० अवत्त० जह० उक० अंतो० । सेसाणं णाणावरणभंगो। असादा०-अट्ठक०-चदुणोक-आहारदुग-थिरादिपंच सादभंगो। मणुसगदिपंचग० तिण्णिवड्डि-हाणी० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उ० बेसम० । अवत्त० णत्थि अतरं ।
९११. सासणे धुविगाणं वेदगभंगो । सेसाणं मणजोगिभंगो । सम्मामि० धुविगाणं अठारह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। शेप भङ्ग भुजगारके समान है। भव्य जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अभव्य जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है।
१०६. वेदक सम्यदृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और सातावेदनीय आदि बारह प्रकृतियोंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयतोंके समान है। आठ कषाय, दो आयु, मनुष्यगति पश्चक और आहारकद्विकका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। देवगति चतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग पीतलेश्यावाले जीवोंके समान है।
६१०. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि अठारह प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है । निद्रा, प्रचला, भय जुगुप्सा, देवगति, पश्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । सातावेदनीय और यश कीर्ति के अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। आसातावेदनीय, आठ कषाय, चार नोकषाय, आहारकद्विक और स्थिर आदि पाँचका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। मनुष्यगतिपञ्चककी तीन वृद्धि और तीन हानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है।।
६११. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वेदगभंगो । सेसाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० ज० ए०, उ० अंतो० । अवत्त० जह० एग०, उ० अंतो० । मिच्छ० मदि०भंगो । सण्णि० पंचिंदियपजतभंगो।
१२. असण्णीसु धुविगाणं असंखेज्जभागवड्डि-हाणि० जह० एग०, उ० अंतो० । संखेज्जभागवड्डि-हाणि० जह० एग०, उ० अणंतका० । एवं संखेज्जगुणवड्डि-हाणि । णवरि जह० खुद्दा० समयू० । एसिं संखेज्जगुणवड्डि-हाणि० अत्थि तेसिं सव्वेसि पि एवं चेव । अवढि० जह० एग०, उ० बे-तिण्णि सम । चदुआयु०-बउब्वियछ०-मणुसग०. मणुसाणु०-उच्चा० तिरिक्खोघं । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-णीचा० असंखेंजभागवड्डिहाणि-अवट्ठि० जह० एग०, उ० अंतो० । संखेंजभागवड्डि-हाणि० णाणावरणभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उ० असंखेंजा लोगा। सेसाणं असंखेंजभागवड्डि-हाणि-अवट्ठि० जह० एग०, उ० अंतो० । संखेंजभागवडि-हाणी० णाणावरणभंगो। अवत्त० जह० उ० अंतो० ।
१३. अहारा० ओघं । णवरि यम्हि अणंतका० तम्हि अगुल० असंखेंज. कादयो । सेसं ओघ । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं अंतरं समत्तं ।। समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनायोगी जीवोंक समान है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवाम ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य अन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत है। मिथ्याष्ट्रि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । संज्ञी जीवोंमें पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है।
६१२. असंज्ञी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। संख्यात भागवृद्धि,
और संख्यातभागहानिका जयन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। इसी प्रकार संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका अन्तर काल जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहण प्रमाण है। जिनकी संख्यातगुणवृद्धि
और संख्यातगुणहानि होती है, उन सबके भी इसी प्रकार जानना चाहिये। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो-तीन समय है। चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग सामन्य तिर्यञ्चोंके समान है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
१३. आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि जहाँ अनन्तकाल कहा है, वहाँ अङ्गालका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण अन्तर कहना चाहिये । शेष भङ्ग ओवके समान है। अनाहारक जीवोंका भङ्ग कामणकाययोगी जीवों के समान है। इसप्रकार अन्तर काल समाप्त हुआ।
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बंधे णाणाजीवेहिभंगविचओ णाणाजीवेहि भंगविचओ
१४. णाणाजीवेहिभंगविचयाणुगमेण दुवि० - ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०णवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक० - भय० - दुगुं०-ओरालि० तेजा० क० वण्ण०४ - अगु० -उप०णिमि०-पंचंत० असंर्खेज्जभागवड्डि हाणि अवडि० बं० णियमा अत्थि । सेसाणि पदाणि भणिजाणि । तिणिआयु० पदा० भयणिञ्जाणि । वेउन्वियछ० - आहार दुग- तित्थय ० अवडि० णियमा अत्थि । सेसपदाणि भयणिजाणि । सेसाणं असंखेज भागवड्डि-हाणिअवट्ठि●० - अवत्त० णियमा अत्थि । सेसपदाणि भयणिञ्जाणि । एवं ओघभंगो कायजोगिओरालि० - ओरालि०मि० कम्मइ० णवुंस० कोधादि ० ४ - -मदि० - सुद० असंज ० - अचक्खुदं०तिष्णिले ० - भवसि ० - अब्भवसि० - मिच्छा० आहार० - अणाहारग त्ति । णवरि ओरालियमि०कम्मइ० - अणाहार० मिच्छ० अवत्त० देवग दिपंचग० अवडि० भयणिज्जा | सेसाणं अवट्ठि ० अवत्त० णियमा अत्थि ।
९१५. तिरिक्खे ओघं । मणुसअपजत्त० - ० - वेउब्वियमि०- ० - आहार० - आहारमि०अवगदवे० - सुहुमसंप०० - उवसम० - सासण० - सम्मामि० सव्वपदा भयणिज्जा । एइंदियवणष्कदि-नियोद- बादरपजत्तापञ्ज ०- पुढवि० - आउ० तेउ० - वाउ ० - सव्वसुहुमबा दर पुढ विआउ० तेउ०- वाउ०- बादरवणफदिपत्तेय० तेसिं अपज० सव्वपदा णियमा अत्थि ।
O
४४५
नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय
६१४. नाना जीवों की अपेक्षा भङ्गविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। तीन आयुओं के पद भजनीय हैं। वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृति अवस्थित पदके बन्धक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। शेष प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय हैं। इसी प्रकार के समान काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, आहारक और अनाहारक जीवों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में मिध्यात्वके अवक्तव्य पदके और देवगति पञ्चकके अवस्थित पदके बन्धक जीव भजनीय हैं। शेष प्रकृतियों के अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव नियमसे हैं ।
६१५. तिर्यञ्चोंमें ओघ के समान भङ्ग है । मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सब पद भजनीय हैं। एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, निगोद और इनके बादर पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अभिकायिक, वायुकायिक, सबसूक्ष्म, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक, बादर
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महाबंधे डिदिबंधाहियारे सेसाणं णिरयादि याव सण्णि त्ति असंखेंज-संखेजरासीणं आयुगवजाणं अवढि० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । आयु. सव्वपदा भयणिज्जा ।
एवं भंगविचयं समत्तं
भागाभागो ६१६. भागाभागाणु० दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा० चदुदंस०-चदुसंज०पंचंत. असंखेंजभागवड्डि-हाणिबंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? असखेंज भागो। तिण्णिवड्डि-हाणि-अवत्त०बंध. सव्वजी० अणंतभा० । अवढि० सव्वजी० केव० १ असंखे०भा० । पंचदंसणा०-मिच्छ०-बारसक०-भय-दु०-ओरालि०-तेजइगादिणव० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० णाणावरणभंगो। सादावे० पुरिस०-जसगि०-उच्चा० असंखजभागवड्डि-हाणि-अवत्त० सव्वजी० केव० १ असंखेजदिभा० । तिण्णिवड्डि-हाणी० सव्व० केव० १ अणंतभाग० । अवढि० सव्व० केव० १ असंखेजभा० । असादा०-इत्थि०. णवूस०-चदुणोक०-दोगदि-पंचजादि०-छस्संठा०-ओरालि अंगो०-छस्संघ० दोआणु-पर०. उस्सा०-अदाउञ्जो०-दोविहा०-तसथावरालिणवयुगल-अजस०-णीचा० सादभंगो। चदु
वनस्पतिकायिक, प्रत्येकशरीर और इनके अपर्याप्त जीवोंमें सब. पदवाले जीव नियमसे हैं। नरकगतिसे लेकर संज्ञीतक शेष सब असंख्यात और संख्यात राशिवाली मार्गणाओंमें आयुकर्मको छोड़कर अवस्थित पदवाले जीव नियमसे हैं। शेष पदवाले जीव भजनीय हैं। आयुकर्मके सब पदवाले जीव भजनीय हैं।
इस प्रकार भङ्गविचय समाप्त हुआ।
भागाभाग ६१६. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सब जीवोंके अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। अवस्थितपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर और तैजसशरीर
आदि नौ प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानाधरणके समान है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। तीन वृद्धि और तीन हानियोंके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। अवस्थितपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं । असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार नोकषाय, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस और स्थावर आदि नौ युगल, अयशा
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वड्विबंधे भागाभागो
४४७ आयु० अवत्त० सव्व० केव० १ असंखेजदिभागो । असंखेजदिभागहाणी सव्व० केव० ? असंखजा भागा । वेउव्वियछ०-तित्थय तिण्णिवड्डि-हाणि अवत्त० सव्व० केव० ? असंखेंअदिभागो। अवढि० सव्व० केव० १ असंखेजा भागा। आहारदुर्ग तिण्णिवडिहा. अवत्त० सव्व० केव० १ संखेजभागो। अवढि० सव्व० केव० ? संखेजा भागा। एवं तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालि०-ओरालियमि०-णवुस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०असंज०-अचक्खुदं०-तिण्णिले०-भवसि० अब्भवसि०-मिच्छा०-आहारग त्ति एदेसि ओघेण साधेदूण अप्पप्पणो पगदी णादण कादव्वं । एसिं असंखजजीविगा तेसिं ओघे देवगदिभंगो । ए संखेजजीविगा ते आहारसरीरभंगो। ए अणंतजीविगा ते असादभंगो। णवरि एइंदिय-वणप्फादि-णियोदाणं धुविगाणं असंखे० भागवड्डि-हाणी केव० ? असंखेजदिभागो। अवढि० असंखेजा भागा। सेसाणं एगव ड्डि-हाणि-अवत्त० सब० के०? असंखञ्जदिभागो । अवढि० सव्व० केव० ? असंखेजा भागा।
६१७. कम्मइग० परियत्तमणियाणि अवत्त० सव्व० केव० ? असंखेज्जदिभागो । अवट्टि० सव्व० केव० १ असंखज्जा भागा। एवं अणाहारा० । कीर्ति और नीचगोत्रका भंग सातावेदनीयक समान है। चार आयुओंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। वैक्रियिक छह
और तीर्थंकर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवस्थितपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । आहारकद्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थितपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यात बहभाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारं कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुःदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक इनके ओघसे साधकर अपनी अपनी प्रकृतियोंको जानकर भागाभाग कहना चाहिये । जिन मार्गणाओंका प्रमाण असंख्यात है, उनमें ओघके अनुसार देवगतिके अनुसार भंग जानना चाहिये । तथा जिन मार्गणाओंका प्रमाण संख्यात है उनका ओघके अनुसार आहारक शरीरके समान भंग जानना चाहिये । और जिन मार्गणाओंका प्रमाण अनन्त है उनका असातावेदनीयके समान भंग जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिक बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यात बह भाग प्रमाण हैं। शेष प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंक कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अवस्थितपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण है ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं।
६१७. कार्मणकाययोगीजीवोंमें परिवर्तमान प्रकृतियों के प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातघे भाग प्रमाण हैं । अवस्थितपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
६१८. अवगदवे० पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० - पंचं तरा० संखेज्जभागवड्डि-हाणी संखज्जगुणवड्डि हाणि अवत्त० सव्व० के० १ संखेज्जदिभागो । अवट्ठि ० सव्वजी ० केव० ९ संखेज्जा भागा । सादावे० जसगि० उच्चा० तिण्णिवड्डि-हाणि अवत० संखेज्जदिभागो । अवट्टि • संखेज्जा भागा। सुहुमसंप० सव्वाणं संखज्जभागवड्डि-हाणी संख ज्जदिभागो । अवडि० संखेज्जा भागा ।
एवं भागाभागं समत्तं परिमाणं
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१६. परिमाणाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० | ओघे० पंचणा० चदुदंसणा०चदुभंज ०-पंचत० असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवट्ठि० केवडिया ? अनंता । बेवड्डि-हाणी केव० १ असंखेज्जा । असंखेज्जगुणवड्डि हाणि अवत्त० केव० ९ संखज्जा । श्रीणगिद्धि०३मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ - अपचक्खाणा०४ - ओरालिय० णाणाव० भंगो। णवरि अवत्त ० असंखेज्जा । णिद्दा - पचला-पच्चक्खाणा०४ - भय ०- - दुर्गु० - तेजा० क० वण्ण ०४ - अगु० -उप०णिमि० असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवडि० अणंता । बेवड्डि- हाणि केव० १ असंखज्जा अवत्त संखेज्जा । तिणिआयु० दोपदा० असंखेज्जा । तिरिक्खायु० दोषदा अनंता ।
६१८. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यात गुणहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थित पदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । सातावेदनीय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थितपदके बन्धक जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी संख्यात भागवृद्धि और संख्गात भागहानिके बन्धक जीव संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थितपदके बन्धक जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ । परिमाण
१६. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । दो वृद्धि और दो हानियों के बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, अप्रत्याख्यानावरण चार और औदारिक शरीरका भंग ज्ञानावरणके समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यात हैं । निद्रा, प्रचला, प्रत्याख्यानावरण चार, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, उपघात और निर्माणकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्त हैं । दो वृद्धि और दो हानि पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। तीन
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वडिवंधे परिमाणं
४४६ वेउब्धियछकं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० केव० १ असंखज्जा। आहारदुर्ग तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० केव० १ संखेजा। तित्थय तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० असंखजा । अवत्त० संखेंजा । सेसाणं असंखेजभागवड्डि-हाणि-अवढि० केव० १ अणंता। सेसपदा केव० १ असंखेजा। एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालि०-ओरालियमि०–णवुस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खुदं०-तिण्णिले०-भवसि०अब्भवसि०-मिच्छादि०-असण्णि-आहारग त्ति । णवरि ओरालियमि० देवगदिपंचग० तिण्णिवड्डि-हा०-अवट्ठि• केव० ? संखेजा । सेसाणं पि किंचि विसेसो णादव्यो ।
६२०. णिरएसु मणुसायु० दोपदा तित्थय० अवत्त० संखेज्जा। सेसाणं सव्वपदा असंखेज्जा । एवं सव्वणेरइय-देवाण वेउवि० । णवरि सव्वढे संखेजा।
६२१. सव्वपंचिंदियतिरिक्ख० सबपगदीणं सव्वपदा असंखेंजा । एवं मणुसअपज्जत्त-सव्वविगलिंदि०-सव्वपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेपंचिंदिय-तसअपजत्त-वेउव्वियमि०-विभंग ।
६२२. मणुसेसु पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-तेजा०क०आयुओंके दो पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। तिर्यश्चायुके दो पदोंके बन्धक जीव अनन्त हैं। वैक्रियिक छहकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। आहारकद्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तीर्थंकरकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यात हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदाकि काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदशनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और आहारक जीवोके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिपश्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके वन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । शेषमें भी कुछ विशेषता जाननी चाहिये।
२०. नारकियोंमें मनुष्यायुके दो पदोंके और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, देव, और वैक्रियिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं।
२१. सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, सब पृथवी कायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, वादर वनस्पति कायिक प्रत्येकशरीर, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और विभङ्गज्ञानी जीवोंमें जानना चाहिये।
२२. मनुष्यों में पाँच ज्ञानावरण नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलवु , उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी तीन
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे वण्ण०४-अगु०-उप-णिमि०-पंचंत. तिण्णिवडि-हाणि-अवद्भिः केव० १ असंखेंजा। सेसपदा संखेंज्जा । दोआयु०-वेउब्धियछ०-आहारदुग-तित्थय० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवडि. अवत्त० संखेंज्जा । सेसाणं सव्वपदा असंखेंज्जा। णवरि साद०-जस०-उच्चा० असंखेंजगुणववि-हाणी केव० ? संखेंज्जा। मणुसपज्ज-मणुसिणीसु सव्वपदा संखेजा। एवं एस भंगो आहार-आहारमि०-अवगदवे०-मणपज्ज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहम।
२३. सव्वएइंदिय-वणप्फदि-णियोदेसु मणुसायुगस्स दोपदा असंखेंज्जा। सेसाणं सव्वपदा अणंता।
६२४. पंचिंदिय-तस०२ पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज. पंचंत. असंखेंजगुणवड्डिहाणी-अवत्त. केव० ? संखेज्जा। सेसपदा असंखेजा। णिद्दा-पचला-भय-दु.-पच्चक्खाणा०४-तेजइगादिणव-तित्थय० अवत्त० केव० ? संखेंज्जा । सेसपदा असंखेंज्जा । आहारदुर्ग ओघ । सेसाणं सवपगदीणं सवपदा केव० ? असंखेंज्जा। एवं पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खुदं०-सण्णि त्ति । णवरि इत्थि. तित्थय० सव्वपदा संखेज्जा। __ ९२५. कम्मइग०-अणाहार० देवगदिपंचगस्स अवट्ठि० केवडिया ? संखेज्जा। सेसाणि अवढि०-अवत्त० केव० १ अणंता । मिच्छत्त० अवत्त० असंखेजा। वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव कितने हैं ?. असंख्यात हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं। दो आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित, और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, यश कीर्ति और उच्चगोत्रकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार यह भङ्ग आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंके जानना चाहिये।
६२३. सब एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें मनुष्यायुके दो पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव अनन्त हैं।
२४. पञ्चन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं । निद्रा, प्रचला जुगुप्सा, प्रत्याख्यानावरण चार, तैजसशरीरादि नौ और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं । आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुःदर्शनी और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं।
२५. कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगति पञ्चकके अवस्थित पदके बन्धक व कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव असंख्यात हैं।
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बंधे परिमाणं
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Q
९२६. आभि० - सुद०-ओधि० पंचणा० चदुदंस ० चदुसंज० - पुरिस ०-उच्चा०- - पंचंत० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्टि० असंखेज्जा । असंखेज्जगुणवड्डि- हाणि अवत्त ० के ० १ संखेजा । णिद्दा-पचला-पच्चक्खाणा०४-भय-दु० - देवर्गादि - पंचिंदि० - वेउब्धि ० - तेजा ० क ०-समचदु०वेउव्वि ० अंगो०- ० - वण्ण ०४ - देवाणु ० - अगु०४ - पसत्थ० -तस०४ - सुभग- सुस्सर - आदें ०णिमि० - तित्थय० तिण्णिवड्डि-हाणि अवडि० असंखज्जा । अवत्त० संखेज्जा | सादावे०जस० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि ० -अवत्त० असंखेज्जा । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी संखेजा । असादा ० - अपच्चक्खाणा ०४ - चदुणोक० मणुसग ० - ओरालि ०-ओरालि० अंगो० वज्जरिस०मसाणु ० - थिराथिर - सुभासुभ-अजस० तिण्णि-वडिहाणि अवडि०६० - अवत्त० असंखेज्जा । मणुसा० दोपदा आहारदुगं सव्वपदा संखेज्जा । देवायु० दोपदा असंखेज्जा । एवं अधिदंस० - सम्मादि० । संजदासंजदे तित्थय० सव्वपदा संखेज्जा | सेसा असंखेजा ।
६२७. ऊ पच्चक्खाणा ०४ - देवगदि - तित्थय० अवत्त० संखेज्जा | सेसा असंखेज्जा | मणुसायु ० दोपदा० असंखेज्जा । आहारदुगं ओघं । सेसाणं सव्वपदा असं1 खज्जा । एवं पम्मा वि । सुक्काए वि असादवे० - थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अट्ठक० - छण्णोक० - छस्संठा०-छस्संघ ० दोविहा० - थिरादिपंचयुगल - अजस०-० -णीचा० तिष्णिवड्डि
२६. आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनवरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, उपनगोत्र और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यात हैं । असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। निद्रा, प्रचला, प्रत्याख्यानावरण चार, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुवर, देय, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृति की तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यात हैं । अवक्तव्य पदके बन्धक जीव संख्यात हैं। सातावेदनीय और यशःकीर्तिकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव असंख्यात हैं । संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यात हैं । असातावेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण चार, चार नोकषाय, मनुष्यगति, श्रदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रवृषभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःकीर्तिकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित, और वक्तव्य पदके बन्धक जीव असंख्यात हैं । मनुष्यायुके दो पदों और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं । देवायुके दो पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं । इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । संयतासंयत जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं ।
६२७. पीत लेश्यावाले जीवोंमें प्रत्याख्यानावरण चार, देवगति और तीर्थङ्कर प्रकृति के अवक्तव्य पदके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं । मनुष्यायुके दोनों ही पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार पालेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिये । शुक्लेश्यावाले जीवों में असातावेदनीय, स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व आठ कषाय, छह नो कषाय, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, स्थिर आदि पाँच युगल, छायश: कीर्ति, और नीच
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे हाणि-अवट्टि०-अवत्त० असंखज्जा। सादावे. जसगि०-उच्चा० ओधिभंगो । दोआय०आहारदुग० मणुसिभंगो। सेसाणं असंखज्जगुणवड्डि-हाणि-अवत्त० संखज्जा । सेसपदा असंखेज्जा।
६२८. खइग० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज-पुरिस-उच्चा०-पंचंत-सादादिबारसओधिभंगो । दोआयु०-आहारदुगं सव्वपदा संखेंज्जा । सेसाणं अवत्त० संखज्जा । सेसपदा असं. खेज्जा । वेदगे सादादिवारस-अपञ्चक्खाणा०४-मणुसगदिपंचग० तिण्णिवड्डि हाणि-अवढि०. अवत्त० असंखेज्जा । सेसाणं अवत्त० संखेज्जा । सेसाणं सव्वपदा असंखेज्जा । उवसम० पंचणा चदुदंस-चदुसंज-पुरिस-उच्चा० ओधिभंगो। सादावे० -जसगि० असंखज्जगुणवड्डिहाणी-संखेज्जा । सेसं असंखेज्जा । असादादिदस०-अपच्चक्खाणा०४ सव्वपदा असंखेज्जा। आहारदुग-तित्थय० सव्वपदा संखेज्जा । सेसाणं पगदीणं अवत्त० संखेंज्जा । सेसं० असंखेज्जा। सासणे मणुसायु० दोपदा संखेज्जा। सेसाणं सव्वेसि सव्वपदा असंखेज्जा । सम्मामि० सव्वेसि सव्वपदा असंखेज्जा।
____ एवं परिमाणं समत्तं।
गोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव असांख्यात हैं। सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। दो आयु और आहारकद्विकका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है। शेष प्रकृतियोकी असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं।
२८. क्षायिक संम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र पाँच अन्तराय और साता आदिक पाँच प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । दो आयु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें साता आदिक बारह, अप्रत्याख्यानावरण चार और मनुष्यगति पञ्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पुरुषवेद और उच्चगोत्रका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। सातावेदनीय और यशःकीर्तिकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। असातावेदनीय आदि दस और अप्रत्याख्यानावरण चारके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मनुष्यायुके दो पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं।
इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ।
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बंधे खेत्तं
खतं
२९. खेत्ताणुगमेण दुवि० - प्रोघे ० आदे० । ओघे० पंचणा० चदुदंसणा० चदुसंजपंचत० असंखेज्ज-भागवड्डि- हाणि अवट्ठि० केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । सेसपदा लोगस्स असंखज्जदिभागे । पंचदंस०-मिच्छ० बारसक०-भय-दुर्गु० - तेजइ गादिणव ०णाणावरणभंगो । सादावे ० - पुरिस०० जस० उच्चा० असंखेज्जभागवड्डि- हाणि अवि ९०-अवत्त० सव्वलोगे । सेसपदा लोगस्स असंखज्जदिभागे । तिण्णिआयु० - बेउब्वियछ० - आहारदुग- तित्थय ० सव्वपदा लोगस्स असंखे । तिरिक्खायु० दोपदा केवडि खेत्ते : सव्वलोगे । साणं असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवट्ठि ० - अवत्त० सव्वलोगे । दोवड्डि-हाणी लोगस्स असंखें | एवं ओघभंगो तिरिक्खोघो कायजोगि ओरालियका० ओरालियमि० णवुंस० कोधादि ०४मदि० सुद० - असं ० . अचक्खुदं ० - तिण्णिले० भवसि ० अब्भवसि ० - मिच्छा० - असणि आहारंगत्ति । तं पित्तं ओघेण साधेदव्वं ।
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३०. एइंदिय- सुहुमइंदिय पज्जत्तापज्जत्ता पुढवि०-२ ० आउ० तेउ० - वाउ० तेसिं सुहुम-पज्जत - अपज्जत्त-वणप्फदि- णियोद० तेसिं च सुहुम पज्जत्तापज्जत्ताणं मणुसायु ० दोपदा लोगस्स असंखे । सेसाणं सव्वपगदीणं सव्वपदा सव्वलोगे । सव्वबाद रेइंदिए
क्षेत्र
२६. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैं -आंघ और आदेश । श्रघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । शेष पदों बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीरादि नौ प्रकृतियों का भंग ज्ञानावरणके समान है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीति और उच्चगोत्रकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका सव लोक क्षेत्र है । शेष पदोंके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है । तीन आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिके सब पदोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र हैं । तिर्यवायु के दो पदोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। शेप प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और वक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है । इसी प्रकार ओोधके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और आहारक जीवों के जानना चाहिये । यह क्षेत्र भी ओघ के समान साध लेना चाहिये ।
६३०. एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, उनके पर्याप्त और अपर्याप्त पृथिवीकायिक, जलकायिक, कायिक, वायुकायिक तथा इनके सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद तथा इनके सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें मनुष्यायुके दो पदोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंका क्षेत्र सब लोक है । सब बादर एकेन्द्रिय जीवोंमें
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महाबंधे विदिबंधाहियारे धुविगाणं असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवट्ठि• सबलो। सादादिदस० एकवड्डि-हाणिअवढि०-अवत्त० सव्वलो०। इत्थि०-पुरिस०-चदुजादि-पंचसंठा-ओरालि०अंगो० छस्संघ०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तस-बादर-सुभग-दोसर० आदेज-जसगि० ऍकवाड्विहाणि-अवढि०-अवत्त० केवडि खेत्ते ? लोग० संखेंज्ज०। णवुस०-एइंदि०-हुंड०-पर०उस्सा-०थावर-सुहम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तय०-साधार०-भग०-अणादें-अजस० एकववि-हाणि-अवढि० सव्वलो० । अवत्त० लोग० संखज्ज । तिरिक्खायु० दोपदा लोग० संखेज्ज । मणुसायु० दोपदा ओघं । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-णीचा० ऍकवाड्विहाणि-अवढि०-अयत्त० लोग० असंखें । मणुसगइदुग०-उच्चा० ऍक्वाड्डि-हाणि-अवढि०अवत्त० लो० असंखः । एवं बादरवाउ० बादरवाउ० अपज्ज० । णवरि तिरिक्खगइतिगं धुवं कादव्वं ।
९३१. बादरपुढवि०-आउ०. तेउ० तेसिं च अपज्ज. धुविगाणं एकवड्डि-हाणिअवढि० सादादिदसणं एकवड्डि हाणि अवट्ठि० अवत्त० सव्वलो० । णवूस०-तिरिक्खग.. एइंदि० हुंड०-तिरिक्खाणु०-पर०-उस्सा०-थावर-सुहुम-पज्जत्तापज्ज० पत्तेय०-साधार०
भग० अणादें-अजस०-णीचा० एकवड्डि-हाणि-अवढि० सव्वलो० । अवस० लो. ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। साता आदि दस प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार जाति पाँच संस्थान औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, बस, बादर, सुभग, दो स्वर, आदेय और यश:कीर्तिकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, परघात, उच्छ्रास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय
और अयशःकीर्तिकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। तिर्यञ्चायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंका लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। मनुष्यायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंका ओघके समान क्षेत्र है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है । मनुष्यगतिद्विक, और उच्चगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार बादर वायुकायिक और बादर वायुकायिक
पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चगति त्रिकको ध्रव करना चाहिये।
३१. बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर अग्निकायिक तथा इनके अपर्याप्तक जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका तथा साता आदि दस प्रकृतियों की एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात उच्छास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । अवक्तव्य
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बिंधे फोस असंखे । सेसाणं सव्वपगदीणं सव्वपवदा लो० असंखे । एवं बादरवणप्फदि णियोदपज्जत्त-अपज्जत्त बादरवणप्फदिपत्तेय० तेसिं अपज्जत्त० ।
९३२. कम्मइ० अणाहारगेसु देवगइपंचगस्स सव्वपदा लो असं० । सेसाणं सम्यपगदीणं सव्वपदा सव्वलो० । सेसाणं णिरयादि याव सणि ति संखेज्ज- असंखज्जविगाणं सवा दीणं सव्वपदा लोगस्स असंखेज्ज० । एवं खेत्तं समत्तं । फोसणं
३३. फोससाणुगमेण दुवि० ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा० चदुदंसणा चदुसंज पंचंत० असंखज्जभागवड्डि-हाणि अवडि० बंधगेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं । सव्वलो ० । बेवड्ड-हाणि० लोग० असं अट्ठचो० सव्वलोगो वा । असंखेजगुणवड्डि-हाणि-अवत्त ० लो० असंखे । थीणगिद्धि ०३ - अनंताणुबंधि०४ अवत्त० अagar स० । सेसपदा णाणावरणभंगो | णिद्दा- पचला-पच्चक्खाणा ०४ - मय० - दु० तेजइगादिणव० अवत्त० लोग० असंखेज्ज० ० | सेसपदा णाणावरणभंगो । सादावे० अवत्त० सव्वलो ० । सेसपदा णाणा
0.
पदके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है । शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है । इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिक, निगोद और इनके पर्याप्त, अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और इनके अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये ।
३२. कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगति पञ्चकके सब पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । शेष नरकगति से लेकर संज्ञी मार्गणातक संख्यात और असंख्यात जीव राशिवाली मार्गणाओं में सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।
इसप्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ । स्पर्शन
३३. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघ पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भाग हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवेंभाग प्रमाण, कुछ काम आठबटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धी चारके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुंछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरके समान है । निद्रा, प्रचला, प्रत्याख्यानावरण चार, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीरादि नौ प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । सातावेदनीयके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे वरणभंगो। असादादिदस० अवत्त० सव्वलो० । सेसं णाणावरणभंगो। मिच्छ० अवत्त० अट्ठ-बारह ० । सेसं णाणावरणभंगो । अपच्चक्खाणा०४ अवत्त छच्चोंद्द० । सेसाणं णाणावरणभंगो। इत्थिवे०-पंचिंदि० पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्सं०-दोविहा०-तस-सुभगदोसर-आदेंज असंखेज्जभागवड्डि-हाणि अवढि०-अवत्त० सव्वलो० । दोवड्डि-हाणी०लो. असंख० अट्ठ-बारहों । पुरिसवे० दोवाड्डि-हाणी इत्थिवेदभंगो। सेसपदा सादभंगो। णqस०-तिरिक्खग०-एइंदि०-हुंड-तिरिक्खाणु०-पर-उस्सा०-थावर-पज्जत्त-पत्ते दूभ०अणादें'-णीचा० ऍक्कड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सव्वलो० । दोवड्डि-हाणि अट्टचोद्द० सव्वलो० । णिरय-देवायु० दोपदा खत्तक । तिरिक्खायु० दोपदा सव्वलो० । मणुसायु. दोपदा अट्ठचौद० सव्वलो० । णिरय-देवगदि-दोआणु तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० छच्चोद्द० । अवत्त० खेत । मणुसग०-मणुसाणु०-आदाव० ऍकवाड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सबलो० । दोवड्डि-हाणि०-अट्ठोंद० । बेइंदि०-तेइंदि०-चदुरिंदि० दोवड्डि-हा. लोग०
सब लोक क्षेत्रका स्पर्शनकिया है। शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। असातावेदनीय आदि दस प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्गज्ञानावरणक समान है। मिथ्यात्वक अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोन कुछ कम आठबटेचौदह राजू और कुछ कम बारहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अप्रत्याख्यानावरण चारके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छःवटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। स्त्रीवेद, पञ्चेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठबटे चौदह राज और कुछ कम बारहबटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदकी दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। शेष पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। नपुसंकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, स्थावर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग अनादेय और नीचगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है : नरकायु और देवायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान भी निर्यज्ञायके दो पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक है। मनुष्यायके दो पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठबटे चौदह राजू और सब लोक है। नरकगति, देवगति और दो
आनुपूर्वी की तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छहबटे चौदह राजू है । अवक्तव्य पदके वन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मनुष्यगति, मनुप्यगत्यानुपूर्वी, और आतपकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक है। दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठबटे चौदह राजू है। द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी दो वृद्धि
, मूलप्रतौ अणादे. अजस० णीचा० इति पाठः ।
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वहिबंधे फोसणं असं० । सेसं णाणावरणभंगो। वेउवि०-वेउवि०अंगोवंग. सव्वपदा केव० फो० ? लो० असं०भा० बारहचोंड्स० देसू० । अवत्त० खेतं । ओरालि० अवत्त० बारह । सेसपदा तिरिक्खगदिभंगो। आहारदुगं खेत्तं । उजो०-बादर०-जस. दोववि-हा० अट्ठ-तेरह० । सेसं सादभंगो। सुहुम-अपज०-साधार० दोवड्डि-हा० लो० असंखेंज० सबलो० । सेसं तिरिक्खगदिभंगो। तित्यय. तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि. अट्टचों। अवत्त० खेत्त० । उच्चा० असंखजभागवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सबलो० । बेवाड्डिहाणि० अट्टचोद्द० । असंखजगुणवड्डि-हाणि० खेत्तभंगो। एवं ओघभंगो कायजोगिकोधादि०४-अचक्खुदं भवसि०-आहारग ति।
६३४. णेरइएसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि हाणि अवढि० सादादिबारस-उञ्जो० सव्वपदा छच्चों६० । दोआयु०-मणुसगदिदुग-तित्थय०-उच्चा० सव्वपदा खेत्तक । मिच्छत्त० अवत. पंचचौदस । सेसाणं अवत्त० खेत्तभंगो । सेसाणं सव्वपदा छच्चो० । एवं सवणेरइगाणं
और दो हानियोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । शेष पदों के बन्धक जीवोंका स्पर्शन ज्ञानावरण के समान है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पशन किया है। अवक्तव्य पदका भङ्ग क्षेत्रके समान है। और रिकशरीरके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारहबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्वर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग तिर्यक्रगतिके समान है। आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है। उद्योत, बादर और यशःकीर्तिकी दो वृद्धि और दो हानियों के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिकी . तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उच्चगोत्रकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। इसीप्रकार ओघके समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
- ६३४. नारकियोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने तथा साताआदि बारह और उद्योतके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगतिद्विक, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँचवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहवटे
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे अप्पप्पणो फोसणं कादव्वं ।
६३५. तिरिक्खेसु धुपिगाणं एकवड्डि-हाणि-अवढि० सबलो० । बेबड्डि हा० लो. असं० सव्वलो० । सादादिएकारह० एकवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सव्वलो० । बेवड्डि. हा० लो० असं० सव्वलो० । थीणगिद्धि०३-अट्ठक० अवत्त० खेत्त० । मिच्छ० अवत्त० सचचोद्द० । सेसपदा सादभंगो। इत्थिवे बेवड्डि हा० दिड्डचौद्द ० । सेसाणं सादभंगो । पुरिस०-समचदु०-दोविहा०-सुभग-दोसर-आदें०-उच्चा० दोवड्-िहाणि लो० असं० छच्चौद्द० । सेसं इत्थिवेदभंगो । णवंस०-तिरिक्खग०-एइंदि०-हुंड-तिरिक्खाणु०-पर-उस्सा०-थावरसुहम-पञ्जत्तापजत्त-पत्तेय-साधार ०-दूभग०-अणादें०-णीचागो० दोवड्डि-हा० लो० असं. सव्वलो० । अवत्त० खेत्त० । सेसं सादभंगो। णिरय देवायु०-वेउब्धियछ० ओघं । तिरिक्खायु० खेत्तभंगो। मणुसायुगस्स दोपदा लो० असंखे० सव्वलो०। भणुसगदिदुगतिणिजादि-चदुसंठा०-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-आदान. दोवड्डि-हाणि लोग० असंखेज । सेसं सादभंगो। उज्जोव-बादर-जसगित्ति० दोवड्डि-हाणो सत्तचोद । णवरि चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सब नारकियोंका अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिये।
६३५. तिर्यञ्चोंमें ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। साता आदि ग्यारह प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने सब लाक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभाग प्रमाण
और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन और आठ कषायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सातावेदनीयके समान है। स्त्रीवेदकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । पुरुषवेद, समचतुरस्त्रसंस्थान, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभागप्रमाण और कुछ कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छवास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रकी दो वृद्धि, दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण
और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंका भङ्ग सातावेदनीय के समान है। नरकायु, देवायु और वैक्रियिक छहका भङ्ग ओपके समान है। तिपञ्चायुका भङ्ग क्षेत्रके समान है। मनुष्यायुके दो पदों के बन्धक जीवोंने लोक के अलंड्यातवें भाग प्रमाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगतिद्विक, तीन जाति, चार संस्थान, औदारिक आजोपाङ्ग, छह संहनन और प्रातपकी दो वृद्धि और दो हानिके वन्य जीवोंने लोक के अतंख्यानवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष भङ्ग सातावेदनीयके समान है। उद्योत, बादर और यशःकोर्तिको दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने
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वडिबंधे फोसणं
४५६ बादरे तेरह । पंचंदि०-तस० दोवड्डिहाणी० लो० असंखेन्ज० बारहचोद्द० । ओरालि. दोवड्डि-हाणिसव्वेसिं अणंतजीवाणं असंखज्जभागवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सयलो०। ओरालियसरीर० अवत्तव्यं खत्त।
९३६. पंचिंदियतिरिक्ख०३ धुविगाणं तिण्णिवड्डि हाणि अवढि० लोग० असंखें सव्वलो० । थोणगिद्धि०३-मिच्छ०-अट्ठक०-णqसग०-तिरिक्खग०-एइंदि०-ओरालि.. हुंड०-तिरिक्खाणु०-परघा०--उस्सा०-थावर-सुहुम-पजत्तापजत्त-पत्ते. साधार० दूभग०अणादें-अजस० णीचा तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० लोग० असंखे० सव्वलो० । अवत्त० खेत । णवरि मिच्छ०-अजस० अवत्त० सत्तचोद ० । इस्थिवे० अवत्त० खेत्त० । सेसं दिवड्डचौद्दस० । सादादिदस० सव्वपदा लोगस्स असंखे सबलो० । पुरिसवे०-णिरयदेवगदि-समचदु०-दोआणु० दोविहा०-सुभग-दोसर-आदें-उच्चा० अवत्त० खेत। सेसपदा छचोद० । चदुआयु० खेत्त० । मणुसगदि-तिण्णिजादि-चदुसंठा०-ओरालि अंगो०छस्संघ०-आदाव० सव्वपदा खेत । पंचिंदि०-उब्धिय० बेउव्वियअंगो०-तस० अवत्त० खेत । सेसपदा बारहचोद । उज्जो०-जस० सवपदा सत्तचोद० । बादर० अवत्त० कुछ कम सातवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि बादर प्रकृतिकी अपेक्षा कुछ कम तेरहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रियजाति और त्रसकी दो वृद्धि और दो हानियों के बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बारहबटे चौदह राजुक्षेत्रका स्पर्शन किया है । औदारिक शरीरकी दो वृद्धि और दो हानि तथा सब अनन्त जीवोंके असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भाग हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । औदारिकशरीरके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
६३६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, आठ कषाय, नपुंसक वेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और अयशःकीर्तिके अवक्तव्यपदकं बन्धक जीवोंने कुछ कम सातवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेदके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । शेष स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू है। साता आदि दस प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेद, नरकगति, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छहबटे चौदह राजू है। चार आयुओंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । मनुष्यगति, तीन जाति, चार संस्थान, औदारिकआङ्गोपाङ्ग, छह संहनन और आतपके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकआङ्गोपाङ्ग और त्रसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके वन्धक जीवोंने कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत और यशःकीर्तिके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन
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• महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे खेत्तमंगो । सेसपदा तेरहचोद्द० । __६३७. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० लोग० असंखे सव्वलो० । सादादिदस० सव्वपदा लोग० असंखे सव्वलो० । णवंस.. तिरिक्खग०-एइंदि० हुंडसं०-तिरिक्खाणु०-परघादुस्सा०-थावर-सुहम-पज्जत्त-अपज्जत्तपत्तेय०-साधार०-भग-अणादें-णीचा० अवत्त० खेत्त । सेसपदा लोग. असंखें सबलो० । उज्जो०-जसगि० सव्वपदा सत्तचोद्द० । बादर० अवत्त० खेत० । सेसपदा सत्तचोद्द० । अज० अवत्त० सत्तचों । सेसं णवुसगभंगो । सेसाणं सव्वपदा खेत्तः । एवं मणुसअपज्ज०-सव्वविगलिंदि०-पंचिंदिय-तसअपज्जा-बादरपुढवि०-आउ० तेउ०वाउकाइयपज्जत्त-चादरवणफदिपत्तयपज्जत त्ति ।
६३८. मणुस०३ धुवियाणं असंखेज्जगुणवड्डि-हाणि-अवत्त० खेत्तः । सेसाणं च पंचिंदियतिरिक्खभंगो । तसपगदीणं खेत्त० ।
६३६. देवेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० सादादिवारस-मिच्छ०-उज्जोव० सवपदा अट्ठ-णवचोद्दसभागा वा देसूणा । इत्थिवे०-पुरिसवे०तिरिक्खायु०-मणुसायु०. किया है। बादर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरहबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
१३७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । साता आदि दस प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण
और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत,
और यशःकीर्तिके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अयशःकीर्तिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अनिकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक, प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
६३८. मनुष्यत्रिकमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। शेष पदोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। त्रस प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है।
६३६. देवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने तथा साता आदि बारह, मिथ्यात्व और उद्योतके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और कुछ कम नौबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वीवेद, पुरुषवेद,
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बटिबंधे कोसणं
४६१ मणुसगदि-पंचिंदिय०-पंचसंठा०-ओरालि अंगो०-छसंघ०-मणुसाणु०-'आदाव०-दोविहा०-तस-सुभग दोसर आदेज्ज-तित्थय०-उच्चा० सव्वपदा अट्टचोद्द० । सेसपगदीणं अवत्त० अट्ठचों । सेसपदा अट्ठ-णवचोद्द० । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो फोसणं णेदव्वं ।
६४०. एइंदिय-वणप्फदि-णियोद-पुढवीकाइय-आउ-तेउ०-बाउ०-सव्वसुहुमाणं मणुसायु० तिरिक्खोघं । सेसाणं सव्वपगदीणं सव्वलो० । बादरएइंदियपज्जत्त-अपज्ज. धुविगाणं सादादीण दस० च सव्यपदा सबलो० । इत्थिवे०-पुरिस०-चदुजादि-पंचसंठा०. ओरालि० अंगो छस्संघ० आदाव-दोविहा० तस सुभग दोसर आदेज्ज. सव्वपदा लोगस्स संखेंज्जदिभागो। णवंस० एइंदि० हुंडसं० परघा०-उस्सा-थावर सुहुम-पज्जत्त अपज्ज०. पत्तेय०-साधार०-भग० अणादें. ऍकवड्डि-हाणि-अवढि० सव्वलो० । अवत्त० लो० असंखें । दोआयु०-मणुसगदिदुग-उच्चा० सव्वपदा खेत्त० । तिरिक्खगदितिगं अवत्त० लोग० असंखें । सेसपदा असादभंगो। बादर उज्जो जसगि० सव्वपदा सत्तचोद्द० । णवरि बादर अवत्त० खेत० । अजस० अवत्त० सत्तचोद्द० । सेसपदा सव्वलो० । एवं तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय, तीर्थंकर और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियों के अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम नौबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिये।
६४०. एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, निगोद, पृथिवीकायिक,जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और सब सूक्ष्म जीवों में मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समानहै । शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और वादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें ध्रववन्धवाली प्रकृतियाँ और साता आदि दस प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, दो विहायोगति, स, सुभग, दो स्वर, और आदेयके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपंसकवेद, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग और अनादेयकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने सत्र लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तिर्यञ्चगतित्रिकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग असातावेदनीयके समान है। बादर, उद्योत और यशः कीर्ति के सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि बादरके प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अयशाकीर्तिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार बादर
१ मूलप्रतौ मणुसायु० आदाव-इति पाठः ।
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महाधे ट्ठदिबंधाहियारे
वादखाउका बादरवा उकाइयअपज्जत्त । बादरपुढवी० आउका ० तेउका० तेसिं बादरअपज्जत्त बादरवणफदिपत्तेय ० अपज्जत वादरएइंदियभंगो। णवरि जम्हि लोगस्स संज्जदिभागो म्हि लोगस्स असंखेज्जदिभागो कादव्वो ।
९४१. पंचिंदिय -तस०२ पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचं तराइगाणं तिष्णिवड्डिहाणि॰ अट्ठचद्द० सव्वलो० । असंखेज्जगुणवड्डि- हाणि अवत्त • खेत्तभंगो । श्रीणगिद्धि० ३ मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ - णपुंस० - तिरिक्खग० एइंदि० इंडसं ०-तिरिक्खाणु ० थावरदूभग अणादें ० णीचा० तिण्णिवड्डि हाणि अवडि० अट्ठचो६० सव्वलो० । अवत्त० अट्ठचो० | णवरि मिच्छ० अवत्त • अट्ठ-बारह चोदस० । णिद्दा- पचला-भय- दुगुं० तेजइगा दिणव- परघादुस्सा० पज्जत - पत्ते अवत्त० खेत्तभंगो । तिण्णिवड्डि हाणि अवडि० अट्ठचो६० सव्वलो ० | सादावे० तिण्णिवड्डि हाणि अवट्ठि ० -अवत्त० अट्ठचोद० सव्वलो० । असंखें - ज्जगुणवड्डि-हाणी खेत० । असादादिदस० तिण्णिव ड्डि-हाणि अवट्टि ०६० - अवत्त० अट्ठचोह ० सव्वलो० । वरि अजसगि० अवत्त० अट्ठ-तेरह चॉद्दस० । अपचक्खाणा ०४ सव्वपा णाणावरण भंगो । वरि अवत्त ० छच्चो६० । इत्थि० - पंचसंठा० - ओरालि० अंगो०
वायुकायिक और वादरायुकायिक अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर अग्निकायिक तथा उनके बादर अपर्याप्त और बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग बादर एकेन्द्रियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग कहा है, वहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग कहना चाहिये ।
६४१. पचेद्रियद्विक और सद्विक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि और तीन हानि पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवडे चौदह राज और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसक वेद तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीच गोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वके वक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर आदि नौ, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त और प्रत्येकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का भङ्ग क्षेत्रके समान है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । असातावेदनीय आदि दसकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि अयशःकीर्तिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम तेरहबड़े चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अप्रत्याख्यानावरण चारके सब पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान हैं । इतनी विशेषता
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वड्विबंधे फोसणं छस्संघ०-दोविहा०पंचिंदि०-तस-सुभग-दोसर-आदें तिण्णिवट्ठि-हाणि-अवट्ठि• अट्ठबारह । अवत्त० अट्ट-चौदह । पुरिसे तिण्णिवड्डि-हाणि-अवत्त० इत्थिभंगो । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी० णाणावरणभंगो। णिरय-देवायुग-तिण्णिजादि-आहारदुगं खेत । तिरिक्ख-मणुसायु. दोपदा अट्टचोद० । वेउब्धियछ. तित्थय० ओघं । मणुसगदि मणुसाणु०-आदाव० सयपदा अडचोद० । उज्जो० सव्वपदा अट्ठ-तेरह । एवं बादर० । णवरि अवत्त० खेत्त० । सुहुम-अपज्जत्त-साधारण. तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० लो० असंखें सव्वलो । अवत्त० खेत्तः । जसगि० असंखेन्जगुणवड्वि-हाणी० खेतः । सेसपदा अट्ठ-तेरहचो। [उच्चा० असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी खत्त । सेसपदा अट्ठचो०] एवं पंचिंदियभंगो पंचमण पंचवचि० चक्खुदं०-सण्णि त्ति ।
१४२. ओरालियकायजोगीसुपंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज० पंचंत० असंखेज्जभागवडिहाणि-अवढि० सव्वलो० । दोवड्डि-हा० लोगस्स असंखे० सव्वलो० । असंखेज्जगुणवड्डि
है कि अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पाँच संस्थान, औदारिक आंगोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, पञ्चेन्द्रियजाति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम
आठवटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। नरकायु, देवायु, तीन जाति और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्र के समान है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम
आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक छह और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और आतपके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम
आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योतके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह वटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार बादर प्रकृतिकी अपेक्षा स्पर्शन जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवाने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। यशःकीर्तिकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजु और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उच्चगोत्रकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियों के समान पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, चक्षुःदर्शनी और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
६४२. औदारिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्या
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे हाणि-अवत्त० खेत्तः । पंचदंसणा०-बारसक०-भय-दुगुं०-ओरालि०-तेजा.-क०-वण्ण०४. अगु० उप० णिमि० अवत्त० खेत्तभंगो। सेसपदा० णाणावरणभंगो। मिच्छ० अवत्त० सत्तचोद्द ० । सेसपदा० णाणावरणभंगो। सादावे. असंखेज्जभागवड्डि०-हाणि-अवट्ठि.. अवत्त० सव्वलो । सेसपदा० णाणावरणभंगो। असादादिऍक्कारस० सादभंगो। इत्थिवे. दोवड्वि-हाणी दिवड्डचोद्द० । सेसाणं णाणावरणभंगो। पुरिस० दोवड्डि-हाणी छच्चोद० । सेसपदा सादभंगो। णवुसतिरिक्खग०-एइंदि० हुंडसं०-तिरिक्खाणु०- परघादुस्सा.. थावर-सुहुम-पज्जत्त-अपजत्त-पत्तेय०-साधार०-भग-अणा-णीचा० सव्वपदा असादभंगो। चादुआयु०-वेउब्बियछ०-मणुसगदिदुग-चदुजादि-पंचसंठा०-ओरालि अंगो०. छस्संघ०-आदाउज्जो० दोविहा०-तस-बादर-सुभग-दोसर-आदे०-उच्चा० तिरिक्खोघं । आहारदुग० तित्थय० खेत्त० । ___६४३. ओरालियमिस्से धुविगाणं दोवड्डि-हा० लोग० असंखेन्ज. सचलोगो वा । सेसपदा सबलोगो । णवरि मिच्छ० अवत्त० खेत्तभंगो। देवगदिपंचगस्स तिण्णिवड्डि. हाणि-अवढि० खेत्तः । सादादिऍकारसपगदीणं असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत० तवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि
और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पाँच दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके अवक्तव्यके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदों के बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भा ज्ञानावरणके समान है। असाता आदि ग्यारह प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। स्त्रीवेदकी दो वृद्धि और दो हानियों के बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। पुरुषवेदकी दो वृद्धि और दो हानियोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुः पूर्वी, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय
और नीचगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग आसातावेदनीयके समान है। चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगतिद्विक, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके "सब पदोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है।
६४३. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और औदारिक शरीरकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। देवगति पश्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । साता आदि ग्यारह
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वडिबंधे फोसणं
४६५ सव्वलो० । दोवड्डि-हाणी लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलो० । णवंस-तिरिक्खग.. एइंदि० हुंडसं०-तिरिक्खाणु०-पर-उस्सा०-थावर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय०-साधार०दूभग०-अणादें-णीचा० ऍकवड्डि-हाणि-अवढि० सबलो० । दोवड्डि-हाणी लो० असंखे. सव्वलो० । अवत्त० खेत्तक । दोआयु० तिरिक्खोघं । इत्थि०-पुरिस०-मणुसगदिदुगचदुजादि-पंचसंठा०-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-आदाव-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर-आदेजउच्चा० दोवड्डि-हाणि लोग० असंखे । सेसं सव्वलो० । उज्जो०-जसगि०-बादर० दोवड्डि-हाणि० सत्तचौद० । सेसाणं सव्वलो० ।
९४४. वेउब्वियकायजोगीसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० अट्ठ-तेरह०। सादादिवारस०-उज्जोव० सव्वपदा अट्ठ-तेरहचों। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुवंधि०४. णकुंस०-तिरिक्खग०- हुंडसं०-तिरिक्खाणु०-दूभग-अणादे०-णीचा० तिण्णिवड्डि-हाणिअवढि० अट्ठ-तेरह । अवत्त० अट्ठचोद्द० । णवरि मिच्छ० अवत्त० अट्ठ-बारह । इत्थि..
प्रकृतियोंकी असंख्यातभाग वृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सर लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, तियश्चगत्यानुपूर्वी, परघात, रछ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। दो आयुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यगतिद्विक, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, यशःकीर्ति और बादरकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने ने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने सत्र लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
६४४. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें ध्रव बन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। साता आदि बारह और उद्योतके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजु और कुछ कम तेरहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम तेरहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजु क्षेत्रको स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके प्रवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम बारहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुपवेद, पञ्चेन्द्रिय जाति,
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे पुरिस०-पंचिंदि०-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-दोविहा०-तस०-सुभग-दोसरआदेज० तिण्णिवड्डि हाणि-अवढि० अट्ठ-बारह० । अवत्त० अढचों । दोआयु० दोपदा अट्ठचौद्द० । मणुसग०-मणुसाणु०-आदा०-उच्चागो० सव्वपदा अट्टचोद्द । एइंदि०. थावर-अवत्त० अट्ठचौद्द० । सेसाणं पदा अट्ठ-णवचों । तित्थय० अवत्त० खेत्तः । सेसपदा अट्ठचोद।
९४५. वेउविमि०-आहार०-आहारमि०-कम्मइ०-अवगदवे०-मणपञ्जव०-संजदसामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुमसंप० खेत्त० । णवरि कम्मइ० मिच्छत्त० अवत्त० एक्कारह।
६४६. इत्थिवे. पंचणा-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंत० पंचिंदियभंगो। णवरि अवत्त० णत्थि। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-णवुस-तिरिक्खग०-एइंदि०-हुंडसं०तिरिक्खाणु०-थावर-भग-अणादे०-णीचा० अवत्त० अट्टचोद्द० । सेसपदा अट्टचोद्द० सव्वलो० । णवरि मिच्छत्त० अवत्त० अट्ठ-णवचो। णिद्दा-पचला-अट्ठकसाय-भय०पाँच संस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वरों और आदेयकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयुओंके दो पदोंके बन्धक जोवोने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप
और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावरके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदों के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। शेष पदोंके वन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
६४५. वैक्रियिकभिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी जीवोंमें मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारहबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
४६. स्त्रीवेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँ इनका अवक्तव्य पद नहीं है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चार, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजु क्षत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछकम आठबटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम नौबटे चौदह राजु क्षत्रका स्पर्शन किया है। निद्रा, प्रचला, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस
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दुगु० - ओरालि० -तेजा० क० वण्ण ०४ - अगु०४ - पज्जत - पत्तय० - णिमि० अवत्त० त० । सेसपदा णाणावरणभंगो। णवरि ओरालिय० अवत्त० दिवडचोद ० सादावे० असंज्जगुणवड्डि- हा० खेत० । सेसं अट्ठचों० सव्वलो० । असादादिणव० तिण्णिवड्डि-हाणिअago १०. अवत्त ० अट्ठचोद० सव्वलो० । इत्थि० पुरिस० मणुसग दि पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु० - आदाव-पसत्थवि० - सुभग- सुस्सर-आदें० - उच्चागो० सव्चपदा अचों | [णवर उच्चा असं ० गुणवड्डि- हाणि ० खे त०]] दोआयुग० तिष्णिजादि- आहारदूगतित्थय० त० | दोआयु० दोपदा अट्ठचों० । वेउब्वियछ० ओघं । पंचिंदि० -तसअप्पसत्थवि० दुस्सर० तसभंगो । उज्जोव० सव्वपदा अट्ठ-णवचों० । बादर० तिण्णिवड्डिहाणि-अवट्ठि० अट्ठ-तेरह० । अवत्त० खेत्त० । सुहुम-अपज्ज० साधार० अवत्त० खेत्तं । सेसपदा लो० असं० [सव्वलोग० |] जसगि० उज्जोभंगो | णवरि असंलेज्जगुणवड्डिहाणी सादभंगो । अजस० अवत्त० अणवचो । सेसपदा सादभंगो । [ एवं पुरिस० ।]
०
शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीर के अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीयकी असंख्यातगुण वृद्धि और असंख्यात - गुणहानि बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान हैं। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । असाता आदि नौ प्रकृतियों की तीन वृद्धि,
हा स्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तप, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । दो आयु, तीन जाति, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्ष ेत्र समान है। दो आयुयोंके दो पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक छहका भङ्ग ओधके समान है । पश्चेन्द्रिय जाति, त्रस, अप्रशस्त विहायोगति और दुस्वरका भङ्ग त्रस जीवोंके समान है। उद्योतके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवडे चौदह राजू और कुछ कम नौबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीनहानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवढे चौदह राजू और कुछ कम तेरहवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्र के समान है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्ष ेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । यशःकीर्तिका भङ्ग उद्योतके समान है । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अयशःकीर्तिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम नौबढे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अप्रत्याख्यानावरण चार र औदारिक शरीर के अवक्तव्य पदके बन्धक
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे णवरि अपच्चक्खाणा०४-ओरालि० अवत्त० छच्चोद । तित्थय० ओघं । ___६४७. णवुस० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० असंखेंअभागवड्डि-हाणिअवढि० सव्वलो० । दोवड्डि-हाणी लो० असंखे० सव्वलो० । असंखेजगुणवड्डि-हाणी खेत्त० । अवत्त० णत्थि । पंचदंस० मिच्छ०-बारसक०-भय०-दुगुं०-ओरालि.-तेजा०क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि० अवत्त० खेत० । सेसपदा णाणावरणभंगो। णवरि मिच्छ० अवत्त० बारहचो। ओरालि० अवत्त० छच्चोद्द० । सादावे० अवतः सव्वलो। सेसपदा णाणावरणभंगो। असादादिदस० ऍकवाड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सव्वलो० । बेवड्डि-हाणि लोगस्स असंखे० सञ्चलोगो वा। णवुस०-तिरिक्खग०-एइंदि० हुंडसं०. तिरिक्खाणु०-पर०-उस्सा०-थावर-सुहम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय०-साधार०-दुभग-अणादे०. णीचा० दोवड्डि-हाणी लोग० असं० सव्वलो०। सेसपदा सव्वलोगो। इत्थिवे. दोवड्डिहाणि. लोग० असं० सव्वलो० । सेसपदा सव्वलो० । चदुसंठा०-ओरालिअंगो०. छस्संघः दोवडि-हाणि• लोग० असं० छच्चोद्द० । सेसपदा सव्वलोगो० । पुरिस० समचदु०-दोविहा०-सुभग-दोसर-आदेज्ज. बेवड्डि-हाणी. बारहचोद्द० । सेसपदा जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीर्थङ्करका भङ्ग आंधक समान है।
६४७. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षत्रके समान है। अवक्तव्यपद नहीं है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औकारिकशरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारहबटे चौदह राज क्षत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीयके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है ! शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । असाता आदि दसकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुभंग, अनादेय और नीचगोत्रकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद की दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और छह संहननकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, दो विहायोगति, सभग, दो स्वर और आदेयकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारहबटे चौदह
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फो सव्वलो० । चदुआयु० - वेड व्विय छ० मणुसगदि - तिण्णिजादि- मणुसाणु ० - आदाव० उच्चा० तिरिक्खोघं । पंचिंदिय-तस० दोवड्डि-हाणी लोग • असंखे बारहचो० | सेसं सव्वलो० । आहारदुगं तित्थय० त्तभंगो । उज्जोव० दोवड्डि-हाणी तेरहचो । सेसं सादभंगो । एवं जसगित्ति - बादरणामं पि ।
।
४८. को कसा पंचणा० - चदुदंस० - चदुसंज० - पंचंत० ऍकवड्डि- हाणि - अवट्टि० सव्वलो० | दोवड्डि-हाणी अट्ठचो६० सव्वलो० । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी खेत्त० । सेसं ओघं | माणे पंचणा० - चदुदंस ० - तिष्णिसंज ० - पंचंत ० कोधभंगो । सेसं ओघं । मायाए पंचणा० - चदुदंसणा ० - दोसंज० - पंचंत० कोधभंगो । सेसं ओघं । लोभे मूलोघं ।
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९४९. मदि० - सुद० खवगपगदीणं असंज्जगुणवड्डि- हाणि अवतव्ववज्जाणि सेसाणि [य सव्वपदा] ओघं । णवरि देवगदि देवाणुपु० अवत्त ० त ० | सेसपदा पंचचौ६० | ओरालिय० अवत्त० ऍक्कारह० । वेउव्वि ० - वेउच्चि ० अंगो० सव्वपदा एक्कारहचो० । अवत्त० खेत० ।
राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकक्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार आयु, वैक्रयिक छह, मनुष्यगति, तीन जाति, मनुष्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्रका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । पञ्चेन्द्रियजाति और त्रसकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदों के बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्र के समान है । उद्योतकी दो वृद्धि और हानिके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । इसी प्रकार यशःकीर्ति और बादर नामकर्मकी मुख्यता से स्पर्शन जानना चाहिये ।
६४८. क्रोधकषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान हैं । शेष भङ्ग प्रोघके समान है । मान कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानांवरण, चार दर्शना वरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तरायके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्रोधकषायवाले जीवोंके समान है । शेष भङ्ग ओघ के समान है । मायाकषायवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, दो संज्वलन और पाँच अन्तरायके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्रोधकषायवाले जीवोंके समान है । शेष भङ्ग श्रोधके समान है । लोभकषायवाले जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग मूल के समान है ।
६४६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंकी असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और वक्तव्य पदको छोड़कर तथा शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति और देवगत्यानुपूर्वीके अवक्तव्यपदके बन्धक का भङ्ग क्षेत्र के समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँचबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । औदारिकशरीर के अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकआङ्गोपाङ्गके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है ।
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महाबंधे द्विदिबंधा हियारे
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६५०. विभंगे धुविगाणं तिष्णिवड्डि-हाणि अवट्ठि० अट्ठचोद० सव्वलो० । सादादि दस • सव्वपदा लोग असंखे० अट्ठचोद० सव्वलो० । मिच्छत्त • अवत्त ० अट्ठ-बारह ० । सपदा णाणावरण भंगो। इत्थि ० - पुरिस० - पंचिंदि० - पंचसंठा० ओरालि० अंगो० छस्संघ०दोविहा०-तस०- सुभग- दोसर आदें० तिण्णिवड्ढि हाणि अवट्ठि० अट्ठ-बारहचों० । अवत्त० अडचों० । णस० - तिरिक्ख० - एइंदि ० - ओरालि० हुंडसं ० - तिरिक्खाणु० - थावर - दूर्भागअणादे० - णीचागो० तिण्णिवड्डि-हाणि अवडि० अट्ठचों सव्वलो० । अवत्त • अट्ठचोह ० ।
४००
वरि ओरालि० अवत्त ० त ० । दोआयु० - तिण्णिजादि० खेत० । मणुसायु-मणुस दि मणुसाणु ० - आदाव - उच्चा० सव्वपदा अडचोद ० । वेउव्वियछ० मदिभंगो । उज्जोवजसगि० सव्वपदा अट्ठ-तेरहचो० । पर० - उस्सा० - पज्जत्त - पत्ते० सव्वपदा सादभंगो ।
वरि अवत्त • खेत० । बादर० अवस० खेत० ! सेसपदा अट्ठ - तेरह० । सुहृम-अपज्जतसाधार० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० लोग० - असंख्रे ० - सव्वलो० । अवत्त ० खेच० । अजस० अवत० अट्ठ-तेरह ० | सेसं सादभंगो ।
६५०. विभङ्गज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । साता आदि दस प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके वक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पश्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, सं, सुभग, दो स्वर और यकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदहराजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीर के अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान हैं । दो
और तीन जाति सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रातप और उच्चगोत्र के सब पदों के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ चौदह क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक छहके सब पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । उद्योत और यशःकीर्तिके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। परघात, उच्छ्रास, पर्याप्त और प्रत्येक के सब पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्र के समान है । बादर प्रकृतिके प्रवक्तञ्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । यशःकीर्तिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राज और कुछ कम तेरह बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष भङ्ग सातावेदनीयके समान हैं ।
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५१. आमि० - सुद० - ओधि० पंचणा० - चदुदंस ० चदुसंज० - पुरिस० - सादा० जसगि० - उच्चा० - पंचंत० तिण्णिवड्डि- हाणि अवद्वि० अट्ठचोद० । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणि-अवत्त • खेत्त० । णवरि सादावे ० - जसगि० अवत्त० अट्ठचोद० । णिद्दा- पचला-पच्चक्खाणा ०४-भय- दुर्गु० - पंचिंदि० - तेजा ० क ० - समचदु० - वण्ण०४- अगु०४ - पसत्थ०-तस०४सुभग- सुस्सर आदैज्ज० - णिमि० - तित्थय० तिण्णिवड्डि- हाणि-अवट्टि० अट्ठचों० । अवत्त ० खेत • ० । अपच्चक्खाणा ०४ - मणुसगदिपंच० तिण्णिवड्डि-हाणि अवट्ठि ० अट्ठचों० । अवत्त ० छच्चोद्द ० । असादादिदस- [अपज्ज०] सव्त्रपदा अट्ठचोद | मणुसायु० दोपदा अट्ठचोद ० । देवायु- आहारदुगं खेत्त । देवगदि०४ सव्वपदा छच्चो० । अवत्त० खेत० । एवं अधिदंस ० - सम्मादि ० खइग० वेदगस ० -उवसम० । णवरि खड़गे उवसमे च अपच्चक्खाणा ०४ - मणुसगदिपंचग० अवत्त० खेत० । देवगदि०४ सव्वपदा खेत० ।
०
९५२. संजदासंजदे देवायु० - तित्थय० सव्वपदा खेत्त० । सेसाणं सव्वपदा छच्चो६० ।
६५१. आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, सातावेदनीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्र के समान है । इतनी विशेषता है कि साता वेदनीय और यशःकीर्तिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । निद्रा, प्रचला, प्रत्याख्यानावरण चार, भय, जुगुप्सा, पश्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकरकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अप्रत्याख्यानावरण चार और मनुष्यगतिपञ्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि, और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । असातावेदनीय आदि दस और अपर्याप्त सब पदों के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। देवगतिचतुष्कके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । इसीप्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेपता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अप्रत्याख्यानावरण चार और मनुष्यगतिपञ्चकके वक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा देवगतिचतुष्कके सब पदों के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है ।
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६५२. संयतासंयत जीवोंमें देवायु और तीर्थङ्करके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहवढे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । असंयतों में ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है ।
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महाबंधे ढिदिवधाहियारे असंजदे धुवियाणं मदिभंगो। थीणगिद्धि०३-अणंताणुवंधि०४ अवत्त० अट्टचों । सेसं ओघं।
५३. किण्ण-णील-काऊणं धुविगाणं ऍक्वाड्डि-हाणि-अवढि० सव्वलो० । बेवड्डि. हाणी लोग० असंखे सव्वलो० । णिरयगदि-वेउवि० [वेउन्धि०] अंगो०-णिरयाणु० अवत्त० खेत्त० । सेसपदा छ-चत्तारि-बेचोदेस। णिरय-देवायु०-देवगदि-देवाणुपु०तित्थय० खेतः । सेसं तिरिक्खोघं। णवरि इत्थि-पुरिस-पंचिंदि०-पंचसंठा०-ओरालि.. अंगो०-छस्संघ०-उज्जो०-दोविहा..तस-सुभग-दोसर-आदेज्ज० दोवड्डि-हाणी० छ-चत्तारिबेचौदस । मिच्छत्त० अवत्त० पंच-चत्तारि-बेचोदस० ।
१५४. तेऊए मिच्छत्त० सव्वपदा अट्ठ-णवचों । एवं उज्जो० । अपञ्चक्खाणा०४ अवत्त० दिवड्डचोदेस० । एवं ओरालि०। देवगदि०४ सव्वपदा दिवड्वचोदेस० । अवत्त० खेत्त० । सेसपदा सेसाणं पगदीणं सोधम्मभंगो।
१५५. पम्माए अपञ्चक्खाणा०४ अवत्त० पंचचोद्द० । सेसपदा अट्टचोद० । स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धी चारके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका तथा शेष प्रकृतियों के सब पदोंका भङ्ग ओघके समान है।
६५३. कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें ध्रव बन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि
और दो हानिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी के अवक्तव्य पदके वन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम छहबटे चौदह राजु, कुछ कम चारबटे चौदह राजू और कुछ कम दोबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुष वेद, पञ्चेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयकी दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छबटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दोबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्
स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम पाँचबटे चौदह राज, कुछ कम चारवटे चौदह राजू और कुछ कम दोबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
६५४. पीतलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्वके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राज और कुछ कम नौवटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार उद्योतकी मुख्यतासे स्पर्शन जानना चाहिये। अप्रत्याख्यानावरण चारके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार औदारिकशरीरकी मुख्यतासे स्पर्श न जानना चाहिये । देवगति चतुष्कके सब पदोंके वन्धक जीबोंने कुछ कम डेढ़बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। प्रवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेप पदोंके बन्धक जीवोंका तथा शेष प्रकृतियों के सब पदों के बन्धक जीवोंका स्पर्शन सौधर्म कल्पके समान है।
६५५. पद्मलेश्यावाले जीवोंमें अप्रत्याख्यानावरण चारक अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने
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बंधे अपबहुअं
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देवगदि०४ तिष्णिवड्डि-हाणि अवट्ठि ० पंचचोस० । अवत्त० खेत० । ओरालि०ओरालि • अंगो० अवत्त० पंचचों० | सेसपदा अट्ठचों० । सेसाणं सव्वपगदीणं सहस्सारभंगो ।
• ६५६. सुकाए अपच्चक्खाणा ०४ - मणुसग ० - ओरालि ०-ओरालि ०-अंगो०
BG.........
अप्पाबहुअं
६५७.... पर०- उस्सा०-पसत्थ० -तस०४ - सुभग- सुस्सर - आदें० उच्चा० सव्वत्थोवा संखज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि तुल्ला । अवत्त० संखेज्जगुणा । सेसपदा धुवभंगो । णस० - तिण्णिगदि - चदुजादि - ओरालि ० - पंचसंठा ० - ओरालि० अंगो० - छस्संघ० - तिण्णिआणु ० - आदाउज्जो ०० - अप्पसत्थ० थावर० ४ - दूर्भाग- दुस्सर - अणादे० सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्डि ०-हाणी दो वि तुल्ला । अवतः असंखेज्जगु० | संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० संखेज्ज० । सेसाणं धुवभंगो । चदुआयु० ओघं ।
६५८, पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु धुविगाणं सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्डि-हाणी | संखज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० असंखेज्जगु० । असंखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० कुछ कम पाँचबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शने क्रिया है । देवगतिचतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँचवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । औदारिकशरीर और औदारिकाङ्गोपाङ्गके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँचबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदों के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष सब प्रकृतियोंका भङ्ग सहस्रार कल्पके समान है ।
६५६. शुक्लले श्यावाले जीवोंमें अप्रत्याख्यानावरण चार, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकाङ्गोपाङ्ग...
अल्पबहुत्व
६५७................परघात, उच्छास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुण- हानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे वक्तव्य पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। नपुंसकवेद, तीन गति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर चतुष्क, दुभंग, दुस्वर और अनादेयकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुण हानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे वक्तव्य पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिके वन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। शेष पदोंका भङ्ग ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । चार आयुका भङ्ग
के समान है ।
६५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकों में संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि, और संख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भाग
६०
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महाबंधे हिदिबंधाहियारे संखेन्ज । अवट्ठि० असंखेंजगु० । सादादीणं परियत्तमाणियाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो ।
६५६. मणुसेसु पंचणा०-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त । असंखेज्जगुणवड्डी संखेज्जगु० । असंखेंज्जगुणहाणी संखेंज्जगु० । संखेज्जगुणवाड्वि-हाणी दो वि० असंखेंज्जगु० । संवेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० संग्वेज्जगु० । असंखेन्जभागवड्डि-हाणी दो वि० संखेज्जगु० | अवढि० असंखेज्जगु०। पंचदंस०-मिच्छत्त०-बारसक०भय दु० ओरालि०-तेजइगादिणव० सव्वत्थोवा अवत० । संखेजगुणवड्डि-हाणी दो वि. असं०गु० । सेसपदा णाणावरणभंगो। सादावे-पुरिस०-जसगि०-उच्चा० सव्वत्थो० असंखेज्जगुणवड्डी । असंखेज्जगुणहाणी संखेंजगु०। संखेंजगुणवडि-हाणी दो वि सरिसाणि असंखेंजगुणाणि । अवत्त० संखेज्जगु० । संखेंज्जभागवडि-हाणी दो वि० संखेंज । सेसपदा णाणावरणभंगो । वेउब्बियछक्क आहारदुगं ओघं आहारसरीरभंगो। सेसाणं असादादीणं सबपगदीणं णिरयभंगो । णवरि तित्थय०...सव्वत्थो० संखेज्जगुणं कादव्वं । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु तं चेव । णवरि संग्वेज कादव्वं । मणुसअपजत्तगेसु धुविगाणं सव्वत्थो० संखेज्जगुणवाड्डि-हाणी दो वि० । संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि
हानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। साता आदि परिवर्तनमान प्रकृतियोंका भङ्ग पश्चेन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान है।
६५६. मनुष्योंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके श्रावक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुग्ग हैं। इनसे असंख्यातगुण हानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि ओर संख्या मागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यात. भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अरस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर और तैजसशरीर आदि नौके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगणे हैं। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यश:. कीर्ति, और उच्चगोत्रकी असंख्यातगुणवृद्धिके वन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यागुण हानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यात गुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनले अवक्तव्य पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। वैक्रियिक छह और आहारकद्विकका भङ्ग अोधमें कहे गये आहारकशरीरके समान है। शेष असाता आदि सब प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियों के समान हैं। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्करप्रकृति..... सबसे स्तोक हैं। इसके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें वही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि यहाँ असंख्यातगुरणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिये। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे
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विंधे अप्पाबहुअ तु० संखेज्ज० । असंखेज ० वड्डि-हाणी दो वि तु० संखेज्ज० । अवद्वि० असंखेज्जगु ० । साणं पगदीणं मणुसोघभंगो । देवाणं णिरयभंगो । णवरि विसेसो णादव्वो ।
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६६०. सव्वएइंदिय-पंचकायाणं धुविगाणं सव्वत्थोवा असंखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० । अवट्टि • असंखेज्ज० । सेसाणं परियत्तमाणियाणं पगदीणं सव्वत्थो० अवत्त० । असंखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० संखेज्ज० । अवट्टि • असंखें । दो आयु० ओघं ।
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६१. सम्वविगलिदिएसु धुविगाणं सव्वत्थोवा संखेज भागवड्डि-हाणी दो वि तु० । असंखे भागवडि-हाणी दो वि तु० संखेजगु० । अवट्ठि ० असंखेज्जगु० । सेसाणं सव्वत्थोवा अवत्त० | संखेजभागवड्डि-हाणी दो वि संखेन्ज गु० । असंखेज्जभागवड्डिहाणी दो वि तु० संखेज० । अवट्ठि० असंखेज गु० । आयु • मणुसअपज्जत्तभंगो ।
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६२. पंचिदिए पंचणा० चदुदंसणा० चदुसंज • पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त ० | असंखेज्जगुणवड्डी संखेज्जगु० । असंखेज्जगुणहाणी संखेज्जगु० | संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० असंखेअ ० | संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० असं ० गु० । असंखेज भागवड्डि-हाणी
स्तोक हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके वन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियों का भङ्ग सामान्य मनुष्यों के समान है । देवोंका भङ्ग नारकियों के समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ जो विशेष हो वह जान लेना चाहिये ।
६६०. सब एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवों में असंख्यात भागवृद्धि और असंख्याभागहानि बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। शेष परिवर्तमान प्रकृतियों के अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । दो आयुओंका भङ्ग ओके समान है ।
६६१. सब विकलेन्द्रियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभाग हानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इसे अवस्थित पदके वन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष सब प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि इन दोनों ही पदोंके बन्धक जीव तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानि इन दोनों ही पदोंके बन्धक जीव तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आयुकर्मका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान हैं ।
६६२. पचेन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायक अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सब स्तोक हैं। इनसे असंख्यात गुणवृद्धि के बन्धक जीव संख्यातगु हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिके वन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि दोनों ही पदोंके बन्धक जीव तुल्य होकर असंख्यातगुण हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्या भागानि दोनों ही पदोंक बन्धक जीव तुल्य होकर असंख्यातगुण हैं । इनसे
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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे दो वि० संखेंजगु० । अवढि० असंखेंज। पंचदंसणा०-मिच्छत्त०-बारसक०-भय-दु०तेजइगादिणव० सव्वत्थो० अवत्त । संखेंजगुणवड्डि-हाणी दो वि० असंखेंजगु० । संखेंजमागवडि-हाणी दो वि० असंखेज्जगु० । असंखेंजभागवधि-हाणी दो वि० संखेंजगु०। अवढि० असंखेंज० । सादावे-पुरिस० जसगि०-उच्चागो० सव्वत्थोवा असंखेंजगुणवड्डी । असंखेंजगुणहाणी संखेज्जगु० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० असंखेंज्ज० । अवत्त. असंखेज्जगु० । संखेजभागवड्वि-हाणी दो वि० असंखेज्जगु० । असंखेजभागवाड्वि-हाणी संखेंजगु० । अवट्ठि. असंखेजगु० । असादावे०-छण्णोक०-दोगदि-पंचजादि-'ओरालिय०-छस्संठा-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-आदा-उज्जो०-दोविहा०-परउस्सास-तस-थावरादिणवयुगल-अजस०-णीचा० सव्वत्थो० संखेंजगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० असंखेज्जगु० । सेसं णिहाए भंगो। चदुआयु० णिरय-देवगदि-वेउवि०. वेउन्वि०अंगो०-दोआणु आहारदुग-तित्थयरं च ओघं ।
९६३. पंचिंदियपजत्तगे पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज० पंचंत० सम्बत्थो० अवत्त० । असंखेंजगुणवड्डी संखेंजगु० । असंखेज्जगुणहाणी संखेज्जगु० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणो दो असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि इन दोनों ही पदोंक बन्धक जीव तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि इन दोनों ही पदोंके बन्धक जीव तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि इन दोनों ही पदोंके बन्धक जीव तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि इन दोनों ही पदोंके बन्धक जीव तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे प्रवक्तव्य पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभाग हानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। असातावेदनीय, छह नोकषाय, दो गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, परघात, उच्छ्रास, प्रस, स्थावर आदि नौ युगल, अयश कीर्ति और नीचगोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोंनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इससे अवक्तव्य पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष पदोंका भङ्ग निद्राके समान है। चार आयु, नरकगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, दो आनुपूर्वी, आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है।
६६३. पश्चेन्द्रियपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यात गुणवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यात गुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि
१ मूलप्रतौ जादि संखेजगु० ओरा०इति पाठः।
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वड्डिबंधे अप्पाबहुअं वि तु० असंखेज्जगु० । संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० संखेज्जगु० । असंखेज्जभागवड्डिहाणी दो वि तु० संखेज्जगु० । अवढि० असंखेंजगु०। पंचदंसणा०-मिच्छ०-बारस० क०-भय-दु०-तेजइगादिणव पंचिंदियओघो। असादावे०-छण्णोक०-तिण्णिगदि-दोजादिओरालि०-वेउवि०-छस्संठा-दोअंगो०-छस्संघ० तिण्णिआणु०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो०दोविहा०-तस थावर-बादर-पज्जत्त-पत्तेय०-थिरादिपंचयुगल०-अजस०-णीचा०सव्वत्थो. संखेजगुणवड्डि-हाणी दो वि तु० । अवत्त० संज्जगु० । उवरि णाणावरणभंगो। सादावे०-पुरिस०-जसगि०-उच्चा० सव्वत्थो० असंखेज्जगुणवड्डी । हाणी असंखेज्जगु० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि तु० असंखज्जगु० । अबत्त० संखज्जगु० । उवरि णिहाए भंगो। णिरयगदि-तिण्णिजादि-णिरयाणु०-सुहुम-अपज्जत्त-साधारण सव्वत्थोवा संखे. ज्जगुणववि-हाणी । अवत्त० असंखेज्जगु० । उवरि णिदाए भंगो। चदुआयु०-आहारदुगतित्थय० ओघं । पंचिंदियअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो। तसकाइय. पंचिंदि यभंगो । पज्जत्ता पज्जत्तभंगो। अपज्जत्त० अपज्जत्तभंगो।
९६४. पंचमण०-तिण्णिवचिजो० पंचणा अट्ठारस० पंचिंदियपज्जत्तभंगो। चदुदंसणा०--मिच्छ०-बारसक०-भय०-दुगुं०-देवगदि-ओरालि०-वेउव्विय-तेजा०-क०
और संख्यात गुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यात भागवद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगणे हैं। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके ओघके समान है। असातावेदनीय, छह नोकषाय, तीन गति, दो जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, परघात, उछ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि पाँच युगल, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रकी संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक
व संख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीय, पुरुषवेद, यश:कीर्ति और उच्चगोत्रकी असंख्यात गुणवृद्धिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भङ्ग निद्रा प्रकृतिके समान है। नरकगति, तीन जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी संख्यातगुणवृद्धि, और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भङ्ग निद्रा प्रकृतिके समान है । चार आयु, आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग अोषके समान है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त
में पञ्चेन्द्रिय तियश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। त्रसकायिक जीवोंमें पञ्चेन्द्रियोंके समान भङ्ग है । इनके पर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । इनके अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
६६४. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि अठारह प्रकृतियोंका भङ्ग पश्चन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय,
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महाबँधे द्विदिबंधाहियारे
उब्वियअंगो ० - वण्ण ०४ - देवाणु० - अगु०४ - बादर - पज्जत - पत्तेय० - णिमि० सव्वत्थो ० अवत्त० | संखज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० तु० असंखेज्ज० । उवरिमपदा णाणावरणभंगो । सादावे ० - पुरिस० - जसगि० उच्चा० पंचिंदियपज्जत्तभंगो । असादा० छण्णोक० - तिण्णिगदिपंचजादि छस्संठा० - ओरालि ०अंगो० छस्संघ० - तिण्णिआणु० - आदाउज्जो० - दोविहायगदितस - थावर - सुहुम ० - अपज्जत्त० - साधार० - थिरादिपंचयुगल - अजस ० - णीचा० सव्वत्थो० संखज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० संखेज्जगु० । उवरि णिद्दाए भंगो । चदुआयु०आहारदुग - तित्थय० ओघं । वचिजोगि असच्चमोसवचि तसपज्जत्तभंगो । ओरालियमि० तिरिक्खोघं । णवर देवगदिपंचगस्स सव्वत्थो० संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० तु० । संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० तु ० संखेज्जगु० ! असंखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० तु० संखज्जगु० । अवट्टि • संखेज्जगु० ।
०
९६५. वेडव्वि० - वेउच्चिय मिस्सका० देवोधं । णवरि वेउव्वियका० तित्थय० णिरयोघं । आहार० - आहार मिस्सका० सव्वट्टभंगो । कम्मइगका० सव्वत्थो० मिच्छत्त० अवत्त० | अवदि० अनंतगु० । सेसाणं परियत्तमाणियाणं पगदीणं सव्वत्थो ० अवत्त० । अवट्टि • असंखेज्जगु० । एवं अणाहारगे० ।
०
४७८
जुगुप्सा, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके अवक्तव्यपद बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि, और संख्यातगुणहानिपदके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इससे आगे पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका भङ्ग पञ्च ेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान है । असातावेदनीय, छह नोकषाय, तीन गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, तप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण, स्थिर आदि पाँच युगल, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इससे आगे भङ्ग निद्रा प्रकृतिके समान है । चार आयु, आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग के समान है । वचनयोगी और असत्यमृषा वचनयोगी जीवोंमें सपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्र काययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि देवगतिपञ्चककी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानि के बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। ६६५. वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भन है । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग सामान्य नारकियों के समान है । आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवों में सर्वार्थसिद्धि देवोंके समान भङ्ग है । कार्मणकाययोगी जीवों में मिध्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। शेष परिवर्तमान प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणें हैं । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
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धे पाहु
४७६
८
६६६, इत्थिवे० पंचणा०-चदुदंस० चदुसंज० - पंचंत० सव्वत्थो० असंखेज्जगुणबड्डी | असंखेज्जगुणहाणी संखेज्जगु० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० तु० असं० गु० । सेसपदा पंचिदियपज्जत्तभंगो । पंचदंसणा ० - मिच्छत्त० - बारसक० - भय०० - दुगुं०-तेजइगादिणव० पंचिंदियपज्जतभंगो । सादावे ० - पुरिस० - जसगि ० उच्चा० पंचिदियपज्जत्तभंगो | असादा० - छण्णोकसा० - तिष्णिगदि - दोजादि-ओरालि ० - वेउब्वि० - छस्संघा - दोअंगो०छस्संघ - तिष्णिआणु० - आदाउज्जो ० - दोविहा० - तस - थावरादिपंचयुगल - अजस ०णीचा० सम्वत्थो० संज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० तु० । अवत्त ० ज० | संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० तु ० संखेज्ज० । असंखेज्जभागवड्ढि -हाणी ० दो वि० तु० संखेज्जगु० । अवट्ठि ० असंखेज्जगु० । चदुआयु० ओघं । णिरयगदि - तिण्णिजादिगिरयाणु० - सुहुम अपज्ज० -साधार० सव्वत्थो० संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अयत्त० असंखज्जगु० | संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० संखेज्जगु० । असंखज्जभागवड्ढि -हाणी दो वि० संखेज्जगु० । अवट्ठि० असंखेज्जगु० । आहारदुग - तित्थय० मणुसि० भंगो। पर०उस्सा० - बादर - पज्जत - पत्ते० सव्वत्थोवा अवत्त० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० संखेज्ज० ० | संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० संखज्जगु० । असंखेज्जभागवड्डि-हाणी
I
६६६. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी संख्यातगुणवृद्धि के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। शेष पदोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान है । पाँच दर्शनावरण, मिध्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौ का भङ्ग पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान है । सातावेदनीय, पुरुपवेद, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका भङ्ग पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान है । असातावेदनीय, छह नोकषाय, तीन गति, दो जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस और स्थावर आदि पाँच युगल, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तीक हैं । इनसे वक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। चारों आयुओंका भङ्ग श्रोधके समान है । नरकगति, तीन जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है। परघात, उच्छ्रास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक वक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्या - गुणानि बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागहानि के बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और
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४८०
महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे दो वि० संखेज्जगु० । अवढि० असंखेज्जगु० । पुरिसेसु इत्थिभंगो। णवरि तित्थयरं ओघं।
६६७. णवुसगे० पंचणा०-चदुदंसणा-चदुसंज० पंचंत० सव्वत्थोवा असंखज्जगुणवड्डी । असंखज्जगुणहाणी संखेज्जगु० । सेसपदा ओघं । पंचदंसणावरणादिएगुणतीसं पगदीणं ओघं। ओरालि. सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० असंलेज्जगु० उवरि ओधभंगो। वेउव्वियछ० ओघं णिरयगदिभंगो । सेसाणं पगदीणं ओघं ।
९६८. अवगदवे. पंचणा०-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंत० सव्वत्थोना अवत्त । संखेज्जगुणवड्डी संखेज्जगु० । संखेज्जभागवड्डी संखेज्जगु० । संखेंजगुणहाणी संखेंज्जगु०। संखेज्जभागहाणी संखेज्जगु०। सादावे०-जसगि०-उच्चा० सव्वत्थोवा अवत्त । असंखेज्जगुणवड्डी संलेज्जगु० । संखज्जगुणवड्डी संखज्जग० । संखज्जभागवड्डी संखेज्जगुण । असंलेजगुणहाणी संलेजगु० । संखेज्जगुणहाणी संखेज्जगुः । संखेज्जभागहाणी संखेज्जग० । अवढि० संखेज्जग । चदुसंज० सव्वत्थोवा अवत्त । संखज्जभागवड्डी संखज्जगु० । संखेज्जभागहाणी संखज्जगु० । अवट्टि० संखजग०।।
६६६. कोधकसाए. पंचणा० चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० ओघं । णवरि अवत्त. असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदी जीवोंमें स्त्रीवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है।।
६६७. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरंण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी असंख्यातगणवृद्धिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यात गणहानिके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। शेष पदोंका भङ्ग ओघके समान है। पाँच दर्शनावरण आदि उनतीस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। औदारिक शरीरकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्य पदके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। इससे आगेका भङ्ग ओघके समान है । वैक्रियिक छह का भङ्ग ओघमें कहे गये नरकगतिके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है।
६६८. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय के अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। साता वेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे सांख्यातभागवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे सख्यातभागहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। चार सांज्वलनोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
६६६. क्रोधकषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण चार संज्वलन और पाँच
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वविबंधे अप्पाबहुगं
४८१ णत्थि। सेसाणं पि ओघं । माणे सत्तारणं पि अवत्त० णत्थि । सेसाणं पि ओघं । मायाए सोलसणं पि अवत्त० णत्थि । सेसाणं पि ओघं । लोभे पंचणा०-चदुदंस०पंचंत० अवत्त० णत्थि । सेसपदा ओघभंगो ।
६७०. मदि०-सुद० धुविगाणं मिच्छत्त० तिरिक्खोघं । सेसाणं ओघं । विभंगे धुवियाणं णिरयभंगो। मिच्छत्त०-देवगदि-पंचिंदि० ओरालिय०-वेउव्विय०-समचदु०वेउब्विय अंगो०-देवाणुपु०-पर०-उस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेय० सव्वत्थोवा अवत्त० । संखेज्जगणववि-हाणी दो वि० असंज्जग० । उवरिमपदा धुवभंगो। सादासाद०सत्तणोक०-तिण्णिगदि-चदुजादि-पंचसंठाण-ओरालि० अंगो०-छस्संघ०-तिण्णिआणु०आदा० उज्जो० दोविहाय० तस-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साधार०-थिरादिछयुगल-दोगोद० सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० संखेज्जगु० । उवरिमपदा धुवभंगो।
६७१. आभि०-सुद०-ओधि० पंचणा०-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पुरिस-उच्चा०-पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त० । असंखेज्जगुणवड्डी संखेजगुः । असंखेजगुणहाणी संखेजगु० । संखेंजगणवाड्डि-हाणी दो वि० असंग० । संखेजभागवड्डि-हाणी दो वि० संखेजग० ।
अन्तरायका भङ्ग ओबके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पद नहीं है। शेप प्रकृतियोंका भङ्ग भी अोधके समान है। मान कपायवाले जीवोंमें सतरह प्रकृतियों का भी अवक्तव्य भङ्ग नहीं है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओधके समान है। माया कपायवाले जीवास सोलह प्रकृतियोंका अवक्तव्य पद नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भी भङ्ग अोधके समान है । लोभ कपायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका प्रवक्तव्य पद नहीं है। शेष पदोंका भङ्ग ओघके समान है।
६७०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और मिथ्यात्वका भङ्गः सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। मिथ्यात्व, देवगति, पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, चादर, पर्याप्त और प्रत्येकके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इससे
आगेके पदोंका भङ्ग ध्रव बन्धवाली प्रक्रतियोंके समान है। सातावेदनीय, असातावेदनीय. सात नोकषाय, तीनगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यात गुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे अवक्तव्य पदके बन्धक जीत्र संख्यातगुणे हैं। इससे आगेके पदोंका भङ्ग ध्रुववन्धवाली प्रकृतियों के समान है ।
६७१. श्राभिनिवाधिकज्ञानी, अतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुपवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीय सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यानगुणवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्या नगगे हैं। इनमे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव
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४८२
महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे असंखेजभागवड्डि-हाणी संखेजगुः । अवढि० असं०गु० । णिहा-पचला-अट्टक०-भय०. दुगुं०-दोगदि-पंचिंदि०-चदुसरीर०-समचदु०-दोअंगो-बजरिस०-वण्ण०४-दोआणु०अगु०४-पसत्थ० तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थय. सव्वत्थोवा अवत्त० । संखेजगुणवड्डि-हाणी दो वि० असंग० । उवरिमपदा णाणावरणभंगो। सादादिवारस० मणजोगिभंगो । देवायु० ओघं । मणुसायु० देवोघं । आहारदुगं ओघं । एवं ओधिदंस०सम्मादि०-खड्ग०-वेदगसम्मा० । णवरि खइगे दोआयु० मणुसि० भंगो।
६७२. मणपज्ज० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पुरिस०-उच्चा०-पंचंत० ओधिभंगो। सेसाणं आभिणिभंगो। णवरि संखेंज कादव्वं । एवं संजद० ।
९७३. सामाइ०-छेदो०. पंचणा०-चदुदंसणा-लोभसंज०-उच्चा०-पंचंत० अवत्त० णत्थि । सेसं मणपज्जवभंगो । परिहार० आहारकाय-जोगिभंगो। णवरि आहारदुगं ओघं । सुहुमसंप० अवगदवेदभंगो। णवरि अवत्त० णस्थि । संजदासंजदे धुविगाणं सादादीणं च देवभंगो। णवरि तित्थय० इत्थिभंगो। असंजदे धुविगाणं तिरिक्खोघं । सेसाणं दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। निद्रा, प्रचला, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो बाङ्गोपाङ्ग, वज्रऋषभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो अानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्करके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुण हैं। इनसे आगेके पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। साता आदि बारह प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। देवायुका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग समान्य देवोंके समान है। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो आयुओंका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है।
१७२. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनवरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग आभिनिबोधिकज्ञानीजीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिये। इसीप्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिये।
९७३. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका प्रवक्तव्य पद नहीं है। शेष भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें आहारककाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकका भङ्ग अोधके समान है। सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पद नहीं है। संयतासंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और साता आदि प्रकृतियोंका भङ्ग देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। असंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका
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वड्विबंधे अप्पाबहुअं मूलोघं । चक्खुदंस. तसपज्जतभंगो।
६७४. किण्णलेस्साए देवगदि०४ सव्वत्थो० संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० असंखेज्जगु० । दोवड्डि-हाणी संखेज्जगुणा कादव्वा । अवढि० असंखेज्जगु० । ओरालि. सव्वत्यो० संखेज्जगुणवड्वि-हा. दो वि० । अवत्त० असंगु० । उवरिं धुवभंगो । तित्थय० इत्थिभंगो । णवरि अवत्त० णत्थि । सेसाणं पगदीणं असंजदमंगो। एवं णील-काऊए। णवरि काऊए तित्थय० णिरयभंगो। देवगदिचदुक्कस्स य अवत्त० संखेज्जगु०।
६७५. तेऊए धुविगाणं देवमंगो। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-बारसक०-देवगदिओरालि०-वेउव्वि-वेउवि० अंगो०-देवाणु०-तित्थय० सव्वत्थो० अवत्त० । संखेंजगुणवड्डि-हाणी दो वि० असं०गु० । उवरि धुवर्भगो। सादासाद०-सत्तणोक०-दोगदिदोजादि-छस्संठा० ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-आदाव० [उज्जो०-] तस-थावर०-थिरादिछयुग०-णीचागो०-उच्चा० सव्वत्थो० संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० संखेज्जगु० । सेसपदा धुवभंगो। [ आहादुगं ओघं । ] एवं पम्माए वि । भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूल ओघके समान है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें सपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है ।
६७४. कृष्णलेश्यावाले जीवोंमें देवगतिचतुष्ककी संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यात- . गुणे हैं । शेष दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे कहने चाहिये। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। औदारिकशरीरकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंक समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पद नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग असंयतोंके समान है। इसीप्रकार नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कापोतलेश्यावाले जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है तथा देवगति चतुष्कके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
६७५. पीतलेश्यावाले जीवोंमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग देवोंके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, यारह कपाय, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकांगोपांग,देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थंकरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भंग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, दो गति, दो जाति, छह संस्थान, औदारिकांगोपांग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, आतप, उद्योत, त्रस, स्थावर, स्थिर आदि छह युगल, नीचगोत्र और उच्चगोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यात गुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात गुणे हैं । शेष पदोंका भंग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिक
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महाधे द्विदिबंधाहियारे
वरि ओरालि० अंगो० देवगदिभंगो। पंचिंदिय-तस० धुविगाण भंगो | णवरि तिष्णिवेद ० - समचदु० -पसत्थवि ० - सुभग- सुस्सर-आदें ० - उच्चा० थीणगिभिंगो ।
O
६७६. सुक्काए पंचणा० चदुदंसणा० चदुसंज० - पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त० । असंखेज्जगुणवड्डी संखेज्जगु० । असंखेज्जगुणहाणी संखेज्जगु० | संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० असंखेजगु० | संखेज भागवड्डि-हाणी दो वि० संखेजगु० । उबरिं देवगदिभंगो | पंचदंसणा०-मिच्छ०- बारसक० भय-दुगुं ० -दोगदि-पंचिंदि ० चदुसरीर० समचदु० - दोअंगो०वजरस० वण्ण ०४ - दोआणु० -अगु०४-पसत्थवि ० तस ०४ - सुभग- मुस्सर-आदे० - णिमि० तित्थय० सव्वत्थोवा अवत्त० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि तु० असंखैज्जगु० । उबरिमपदा णाणावरणभंगो । सादावेद० जसगि० उच्चा० ओधिभंगो । आसादवे ० - इत्थिवे०णवुंस० - चदुणोक० - पंचसंठा० - पंच संघ० - अप्पसत्थ० - थिराथिर - सुभासुभ- दूभग-दुस्सरअणादे॰-अजस०-णीचा० आणदभंगो । पुरिसवेद० अधिभंगो। णवरि अवत्त० असादभंग । [ आहारदुगं घं । ] अन्भवसिद्धिय- मिच्छा० मदि० भंगो ।
९७७. उवसमसं० पंचणा० चदुदंस० चदु संज ० पुरिस० - उच्चा० पंचंत० सव्वत्थोवा अवन्त । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी संखेज्जगु० | संखेज्जगुणवड्डी • विसे० | सेसपदा आङ्गोपाङ्गका भङ्ग देवगतिके समान है । पञ्चेन्द्रियजाति और त्रस प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के समान है । इतनी विशेषता है कि तीन वेद, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिनिक के समान है ।
६७६. शुक्ललेश्यावाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके वक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यातगुणवृद्धि के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणं हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इससे आगेका भङ्ग देवगतिके समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कपाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, दो अङ्गोपाङ्ग, वज्रऋपभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर के अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इससे आगे के पदोंका भंग ज्ञानावरण के समान है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार नोकपाय, पाँच संस्थान, पाँच संहनन,
प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, प्रयशःकीर्ति और नीचगोत्रका भंग आनत कल्पके समान है । पुरुषवेदका भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका भंग असातावेदनीयके समान है । आहारकद्विकका भंग ओघके समान है । अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भंग है ।
६७७. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात गुणवृद्धि के बन्धक जीव विशेष अधिक
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अज्झवसाणसमुदाहारा
ओधिमंगो० । आहारदुग - तित्थय ० ऍकत्थ भाणिदव्वं । सेसाणं पगदीणं ओधिभंगो । सासणे णिरयभंगो । सम्मामिच्छा० देव०भंगो | सण्णीसु मणजोगिभंगो ।
६७८, असण्णीसु धुविगाणं सव्त्रत्थोवा संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि तु० | संखे - ज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० असं० गु० | असंखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि तु० अनंतगु० । अवडि० असंखेज्जगु० । सेसाणं परियत्तमाणियाणं पगदीणं सन्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्डिहाणी दो वि० | संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० असंखेज्जगु० । अवत्त० अणतंगु० । उवरिमपदा णाणावरणभंगो । णवरि चदुआयु० - वेउब्वियछ० तिरिक्खोघं । एइंदि०आदाव-थावर०-मुहुम-साधार० सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । संखेज्ज - भागवडिहाणी दो वि असं० गु० । उवरिमपदा धुवभंगो । मणुसगदिदुग- उच्चा० संखेज्जगुणवड्डि-हाणी णत्थि । सेसं च भाणिदव्वं । एवं अप्पा बहुगं समत्तं । एवं वह्निबंध समतो अज्झवसाणसमुदाहारो
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९७९. अज्झाणसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-पगदिसमुदासमुदाहारो तिव्वमंददाति ।
हारो
हैं। शेष पदोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इनको एक जगह कहना चाहिये । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों में नारकियोंके समान भङ्ग है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें देवोंके समान भङ्ग है । संज्ञी जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग I
६७८. असंज्ञी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष परिवर्तनमान प्रकृतियोंकी संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि के बन्धक जी दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवतंत्र्य पदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। इससे आगे पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि चार आयु और वैक्रियिक छहका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चों के समान हैं । एकेन्द्रियजाति, तप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण की संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इससे आगे के पदोंका भङ्ग ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि नहीं है । शेष पद कहने चाहिये ।
।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार वृद्धिबन्ध समाप्त हुआ ।
अध्यवसानसमुदाहार
६७६. अध्यवसानसमुदाहारका प्रकरण है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं - प्रकृतिस• मुदाहार, स्थिति समुदाहार और तीव्रमन्दता ।
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महाबंध द्विदिबंधाहियारे
पगदिसमुदाहारो
६८०. पगदिसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि पमाणाणुगमो अप्पा बहुगेति ।
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पमाणाणुगमो
६८१. पमाणाणुगमो पंचणाणावरणीयाणं असंखेज्जा लोगा द्विदिबंधझव सागट्ठाणाणि । एवं सव्वासिं पगदीणं याव अणाहारगे त्ति णादव्वं । णवरि अवगदे सुहुम संपराइगे अंतमुत्तमेत्ताणि अज्जवसाणद्वाणाणि ।
एवं पमाणानुगमो समत्तो । अप्पा बहुअं
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६८२. अप्पाबहुगं दुविहं- सत्थाणअप्पा बहुगं चैव परत्थाणअप्पा बहुगं चैव । सत्थाणअप्पा बहुगं पदं । दुविधो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण पंचणाणावरणीयाणं सरिसाणि अज्झवसाणट्ठाणाणि । सव्वत्थोवाणि थीणगिद्धि०३ द्विदिबंध ज्ावसाणाणाणि । णिद्दा- पचला० द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । चदुदंसणा ० दिबंधझवसाणट्ठाणाणि विसे० । सव्वत्थोवा सादस्स ट्ठिदिबंधझवसाणट्ठाण ० । असादस्स ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । सव्र्वत्थोवा ० हस्सरदि० हिदिझवाण० । पुरिस० ट्ठिदिबं० विसे० । इत्थि० द्विदिवं असंखेज्जगुणाणि । णवंस०
प्रकृतिसमुदाहार
६८०. प्रकृतिसमुदाहारका प्रकरण है । उसमें ये दो अनुयोगद्वार होते हैं - प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व |
प्रमाणानुगम
६८१. प्रमाणानुगम - पाँच ज्ञानावरणीयके असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । इसी प्रकार सभी प्रकृतियों के अनाहारकमार्गणा तक जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति अध्यवसानस्थान होते हैं । इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ ।
अल्पबहुत्व
६८२. अल्पबहुत्व दो प्रकार का है - स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्व | स्वस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है - ओघ और आदेश । ओवसे पाँच ज्ञानावरणीय अध्यवसानस्थान समान होते हैं । स्त्यानगृद्धित्रिकके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक होते हैं। इनसे निद्रा और प्रचलाके स्थितिवन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक होते हैं । इनसे चार दर्शनावरणके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक होते हैं । सातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक होते हैं । इनसे असातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणं होते हैं । हास्य और रतिके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक होते हैं । इनसे पुरुषवेद स्थितिबन्धध्यवसानस्थान विशेष अधिक होते हैं। इनसे स्त्रीबदके स्थितिबन्धा. व्यवसान स्थान असंख्यातगुणं होते हैं । इनसे नपुंसकवेदके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान असंख्या
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पगदिसमुदाहारे सत्थाणअप्पाबहुगं द्विदिवं. असंखें । अरदि-सोग० द्विदिवं० विसे० । भय-दुगुं० द्विदिवं० विसे० । अणंताणुबंधि०४ द्विदिवं. असंखेज्ज० । अपचक्खाणा०४ हिदिवं० विसे० । पञ्चक्खाणा०४ द्विदिवं० विसे । कोधसंज० द्विदिवं० विसे० । माणसंज० द्विदिबंधज्झ० विसे । मायासंज० द्विदिवं० विसे० । लोभसंज० द्विदिवं० विसे० | मिच्छ० द्विदिवं. असंखेंज्जगु० । सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायूर्ण हिदिवं० । णिरयायुग० द्विदिवं. असंखेजगुण। देवायुग० द्विदिबं० विसेसा । सव्वत्थोवा देवगदिणामाए द्विदिवं० । मणुसगदिणामाए द्विदिवं. असंखेज्जगु० । णिरयगदि० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । तिरिक्खगदि० द्विदिवं० विसे० । सम्बत्थोवा चदुरिंदि० द्विदिबं० । तीइंदि० द्विदिवं० विसे । बीइंदि० द्विदिवं. विसे० । एइंदि० हिदिबं. असंखेज्जगु० । पंचिंदिय० द्विदिवं० विसे०। सव्वत्थोवा० आहारसरीर० द्विदिबं० । ओरालि० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । वेउविय० ट्ठिदिवं० विसे । तेजइगादिणव द्विदिवं० विसे० । सव्वत्थोवाणि समचदु० द्विदिबं० । णग्गोद० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । सादिय० हिदिवं. असंखेज्जगु० । खुज्ज० डिदिवं. असंखे
तगुणे होते हैं । इनसे अरति और शोकके स्थितिबन्धाध्यसान स्थान विशेष अधिक होते हैं । इनसे भय और जुगुप्साके स्थिति बन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक होते हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतष्कके स्थितिवन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगणे होते हैं। इनसे अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके स्थितिवन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक होते हैं । इनसे प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक होते हैं। इनसे क्रोध संज्वलनके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक होते हैं। इनसे मान संज्वलनके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक होते हैं। इनसे मायासंज्वलनके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक होते हैं। इनसे लोभसंज्वलनके स्थितिबन्धाध्यसानस्थान विशेष अधिक होते हैं। इनसे मिथ्यात्वके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुण होते हैं। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक होते हैं। इनसे नरकायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे देवायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक होते हैं । देवगतिनामकर्मके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक होते हैं। इससे मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे नरकगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे तिर्यश्चगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक होते हैं। चतुरिन्द्रिय जातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक होते हैं। इनसे त्रीन्द्रिय जातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक होते हैं। इनसे द्वीन्द्रिय जातिके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक होते हैं । इनसे एकेन्द्रिय जातिके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे पञ्चेन्द्रिय जातिके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक होते हैं। आहारकशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक होते हैं। इनसे औदारिकशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे वैक्रियिक शरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक होते हैं । इनसे तैजसशरीर आदि नौ प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक होते हैं । समचतुरस्रसंस्थानके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक होते हैं। इनसे न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगणे होते हैं। इनसे स्वातिसंस्थानके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे होते हैं। इनसे सुन्जकसंस्थानके स्थिनिबन्धाध्यवमानस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे वामन संस्थानके
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महाबंध द्विदिबंधाहियारे
ज्ज० । वामणसंठा ० द्विदिवं असंखेज्जगु० । हुंडसं० द्विदिवं ० असंखज्जगु० । सव्वत्थोवा० आहारसरीरअंगो० ट्ठिदिबं० । ओरालिय० अंगो० ट्ठिदिबं० असंखेज्जगु० । उव्वय० अंगो० ट्ठिदिबं० विसे० । सव्वत्थोवा ० वञ्जरिस० ट्ठिदिबं० । एवं यथा संठाणं तथा संघडणं । यथा गदो तथा आणुपुच्ची । सव्वत्थोवा ० पसत्थवि ० हिदिबं० । अप्पसत्थ० ट्ठिदिबं० असंखजगु० । सव्वत्थोवा ० थावरणामा ए द्विदिवं । तस० डिदिवं विसे० । सव्वत्थोवा • सुदुम-अपजत साधारण- थिर-सुभ-सुस्सर-आदेख - जसगि०उच्चा० द्विदिवं । तप्पडिपक्खाणं द्विदिवं असंखेज्जगु० । पंचंतरा० द्विदिवं० सरिसाणि । एवं ओघभंगो कायजोगि- कोधादि ०४ - अचक्खुदं० भवसि ० - आहारगे ति ।
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८३. रइसु सव्वत्थोवा श्रीण गिद्धि ०३ द्विदिबं० । छदंसणा० विसे० । सादासादा० ओघभंगो। सव्वत्थो० पुरिस० । हस्स रदि० द्विदिवं असंखे । [ इत्थि ० डिदिनं ० असंखजे० । ] स ० द्विदिवं ० असंखेजगु० । अरदि-सोग० विदिबं० विसे० । भय०-दु० द्विदिबं० विसे० । अनंताणुबंधि०४ द्विदिवं ० असंखेज्जगु० । बारसक० द्विदिवं० विसे० | मिच्छत्त० द्विदिवं असंखेज्जगु० । सव्वत्थो० मणुसग० ङ्किदिर्घ० ।
।
स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुण होते हैं । इनसे हुण्डसंस्थान के स्थितियन्वाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। आहारकशरीर आङ्गोपाङ्गके स्थितिवन्ध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे वैकिकिशरीर आङ्गोपाङ्गके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । वज्रऋषभनाराचसंहननके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । ऐसे ही जिसप्रकार संस्थानों की अपेक्षा अल्पबहुत्व कह आये हैं, उसीप्रकार संहननोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिये । तथा जिसप्रकार चारोंगतियों की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है, उसीप्रकार आनुपूर्वियोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिये । प्रशस्तविहायोगति के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे अप्रशस्तविहायोगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । स्थावरनामकर्मके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे त्रसनामकर्मके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म,
पर्याप्त, साधारण, स्थिर, शुभ, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यागुणे हैं। पाँच अन्तरायोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सदृश हैं । इसी प्रकार के समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुः दर्शनी, भव्य और आहारक जीवों के जानना चाहिये ।
६८३. नारकियों में स्त्यानगृद्धित्रिकके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे RE दर्शनावरण के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। सातावेदनीय और असाता वेदनीयका भंग के समान है । पुरुषवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे हास्य और रतिके स्थितिबन्धाध्यावसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे स्त्रीवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे नपुंसकवेदके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात
हैं। इसे रति और शोकके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे भय और जुगुप्सा स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चारके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे बारह कपायोंके स्थितिबन्धाध्यावसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्व के स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्य
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पगदिसमुदाहारे सत्थाणअप्पाबहुगं तिरिक्खग० द्विदिवं. असंखज्जगु० । सेसाणं पगदीणं ओघं । एवं सत्तसु पुढवीसु० ।
६८४. तिरिक्खेसु दंसणावरणीय-वेदणीय-मोहणीय०णिरयभंगो। णवरि मोहणीयअपचक्खाणा०४ द्विदिवं० विसे० । अट्ठकसा० द्विदिवं० विसे । मिच्छ० द्विदिबं० असंखेज्जगु० । सव्वत्थोवा० तिरिक्ख-मणुसाणं ट्ठिदिबं० । देवायु० द्विदिबं. असंखें. ज्जगु० । णिरयायु० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । सव्वत्थो० देवगदि० द्विदिवं०। मणुसगदि. द्विदिवं. असंखेज्जगु० । तिरिक्खगदि० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । णिरयगदि० द्विदिवं. असंखज्जगु०। सव्वत्थो० चदुरिंदि० द्विदिवं० । तीइंदि० हिदिबं० विसे । बेइंदि० हिदिवं० विसे० । एइंदि० द्विदिवं० विसे० । पंचिंदि० द्विदिवं. असंखेन्जगुः । सव्वत्थो० ओरालि० द्विदिवं० । वेउवि० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । तेजा०-क० द्विदिवं० विसे० । संठाणं संघडणं ओघं। णवरि खीलियसंघडणादो असंपत्तसेव० विसे० । सेसाणं ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-जोणिणीसु।।
६८५. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु सव्वत्थोवाणि सादावेद० द्विदिवं० । असादा० द्विदिव० असंखज्ज०। सव्वत्थोवा० पुरिस० द्विदिवं० । इत्थिवे० द्विदिवं. असंखेंज्जगु० । हस्स-रदीणं हिदिबं. असंखज्जगु० । णवुस० द्विदिवं. असंखज्जगु० । अरदिवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे तिर्यञ्चगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भंग ओधके समान है । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिये ।
१८४. तिर्यश्चोंमें दर्शनावरणीय, वेदनीय और मोहनीयका भंग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि मोहनीयमें अप्रत्याख्यानावरण चारके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे आठ कषायोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे देवायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे नरकायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। देवगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे तिर्यश्चगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे नरकगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। चतुरिन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे त्रीन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे द्वीन्द्रिय जातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे एकेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे पञ्चेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । औदारिक शरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे वैक्रियिकशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुण हैं । इनसे तैजस और कार्मणशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । संस्थानों और संहननोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें कीलकसंहननसे असम्प्राप्तामृपाटिकासंहननके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार पश्चेन्द्रियतिर्यश्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यश्चयोनिनी जीवोंमें जानना चाहिये।।
६५. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्त जीवोंमें सातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे असातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे स्त्रीवेदके स्थितिबन्धाध्यावसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे हास्य और रतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे नपुंसकवेदके
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महाबँधे द्विदिधाहियारे
सोग० ट्ठिदिनं ० विसे० । भय० दुगुं० ट्ठिदिबं० विसे० । सोलसक० ट्ठिदिबं० असंखेजगु० । मिच्छत्त० द्विदिबं० असंखेअगु० । सव्वत्थोवाणि मणुसगदि० द्विदिवं० । तिरिक्खग दि० ट्ठिदिबं० असंखेज्जगु० । सव्वत्थोवाणि पंचिंदि० द्विदिवं । चदुरिंदि ० द्विदिबं० असंखेजगु० । तीइंदि० द्विदिवं ० असंखेजगु० । बीइंदि० ट्ठिदिबं० असंखज्जगु० । एइंदि० विदिबं० असंखेजगु० । संठाणं संघडणं विहायगदी ओघं । सम्वत्थो० तसणामाए द्विदिबंधज्झ० । थावर० ट्ठिदिबं० असंखेज्जगु० । सेसाणं ओघं । एवं मणुस अपज्जत सव्त्र विगलिं दिय-पंचिंदिय-तस अपज्ज० सव्वएइंदि० पंचकायाणं च । ९८६. मणुसेस हेडिल्लियो ओघभंगो । गदिणामाए जादिणामाए च तिरिक्खोघं । वरि वेउब्बिय • असंखेज्जगु० । सेसं तिरिक्खोघं ।
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९८७. देवाणं णिरयभंगो । णवरि सव्वत्थोवा० एइंदि० द्विदिबं० । पंचिंदिय० द्विदिबं० विसे० । एवं तस थावराणं । भवणवा० वाणवेंत ० - जोदिसि ० - सोधम्मीसाणेसु सन्वत्थो० पंचिंदिय० ट्ठिदिबं० । एइंदि० ट्ठिदिबं० असंखेज्जगु० । एवं तस - थावराणं । सव्वत्थोवा असंपत्तसेवट्ट० ट्ठिदिबं० । खीलिय० विसे० | सेसाणं देवोघं | सणकुमारस्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे अरति और शोकके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे भय और जुगुप्सा स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे सोलह कषायोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे मिध्यात्वके स्थितिबन्धाध्यसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे तिर्यचगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संख्यातगुणे हैं । पचेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे चतुरिन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे त्रीन्द्रिय जातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे द्वीन्द्रियजातिके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे एकेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। संस्थान, स ंहनन और विहायोगतिका भङ्ग श्रधके समान है । त्रसनामकर्मके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे स्थावरनामकर्म के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियपर्याप्त, अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिये ।
I
६८६. मनुष्यों में नीचेकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान है । गतिनामकर्म और जातिनामकर्मका भङ्ग सामान्य तिर्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकशरीर के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। शेष भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है ।
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६८७. देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियजाति के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे पचेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार त्रस और स्थावर प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्मैशानकल्पके देवोंमें पञ्चेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे एकेन्द्रिय जातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार त्रस और स्थावर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । सम्प्राप्तस्पाटिकासंहननके स्थितिवन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे कीलकसंहननके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान विशेष
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पगदिसमुदाहारे सत्यागअप्पाबहुगं
४६१ याव० उवरिमगेवज्जा पढमपुढवीभंगो। अणुदिस याव सबढेसु सव्वत्थो० हस्स-रदीणं द्विदिवं० । अरदि-सोग० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । पुरिस०-भय-दुगुं० विसे० । बारसक० द्विदिबं. असं०गु० । सेसाणं णिरयभंगो। एवं एस भंगो आहार-आहारमि०-आभि० सुद०-ओधि०-मणपज्जव०-सव्वसंजद-ओधिदं०-सम्मादि० खड्ग०-वेदगस०-उवसमस०सासण-सम्मामिच्छा।
६८८. पंचिंदि०-तस०२-पंचमण०-पंचवचि०-पुरिस०-चक्खुदं०-सण्णि त्ति मूलोघं । ओरालियका० मणुसिभंगो। ओरालियमि० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। णवरि देवगदि०४ अस्थि । वेउवि० देवोघं। एवं चेव वेउन्वियमिस्स० । कम्मइ०-अणाहारगे तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । विसेसो ओघेणेव साधेदव्वं । इत्थिवे० पंचिंदियभंगो । किंचि विसेसो०। णqसगेसु ओघं । जादिणामेसु विसेसो० । अवगदवेदे ओघेण साधेदव्वं । एवं सुहुमसंपरा० । मदि०-सुद०-विभंगणाणि-अब्भवसिद्धिय-मिच्छा० ओघं । णवरि सम्मत्तपगदीसु विसेसो । असंजदे ओघं । आयु० विसेसो । एवं तिण्णिले । णवरि किंचि विसेसो ।
६८६. तेऊए मोहणीयो ओघो । सेसाणं सोधम्मभंगो। एवं पम्माए वि । णवरि अधिक हैं । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। सानत्कुमार कल्पसे लेकर उपरिमग्रैवेयक तकके देवोंमें पहली पृथ्वीके समान भङ्ग है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें हास्य और रतिके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे अरति और शोकके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे बारह कषायोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इसी प्रकार यह भङ्ग आहारककाययोगी आहा. रकमिश्रकाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, सब संयत, अवधि, दर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्याहृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
८. पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवों में मूल ओघके समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यिनियोंके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तिर्यञ्चअपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें देवगतिचतुष्क है। क्रियिककाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है। इसीप्रकार वक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें तिर्यञ्चअपर्याप्सकोंके समान भङ्ग है। जो विशेष हो उसे ओघसे साध लेना चाहिये । स्त्रीवेदी जीवोंमें पञ्चेन्द्रियके समान भङ्ग है। किन्तु कुछ विशेषता है । नपुंसकवेदी जीवोंमें ओबके समान भङ्ग है। किन्तु जातिनामककर्मकी प्रकृतियोंमें कुछ विशेषता है। अपगतवेदी जीवोंमें ओघके समान साध लेना चाहिये । इसीप्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिये । मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, अभव्य
और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वसम्बन्धी प्रकृतियोंमें विशेषता जाननी चाहिये। असंयतोंमें ओघके समान भङ्ग है। किन्तु चार आयुओं विशेषता जाननी चाहिये । इसीप्रकार तीन लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इनमें कुछ विशेषता है।
हह. पीतलेश्यावाले जीवोंमें मोहनीयका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सौधर्मकल्पके समान है। इसीप्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिये। इतनी विशेषता है
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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सहस्सारभंगो। सुक्काए ओघं । णवरि पामे विसेसो। सव्वत्थोवा० मणुसगदि. हिदिबं० । देवगदि० द्विदिवं० विसे० । अथवा देवगदि० बंध० थोवा० । मणुसगदि. द्विदिवं. असंखेज्जगुः । एवं सव्वणामाणं णेदव्वं । असण्णीसु मोहणीयं अपज्जत्तभंगो। चदु० आयु० तिरिक्खोघं । सेसाणं तिरिक्खोघं। एवं सत्थाणअप्पाबहुगं समत्तं
६६०. परत्थाणअप्पाबहुगं पगदं । दुविधो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वत्थोवाणि तिरिक्ख-मणुसायूर्ण द्विदिवंधज्झवसाणट्ठाणाणि । णिरयायुगस्स हिदिबंधझवसाणट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । देवायु० द्विदिबंध० विसेसाहियाणि । आहारसरीर० द्विदिव० असंखेज्जगु० । देवगदि० द्विदिवं. असंखेजगु० । हस्स-रदीणं द्विदिबं० विसेसा० । पुरिस० द्विदिवं० विसे० । जस०-उच्चा० द्विदिवं० विसे० । सादावे. ट्ठिदिवं० असंखेजगु० । मणुसगदि० हिदिबं० विसे० । इत्थिवे. द्विदिबं० विसेसा० । णिरयगदि. द्विदिबं. असंखेजगु० । णबुंस० द्विदिबं० विसे० । अरदि-सोग०-अजस० द्विदिवं० विसे० । तिरिक्खगदिणीचागो० द्विदिबं० विसेसा० । ओरालिय० द्विदिबं० विसे० । वेउन्विय० द्विदिवं० विसे। तेजा०-कम्म० द्विदिवं० विसे० । भय-दुगुं० द्विदिवं०
कि इनमें सहस्रारकल्पके समान भङ्ग है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें ओषके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि नामकर्ममें कुछ विशेषता जाननी चाहिये । मनुष्यगतिके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे देवगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । अथवा देवगदिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार सब नामकर्मकी प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिये । असंजियोंमें मोहनीयकर्मका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। चारों आयुअोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है - तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है।
इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ६६०. परस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु के स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे नरकायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे देवायुके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक हैं। इनसे आहारकशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे देवगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे हास्य और रतिके स्थितिवन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। इनसे पुरुषवेदके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक हैं। इनसे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे सातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं। इनसे मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे स्त्रीवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे नरकगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं। इनसे नपुंसकवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे अरति, शोक और अयशःकीर्तिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक है। इनसे तिर्यञ्चगति और नीचगोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे औदारिकशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे वैक्रियिकशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे तैजस और कार्मणशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे
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पेगदिसमुदाहारे परत्थाण अप्पाबहुगं
४६३ विसे० । असाद० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । थीणगिद्धि०३ द्विदिवं० विसे । णिद्दापचला० द्विदिवं० विसे० । पंचणाणा०-चदुदंसणा०-पंचंत० द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसा० । अणंताणुबंधि०४ डिदिबंधज्झवसाण. असंखेजगु० । अप्पचक्खाणा०४ द्विदिवं० विसे । पञ्चक्खाणा०४ द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसा० । कोधसंज. द्विदिबं० विसे । माणसंज० द्विदिबं० विसे । मायासंज० द्विदिवं० विसे । लोभसंज० द्विदिबंधज्झ० विसेसा० । मिच्छत्त० टिदिबंधज्झव० असंखेजगु० । एवं ओघं पंचिंदियतस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-पुरिस०-कोधादि०४-चक्खुदं०-अचक्खुदं०भवसि०-सण्णि-आहारग त्ति । णवरि पुरिस० कोधादिसु च मोहणीए विसेसो ओघेण साघेदव्वं ।
६६१. णिरएसु सव्वत्थोवाणि दोण्णं आयुगाणं ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि। पुरिस०हस्स-रदि-जसगि०-उच्चा० द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेज्जगु० । सादावे० हिदिवं० असंखेजगु० । इथिवे० द्विदिबं० विसेसा० । मणुसगदि० द्विदिबंधज्झव० विसे० । णवूस० द्विदिबंध० असंखज्जगु०। अरदि-सोग-अजसगित्ति० द्विदिवं० विसेसा० । तिरिक्खगदिणीचागो० द्विदिबंध० विसेसा० । भय-दुगुं०-ओरालिय-तेजा०-कम्मइय० भय और जुगुप्साके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे असातावेदनीयक स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं। इनसे स्त्यानगृद्धि तीनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे निद्रा और प्रचलाके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे पाँचज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं। इनसे अप्रत्याख्यानावरण चारके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे प्रत्याख्यानावरण चारके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोध संज्वलनके 'स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे मान संज्वलनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे माया संज्वलनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे लोभ संज्वलनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं । इसी प्रकार अोधके समान पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, चक्षुःदर्शनी, अचक्षुःदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदी और क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें मोहनीयकी विशेषता ओघके अनुसार साध लेना चाहिये ।
६१. नारकियोंमें दो आयुओंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे पुरुषवेद, हास्य, रति, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे सातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे स्त्रीवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे नपुंसकवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे अरति, शोक और अयशःकीर्तिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे तिर्यञ्चगति और नीचगोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरके
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महाबंध द्विदिबंधाहियारे
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ट्ठिदिबंध • विसेसा | असादा० द्विदिबंध • असंखेजगुणाणि । थोणगिद्धि ०३ द्विदिबंध ० विसेसाहियाणि । पंचणा० छदंसणा० - पंचंत० ट्ठिदिबंधझवसाण० विसेसाहियाणि । अणंताणुबंधि०४ ट्ठदिबंध असंखेज्जगु० । बारसक० ट्ठिदिबंध • विसे० । मिच्छत्त० हिदिबंध० असंखेज्जगु० । एवं पढमाए पुढवीए | णवरि मणुसगदि० द्विदिबंध ० विसे० । तिरिक्खगदि० द्विदिबंध • असंखेजगु । णीचागो० ट्ठिदिबंध ० विसे० । णवंस० दिबंध • विसे० । अरदि-सोग - अजस० द्विदिबंध० विसे० । उवरि णिरयोघं । एवं याव छट्टिति ।
६६२, सत्तमाए सव्वत्थोवा ० तिरिक्खायु० द्विदिबंध • । मणुसगदि - उच्चागो ० ट्ठिदिबंध० असंखेज्जगु० । पुरिस ० - हस्स - रदि - जसगित्ति ० ट्ठिदिबंध • असंखेज्जगु० । सादावे० ट्ठिदिबंध • असंखजगु० । इत्थवे ० द्विदिबंध • १
जीवसमुदाहारो
६६३.
मैं
. असादस्स चदुट्ठाणबंधगा जीवा । आभिणि० जहणियाए द्विदीए जीवेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागं गंतूण दुगुणवड्डिदा । एवं दुगुणवड्डिदा स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे असातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे स्त्यानगृद्धित्रिक के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। अनन्तानुबन्धी चारके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे बारह कषायोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्वके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पहली पृथ्वीमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाव्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे तिर्यञ्चगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असं ख्यातगुणे हैं। इनसे नीचगोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे नपुंसक वेदके स्थितिबन्धाध्यसनस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे अरति शोक और अयशः कीर्तिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इससे आगे सामान्य नारकियों के समान भङ्ग है । इसी प्रकार छठवीं पृथिवी तक जानना चाहिये ।
६६२. सातवीं पृथिवीमें तिर्यञ्चायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे मनुष्यगति और उच्चगोत्रके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे पुरुषवेद, हास्य, रति और यशःकीर्तिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे सातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे स्त्रीवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान'
जीवसमुदाहार ६६३. .... असाताके चतुःस्थानबन्धक जीव हैं । आभिनिबोधज ज्ञानावरणकी जन्यस्थिति बन्धक जीवोंसे पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर दूनी वृद्धिको
१ क्रमाङ्क ११२ ताडपत्रं त्रुटितम् ।
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जीवसमुदाहारे अणियोगद्दारं दुगुणवड्डिदा याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा याव सादस्स असादस्स य उक्कस्सिया हिदि त्ति । उवरि मूलपगदिभंगो।
एवं जीवसमुदाहारे त्ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं उत्तरपगदिहिदिबंधो समत्तो ।
एवं द्विदिबंधो समत्तो।
प्राप्त हुये हैं। इसीप्रकार सौ सागर पृथक्त्वतक दूनी-दूनी वृद्धिको प्राप्त हुये हैं । उससे आगे पल्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाण जाकर दृने हीन हैं। इस प्रकार सातावेदनीय और असातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक दूने-दने हीन होते गये हैं। इससे आगे भङ्ग मूलप्रकृतिवन्धके समान है।
इस प्रकार जीवसमुदाहार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। इस प्रकार उत्तरप्रकतिस्थितिवन्ध समाप्त हा॥ इस प्रकार स्थितिबन्ध समाप्त हुआ।
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