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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे णिमि.णिय० बं० । तं तु०। [उज्जो० सिया० । तं तु० । ] एवं ओरालि०ओरालि अंगो-असंपत्त०-तिरिक्वाणु०-उज्जोव त्ति । मणुसगदि-देवगदि० ओघं ।
७५. एइंदि० उक्क डिदिबं० तिरिक्खगदि-ओरालि-तेजा-क-हुड०वरण ४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-अथिरादिपंच-णिमि० [णिय. बं० । णिय. अणु०] संखेंजदिभागू०। पर-उस्सा०-उज्जो०-वादर-पज्जत्त-पत्तेय० सिया० संखेज्जदिभाग० । आदाव-सुहुम-अपज्जत्त-साधारणं सिया० । तं तु० । थावर० णिय बं० । तं तु० । एवं थावर० । बीइंदि०-तीइंदि०-चदुरिं० अोघं ।
७६. पंचिदि. उक्क हिदिवं. तेजा-क-हुंड०-वएण०४-अगु०४-अप्प
है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्याताभाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होताहै और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो कदाचित् उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और कदाचित् अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। मनुष्य गति और देवगतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष ओघके समान है।
__ ७५. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमले बन्धक होता है । जो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यन स्थितिका बन्धक होता है। परघात, उल्लास, उद्योत, वादर, पर्याप्त और प्रत्येक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है,नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवों भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है,तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका वन्धक होता है । स्थावर प्रकृतिका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यन तक स्थितिका वन्धक होता है । इसी प्रकार स्थावर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष अोघके समान है।
७६. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क,
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