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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं असंपत्त० । वज्जरि० श्रघं । वरि विसेसो ओरालि० अंगो० यि० संखेज्जदिभागू० ।
७३. सुहुम-अपज्जत - साधारणं ओघं । वरि विसेसो । पज्जत्त० उक्क० हिदिबं० ओरालि० अंगो० - असंपत्तसे० आदेसेण सिया० । तु० । थिर० श्रघं । रावरि विसेसो, ओरालि॰अंगो० - असंपत्त० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं सुभ ०जसगि० । तित्थय० श्रघं ।
७४. पुरिसवेदे सव्वाणं श्रघं । बुंसग० सत्तणं श्रघं । गिरयगदि० ओघं । तिरिक्खगदि० उक्क० द्विदिबं० पंचिदि० - ओरालि ०- तेजा-० -०क०. - हुंड०-ओरालि०अंगो०-संपत्त ०-वरण०४- तिरिक्खाणु० गु०४ अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ०
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विहायोगति, पर्याप्त और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार असम्प्राप्तासृपाटिका संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । वज्रर्षभनाराच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष के समान है । इतना विशेष है किं श्रदारिक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है ।
७३. सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष के समान है । किन्तु यहाँ विशेष जानकर कहना चाहिए। पर्याप्तकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव दारिक आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तास्पाटिका संहननका आदेश से कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष श्रधके समान है । इतनी विशेषता है कि श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तापाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियम अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष श्रोघके समान है।
७४. पुरुषवेदवाले जीवोंके सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवम्लबन लेकर सन्निकर्ष के समान है । नपुंसक वेदवाले जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिका व लम्बन लेकर सन्निकर्षं श्रोध के समान है । नरकगतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष ओघ के समान है। तिर्यञ्चगतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता
१. मूलप्रतौ हुंड० उज्जो० सिया तं तु० धोरा - इति पाठः ।
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