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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ७०. समचदु० उक्क हिदि० अोघं । णवरि ओरालि०अंगो-असंपत्तः सिया'. संखेजदिभागू० । एवं पसत्थवि० सुभग-सुस्सर-आदें । णग्गोद-सादि०-खुज्जसंठा० ओघं।
७१. वामणसंठा० उक्क हिदिबं० ओरालि अंगो० णिय०। तं तु । खीलियसंघ०-असंप० सिया० । तं तु० । सेसं ओघं ।।
७२. ओरालि०अंगो० उक्क टिदिवं. तिरिक्खगदि-ओरालिय-तेजा-कवएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-तस-बादर-पज्जत्त-अथिरादिपंच-णिमि० णि बं० संखेज्जदिभागू० । बीइंदि०-तीइंदि०-चदुरिं०-वामण-खीलिय०-असंप०-अपज्ज० सिया० । तं तु० । पंचिंदि०-हुड०-पर-उस्सा०-उज्जो०-अप्पसत्थ-पज्जत्त०-दुस्सर
७०. समचतुरस्र संस्थानके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करने पर वह ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि औदारिक आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और प्रादय इन प्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष कहना चाहिए। न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वाति संस्थान और कुब्जक संस्थानके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलन्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करने पर वह श्रोधके समान है।
७१. वामन संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव औदारिक प्राङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवॉभागन्यनतक स्थितिका बन्धक होता है। कीलक संहनन और असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अब. न्धक होता है । यदि बन्धक होता है। तोउत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। शेष सन्निकर्ष ओघके समान है।
७२. औदारिक प्राङ्गोपाङ्गकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, वामन संस्थान, कीलक संहनन, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन और अपर्याप्त इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है। पञ्चेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, परघात, उदास, उद्योत, अप्रशस्त
१. मूलप्रतौ सिया० तं तु० संखे-इति पाठः।
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