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________________ ३५ उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा ६७. मणुसगदि० उक्तहिदिवं० ओघ । रणवरि ओरालिअंगो० णिय० बं० संखेंजदिभाग० । दोसंठा-तिएिणसंघ०-अपज्ज० सिया० संखेज्जदिभाग० । ६८. देवगदि० उक्क हिदिबं० ओघं । बीइंदि०-तीइंदि०-चदुरिं० उक्क.हिदि० श्रोघं । णवरि विसेसो, ओरालि अंगो-असंपत्तसे० णिय० । तं तु० । आहारआहार अंगो० अोघं । ६६. तेजइग० उक्क हिदिवं० कम्मइ-हुडसं०-वएण४-अगु०[४]-बादर-पज्जत्तपत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि०-णिय० बं० । तं तु० । णिरयगदि-एइंदि०-पंचिंदि०. ओरालि-वेउव्वि०-वउव्वि०अंगो०-दोआणु-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ-तस--थावर-- दुस्सर० सिया० । तं तु० । एवं तेजा भंगो कम्पइग-हुड०-वएण०४-अगु०४बादर-पज्जत्त-पत्तेय अथिरादिपंच-णिमिण ति। ६७. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करनेपर वह ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि औदारिक आङ्गोपाङ्गका यह नियमसे बन्धक है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक है। दो संस्थान, तीन संहनन और पर्याप्त इनका कदाचित बन्धक है और कदाचित अबन्धक है। यदि बन्धक है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्याता भाग हीन स्थितिका बन्धक है। ६८. देवगतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करनेपर वह ओघके समान है। द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्षका विचार करनेपर वह ओघके समान है। इतना विशेष है कि औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तामृपाटिका संहननका नियमसे बन्धक होताहै जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । आहारक शरीर और प्राङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष का विचार करनेपर वह अोधके समान है। ६६. तेजस शरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान,वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसेलेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, दो आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, आप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तैजस शरोरके समान कार्मण शरीर, हण्ड संस्थान. वर्णचतष्क, अगरलघचतष्क, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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