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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सुस्सर-आदेο ० अ० णि० बं० अणु० संखेज्जदिभागहीरणं ० । 1 ६५. इत्थवे ० पंचणा०-णवदंसणा ० - दोवेद-मोहणी० छव्वीस आयु० ४ - दोगोद ०पंचत० ओघं । णिरयगदि० उक्क० डिदि ० बं० पंचिंदि० - वेडव्वि ० तेजा० क० - हुड०वेव्व ० गो००-वरण ०४ - गिरयाणु० - गु०४ - अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ०-णिमि० रिणय० बं० । तं तु । एवं गिरयगदिभंगो पंचिंदि० - वेडव्त्रि ० - वेडव्वि ० अंगो०-गिरयाणु० - अप्पसत्थ तस - दुस्सर ति । ३४ ६६. तिरिक्खग० उक० हिदिबं० एइंदिय-ओरालि० - तेजा ० ० क० - हुंडर्स ० - वरण ०४तिरिक्खाणु० गु०४ - थावर - बादर - पज्जत- पत्ते ० -अथिरादिपंच - रिणमि० पिय० बं० । तं तु । आदाउज्जो सिया० । तं तु । एवं तिरिक्खगदिभंगो एइंदि० - ओरालि०तिरिक्खाणु० - दाउज्जो' ० थावर ति । इनका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवां भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । ६५. स्त्रीवेदवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेद, मोहनीय छब्बीस, आयु चार, दो गोत्र और पाँच अन्तराय इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष श्रधके समान है। नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक श्रङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नरकगतिके समान पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर वैक्रियिक श्रङ्गोपाङ्ग, नरकगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६६. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, श्रौदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । श्रातप और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातव भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिके समान एकेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, तप, उद्योत और स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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