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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे त्थवि०-तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-अजस०-णिमि० बं० । तं तु० । मणुसग -देवग-ओरालि-वेउव्वि०-दोअंगोवं०---वज्जरि०--दोआणु०--तित्थय० सिया० । तं तु०। एवं पंचिंदिय-भंगो तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४पसत्थवि०-तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर--आदेज-अजस--णिमिण त्ति । आहार-आहार०अंगो ओघं । ८४. थिर० उक्क हिदिवं. पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४. पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि• णि० बं० संखेंजगुणहीणं बं० । मणुसगदि-देवगदि-ओरालि-उव्वि०-दोअंगो०-चजरिस-दोघाणु० सिया० संखेंजगुणहीणं बं० । सुभ-जसगित्ति० सिया० । तं तु. । असुभ-अजस-तित्थ० सिया. शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयश कीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो प्रानुपूर्वी और तीर्थकर इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष ओघके समान है। ८४. स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुखर, आदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका वन्धक होता है। मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और दो अानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। शुभ और यश-कीर्तिका कदाचित् होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भीबन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,५क सपय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भागन्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । अशुभ. अयशकीर्ति और तीर्थकर इनका १. मूलप्रतौ पंचिंदिय तेजादि भंगो इति पाठः । २.मूलप्रत्तों के सुभग-जसगित्ति इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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