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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूषणा संखेजगुणहीणं बं० । एवं सुभ-जसगित्तिः ।
८५. मणपज्जव० छण्णं कम्माणं ओघं । कोधसंज० उक्क ट्ठि० तिएिणसंज० पुरिस-अरदि-सोग-भय-दुगु० णि. वं० । तं तु० । एवमेदाओ एकमेक्कस्स । तं तु० । हस्स० उक्क टिदिवं० चदुसंन०-पुरिस०-भय-दुगु० णि० बं संखेजगुणहीणं० । रदि० णिय० बं० । तं तु० । एवं रदीए ।
८६. देवगदि० उक्क० हिदिवं. पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा-क०-समचदु० वेउवि अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४--पसत्थ०-तस०४--अथिर--अमुभ-सुभग-- सुस्सर-आदेंज-अजस-णिमि० णि. बं० । एवमेदाओ ऍक्कमेक्कस्स । तं तु । कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए।
८५. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें छह कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्नि: कर्ष अोके समान है। क्रोध संज्वलनकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्व लन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुस्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु तब वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमले बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए।
८६. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। इसी प्रकार इनमें से प्रत्येकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु तब वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका
१. मूलप्रतौ-संज. बं. पुरिस० इति पाठः ।
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