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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
४१ रदि० णिय बं० । तं तु० । एवं रदीए ।
८१. मणुसग उक्क०हिदिबं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०ओरालि०अंगो०-वजरि०-वएण०४-मणुसाणु-अगु०४--पसत्थवि०-तस०४--अथिरअसुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अज-णिमि. णि. बं० । तं तु० । एवं मणुसगदिभंगो ओरालि०-ओरालि०अंगो-वज्जरिसभा-मणुसाणु० ।
८२. देवगदि० उक्क हिदिवं० पंचिंदि०-वेव्वि-तेजा०-क-समचदु०वेउवि अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४--पसत्थ०--तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-- सुस्सर-आदें-अजस-णिमि० णिय० । तं तु० । तित्थय० सिया बं० । तं तु० । एवं देवगदिभंगो वेउवि०-वेउव्वि०-अंगो०-देवाणु०-तित्थय० ।
८३. पंचिंदि० उक.हिदिवं.' तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसअसंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार रतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___८१. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वणेचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्याता भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्यगतिके समान औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्नि'कर्ष जानना चाहिए।
८२. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेबाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातयाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्टएकसमय न्यून स्थितिसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगतिके समान वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थकर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ____८३ पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण
१. मूलप्रती बं० पंचिंदि० तेजा-इति पाठः ।
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