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________________ ४० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ७८. थिर० उक्क हिदिवं० ओघं । णवरि विसेसो, एइंदि०-आदाव-थावर० सिया० संखेन्जदिभाग० । एवं सुभ-जस । तित्थय ओघं ।। ७६. अवगदवे० आभिणिबो० उक्क हिदिवं. चदुणाणा० णि । णि. उक्कस्सा । एवं चदुणाणा०-चदुदंसणा० चदुसंजल-पंचंत०। ८०. कोधादि०४-मदि०-सुद-विभंग० ओघ । आभि०-सुद-अोधि० छएणं कम्माणं अोघं। अपञ्चक्रवाणा०'कोध० उक्क हिदिवं. ऍकारसक-पुरिस०अरदि-सोग-भय-दुगुणि बं० । तं तु० । एवमेदारो ऍक्कमेक्कस्स० । तं तु० । हस्स० उक्क०हिदि० बारसक०-पुरिस०-भय-दुगु णि बं० संखेंजगुणहीणं बं० । ७८. स्थिर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष ओघके समान है । इतना विशेष है कि एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक.होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष ओघके समान है।, ७६. अपगतवेदवाले जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार झानावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय प्रकतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ८०. क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभङ्गशानी जीवों में अपनी अपनी सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष ओघके समान है। अमिनिबोधिकज्ञानी, ताज्ञान और अवधिज्ञानी जीवोंमें छह कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष श्रोधके समान है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव ग्यारह कपाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुत्सा इनका नियमसे वन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुण हीन स्थितिका बन्धक होता है । रतिका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुस्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका १. मूलप्रतौ पच्चक्खाणा०४ कोध० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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