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________________ उकास्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा २०१. थिर० उ.हिवं. पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक-भयदुगु-ओरालि०-तेजा-क-वएण०४-अगु०४--पज्जत्त-णिमि०-पंचंत० णि० वं० संखेजदिभाग० । असादा-इत्थि०-णवुस-दोगदि-पंचनादि-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-पंचसंघ०-दोआणु०-आदाउज्जो-अप्पसत्थ०-तस--थावर-बादर-मुहुम--पत्ते.. साधारण-असुभादिपंच-णीचा० सिया० संखेज्जदिभागू० । सादा०-पुरिस -हस्स-रदिसमचदु०-वज्जरिस-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जस०-उच्चा० सिया । तं तु० । एवं सुभ-जस । गवरि जस० सुहुम-अपज्जत्त-साधारणं वज्ज । २०२. तित्थय० उ०हि०० पंचणा०-छदसणा०-असादा-बारसक०-पुरिस.. अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिदि०-तेजा.-क-समचदु०--वएण ०४--अगु०४-पसत्थवि०तस०४-अथिर-अमुभ-सुभग-सुस्सर-पादे०-अजस०-णिमि०-उच्चा-पंचंत०णि बं० संग्वेज्जदिगुणही । मणुसगदिपंचगं सिया० संखेजदिगुणहीणं। देवगदि०४ ___२०१. स्थिरकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, पर्याप्त, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पाँच जाति, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, यातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, प्रत्येक, साधारण, अशुभ आदि पाँच और नीच गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवों भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, यश-कीर्ति और उच्चगोत्र इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ और यश-कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यश-कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। २०२. तीर्थङ्कर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु तुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसवतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति. निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका वन्धक होता है। मनुष्यगति पञ्चकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है। देवगति चतुष्कका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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