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________________ १०० महाबंधे विदिबंधाहियारे १६४. परघाद० उक्क छिदिवं० पंचणा०-गवदंस०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-णबुस--अरदि-सोग-भय-दुगु०--तिरिक्खग०-ओरालि -तेजाक०हुंडसं०-वएण०४-तिरिक्वाणु --अगु० --उप--उस्सा०-बादर-पज्जत्त-पत्तेय०-अथिरादिपंच-णिमिणीचा०-पंचंत णिय० बं० । तं तु० । एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि. अंगो०-असंप०-आदाउज्जो०-अप्पस०-तस-थावर-दुस्सर० सिया० । तं तु । एवं उस्सा०-बादर-पज्जत्त-पत्तेय । उज्जोतिरिक्वगदिभंगो। वरि मुहुम-अपज्जत्तसाधारण. वज्ज। २००. सुहुम० उ.ट्ठि०० पंचणा-णवदंसणा-असादा०--मिच्छ ०-सोल-- सक०-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खगल-एइंदि०-ओरालि०--तेजा-क०हुंड०-वएण०४-तिरिक्खाणु-अगु०-उप०-थावर-अपज्जत्त-साधारण--अथिरादिपंचणिमि०-णीचा-पंचंत० णि बं० । तं तु । एवं अपज्जत्त-साधारणं । १९९. परघातकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, उच्छवास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, प्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार उच्छवास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्षका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। २००. सूक्ष्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्च गति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारणको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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