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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १६६. एइंदियजा० उक्क छिदिबंध० पंचणा-णवदंसणा-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-णस०-अरदि-सोग-भय--दुगु--तिरिक्खग-ओरालि०--तेजा-कहुडसं०-वण्ण०४-तिरिक्वाणु -अगुरु-उप-थावर-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचागो०पंचंता णि बं० । तं तु० । पर-उस्सा०-यादाउज्जो०-बादर-मुहम-पज्जत्तापज्जत्तपत्तेय-साधारण० सिया० । तं तु । एवं पादाव-थावर० । णवरि आदावे सुहुमअपज्जत्त-साधारण बज्ज । १६७. तिरिणजादि० मणुसअपज्जत्तभंगो। चत्तारिसंठा०-चत्तारिसंह. देवोघं । १६८. पंचिंदियजादि० उक्क ठिदिवं० पंचणाणा०-णवदंसणा-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०-णाम. सत्थाणभंगो णीचागो-पंचंत. णिय. बं० । तं तु० । एवं ओरालि अंगो-असंप०-अप्पसत्थ०-तस०-दुस्सर० । १६६. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्च गति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । परधात, उवास, पातप, उद्योत, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार प्रातप और स्थावर इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि आतप प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। १९७. तीन जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। तथा चार संस्थान और चार संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है। १९८. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और स्वस्थान भंगके समान नामकर्मको प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक है। इसी प्रकार औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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