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________________ ९८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे संठा० - पंच संघ० - दोश्राणु ० उज्जो ० - अप्पसत्थ० अथिरादि० णीचा० सिया० संखेज्जभागू० । एवं पुरिसभंगो समचदु० - वज्जरिस ० - पसत्थ० - सुभग- सुस्सर यादेंοवरि उच्चागोदे तिरिक्खगदितिगं वज्ज | ० उच्चा० । १६५. मणुसगदि० उक्क० द्विदिबं० पंचा० एवदंसणा० - असादा०-मिच्छ०सोलसक० -भय-दुगु० - पंचिंदि० एवं याव णिमि० णीचा ० - पंचत० णि० बं० संखेज्ज - दिभागू० । इत्थवे० सिया० । तं तु० । पत्रुस ० - तिरिण संठा ० - तिरिणसंघ० - पर०उस्सा०- अप्पसत्थ०- पज्जत्तापज्जत- दुस्सर० सिया० संखेज्जदिभागू० । मणुसाणु ० णि० बं० । तं तु । एवं मसाणु० । T भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । श्रसाता वेदनीय, अरति, शोक, दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो श्रनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर • श्रादि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर आदेय और उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रको अपेक्षा सन्निकर्ष कहते समय तिर्यञ्चगति त्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । १९५. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जातिसे लेकर निर्माण तक तथा नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृटकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। नपुंसकवेद, तीन संस्थान, तीन संहनन, परघात, उल्लास, प्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःखर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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