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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा ૨૭ अथिरादिक० रणीचा ० सिया० संखेज्जदिभागू० । पुरिस०-हस्स - रदि-समचदु० वज्जरिस०-सत्थवि० - थिरादिछ० उच्चागो० सिया । तं तु० । एवं हस्स - रदीगं । 0- १६३. इत्थि० उक० हिदिबं० पंचणा० एवदंसणा ० - असादा०-मिच्छ०-सोलसक० -अरदि-सोग-भय-दुगु० - पंचिंदि० - ओरालि० - तेजा ० १०-क०० - ओरालि० अंगो०वरण ०४ - अगु० ४ - अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ० णिमि० णीचा० - पंचंत० शि० नं० संखेज्जदिभागू० । तिरिक्खगदिदुग - तिरिएणसंठा०-तिरिणसंघ ० उज्जो० सिया० संखेज्जदिभागू॰ । मणुसग० - मसाणु० सिया० । तं तु० । १६४. पुरिस० उक्क० द्विदिबं० पंचरणा० णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु० - पंचिंदि० - ओरालि ० तेजा० क० ओरालि० अंगो०-वरण ०४ - अगु०४--तस०४-णिमि०-पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभागू० । सादा० - हस्स - रदि- समचदु० - वज्जरि ० पसत्थवि० - थिरादिछ० - उच्चा० सिया० । तं तु० । प्रसादा०- -अरदि-सोग-दोगदि-पंच रति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभ नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार हास्य और रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १९३. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, ऋरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगतिद्विक, तीन संस्थान, तीन संहनन और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है | यदि अनु स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । १९४. पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, हास्य, रति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभ नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्च गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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