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जहण्णपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१६७ साद-हस्स-रदि-अरदि--सोग-समचदु०-बजरि-थिराथिर-सुभासुभ--जस०-अजस० सिया० संखेज्जगु० । जग्गोद-सादि०-वज्जरि०--णारा० सिया० संखेजभा०। एवं णवुस० । णवरि चदुसंठा०-चदुसंघ [सिया० संखेजमा० ।]
४२६. तिरिक्ख-मणुसायु- देवभंगो। देवायु० जहिबं० पंचणा० छदंसणासादावे०-बारसक०हस्स-रदि-भय-दु०-देवगदिपसत्थट्ठावीस-उच्चा०-पंचंत• णि• बं० संखेज्जगु० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अयंताणुबंधि०४-पुरिस० सिया० संखेजगु० । इत्थिवे० सिया० संखेज्जगु । तित्थय सिया० संखेज्जगु० ।
४३०. मणुस जटिबं० पंचणा-छदसणा०-सादा-बारसक०-पंचपोक०णामसत्थाणभंगो उच्चा०-पंचंत०-णि बं० संखेज्जगु० । तित्थय. सिया० संखेज्जगु० । एवं ओरालि०--ओरालि०अंगो०-बज्जरि०--मणुसाणु । तिरिक्खगः-- अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजधन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वातिसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन और नाराचसंहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि चार संस्थान और चार संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
४२६. तिर्यश्च श्रायु और मनुष्य आयुका भङ्ग देवोंके समान है। देवायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और पुरुषवेद इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
४३०. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच शानावरण, छह दर्शना. वरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पाँचनोकषाय, नामकर्मको स्वस्थानके समान प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार औदारिक शरीर, औदारिक
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