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________________ १६८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे एइंदि० - पंचसंठा०-पंच संघ० - तिरिक्खाणु० - आदाउज्जो ० अप्पसत्थवि ० थावरं सोधम्मभंगो । एवं पम्माए वि । ४३१. सुकाए मणजोगिभंगो । वरि इत्थि ० स ० - मणुसगदि-ओरालि०पंच संठा० ओरालि ० अंगो० - इस्संघ० मणुसाणु० - अप्पसत्थवि०-दूर्भाग- दुस्सर - अणादे० जहणसरिया से संजम० सम्मत्त ०-मिच्छ० पात्रोग्गाओ पगदीओ खाद्य सरियासेदव्वं । ४३२, भवसिद्धि० ओघं । अन्भवसिद्धिया० मदिभंगो । सम्मादि ० - खड्ग०वेदग०-उवसम० श्रधिभंगो। वरि वेदगसं० जहरिणगारिण पत्ता अप्पमत्ता करेंति । ४३३. मणुसग ० ज ० हि० बं० पंचरणा० - इदंसरणा० वेदगे करेदि । तरणादूण सरिणयासेदव्वं ते भंगो । ४३४ [ सास आभिणिवो० ज० हि०० ] चदुणा०-- एवदंसणा०--सादा०-सोलसक० - पंचणोक ० -- पंचिंदि० -तेजा०-- क० - समचदु० - वरण ०४- अगु० ४-- पसत्थ०तस०४ - थिरादिछ० - णिमि० - पंचंत० णि० बं० । तं तु० । तिरिणगदि - दोसरीर श्रङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति और स्थावर इनका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है । इसीप्रकार पद्मलेश्या में भी जानना चाहिए । ४३१. शुक्ल लेश्यामें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय तथा जघन्य सन्निकर्ष में संयम, सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके योग्य प्रकृतियोंको जानकर सन्निकर्ष कहना चाहिए । ४३२. भव्य जीवोंका भङ्ग श्रोधके समान है । अभव्य जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है । सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवका भ अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि वेदक सम्यक्त्वमें प्रमत्त और अप्रमत्त जीव जघन्य सन्निकर्ष करते हैं । ४३३. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण और छह दर्शनावरणको वेदक सम्यक्त्वमें करता है । उसे जानकर पीतलेश्या के समान सन्निकर्ष साध लेना चाहिए । ४३४. सासादन सम्यक्त्वमें आभिनिवोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। तीन गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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