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________________ जहण्णपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा दोअंगो०-वज्जरि०--तिरिणाणु०-उज्जो०-गीचुच्चागो० सिया० । तं तु. । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० । ४३५. असादा० ज०ट्टि • धुविगाओ णि बं० संखेज्जभाग० । अरदिसोग-अथिर असुभ-अजस० सिया । तं तु० । हस्स--रदि--तिरिणगदि-दोसरीर-दोअंगो०-वजरिस-तिरिणाणु--उज्जो०-थिर--सुभ--जस०---णीचुच्चा सिया० संखेंज्जभा० । ४३६. इत्थिवे० असादभंगो। णवरि तिषिणसंठा०--तिषिणसंघ० सिया० संखेजदिभा० । णवंसगे इत्थिभंगो । णवरि तिरिक्व-मणुसगदि-पंचसंठा०पंचसंघ०-दोआणु० सिया० संखेंजदिभा०। सेसाओ परावत्तमाणियाओ सिया० नारोचसंहनन, तीन प्रानुपूर्वी, उद्योत, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकले लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। ४३५. असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ध्रुवप्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शोक. अस्थिर, प्रशभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, तीन गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीन आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक ४३६. स्त्रीवेदका भङ्ग असातावेदनीयके समान है। इतनी विशेषता है कि तीन संस्थान और तीन संहननका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नपुंसकवेदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । इतनो विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पांच संस्थान, पाँच संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शेष परावर्तमान प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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