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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
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६०. पील- काऊ सत्तणं कम्माणं ओघं । रियगदि० उक्क० हिदि० बं० पंचिदिय - तेजा ० -- क० - हुड ० - वरण ०४ - अगु० ४- अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ० णिमि० णिय० बं० । णि० अणु संखेज्जगुणहीणं० । वेउब्वि० - वेडव्वि ० अंगो०-रिया ० रिय० बं० । तं तु० । एवं वेउच्चि ० - वेडव्वि ० अंगो० - णिरयाणु० । ६१. तिरिक्खगदि ० उक्क० हिदि० बं० पंचिंदि० ओरालि० - तेजा ०क०• हुंड०ओरालि० अंगो० - संपत्त० वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४ अप्पस०--तस०४ - अथि-रादिछ० - णिमि० णि० बं० । तं तु० । उज्जो सिया० । तं तु० । एवमेदा एकमेक्कस्स । तं तु० । मणुसगदिदुग-पंचसंठा-पंच संघ०-पसत्थ० - थिरादिव० णिरयभंगो ।
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९०. नील और कापोत लेश्या में सात कर्मोंका भङ्ग श्रधके समान है । नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्थानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
९१. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क,
स्थिर आदि छह और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका
संख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके श्राश्रयसे परस्पर सन्निकर्ष होता है । ऐसी अवस्था में वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगतिद्विक पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि छह इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके समान है ।
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