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________________ जहण्णपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १७३ ३७० तित्थय० ज० द्वि०बं० पंचणा० - इदंसणा ० -सादावे ० - बारसक० - पुरिस०हस्स-रदि--भय-दुर्गा ं ०-- उच्चागो०- पंचंत० णि० बं० संखेज्जगु० । गाम सत्थाणभंगो । एवं पढमा पुढवीए । ३७१. बिदिया पुढवीए आभिणिबो० ज० हि०बं० चदुणा० छदंसणा ०सादावे०-वारसक० - पुरिस ० - हस्स-रदि-भय-दु० - मणुसगदियाओ रियोघं पढमदंडओ उच्चा० - पंचंत० णि० बं० । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० । ३७२ विद्दाणिद्दाए ज० हि०बं० पंचरणा०-पढमदंड रिण० बं० संखेज्जगु० । पचलापचला-थी गिद्धि--मिच्छत्त अताणुबंधि०४ णि० बं० । तं तु० । एवं थी - गिद्धितिय मिच्छ० - अणंताणुबंधि०४ । ३७०. तीर्थकर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव, पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुष वेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार पहिली पृथ्वी में जानना चाहिए । ३७१. दूसरी पृथ्वी में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुष वेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा और मनुष्यगति श्रादि प्रकृतियाँ सामान्य नारकियोंके समान प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा जघन्य एक समय अधिक से लेकर पत्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । ३७२. निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण आदि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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