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________________ उक्स्स सत्थाणबंधसण्णियासपरूवरगा आणु०-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस० सिया बं० सिया अवं० । यदि वं० णिय. अणु० संखेजदिभागू० । अद्धणारा• सिया बं० । तं तु । एवं अद्धणारा० । एवं वामणसंठाणं वि । णवरि खीलियसंघ० सिया बं० । तं तु० । एवं खीलिय० । ३८. पर० उक्क हिदिवं. तिरिकखग०-एइंदि०-ओरालि -तेजा.-क-हुडसं. वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-थावर-मुहुम-साधारण-दूभग-अणादे०-अजस०-- णिमि णिय. अणु० संखेंज्जदिभाग० । उस्सास-पज्जत्त० णियमा० । तं तु । अथिर-असुभ० सिया बं० संखेज्जदिभागू० । एवं उस्सास-पज्जत्त-थिर-सुभणामाणं । ३६. आदाव० उक्क हिदिवं० तिरिक्खगदि-एइंदि०-ओरालि०-तेजा--क०-- हुड०-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-थावर-वादर-पज्जत्त--पत्ते--भग--अणादें-- स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अर्धनाराचसंहननके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार वामन संस्थानके श्राश्रयसे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार कीलक संहननके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३८. परघातकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । उच्छास और पर्याम इन प्रकृतियों का नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट का भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । अस्थिर अशुभका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार उल्लास, पर्याप्त, स्थिर, और शुभ प्रकृतियोंके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३९. आतपकी उत्कृष्ट स्थितिकी बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय और निर्माण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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