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________________ १८ महाबँधे द्विदिबंधाहियारे · ० सिया अवं । यदि वं० तं तु । एवं वज्जरिसभ ० - पसत्थ० - [ सुभग ]सुसर दे० । क ० ३६. गोद० उक० हिदिवं० पंचिंदिय० -ओरालि०-तेजा० अंगो० ०-वरण ०४ - असंपत्त० -तस० ४- दूभग- दुस्सर - अणादे० - रिणमि० रिणय ० वं० । णि० अणु० संखैज्जदिभागू० । तिरिक्खगदि - मणुसगदि चदुसंघ० - दोश्राणु ० उज्जोव०थिराथिर - सुभासुभ-जस० अजस० सिया बं० सिया अवं० । यदि वं० शि० अणु० संखेज्जदिभागू० । वज्जणारा० सिया बं० । तं तु० । एवं वज्जणारायणं । सादीए वि एसेव भंगो । वरि पारायण० तं तु० । एवं पारायणं वि । ० - ओरालि० ३७. खुज्ज० उक्क० द्विदिवं० तिरिक्खगदि--पंचिंदि० - ओरालिय-तेजा ०--क०ओरालि० अंगो०-वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४ - अप्पसत्थ० -तस०४--दूभग - दुस्सरअणादै० - णिमि० णि० वं० । पि० अणु संखेज्जदिभागू० । दोगदि-दोसंघ० - दो यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुकृट बाँधता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और श्रदेय प्रकृतियोंके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३६. न्यूग्रोधपरिमण्डल संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, सम्प्राप्ता पाटिका संहनन, त्रस चतुष्क. दुर्भग, दुखर, श्रनादेय और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार संहनन, दो श्रानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है । वज्रनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तककी स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वज्रनाराचसंहननके आश्रय से सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा स्वाति संस्थानका भी यही भङ्ग होता है | इतनी विशेषता है कि इसके नाराचसंहननका उत्कृष्ट बन्ध भी होता है और अनुत्कृट बन्ध भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट बन्ध होता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इन प्रकार नाराचसंहननके आश्रय से सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International ३७. कुब्जक संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, दुर्भग, दुखर, अनादेय और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । दो गति, दो संहनन, दो श्रानुपूर्वी, उद्योत, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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