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________________ २० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे णिमि० णिय० बं० । लिय० अणु० संखेंज्जदिभागू० । थिराथिर - सुभामुभअजस० सिया बं० सिया अनं० । यदि बं० पिय० अ० संखेज्जदिभागू० । जसगि० सिया० । तं तु । एवं उज्जोवं जसमित्तीए वि । ४०. अप्पसत्थ० उक्क० द्विदिवं० तिरिक्खगदि - बीइंदि०-ओरालिय- तेजा०क० - हुडसं ० - ओरालि० अंगो० - संप ० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४-तस० ४-दूभगअणादे० - रिणमि० णि० बं० । शिय० अणु० संखेज्जदिभागू० । उज्जो ० - थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया बं० । यदि बं० संखेज्जदिभागू० | दुस्सर० पिय० । तं तु । एवं दुस्सर० । 1 ४१. बादर० उक्क० हिदिबं० तिरिक्खगदि एइंदि० -ओरालि० -तेजा०-क०० - हुड० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु० - उप० थावर - सुहुम- अपज्जत ०- अथिरादिपंच ० - णिमि० णिय० बं० । णि० अणु संखेज्जदिभागू० । ४२. मणुस ० - मणुसपज्जत - मणुसिणीसु मणुस पज्जत्त० तिरिक्खगदिभंगो । प्रकृतियों का नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातावाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और यशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। यशः कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित्प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार उद्योत और यशः कीर्तिके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४०. प्रशस्त विहायोगति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, द्वीन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, दुभंग, श्रनादेय और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । दुःस्वर प्रकृतिका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार दुःस्वर प्रकृतिके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४१. बादर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्मं, अपर्याप्त, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियों का नियम से बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। ४२. सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें तिर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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