SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उक्कस्ससस्थाणबंधसण्णियासपरूवणा णवरि आहारदुगं तित्थयरं प्रोघं । ४३. देवगदीए देवेसु पाणावर०-दसणावर-वेदणी-मोहणी०-आयुग०गोद०-अंतराइ० ओघं । तिरिक्खग. उक्क०हिदिबं० ओरालि -तेजा-क०-हुड०वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-अथिरादिपंच-णिमि० णि. बं० । णि तं तु० । एइंदि०-पंचिंदि-ओरालि अंगो०-असंपत्तसेव०-आदाउज्जो - अप्पसत्थ०-तस-थावर-दुस्सर० सिया बं० । यदि बं० तं तु । एवमेदाणि ऍक्कमक्कस्स । तं तु० । सेसाणं णेरइयभंगो। ४४. भवण०-वाणवें०-जोदिसि०-सोधम्मीसाण त्ति तिरिक्खगदि० उक्क हिदिबं० एइंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-हुड०-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-यावर-बादरपज्जत्त-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि० णि बं०। णि तं तु । आदाउज्जोव० ञ्चगतिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि आहारक दिक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। ४३. देवगतिमें देवों में शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय इनके अवान्तर भेदोंका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरु लघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त प्रत्येक, अस्थिर आदि पांच और निर्माण इन प्रकृतियों का नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट का भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है, तो नियमसे उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। एकेन्द्रिय जाति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक प्रांगोपांग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस, स्थावर और दुःस्वर इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है। जो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। ४४. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँभाग म्यूनतक स्थितिका बन्धकहोता है। आतप और उद्योत प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy