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महाबंधे दिदिबंधाहियारे वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-अप्पसत्थ-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि०--णीचा०-- पंचंत णि वं । तं तु । उज्जो० । सिया० । तं तु० । एवमेदारो ऍक्कमेकस्स । तं तु० ।
१४२. सादा० उक्क हिदिवं० पंचणा०-गवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-पंचिंदि०-ओरालि.-तेजा०-क-ओरालि अंगो-बएण-४--अगु०४-तस०४णिमि०-पंचंत णि. वं. णि. दुभागू । इत्थि-मणुसगदि०-मणुसाणु सिया० बं. तिभागू० । णबुंस०-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-हुड०-असंपत्त०--तिरिक्वाणु०--- उज्जो०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा० सिया० दुभागू० । पुरिस०-हस्स-रदिसमचदु०-वज्जरि-पसत्थ-थिरादिछ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । चदुसंठा०-चदुनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। और ऐसी अवस्थामें यह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है।
१४२. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियम से अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है। नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तास्पाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभ नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है
और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । चार संस्थान और चार संहननका कदाचित् बन्धक
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