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________________ उकस्सखेत्तपरूवणा २१३ असंखेज्जा । आहारदुगं ओघं। सेसाणं जह० अज० असंखेंजा । एवं परिमाणं समत्तं । खेत्तपरूवणा ४७१, खेत्तं दुवि०-जह० उक्क० । उकस्सए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघेण तिषिण आयुगाणं वेउव्वियछ०-आहारदुग-तित्थय० उक० अणु० ढि० केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेजदिभागे । सेसाणं उक्क. लोगस्स असंखेजदिभागे । अणु० सव्वलोगे। एवं श्रोधभंगो तिरिक्खोघो काय जोगि-ओरालि०-पोरालियमि०कम्मइ-णस० - कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज० - अचक्खु०- तिएिणले०भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०-असरिण-आहार-प्रणाहारग ति। णवरि किरण०-णील०-काउ० तित्थय० उक्क० अणुक्क० लोगहस असंखेजदिभागे । ४७२ एइंदिएसु पंचणा०-णवदंस०-सादासाद०-मोहणीय०२४-तिरिक्खगदिएइंदि०-ओरालिक-तेजा०-क०-इंडसं०-वरण०४--तिरिक्खाणु०-अगु०४--थावरसुहुम-पजत्तापजत्त-पत्ते- साधार०-थिराथिर - सुभासुभ-भग-अणादें०-अज०णिमि०-णीचा०-पंचंत. उक• अणु० सबलोगे। इथि०-पुरिस०-चदुजादिपंचसंठा०-ओरालि० अंगो०-छरसंघ०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तस-बादर- सुभमसुस्सर-दुस्सर-आदेज-जस० उक्क० लोग० संखेज० । अणु० सव्वलोगे। तिरिक्खप्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीव असंख्यात हैं । परिमाण समाप्त हुआ। क्षेत्रप्ररूपणा ४७१. क्षेत्र दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । अोघसे तीन आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थकरकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीव जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। ४७२. एकेन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चौबीस मोहनीय, तिर्यश्च गति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वणेचतुष्क, तियेश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त. प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय और यशःकीति इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है ' तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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