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________________ २१२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अज० असंखेजा । श्राभि-०सुद०-प्रोधि०-मणुसायु०-पाहारदुर्ग उक्करसभंगो । मणुसगदिपंचगं देवायु० ज० अज० असंखेजा। सेसाणं ज० संखेजा। अज० [असंखेजा] । एवं पोधिदंस०-सम्मादि०-खड्ग०-वेदग०-उवसम० । णवरि खइगे दो आयु० उवसमे यथासंखाए तित्थय० उक्करसभंगो। चक्खुदं० तसपजत्तभंगो । ४६९. तेऊए इत्थि०-णवूस०-तिरिक्ख--देवायु--तिरिक्खगदि०४--मणुसगदिपंचगएइंदि०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-आदाव०-अप्पसत्थ०-थावर-भग-दुस्सर-अणादे ज० अज० असंखेजा । सेसाणं ज० संखेजा। अज० असंखेजा। मणुसायु-आहारदुगं दो वि पदा संखेजा। एवं पम्माए वि । णवरि एइंदियतिगं वज । सुकाए इथि०बस०-मणुसगदिपंचग-पंचसंठा०- पंचसंघ०- अप्पसत्थ०- भग - दुस्सर -- अणादे० णीचा० ज० अज० असंखेजा। दोआयु-आहारदुर्ग उक्कस्सभंगो। सेसाणं जह० संखेजा । अज० असंखेजा। ४७०, सासण-सम्मामि० पसत्थाणं ज० अज० असंखेजा। मणुसायु० उक्करसभंगो । सरणीसु खविगाणं देवगदि०४-तित्थय० जह० संखेजा । अज० असंख्यात हैं । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मनुष्यायु और आहारकद्विकका भंग उत्कृष्टके समान है। मनुष्यगति पञ्चक और देवायुकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो आयु और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें क्रमसे तीर्थकर प्रकृतिका भंग उत्कृष्टके समान है । चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भंग त्रस पर्याप्तकोंके समान है। ४६६. पीतलेश्यावाले जीवोंमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यचायु, देवायु, तियञ्चगति चतुष्क, मनुष्यगतिपंचक, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीव असंख्यात हैं । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायु और माहारकद्विकके दोनों ही पदवाले जीव संख्यात हैं। इसी पद्मलेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है एकेन्द्रियत्रिकको छोड़कर कहना चाहिए । शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मनुष्यगतिपश्चक, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। दो आयु और आहारकद्विकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। ४७०. सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में प्रशस्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायुका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । संज्ञी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियाँ, देवगति चार और तीथङ्कर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात है। आहारकद्विकका भङ्ग शोधके समान है। शेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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