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________________ जहरण परिमाण परूवणा २११ देवदि--पंचिदिय० - वे उव्जिय तेजा० क० - समचदु० - वेउच्चि ० अंगो० - चण्ण०४ - देवाणु० - ०४ - पसत्थ - ० तस०४ - थिराथिर - सुभासुभ-सुभग सुस्सर - आदेज-जस०जस० - मि० - तित्थय० - उच्चा०- पंचंत० जह० संखेज्जा । ज० श्रसंखेज्जा | आहारदुगं श्रवं । सेसाणं दो विपदा असंखेज्जा | वचिजो ० असच्च मो० - इत्थि० - पुरिस० पंचिदियभंगो । वरि इत्थि तित्थय० जह० ज० संखेज्जा | ० ४६७ ओरालियमि०-कम्मइ० - अणाहार० तिरिक्वोघं । णवरि देवमदि०: तित्थय० उक्तस्सभंगो । वेउव्वि०-वेवियमि० आहार - आहारमि- अवगद०-मणप ज्जव० - संजद - सामाइ० छेदोव० परिहार०- मुहुमसंप० उकस्समंगो । मदि-सुद० - असं ०तिमिले ० - अभवसि ० -मिच्छादि० - प्रसरिण० तिरिक्खोघं । णवरि संजद० तित्थय० जह० संखेज्जा । अज० श्रसंखेजा । किण्ण० - गील० तित्थय० जह० संखेजा । काऊए तित्थय० दो विपदा संखेजा । ४६८. विभंगे पंचणा० - वदंसणा ० - सादा० - मिच्छ० - सोलसक० - पंचणोक०देवगदि--पसत्थठ्ठावीस - उच्चा० - पंचंत० जह० संखेजा। अज० असंखेजा । सेसाणं जह० 1 सातावेदनीय, असातावेदनीय, चौवीस मोहनीय, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर शुभ, अशुभ, सुभग, सुवर, देय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी जघन्य स्थिति बन्धक जीव संख्यात हैं, तथा अजवन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं । आहारकद्विकका भंग ओवके समान है. तथा शेष प्रकृतियोंके दोनों ही पदवाले जीव असंख्यात हैं । वचनयोगी, असत्यमृपावचनयोगी, स्त्रीवेदी और पुरुपवेदी जीवों में भंग पञ्चेन्द्रियों के समान है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदियों में तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं । - ४६७ औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी ओर अनाहारक जीवोंका भंग सामान्य तिर्यब्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति चतुष्क और तीर्थंकर प्रकृति का भंग उत्कृष्टके समान है। वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है । मत्यज्ञानी, श्रताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका भंग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । इतनी विशेषता है कि असंयतोंमें तीथङ्कर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीव संख्यात हैं तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव असंख्यात हैं। कृष्ण और नील लेश्यामें तीर्थंकर प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बंधक जीव संख्यात है । कापीत लेश्या में तीर्थकर प्रकृतिके दोनों ही पदवाले जीव असंख्यात हैं । ४६८. भिंगज्ञानी जीवने पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, पांच नोकपाय, देवगति आदि प्रशस्त अाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इनकी जवन्य स्थिति बन्धक जीव संख्यात है तथा अजघन्य स्थिति बन्धक जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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