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________________ २०२ महाबंधे द्विदिवंधाहियारे अणाहार० कम्मइ० भंगो। एवं जहएणसरिणयासो समत्तो। एवं सएिणयासो समत्तो । ४४२. णाणाजीवहि भंगविचयाणुगमेण दुवि०-जह० उक्क । उक्कस्सए पगदं । तं तत्थ इमं अपदं मूलपगदिभंगो कादव्यो । एदेण अपदेण दुवि०-अोघे० आदे० । ओघे० णिरय--मणुस--देवायूर्ण उक्कस्सा० अणुक्कस्सा० अभंगो । सेसाणं पगदीणं उक्कस्स० अणुकस्सा० तिरिणभंगो। एवं ओघभंगो तिरिक्वोघं पुढवि०-अाउ०-तेउ०वाउ० तेसिं च बादर-बादरवणप्फदिपत्तेय-कायजोगि--ओरालि०-ओरालियमिकम्मइ०--णस०--कोधादि०४--मदि०--सुद०--असंज०--अचक्खु०--किरण-पीलकाउ०-भवसि०-अब्भवसि-मिच्छा०-असएिण-आहार०-अणाहारगे ति । ४४३. एइंदिय--बादरपुढवि०--आउ.--तेउ०-चाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेय अप-- जत्त--सव्वसुहुम-वणप्फदि--णियोद० आयूणि दोगिण अोघं । सेसाणं उक्क. अणुक्क० बंधगा य अबंधगा य । ४४४. मणुसअपज्जत्त०--ओरालियमि---कम्मइग०-अणाहार० देवगांद०४तित्थय० वेव्वियमि०-आहार-आहारमि०-अवगद-सुहुमसंप०-उवसम०-सासणआहारक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है तथा अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार जघन्य सन्निकर्ष समाप्त हुआ। इस प्रकार सन्निकर्ष समाप्त हुआ। ४४२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसके विषयमें यह अर्थपद मूल प्रकृतिबन्धके समान कहना चाहिए। इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे नरकायु, मनुष्यायु और देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धकके आठ भङ्ग होते हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके तीन भङ्ग होते हैं। इस प्रकार प्रोघके समान सामान्य तिर्यश्च पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इनके बादर, बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येक, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदो, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, ताज्ञानी. असंयत, अचचुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । ४४३. एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, वादरजलकायिक अपर्याप्त, वादर अग्निकायिकअपर्याप्त, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सब सूक्ष्म, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके दो अायु ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव होते हैं और अबन्धक जीव होते हैं। ४४४. मनुष्य अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में देवगतिचतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिके तथा वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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