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________________ जहरणपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा २०१ पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा०--पंचंत० णि बं० । तं तु० । दोगदिदोसरीर-दोअंगो०--वज्जरि०--दोआणु• सिया० । तं तु । एवमेदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० । ४४०. असादा० ज० ट्ठि०बं० धुविगाणं णि० बं० संखेज्जगु० । हस्स--रदिदोगदि--दोसरीर-दोअंगो०-वज्जरि०---दोआणु०--थिर-सुभ-जस० सिया० बं० संखेज्जगु० । अरदि-सोग-अथिर-अजस• सिया । तं० तु.।। ४४१. मिच्छादिही० मदि०भंगो । सगिण मणुसभंगो। असगिण तिरिक्खोघं। णवरि णिरयायु० ज०हि०बं० णिरयगदि--वेउव्वि०--उवि०अंगो०--णिरयाणु० णि बं० संखेज्जभा० । सेसाणं संखेज्जगुः । एवं देवायु० । आहार० ओघं । नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और दो अानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँभाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। ४४०. असातावेदनीयको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, दो गति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो प्रानुपूर्वी, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक हीता है यदि बन्धक होता है तो वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धकहीता है। ४४१. मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। संशी जीवोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। असंही जीवोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि नरकायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव नरकगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है तथा शेष प्रकृतियोंकी संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार देवायुको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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