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________________ गाणाजीवहि भंगविचयाणुगमपरूवणा सम्मामिच्छादिहि त्ति सव्वपगदी उकस्सा० अणुकस्सा० अहभंगा । c पदे ४४५. बादरपुढवि० - आउ०- तेउ०१० वाउ०- वादरवणफदिपत्तेय ०पज्जत्ता० देवगदि भंगो। आयु० रियायुभंगो। सेसारिया याव सरिण त्ति श्रवं । एवमुक्कस्सं समत्तं ४४६. जहणए पदं । तत्थ इमं पदं मूलपगदिभंगो । एदे दुवि० -- ओघे० दे० । श्रघे० खत्रगपगदीणं तिरिणआयु- वेडव्वियछक-तिरिक्खगदि ०४ - आहारदुग- तित्थय० जह० जह० उक्तस्तभंगो। सेसाणं पगदी जह० ज० बंधगा य । एवं ओघभंगो कायजोगि - ओरालियका ० एस ०६०४ अचक्खु०-भवसि ० - आहारए ति । बंधा कोधादि ० २०३ O ४४७. तिरिक्खगदीए तिरिण आयु० - वेडव्नियछ ०-तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० उज्जी० - पीचा० उक्कसभंगो । सेसाणं जह० अ० अत्थि बंधगा य अबंधगा यं । एवं तिरिक्खोघं ओरालियमि० कम्मइ० मदि० सुद० - असंजद० - किरण ०-पील० - काउले ०अब्भवसि० --मिच्छादि ० - असरिण० -- अणाहारग ति । वरि ओरालियमिस्स-कम्मरहार देवदिपंचगं उकरसभंगो । सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके आठ भङ्ग होते हैं । ४४५. बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके देवगति के समान भङ्ग है। तथा आयुका नरकायुके समान भङ्ग है । शेष नरकगति से लेकर संज्ञी तक सब मार्गणाओं में ओघके समान भङ्ग है । इस प्रकार उत्कृष्ट भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ । ४४६. जघन्यका प्रकरण है । उस विषयमें यह अर्थपद मूलप्रकृतिस्थिति बन्धके समान है । इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और श्रादेश | शोधकी अपेक्षा क्षपक प्रकृतियाँ, तीन आयु, वैक्रियिक छह, तिर्यञ्चगति चार, आहारकद्विक और तीर्थंकरकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके बन्धक जीव होते हैं और अबन्धक जीव होते हैं । इस प्रकार ओोधके समान काययोगी, श्रदारिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । ४४७ तिर्यञ्चगतिमें तीन आयु, वैक्रियिक छह, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके बन्धक जीव होते हैं और प्रबन्धक जीव होते हैं । इस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोके समान श्रदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंके देवगति पञ्चकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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