SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० महाबँधे ट्ठिदिबंधाहियारे दो सागरो० उस्सरिदूण सादोवे० - हस्स-रदि० एदाओ तिरिए पगदीओ अपज्जतसंता ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । एत्तो से साणं पयडी ऍक्कदो बंधवोच्छेदो होहिदि त्ति उकस्सए द्विदिवं । एवमपज्जत्तबंधर्वोच्छेदा भवंति । एवं सव्वापज्जत्ताणं । सक० ११८. उक्कस्सपरत्थाणसरिया से पगदं । दुवि० - ओघे० दे० | ओघेण आभिणिबोधि० उक्कस्सद्विदिबंधंतो चदुणा० णवदंसणा ० - असादा०-मिच्छत्त-सोल० - स ० -अरदि-सोग-भय-दुगु ० तेजा० क० - हुडेसं ० - वरण०४- अगु०४ - बादर-पज्जत्त - पत्तेय० अथिरादिपंच- णिमि० णीचा० -पंचंत० रिण० बं० । तं तु० उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूरणमादि काढूण याव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागूणं बंधदि । गिरयायु० सिया बंधदि सिया अबंधदि । यदि बंधदि oियमा उक्कस्सा | आबाधा पुरण भयणिज्जा । णिरय - तिरिक्खगदि - एइंदिय-पंचिंदि ओरालि०-वेजव्वि० - दोअंगो० - संपत्त० - दोआणु ० - आदाउज्जो०१०- अप्पसत्थ० --तसथावर दुस्सर सिया । तं तु । एवमेदाओ ऍक्कमेक्कस्स । तं तु० कादव्वा । होकर पर्याप्त संयुक्त सातावेदनीय, हांस्य और रति इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे आगे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर शेष प्रकृतियोंकी एक साथ वन्धव्युच्छित्ति होगी । इस प्रकार अपर्याप्त संयुक्त प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । इसी प्रकार सब अपर्याप्तकों के जानना चाहिए । ११८. उत्कृष्ट परस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— श्रध और आदेश । श्रघसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । उसमें भी उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । नरकायुका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । परन्तु बाधा भजनीय है । नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो श्रीङ्गोपाङ्ग, सम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, दो आनुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर और दु:स्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। जो उत्कष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है । उसमें भी उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy