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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूषणा ११६. सादावे. उक्क हि०० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-तेजाक०-वएण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० णियमा बं०। णि. अणु । उक्क० अणु• दुभागणं बंधदि । इत्थिवे-मणुसगदि०-मणुसाणु० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० णिय० अणु । उक्क० अणु० तिभागणं० । पुरिस०हस्स-रदि-देवगदि-समचदु०-वज्जरिस०-देवाणु०-पसत्थ -थिरादिछ०-उच्चा. सिया वं०। तं तु० । णवुस-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि.. वेउव्वि-हुडसं०-दोअंगो--असंपत्त--तिरिक्वाणु०--पर--उस्सा०--आदाउज्जो०-- अप्पसत्थ० तस-थावर-बादर-पज्जत्त-पत्ते-अथिरादिछ०-णीचा. सिया. दुभागू० । तिबिणजादि०-चदुसंठा०-चदुसंघ-सुहुम-अपज्ज-साधार० सिया० संखेज्जदि भागू० । एवं हस्स-रदीणं । १२०. इत्थिा उक्क हिदि बं० पंचणा-रणवदंसणा०-असादा-मिच्छ०-सोलसक० अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-- ११९. सातावेदनोयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। जो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक तो नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है जो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । उसमें भी उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । नपुंसक वेद, अरति, शोक, तिर्यअचगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, हुण्डसंस्थान, दो प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो माग क्यून स्थितिका बन्धक होता है। तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार हास्य और रतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। १२०. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रौदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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