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________________ ६२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वएण०४-अगु०४-अप्पसत्थ० तस०४-अथिरादिछ०-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णिय. बं । णि अणु । उक्क. अणुचदुभागू० । तिरिक्खग हुडसं०-असंपत्त०तिरिक्वाणुल-उज्जो० सिया० । यदि० चदुभागू० । मणुसग-मणुसाणु० सिया० । तं तु० । खुज्ज० वामणसंठा-अद्धणारा०-खीलियसं० सिया० संखेंज्जदिभाग० । १२१. पुरिस० उक्त हिदि बं० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छत्त-सोलसकभय-दुगु-पंचिंदि-तेजा-क० वएण०४-अगु०४-तस०४-णिमि-पंचंत० णि बं० । णि अणु० दुभाग० । सादावे-हस्स-रदि--देवगदि--समचदु०--वज्जरि०-देवाणुः-- पसत्थ-थिरादिछ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । असादा-अरदि-सोग-तिरिक्खगःओरालि०-वेउवि-हुड०-दोअंगो०--असंपत्त-तिरिक्खाणु --उज्जो०--अप्पसत्थः-- अथिरादिछ०-णीचा० सिया० दुभागू० । मणुसग० मणुसाणु० सिया० तिभागणं अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । जो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुप्रीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी. बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, अर्धनाराच संहनन और कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुस्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। १२१. पुरुष वेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरोर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, हास्य, रति, देवगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । असातावेदनीय, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, हुण्ड संस्थान, दो प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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