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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा बं० । चदुसंठा ० चदुसंघ० सिया संखेज्जदिभागू० । एवं पुरिसवेदभंगो समचदु०पसत्थ० - सुभग०-सुस्सर प्रादेज्जति । १२२. रियायु० उक्क० हिदि०वं० पंचरणा० एवदंसणा असादावे० - मिच्छत्तसोलसक० एस० -अरदि-सोग-भय-दुगु० - णिरयग० पंचिंदि - ० वेउब्वि ० - तेजा० क०हुडसं०-वेडव्वि० अंगो० वण्ण०४- पिरयाणु० अगु०४- अप्पसत्थवि ० --तस०४--अथि-रादि६० - णिमि० णीचागो० - पंचंत० ०ि । तं तु० उक्क० अणु० तिहारणपदिदं बंदि । असंखेज्जभागहीणं वा संखेज्जदिभागहीणं वा संखेज्जदिगुणहीणं वा । १२३. तिरिक्खायु० उक्क० द्विदिवं० पंचरणा० एवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक०भय-दुगु' ०-तिरिक्खग०- पंचिंदि० ओरालि ० तेजा० क ० - समचदु० --ओरालि० अंगो०वज्जरिसभ०--वरण०४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४--पसत्थवि०--तस०४ - सुभग- सुस्सरआदे- णिमि० णीचा० - पंचंत० णि० वं० । णि० अणु संखेज्जदिगुणहीणं बं० । सादासा०-इत्थवे०-पुरिस० - हस्स-रदि- अरदि- सोग-उज्जो - थिराथिर - सुभासुभ-- जस ० -- ६३ नुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । चार संस्थान और चार संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और देय इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International -- १२२. नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण. नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर श्रादि छह, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो तीन स्थान पतित स्थितिका बन्धक होता है, या तो असंख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है, या संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है या संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । १२३ तिर्यञ्चायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व. सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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