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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसएिणयासपरूवणा पज्जत्त० एदाओ तिषिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदृण बादरएइंदियपज्जत्त०-पत्तेग०-आदाउज्जो०-जसगि० एदाओ पंच पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण बादरएइंदियपज्जत्त-साधारण एदाओ दोपगदीओ ऍक्कदो बंधवाच्छेदो। तदो सागरो. उस्सरिदूण - सुहमेइंदियपज्जत्त-पत्तेय० एदाओ दोपगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो. उस्सरिदूण सुहुमेइंदियपज्जत्त-साधार०-पर-उस्सा०-थिर-सुभ० एदाओ छ-पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० उस्सरिदूण मणुसग०-मणुसाणु० अपज्जत्तसंजुत्ताओ दुवे पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवम० उस्सरिदूण पंचिंदियअपज्जत्त. बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम० उस्सरिदूण चदुरिदियअपज्जत्त० बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवम [उस्सरि०] तेइंदियअपज्जत्त० बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० उस्सरिदूण बेइंदियअपज्जत्त-ओरालि अंगो०-असंपत्त-तस० एदाओ चत्तारि पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० उस्सरिदूण बादरेइंदियअपज्जत्त० पत्तेयसंजुत्ताओ दो पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० उस्सरिदण बादरेइंदिय-अपज्जत्त० साधारणसंजुत्ताओ एदाओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० उस्सरिदूण सुहुमेइंदियअपज्जत्त० पत्तेग संजुत्ताओ एदाओ दोषिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । रण हो कर पर्याप्त संयुक्त द्वीन्द्रिय जाति, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वर इन तीन प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर पर्याप्त संयुक्त बादर एकेन्द्रिय जाति, प्रत्येक, आतप, उद्योत और यशःकीर्ति इन पाँच प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और साधारण इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और प्रत्येक इन दो प्रकृतियोंकीएक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौसागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त,साधारण, परघात, उच्छ्वास, स्थिर और शुभ इन छह प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन दो प्रकृतियों की एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त पञ्चेन्द्रिय जातिकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौसागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त चतुरिन्द्रिय जातिकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त श्रीन्द्रिय जातिकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर अपर्याप्त संयुक्त द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन और अस इन चार प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त और साधारण संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण होकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका उत्सरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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