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________________ उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १५ मेक्कस्स । तं तु० । तिरिक्खग० उक० हिदिबं० तेजा ० क० हु डसं ० - वरण ०४ गु० - उप० अथिरादिपंच० रिणमि० णि० बं० । अणु संखेंज्जभागू० । चदुजादि - वामणसंठा०-ओरालि ० अंगो० खीलियसंघ० - असंपत्त० -- प्रादाउज्जो ० थावरसुहुम पज्ज० - साधार० शियमा बं० । तं तु० । पंचिंदि० - हुडसं०-पर०उस्सा० - अप्पसत्थ०-तस०४ - दुस्सर सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० यि० अणु० संखँज्जदिभागूणं० । ओरालि० - तिरिक्खाणु० पियमा ० । तं तु । एवं ओरालि० - तिरिक्खाणु० । सेसं मूलोघं । वरि किंचि विसेसो अट्ठारसियाओ यादव्वा । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त - जोगिणी | ३०..पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज० पंचरणा० णवदंसणा - सादासादा० दीयायु०दोगोद० - पंचंत० श्रघं । मिच्छत्त उक्क० द्विदिबं० सोलसक० एवं स ० - अरदि-सोगभय-दुगुं ० यि० । तं तु० । एवमेदा रणमरणस्स । तं तु० । इत्थि० उक्क० द्विदिबं० मिच्छ० - सोलसक० - भयं दुगु ० लिय० बं० । लिय० तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून बाँधता है । चार जाति, वामन संस्थान, श्रदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, कीलक संहनन, सम्प्राप्तासृप टिका संहनन, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन प्रकृतियों को नियमसे बाँधता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है । पञ्चेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, परघात, उच्लास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क और दुःस्वर इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून बाँधता है । औदारिकशरीर और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका संख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। इसी प्रकार श्रदारिक शरीर और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आश्रय करके सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष सन्निकर्ष मूलोघके समान है । किन्तु कुछ विशेषता है कि अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्धवाली प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंके जानना चाहिए । ३०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु, दो गोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोध के समान है । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति शोक, भय और जुगुप्सा इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका संख्यातवां भाग न्यून तक बाँधता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । जो उत्कृष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है । किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक होता है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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