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________________ १६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अणु० संखेजदिभागणं० । हस्स-रदि-अरदि-सोग सिया बं० सिया अब । यदि बं० णिय० अणु० संखेजदिभागू० । एवं पुरिस० । हस्स० उक्क. हिदिबं० मिच्छ०-सोलसक०-णवुस-भय-दुगु णिय बं० । णि अणु० संखेज्जदिभागू०। रदि० णियः बं० । तं तु० । एवं रदीए ।। ३१. तिरिक्वगदि. उक्क हि बं० एइंदि०-ओरालि -तेजा-क०-हडसं०. वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच०-णिमि० णि बं० । णि तं तु । एवमेदाओ अण्णमएणस्स । तं तु ।। ३२. मणुसग० उक्क हिदिवं० पंचिंदि--ओरालि०-तेजा-क---हडसं०-- ओरालिअंगो०-असंपत्त-वएण०४-अगु०-उप० -तस-बादर-अपज्ज०-पत्ते-अथिरा-- दिपंच -णिमि० णिय० णिय. बं० । अणु संखेज्जदिभाग० । मणुसाणु० णिय० । तं तु० । एवं मणुसाणुः ।। बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्ध करता है। हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पुरुषवेदके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । हास्य प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट बन्धक भी होता है और अनुत्कृष्ट बन्धक भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिबन्धका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३१. तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अघुरुलघु, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो नियमसे एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। ३२. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यानुपूर्वीके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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