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महाबधे ट्ठिदिवंधाहियारे दोआयु०-दोगोद०-पंचंत० अोघं । तिरिक्वग० उक्क हिदि-बं० पंचिंदि०
ओरालि०-तेजा०-क-हुडसं०-ओरालि०अंगो-असंपत्त-वएण०४-तिरिक्खाणु०अगु०४-अप्पसत्थ-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि० णि० बं० । तं तु०। उज्जो. सिया बं० । तं तु० । एवमेदारी सव्वाश्रो एक्कक्केण सह । तं तु । सेसं अोघेण साधेदव्वं । एवं छसु पुढवीसु । सत्तणाए सो चेव भंगो। णवरि मणुसगदि-मणुसाणु०-उच्चा• तित्थयरभंगो । सेसानो तिरिक्खगदिसंजुत्तं कादव्वं ।
२६. तिरिक्वेसु पंचणा-गवदंसणा०-सादासा-मोहणीय छव्वीस०चदुअआयु:-दोगोद-पंचंत. अोघं । णिरयगदि उक्क हिदिवं० पंचिंदि०'. वेउव्विय-तेजा०-क-हुडसं०-वेउव्वि०अंगो०--वएण०४-णिरयाणु-अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि० णि. बं० । तं तु । एवमेदाओ ऍक्कओघके समान है। तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्रातासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चानुयूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करनेवाला होता है जो उत्कृष्ट भी बांधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समयन्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है । उद्योतको कदाचित् बाँधता है और कदाचित् नहीं बाँधता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यन तक बाँधता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर एक-एक प्रकृतिके साथ सन्निकर्ष होता है । ऐसी अवस्थामें इन प्रकृतियोंको उत्कृष्ट भी बांधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। शेष सन्निकर्ष ओघके समान साध लेना चाहिए । इसी प्रकार छह पृथिवियोंमें जानना चाहिए। सातवीं पृथिवीमें यही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग तीर्थंकर प्रकृतिके समान है। यहाँ शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष कहते समय तिर्यश्चगतिके साथ कहना चाहिए ।
२९. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, छब्बीस मोहनीय, चार आयु, दो गोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग अोधके समान है। नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, नरकगत्यानपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे वन्धक होता है । जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। इसी प्रकार परस्पर इन प्रकृतियोंका सन्निकर्ष होता है। जो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक बाँधता है। तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव
१. मूलप्रतौ पंचिदिपंचिंदि वेउ-इति पाठः ।
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