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________________ उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १३ तिभागू० । देवगदि- समचदु० - वज्ज रिसभ ०- देवाणु० - पसत्थ० - थिरादिपंच सिया वं० सिया बं० । यदि बं० तं तु ० | वीइं० तीइं ० - चदुरिं ० चदुसंठा ० चदुसंघ० सिया बं० सिया [अ०] । यदि बं० रिय० अणु संखेज्ज दिभागू० । २५. तित्थय० उक्क० द्विदिबंधं ० देवगदि-पंचिंदि ० वेउब्वि ० तेजा ० क ० समचदु०वेउव्वि० अंगो० - वरण०४ - देवाणु० - अगु० -४ - पलत्थ० --तस०४ - अथिर-- असुभ -सुभगआदें:- ० - अजस० - णिमि० लिय० । अणु संखेज्जदिगुणहीणं बं० । • २६. उच्चा० उक्क० हिदिबंधं० णीचा० अबंधगो | णीचागो० उक्क० हिदिबं० उच्चा० अधगो | २७. दाणंतरा० उक्क० द्विदिवं० चदुराणं अंतरा० लिय० । तं तु उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उकस्सादो अणुकस्सा समयुगमादि काढूण पलिदोवमस्स असंखेज्ज • भागू बंधदि । एवं अणोरणस्स । तं तु । २८. दसैंण रइएस पंचरणा० - रणवदंसणा ०-सादासा० - मोहरणीय० - छब्बीसअबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यूनका बन्धक होता है । देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि पाँच इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्टका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्टका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका वन्धक होता है । द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, चार संस्थान और चार संहनन इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे मुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । २५. तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, शुभ, सुभग, श्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । २६. उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव नीचगोत्रका प्रबन्धक होता है । नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव उच्चगोत्रका प्रबन्धक होता है । २७. दानान्तरायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार अन्तराय प्रकृतियों का नियम से बन्धक होता है । वह उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पाँचों अन्तरायोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । वह उत्कृष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है यदि अनुत्कृष्ट होता है तो उत्कृष्ट अनुत्कृट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक होता है । २८. आदेश से नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, सातावेदनीय, छब्बीस मोहनीय, दो आयु, दो गोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका भङ्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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