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________________ पदणिक्खेवे सामित्तं ४०१ सत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा० ओघं असादभंगो। इत्थिवे० चदुसंठाचदुसंघ० ओघं इत्थिभंगो । तित्थय० ओघं । एवं सव्वणिरयाणं । णवरि सत्तमाए मणुस०-मणुसाणु०उच्चा० तित्थयभंगो। ८४३. तिरिक्खेसु ओघेण साधेदव्वं । पंचिंदियतिरिक्खअपजत्त० पंचणा०-णवदंसणा०-सोलसक०-मिच्छ ०-भय- दुगुं०-ओरालि०-तेजा०क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०. पंचंत०जहण्णि० तिण्णि वि ओघभंगो। साद० पुरिस हस्स-रदि-मणुसगदि-पंचिंदि०. समचदु०-ओरालि० अंगो०-वजरिस-मणुसाणु०-पर०-उस्सा-०पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-उच्चा० ओघं आहारसरीरभंगो । असादा०-णवुस०-अरदि-सोग-तिरिक्खगदिएइंदि०-हुंडसं०-तिरिक्खाणु०-थावरादि०४-अथिरादिछ०-णीचा० ओघं असादभंगो । इत्थिवे०-तिण्णिजादि-चदुसंठा-चदुसंघ०-आदाउजो०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० ओघं इत्थिभंगो । एवं सव्वअपज्जत्तगाणं आणद याव उवरिमाणं देवाणं । हेट्ठाणं णिरयभंगो। ८४४. मणुस०३ तिरिक्खभंगो। एइंदिय-पंचकायाणं विगलिंदियाणं च अपजत्तभंगो। ओरालियका०-ओरालियमि० तिरिक्खोघं । वेउब्विय० वेउव्वियमि० देवोधं । णवरि मिस्से आणदभंगो। आहार-आहारमिस्स० णिरयभंगो। कम्मइग० अवट्ठाणं नीचगोत्रका भङ्ग ओघमें कहे गये असातावेदनीयके समान है। स्त्रीवेद, चार संस्थान और चार संहननका भङ्ग ओध के अनुसार कहे गये स्त्रीवेदके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भंग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान है। ८४३. तिर्यञ्चोंमें अोधके अनुसार साध लेना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य तीनों ही ओषके समान हैं । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पश्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वन्नषभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघमें कहे गये आहारक शरीरके समान है । असातावेदनीय, नपुंसकवंद, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्रका भङ्ग ओघमें कहे गये असातावेदनीयके समान है । स्त्रीवेद, तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति और दःस्वरका भङ्ग ओघमें कहे गये स्त्रीवेदके समान है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तकोंके तथा आनत कल्पसे लेकर उपरिम |वेयक तकके देवोंके जानना चाहिए। नीचेके देवोंके नारकियोंके समान भङ्ग है। ८४४. मनुष्यत्रिकमें तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग हैं। एकेन्द्रिय, पाँच स्थावरकायिक और विकलेन्द्रियोंमें अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग हैं। औदारिक काययोगी और औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें समान्य तिर्यञ्चों के समान भङ्ग हैं । वैक्रियक काययोगी और वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग हैं। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें आनत कल्पके समान भङ्ग हैं। आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें नारकियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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