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________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ४०० द्विदि० तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स ० १ समजुसरं तप्पा ओग्गज ० द्विदि० पुण्णाए द्विदिवं तप्पा ओग्गउक्क० विसोधिं गदो तप्पा ओग्गजह० द्विदि० तस्स जह० हाणी । एक्कदरत्थमवद्वाणं । आहार० - आहार • अंगो० - तित्थय० जह० वड्डी कस्स० १ यो समजुत्तरं तप्पा ओग्गउक्क० ट्ठिदी० पुण्णाए द्विदिबं० तप्पाओ० उकस्ससंकिले० तदो तप्पा० उ० द्विदि० तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स० ? यो समजुत्तरं सव्व जह० द्विदि० पुण्णाए द्विदिबंधगद्धाए उक्कस्सिया विसोधिं गदो तदो सव्व जह० बंधो तस्स जह० हाणी । एकदरत्थमवद्वाणं । एवं ओघभंगो पंचिंदिय-तस०२ - पंचमण०पंचवचि ० - कायजोगि - कोधादि ०४ - मदि ० - सुद० - असंज० चक्खुर्द ० - अचक्खुदं० - भवसि ०अब्भवसि ० - मिच्छा०-सण्णि-आहारग ति । ८४२. रइस पंचणा० - णवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक० -भय- दुगुं ० - पंचिंदि०ओरालि० - तेजा० क०. ओरालि ० अंगो० वण्ण०४ - अगु०४-तस०४ - णिमि० पंचंत० जह० वड्डी-हाणी-अवट्ठाणं ओघं णाणावरणीयभंगो | साद० - पुरिस० - हस्स-रदि मणुसग ०- समचदु०वजरिस०- मणुसाणु ० - पसत्थ० - थिरादिछ० उच्चा० जह० वड्डि-हाणि अवट्ठाणं ओघं । असादा० स ० - अरदि-सोग - तिरिक्खंग० - हुंड० - असंपत्त० - तिरिक्खाणु ० - उज्जो०० अप्प कालके पूर्ण हो जानेपर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो एक समय अधिक तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाला जीव स्थितिबन्ध कालके पूर्ण हो जानपर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमें से किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है । आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो एक समय अधिक तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीब स्थितिवन्ध कालके पूर्ण हो जानेपर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो एक समय अधिक सबसे अधिक जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाला जीब स्थितिबन्ध कालके पूर्ण हो जानेपर उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर जघन्य स्थितिबन्ध करता है, वह जवन्य हानिका स्वामी है. तथा इनमें से किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है । इसी प्रकार ओघ के समान पञ्चेन्द्रिय, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचतुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये । ८४२. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका स्वामी ओघ में कहे गये ज्ञानावरणीयके समान है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रपंभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त योगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका स्वामी ओधके समान है । असातावेदनीय, नपुंसकवेद, अरति, शांक, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असस्प्राप्तापादिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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