SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जहण्णसत्थाणबंध सपिणयासपरूवणा १५३ ३२२. आहार०-- आहार मिस्स • सव्वद्वभंगो गाम वज्ज । वरि देवगदि ज० डि०बं० पंचिंदि० -- वेउच्वि० - तेजा ० क० समचदु० - वेउव्वि ० अंगो० --वरण ०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ० - णिमि० णि० बं० । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० । ३२३. अथिर० ज० द्वि०बं० सुभ-- जसगित्ति - तित्थय० सिया० संखेज्जभागव्भ० । असुभ -- अजस० सिया० बं० । तं तु० । सेसं ०ि बं० संखेज्जभागग्भहियं । एवं असुभ श्रजस० । ३२४. कम्मइगका० ओरालियमस्तभंगो । एवरि तित्थय० ज०वि० बं० मणु ३२२. आहारक काययोगी और ग्राहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका भङ्ग सर्वार्थसिद्धि के समान है । किन्तु नामकर्मकी प्रकृतियोंको छोड़कर यह कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए | किन्तु ऐसी अवस्था में वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । ३२३. स्थिर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव शुभ, यशःकीर्ति और तीर्थकर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । अशुभ और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवां भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातव भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अशुभ और अयशःकीर्ति की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए | ३२४ कार्मण काययोगी जीवों में भङ्ग श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि तीर्थंकर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मनुष्य गतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy