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________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ४६. मणुसगदि० उक्त हिदिवं० पंचिंदि०-ओरालि-तेजा०-कम्मइय०-हुड०ओरालि०अंगो०-असंपत्तसेव०-वएण०४-मणुसाणु०-अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-- अथिरादिछ०-णि० णिय० बं० । णि तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० । ४७. समचदु० उक्क हिदिवं० मणुसगळ-पंचिंदिय-अोरालिय-तेजा०-क०ओरालि०अंगो०-वएण०४-मणुसाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि० णिय० संखेज्जदिभाग० । वज्जरिसभ०-पसत्थ०-थिरादिछ० सिया० । तं तु० । पंचसंघ-अथिरादिछ० सिया० संखेंज्जदिभागूणं । यात्रो तं तु समचदुरसंठाणेण ताओ समचदुर० सेसभंगाओ । सेसपगदीणं मणुसगदिसहगदाओ णिय० संखेज्जदिभाग०। यात्रो सियाओ बं० ताओ तं तु वा संखेज्जदिभागूणं वा बंधदि । तित्थयरं देवभंगो। ४६. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन. वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, गुरुलघचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति. असचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माणइन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होताहै। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता हैतो नियमसे उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए और तब उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है। ४७. समचतुरस्र संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रस चतुष्क और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। वज्रर्षम नाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, और स्थिर आदि छहका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। पांच संहनन और अस्थिर आदिछहका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। यहां पर जिन प्रकृतियोंका समचतुरस्र संस्थानके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है या एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उनका समचतुरस्र संस्थानके समान भङ्ग जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका मनुष्यगतिके साथ नियमसे संख्यातवां भाग न्यून अनु त्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। उसमें भी जिनका कदाचित् बन्ध होता है उनका या तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिबन्ध होता है यासंख्यातवांभाग न्यून स्थितिबन्ध होताहै। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग देवोंके समान है। 1. मूलप्रतौ-हिदिबं० पंचणा० श्रोरा इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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