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________________ २३ उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा सक०-णस०-अरदि-सोग-भय-दुगु० णिय० । तं तु. । एवमेदाओ एकमेक्कस्स । तं तु० । इत्थि० उक्त हिदिबं० मिच्छ०-सोलसक०-अरदि-सोग-भय-दुगु णिय. बं० । णि० अणु० संखेज्जदिभागू० । पुरिस० उक्क हिदिवं० मिच्छ०-सोलसक०भय-दुगु णिय० बं० । णिय० संखेज्जदिभाग० । हस्स०-रदि० सिया। तं तु० । अरदि-सोग० सिया० संखेज्जदिभागू० । हस्स' उक्क हिदिवं० मिच्छ०-सोलसक०भय-दुगुणिय बं० संखेज्जदिभाग। पुरिस० सिया० । तं तु० । इथि०-णवूस० सिया० संखेज्जदिभागू० । रदि० णिय० बं० । तं तु० । एवं रदीए वि० । उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग,न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष होता है और तब इनकी उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय,न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। हास्य और रतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अरति और शोकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। हास्य की उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट.एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टस्थितिका भीबन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । १. मूलप्रती हस्स-रदि उक्क० इति पाठः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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