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________________ उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा २५ e ४८. अदिस याव सव्वा ति पंचरणा० छदंसणा ० - सादासा०- बारसक ०सत्तणोक० - पंचंत० ओघं । मणुसगदि० उक्क० हिदिबं० पंचिंदि० ओरालि०-तेजा० क०समचदु० --ओरालि० अंगो० -- वज्जरिसभ० --वरण ०४ - मणुसाणु० - अगु०४-पसत्थ०तस०-४-अथिर-असुभ सुभग सुस्सर आदें - अजस० णिमि० णिय० । तं तु ० । तित्थय० सिया० । तं तु । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु । थिर० उक्क० डिदिबं० मणुसगदि ० यिमा संखेज्जदिभागू० । एवं धुविया सव्वा । सुभ-जस० सिया ० तं तु० । असुभ-अजस०-तित्थय० सिया० संखेज्जदिभागू० बं० । एवं सुभ-जसगित्ति० । ४६. सव्व एइंदि० - सव्वविगलिंदि० तिरिक्ख अपज्जत्तभंगो । वरि वीचारट्ठाखाणि पादव्वाणि भवंति । पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्ता० सव्वपगदीरणं श्रघं । ४८. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय और पाँच अन्तरायका भङ्ग श्रधके समान है | मनुष्यगतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, श्रदेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातव भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है । जो उत्कृष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट होता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका होता है । स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगतिका नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार सब ध्रुव प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । शुभ और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवां भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ, यशःकीर्ति और तीर्थङ्कर इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी अपेक्षा सन्निकर्ष कहना चाहिए । ४६. सब एकेन्द्रिय और सब विकलेन्द्रिय जीवोंका भङ्ग तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके वीचार स्थान ज्ञातव्य हैं । पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त १. मूलप्रतौ पंचिंदिय-तस अपज्जन्त्ता इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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