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________________ महाबंधे दिदिबंधाहियारे पंचिंदियअपज्जत्ता तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचकायाणं 'पज्जत्तापज्जत्ताणं तिरिक्वअपज्जत्तभंगो । णवरि एइंदिय-पंचकायाणं यम्हि संखेज्जदिभागहीणं तम्हि असंखेज्जदिभागहीणं बंधदि । तस-तसपज्जत्ता० अोघं । तसअपज्जत्ता० 'तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि० अोघं । ओरालिकायजोगि० मणुसभंगो। ५०. ओरालियमिस्से देवगदि० उक्क०टिदिबं० पंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०वएण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें -अजस०-णिमि० णिय० । अणु० णि० संखेज्जगुणहीणं०। वेउव्बि०-वेचि अंगो०-देवाणु०णियमा । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु० । एदारो पगदीओ तित्थयरेण सह ऍक्कमेक्कस्स तं तु० कादव्वा । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। ५१. वेउव्वियका० देवोघं । एवं चेव वेउव्वियमिस्स० । णवरि याओ तं तु. जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है। तथा पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है । पाँच स्थावर काय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में सन्निकर्षका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि सब एकेन्द्रिय और पाँचों स्थावर कायिक जीवोंके, जिनका संख्यातवां भाग हीन बन्ध कहा है,उनका असंख्यातवां भाग हीन बन्ध होता है। त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है । तथा त्रस अपर्याप्तकोंके तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। पाँचों मनोयोगी, पाँचों ववनयोगी और काययोगी जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। तथा औदारिक काययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यों के समान है। ५०. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंथान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयश:कीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होताहै तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अब. न्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इन प्रकृतियोंको तीर्थंकर प्रकृतिके साथ परस्पर उत्कृष्ट स्थितिके बन्धरूपसे और एक समय कम पल्यके असंख्यातवें भाग न्यून तक अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धरूपसे कहना चाहिए। शेष प्रकृतियों का भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। ५१. वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जो पर १. मलप्रतौ पजत्ता अपज्जत्ताणं इति पाठः। २. मूलप्रतौ तिरिक्खपज्जत्त इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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